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Friday, January 31, 2014

पेड़-7 / अशोक सिंह

इधर कविताओं में कम पड़ते जा रहे है पेड़
कम होती जा रही पेडों पर लिखी कविताएँ

पेडों को दु:ख है कि
उस कवि ने भी कभी अपनी कविताओं में
उसका जिक्र नहीं किया
जो हर रोज़ उसकी छाया में बैठ
लिखता रहा देश-दुनिया पर अपनी कविताएँ

पेडों को दु:ख है कि
उस हाथ ने काटे उसके हाथ
जिस हाथ ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए
और मारे उसने उसके सिर पर पत्थर
जिसको अक़्सर अपनी बाँहों में झूलाता
देता रहा अपनी मिठास

दु:खी हैं पेड़ कि
उस हाथ ने किए उसके हाथ ज़ख़्मी
जिसके ज़ख़्मी हाथों पर मरहम का लेप बन
सोखता रहा वह उसकी पीड़ा

पेड़ दुखी है कि
उनका दु:ख कहीं दर्ज नहीं होता
और न ही अख़बारों में आदमी की तरह
छपती हैं उसकी हत्या की खबरें !

दु:खी है पेड़ कि
सब दिन सबका दु;ख बाँटने के बावजूद
आज उसका दु:ख कोई नहीं बाँटता !

यहाँ तक कि उसकी छाया में बैठकर
वर्षों पंचायती करने वालों ने भी
कभी उनकी पंचायती नहीं की !

अशोक सिंह

मैं फ़तह-ए-ज़ात मंज़र तक न पहुँचा / अहमद शनास

मैं फ़तह-ए-ज़ात मंज़र तक न पहुँचा
मिरा तेशा मिरे सर तक न पहुँचा

उसे मेमार लिक्खा बस्तियों ने
कि जो पहले ही पत्थर तक न पहुँचा

तिजारत दिल की धड़कन गिन रही है
तअल्लुक़ लुत्फ़-ए-मंज़र तक न पहुँचा

शगुफ़्ता गाल तीखे ख़त का मौसम
दोबारा नख़्ल-ए-पैकर तक न पहुँचा

बहुत छोटा सफ़र था ज़िंदगी का
मैं अपने धर के अंदर तक न पहुँचा

ये कैसा प्यास का मौसम है ‘अहमद’
समुंदर दीदा-ए-तर तक न पहुँचा

अहमद शनास

किसान / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

मानापमान का नहीं ध्यान, बकते हैं उनको बदज़ुबान,
कारिन्दे कलि के कूचवान, दौड़ाते, देते दुख महान,
चुप रहते, सहते हैं किसान ।।
नजराने देते पेट काट, कारिन्दे लेते लहू चाट,
दरबार बीच कह चुके लाट, पर ठोंक-ठोंक अपना लिलाट,
रोते दुखड़ा अब भी किसान ।।
कितने ही बेढब सूदखोर, लेते हैं हड्डी तक चिंचोर,
है मन्त्रसिद्ध मानो अघोर, निर्दय, निर्गुण, निर्मम, कठोर,
है जिनके हाथों में किसान ।।
जब तक कट मरकर हो न ढेर, कच्चा-पक्का खा रहे सेर,
आ गया दिनों का वही फेर, बँट गया न इसमें लगी देर,
अब खाएँ किसे कहिए किसान ।।
कुछ माँग ले गए भाँड़, भाँट कुछ शहना लहना हो निपाट,
कुछ ज़िलेदार ने लिया डाट, हैं बन्द दयानिधि के कपाट,
किसके आगे रोएँ किसान ।।
है निपट निरक्षर बाल-भाव, चुप रहने का है बड़ा चाव,
पद-पद पर टकरा रही नाव, है कर्णधार ही का अभाव,
आशावश जीते हैं किसान ।।
अब गोधन की वहाँ कहाँ भीर, दो डाँगर हैं जर्जर शरीर,
घण्टों में पहुँचे खेत तीर, पद-पद पर होती कठिन पीर,
हैं बरद यही भिक्षुक किसान ।।
फिर भी सह-सहकर घोर ताप, दिन रात परिश्रम कर अमाप,
देते सब कुछ, देते न शाप, मुँह बाँधे रहते हाय आप,
दुखियारे हैं प्यारे किसान ।।
जितने हैं व्योहर ज़मींदार, उनके पेटों का नहीं पार,
भस्माग्नि रोग का है प्रचार, जो कुछ पाएँ, जाएँ डकार,
उनके चर्वण से हैं किसान ।।
इनकी सुध लेगा कौन हाय, ये ख़ुद भी तो हैं मौन हाय,
हों कहाँ राधिकारौन हाय ? क्यों बन्द किए हैं श्रोन हाय ?
गोपाल ! गुड़ गए हैं किसान ।।
उद्धार भरत-भू का विचार, जो फैलाते हैं सद्विचार,
उनसे मेरी इतनी पुकार, पहिले कृषकों को करें पार,
अब बीच धार में हैं किसान ।।

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

भिखारी / उत्पल बैनर्जी

वहाँ डबडबाती आँखों में
उम्मीद का बियाबान था
किसी विलुप्त होते धीरज की तरह
थरथरा रही थी कातर तरलता
दूर तक अव्यक्त पीड़ा का संसार
बदलते दृश्य-सा फैलता जा रहा था
गहरे अविश्वास और धूसर भरोसे में बुदबुदाते होंठ
पता नहीं प्रार्थना या कि अभिशाप में काँप रहे थे!
ऐश्वर्य को भेदती स्याह खोखल आँखों में
अभियोग के बुझते अंगार की राख उड़ रही थी
कि मानो हम ही इस दुनिया के ठेकेदार हैं
कि हमारी ही वजह से
पश्चिमों से घिर गया है उनका दिनमान
या कि हमीं ने उनकी क़िस्मत को बेवा बना रखा है!

मन ही मन पिण्ड छुड़ाने की तरकीब सोचते
क्षण-भर को अचकचा कर ठिठक गए थे हम
निथर आई करुणा और निर्मम तटस्थता की
दुविधा को सम्हालते हुए पैंतरा बदल चुके थे हम
कि यह अनवरत त्रासदी कहीं ख़त्म नहीं होने वाली
नियति के रक्तबीज भला कभी ख़त्म होते हैं!
एक त्वरित खिन्नता में
कुछ पिघलकर स्थगित हो गई थी सदाशयता!

दूर तक पीछा करती पुकार को अनसुना कर
बढ़ गए थे हम निःसंग रास्ते पर
व्याकुल लहरें तटबंध से टकरा कर
बिखर गई थीं, बिला गई थीं!!

उत्पल बैनर्जी

है मोल-भाव में बाज़ार मे है साथ मेरे / ख़ालिद कर्रार

है मोल-भाव में बाज़ार मे है साथ मेरे
वो एक कार-ए-फ़ना-ज़ार में है साथ मेरे

सलीब-ए-जाँ से विसाल आसमाँ के साहिल तक
हर एक लज़्ज़त-आज़ार में है साथ मेरे

कभी तो हीरो बनाता है और कभी जोकर
हर एक रंग के किरदार में है साथ मेरे

यही बहुत है मेरे जिस्म ओ जाँ का हिस्सा है
कहीं तो मौज-ए-ख़ूँ-बार में साथ मेरे

अजब गुमान है जैसे के सरफ़राज हूँ मैं
अजीब फ़ित्ना-ए-दस्तार में है साथ मेरे

कभी मुझे भी ज़रा मोजज़ा-नुमा करता
जो अपनी ज़ात के असरार में हैं साथ मेरे

वो दस्तरस में है लेकिन नज़र से ग़ाएब है
हरीफ़-ए-जाँ कोई पैकार में है साथ मेरे

मैं इक निगाह को महसूस कर रहा हूँ मुदाम
कोई तो रेग-ए-फ़ना-ज़ार में है साथ मेरे

वो सारे ख़ेमे लगाता है फिर उखाड़ता है
सराब-ए-मंज़िल-ओ-आसार में है साथ मेरे

जो छोड़ देता है दश्त-ए-ज़वाल में तनहा
वा रेल-पेल में बाज़ार में है साथ मेरे

ख़ालिद कर्रार

वो ख़्वाब तलब-गार-ए-तमाशा भी नहीं है / कबीर अजमल

वो ख़्वाब तलब-गार-ए-तमाशा भी नहीं है
कहते हैं किसी ने उसे देखा भी नहीं है

पहली सी वो खुशबू-ए-तमन्ना भी नहीं है
इस बार कोई खौफ हवा का भी नहीं है

उस चाँद की अँगड़ाई से रौशन हैं दर ओ बाम
जो पर्दा-ए-शब-रंग पे उभरा भी नहीं है

कहते हैं के उठने को है अब रस्म-ए-मोहब्बत
और इस के सिवा कोई तमाशा भी नहीं है

इस शहर की पहचान थीं वो फूल सी आँखें
अब यूँ है के उन आंखों का चर्चा भी नहीं है

क्यूँ बाम पे आवाज़ों का धम्मला है ‘अजमल’
इस घर पे तो आसेब का साया भी नही है

कबीर अजमल

नाम पर मज़हब के ठेकेदारियाँ इतनी कि बस / उदयप्रताप सिंह

नाम पर मज़हब के ठेकेदारियाँ इतनी कि बस।
सेक्युलर खेमे में हैं सरदारियाँ इतनी कि बस।

पीठ के पीछे छुपाए हैं कटोरा भीख का
और होठों से बयाँ खुद्दारियाँ इतनी कि बस।

पनघटों की रौनकें इतिहास में दाख़िल हुई
ख़ूबसूरत आज भी पनिहारियाँ इतनी कि बस।

जान जनता और जनार्दन दोनों की मुश्किल में है
इन सियासतदानों की अय्यारियाँ इतनी कि बस।

तन रंगा फिर मन रंगा फिर आत्मा तक रंग गई
आँखों-आँखों में चली पिचकारियाँ इतनी कि बस।

ऊपर-ऊपर प्यार की बातें दिखावे के लिए
अन्दर-अन्दर युद्ध की तैयारियाँ इतनी कि बस।

दो गुलाबी होठों के बाहर हँसी निकली ही थी
खिल गईं चारों तरफ़ फुलवारियाँ इतनी कि बस।

उदयप्रताप सिंह

वसंत / एकांत श्रीवास्तव

वसंत आ रहा है
जैसे माँण की सूखी छातियों में
आ रहा हो दूध

माघ की एक उदास दोपहरी में
गेंदे के फूल की हँसी-सा
वसंत आ रहा है

वसंत का आना
तुम्हारी आँखों में
धान की सुनहली उजास का
फैल जाना है

काँस के फूलों से भरे
हमारे सपनों के जंगल में
रंगीन चिड़ियों का लौट जाना है
वसंत का आना

वसंत हँसेगा
गाँव की हर खपरैल पर
लौकियों से लदी बेल की तरह
और गोबर से लीपे
हमारे घरों की महक बनकर उठेगा

वसंत यानी बरसों बाद मिले
एक प्यारे दोस्त की धौल
हमारी पीठ पर

वसंत यानी एक अदद दाना
हर पक्षी की चोंच में दबा
वे इसे ले जाएँगे
हमसे भी बहुत पहले
दुनिया के दूसरे कोने तक ।

एकान्त श्रीवास्तव

मसला ये तो नहीं की सिन-रसीदा कौन था / अशअर नजमी

मसला ये तो नहीं की सिन-रसीदा कौन था
हाँ मगर महफ़िल में तेरी बर-गुज़ीदा कौन था

फ़ैसला जिस का भी था तेरा नहीं मेरा सही
वक़्त-ए-रूख़्सत सर झुकाए आब-दीदा कौन था

एक क़तरे की तलब और था समंदर सामने
बज़्म-ए-याराँ में भला वो बद-अक़ीदा कौन था

तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू
फिर भला दोनेां में आख़िर ख़ुद-कशीदा कौन था

अशअर नजमी

बालू से चिनी जाएगी दीवार कहाँ तक / कांतिमोहन 'सोज़'

बालू से चिनी जाएगी दीवार कहाँ तक I
वीराने में खोजोगे समनज़ार कहां तक II

एक जिंस है एहसास भी दिल भी मनो-तू भी,
लिल्लाह बढ़ा आए है बाज़ार कहाँ तक I

ऐ जोशे-जुनूं तेरा भी कुछ क़र्ज़ है हम पर,
चुप रह के बनें तेरे गुनहगार कहाँ तक I

अब उनकी रिहाई पे न होगा कोई कुहराम,
ले आए हैं ज़िन्दां को गिरफ़्तार कहाँ तक I

सय्यारा पहुँच जाता है आवाज़ से पहले,
रास आएगी दुनिया को ये रफ़्तार कहाँ तक I

अब यार है कोई न कोई जान का दुश्मन,
टुक देख तो लाया है तेरा प्यार कहाँ तक I

हावी हुआ इस दर्जा उजाले पे अन्धेरा
अब सोज़ भी रहते हैं तरफ़दार कहाँ तक II

कांतिमोहन 'सोज़'

विपर्यय / अज्ञेय

जो राज करें उन्हें गुमान भी न हो
कि उनके अधिकार पर किसी को शक है,
और जिन्हें मुक्त जीना चाहिए
उन्हें अपनी कारा में इसकी ख़बर ही न हो
कि उनका यह हक़ है।

दिल्ली, 1 नवम्बर, 1954

अज्ञेय

तुम्हारे ग़म का मौसम है अभी तक / अनीस अंसारी

चोट लगी तो अपने अन्दर चुपके चुपके रो लेते हो
अच्छी बात है आसानी से जख्मों को तुम धो लेते हो

दिन भर कोशिश करते हो सबको गम का दरमाँ मिल जाये
नींद की गोली खाकर शब भर बेफ़िक्री में सो लेते हो

अपनों से मोहतात रहो, सब नाहक़ मुश्रिक समझेंगे
ज्यों ही अच्छी मूरत देखी पीछे पीछे हो लेते हो

ख़ुशएख्लाक़ी ठीक है लेकिन सेहत पे ध्यान ज़रूरी है
बैठे बैठे सब के दुख में अपनी जान भिगो लेते हो

क्यों ठोकर खाते फिरते हो अनदेखे से रस्तों पर
जख्मों के भरने से पहले पत्थर और चुभो लेते हो

'अंसारी जी' आस न रक्खो कोई तुम्हें पढ़ पायेगा
क्या यह कम है पलकों में तुम हर्फ़-ए-अश्क पिरो लेते हो

अनीस अंसारी

फ़िसादात / अर्श मलसियानी

ख़याबाँ-ओ-बाग़ो-चमन जल रहे थे
बयाबाँ-ओ-कोहो-दमन जल रहे थे

चले मौज दर मौज नफ़रत के धारे
बढ़े फ़ौज दर फ़ौज वहशत के मारे

न माँ की मुहब्बत ही महफ़ूज़ देखी
न बेटी की इस्मत ही महफ़ूज़ देखी

हुआ शोर हर सिम्त बेगानगी का
हुआ ज़ोर हर दिल में दीवानगी का

जुदाई का नारा लगाते रहे जो
जुदाई का जादू जगाते रहे जो

जो तक़सीम पर जानो-दिल से फ़िदा थे
वतन में जो रह कर वतन से जुदा थे

जो कहते थे अब मुल्क़ बट कर रहेगा
जो हिस्सा हमारा है कट कर रहेगा

जूनूने उठाए वह फ़ितने मुसलसल
कि सारा वतन बन गया एक मक़तल

अर्श मलसियानी

हाँ सुकन्या / कुमार रवींद्र

हाँ, सुकन्या!
यह नदी में बाढ़-सी तुम
कहाँ उमड़ी जा रही हो

उधर बड़का हाट -
उसमें तुम बिलाओगी
राजपथ पर
रोज़ ठोकर खाओगी

हाँ, सुकन्या!
वहाँ जा कर भूल जाओगी
गीत यह जो गा रही हो

अरी परबतिया!
यही पर्वत तुम्हारा है ठिकाना
यहीं से जन्मी
इसी में तुम समाना
हाँ, सुकन्या!
दूर के ढोल/सुन कर जिन्हें
तुम भरमा रही हो

इधर देखो
यही आश्रम है तुम्हारा
जिसे पूरखों ने
तपस्या से सँवारा
हाँ, सुकन्या!
सुख मिलेगा यहीं सारा
खोजती तुम जिसे अब तक आ रही हो

कुमार रवींद्र

उमर में डूब जाओ / अभिज्ञात

आज तुम संयम की तज पतवार को
मेरी बाँहों के भँवर में डूब जाओ!
मेरे आँगन से तुम्हारी ड्योढ़ी तक
अनगिनत हैं प्यास के डेरे लगे
इक सुबह से लेके आधी रात तक
रोज ही इस स्वप्न के फेरे लगे
मैं तुम्हारे नाम का चिन्तन करूँ
तुम मेरे हस्ताक्षर में डूब जाओ!

लोग कहते हैं कि कोई गुम हुआ
औ, किसी ने है, किसी को पा लिया
कोई अपनी खो चुका आवाज़ तो
कोई सारे गीत उसके गा लिया
ये खबर चाहे नई हो या पुरानी
इस खबर के हर असर में डूब जाओ!

मंज़िलों से कौन-सा रिश्ता मेरा
और तुम जाकर किनारे, क्या करोगी
हो अगर जो नेह का संबल कोई
दुनिया के लाखों सहारे क्या करोगी
मैं तेरा हर एक क्षण अपना बना लूँ
और तुम मेरी उमर में डूब जाओ!

अभिज्ञात

Thursday, January 30, 2014

लाल है परचम नीचे हँसिया / कांतिमोहन 'सोज़'

लाल है परचम नीचे हँसिया ऊपर सधा हथौड़ा है !
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !!

आधी दुनिया में उजियाली आधी में अँधियारा है
आधी में जगमग दीवाली आधी में दीवाला है,
जहाँ-जहाँ शोषण है बाक़ी वहाँ लड़ाई जारी है
पूरी दुनिया में झंडा फहराने की तैयारी है,
जिसने हमें ज़माने भर के मज़दूरों से जोड़ा है
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !
                       लाल है परचम !!

हमने अपने ख़ून में रंगकर ये परचम लहराया है
इसकी ही किरणों से छनकर लाल सवेरा आया है,
लाखों हिटलर, लाखों चर्चिल, लाखों निक्सन हार गए
सौ-सौ जेट लड़ाकू सारे एटम बम बेकार गए,
हिन्द चीन से हमलावर का नाम मिटाकर छोड़ा है
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !
                       लाल है परचम !!

दहकानों की मीत दराँती फ़सल काट कर घर लाए
मज़दूरों का यार हथौड़ा दुश्मन जिससे थर्राए,
जब इस झंडे के नीचे धरती के बेटे आते हैं
मज़दूरों के चौड़े सीने फ़ौलादी बन जाते हैं
क़दम मिला कर साथ चलें दुश्मन ने मैदां छोड़ा है
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !

लाल है परचम नीचे हँसिया ऊपर सधा हथौड़ा है !
इस झंडे की शान में साथी जान भी दें तो थोड़ा है !!

कांतिमोहन 'सोज़'

टिड्डियों सा दल बाँधे लौटेंगे वे / उज्जवला ज्योति तिग्गा

ज़िन्दगी भर रेंग घिसट कर
कीड़े-मकोड़ों-सा जीवन जिया
हर किसी के पैरों के तले
रौंदे जाने के बावजूद
हर बार तेज़ आँधियों में
सिर उठाने की हिमाकत की
और समय के तेज़ प्रवाह के ख़िलाफ़
स्थिर खड़े रहने की मूर्खता (जुर्रत) की
और जीवन की टेढ़ी मेढ़ी
उबड़ खाबड़ पगडंडियो पर
रखते रहे / राह में पड़े
कंकड़ और काँटो से घायल
अपने थके-हारे / लहुलुहान क़दम
और सतह पर बने रहने के संघर्ष में
बुरी तरह से घायल / क्षत-विक्षत
आत्मा के घाव रूपी हलाहल को
अमृ्त और आशीष मान
जीवन भर चुपचाप पिया
तो क्या व्यर्थ जीवन जिया
...
अन्धी गलियों के बंद मोड़ों पर
क्या व्यर्थ ही अपना सिर फ़ोड़ा
कि दीवारों में छुपे बन्द दरवाज़े
खुल जाएँ हरेक के लिए
न कि हो चन्द लोगों का कब्जा
उन चोर-दरवाज़ों के मकड़जाल पर
जिनका सर्वाधिकार सर्वथा सुरक्षित
उनकी आगामी अनगिन पीढ़ियों के लिए
और सेंधमारी में सिद्धहस्त
कायर चापलूसों और चाटुकारों का
लालची हुजूम
चोर-दरवाज़ों की फाँको और छेदों से
झलकते जगमग संसार की चमक से चौंधियाकर
अपने आकाओं के नक्शे-क़दमों पर चलते हुए
दूसरो को रौंदकर और कुचलते हुए
आगे बढ़ने में जिन लोगों को
कभी भी न रहा कोई गुरेज
और नहीं कोई भी परहेज
और अपने तथाकथित
आदर्श और संस्कारों के
ढकोसलों को
अपने हाथों की तलवार और
तीरों की नोक बना
छलनी करता रहा
आस-पास मंडराती भीड़ की
देह-प्राण आत्मा तक को
जिन्होंने भी की हिमाकत
चुनौती बनने की
उनके विश्वविजय के
संकल्प की धज्जियाँ उड़ाने की
...
बढ़ता रहा बेख़ौफ़ और बेरोकटोक
उनका हुजूम
विलासितापूर्ण समृद्धि के
जगमग राजपथ पर
गर्व से गर्दन अकड़ाए
अपनी तथाकथित
बमुश्किल मिली उपलब्धियों पर
किसी गैस भरे गुब्बारे सा फ़ूला हुआ
हवा के झौंको के साथ साथ
जहाँ-तहाँ उड़ते लहराते
...
टिड्डियों-सा दल बान्धे लौटेंगे वे
और तहस-नहस कर देंगे
समृद्धि के राजमार्ग की
हर चमक-दमक को
दीमक बन खोखला कर देंगे
चोर-दरवाज़ों के मकड़जाल के
बदौलत बनी हर इमारत की नींव
...
कीड़े मकोड़ों-सा
अब नहीं रौंदे जाएंगे वे
किसी भी ऐरे गैरों के बूट तले
रेंगना घिसटना छोड़
अब वे उड़ेंगे मुक्त आकाशों में
और दौड़ेंगे वे हिरण सदृश
जीवन की जंगली पगडंडियो पर
...
चोर-दरवाज़ों के मकड़जाल को
हर तरफ़ से काट-चीर कर
आंखे नोच लेंगे वे
बेनकाब कर उन पाखण्डी रहनुमाओं की
जिन्हें बलि देते रहे वे
अपने बहुमूल्य जीवन को कौड़ियों-सा

उज्जवला ज्योति तिग्गा

व्यक्तिगत / आशीष जोग


हम अनुभूति-सम्राट,
अभिव्यक्ति-शून्य, सांध्य-प्रहरी |

दिग्भ्रमित, गंतव्य-हीन,
चिर प्रतीक्षित नयन,
करते अरण्य-रोदन वन-केसरी |

हम अनुभूति-सम्राट,
अभिव्यक्ति-शून्य, सांध्य-प्रहरी |

प्रति निशा, बोझिल नयन,
बूढी निद्रा, जर्जर सपन,
फिर प्रभात, नव-प्रतीक्षा, आशा-निराशा,
स्व्दित अपराह्न में,
सहते उष्ण-धाराएँ, आतप सुनहरी |

हम अनुभूति-सम्राट,
अभिव्यक्ति-शून्य, सांध्य-प्रहरी |

शांति-कपोत, करबद्ध,
वाचाहीन, संज्ञा-शून्य,
नयनों में नील गगन विशाल अनंत,
और नीचे जल-सिक्त दूब हरी |

हम अनुभूति-सम्राट,
अभिव्यक्ति-शून्य, सांध्य-प्रहरी |

आशीष जोग

जाको धन, धरती हरी / गिरिधर

जाको धन, धरती हरी, ताहि न लीजै संग।
ओ संग राखै ही बनै, तो करि राखु अपंग॥

तो करि राखु अपंग, भीलि परतीति न कीजै।
सौ सौगन्दें खाय, चित्त में एक न दीजै॥

कह गिरिधर कविराय, कबहुँ विश्वास न वाको।
रिपु समान परिहरिय, हरी धन, धरती जाको॥

गिरिधर

चाँद, पानी और सीता / अरुण देव

स्त्रियाँ अर्घ्य दे रही हैं चन्द्रमा को

पृथ्वी ने चन्द्रमा को स्त्रियों के हाथों जल भेजा है
कि नर्म मुलायम रहे उसकी मिट्टी
कि उसके अमावस में भी पूर्णिमा का अंकुरण होता रहे

लोटे से धीरे-धीरे गिरते जल से होकर आ रहीं हैं चन्द्रमा की किरणें
जल छू रहा है उजाले को
उजाला जल से बाहर आकर कुछ और ही हो गया है
बीज भी तो धरती से खिलकर कुछ और हो जाता है

घुटनों तक जल में डूबी स्त्रियों को
धान रोपते हुए, भविष्य उगाते हुए सूर्य देखता है
देखता है चन्द्रमा
स्त्रियाँ सूरज को भी देती हैं जल, जल में बैठ कर
कि हर रात के बात वह लौटे अपने प्रकाश के साथ

धरती पर पौधे को पहला जल किसी स्त्री ने ही दिया होगा
तभी तो अभी भी हरी-भरी है पृथ्वी
स्त्रियाँ पृथ्वी हैं
रत्न की तरह नहीं निकली वें
न ही थी किसी मटके में जनक के लिए

अगर और लज्जित करोगे
लौट जाएँगी अपने घर

हे राम !
क्या करोगे तब…

अरुण देव

नहीं है अगर उन में बारिश हवा / ख़ालिद महमूद

नहीं है अगर उन में बारिश हवा
उठा बादलों की नुमाइश हवा

गहे बर्फ है गाह आतिश हवा
तुझे क्यूँ है दिल्ली से रंजिश हवा

मैं गुंजान शहरों का मारा हुआ
नवाज़िश नवाज़िश नवाज़िश हवा

तेरे साथ चलने की आदत नहीं
हमारी न कर आज़माइश हवा

शिकस्ता सफ़ीना मुसाफ़िर निढाल
तलातुम शब-ए-तार बारिश हवा

अब अश्क ओ तपिश चश्म ओ दिल में नहीं
थे यक-जा कभी आब ओ आतिश हवा

ख़ालिद महमूद

किसने बचाया मेरी आत्मा को / आलोक धन्वा

किसने बचाया मेरी आत्मा को
दो कौड़ी की मोमबत्तियों की रोशनी ने

दो-चार उबले हुए आलुओं ने बचाया

सूखे पत्तों की आग
और मिट्टी के बर्तनों ने बचाया
पुआल के बिस्तर ने और
पुआल के रंग के चाँद ने
नुक्कड़ नाटक के आवारा जैसे छोकरे
चिथड़े पहने
सच के गौरव जैसा कंठ-स्वर
कड़ा मुक़ाबला करते
मोड़-मोड़ पर
दंगाइयों को खदेड़ते
वीर बाँकें हिन्दुस्तानियों से सीखा रंगमंच
भीगे वस्त्र-सा विकल अभिनय

दादी के लिए रोटी पकाने का चिमटा लेकर
ईदगाह के मेले से लौट रहे नन्हे हामिद ने
और छह दिसम्बर के बाद
फ़रवरी आते-आते
जंगली बेर ने
इन सबने बचाया मेरी आत्मा को।

आलोक धन्वा

स्‍वप्‍न / उत्‍तमराव क्षीरसागर

बुद्धू !
चाँद कहीं फलता है क्‍या ?
हाँ, एक आसमानी पेड़ था धरती पर
ऊपर सबसे ऊपर की शाख पर
अटका था चाँद
और शाखों-टहनियों पर छिटके थे तारे
सच ! सबकुछ झिलमिला रहा था
पूरी धरती - पूरा आसमान

कोई चिड़िया नहीं थी क्‍या ?
बुद्धू !
चिड़िया सब सो रही थीं
घोसलों के किवाड बंद थे
कहीं कोई आवाज़ नहीं
बहुत सन्‍नाटा एकदम शांत सब
चिड़िया साँस भी ले रही थीं या नहीं
कुछ मालूम नहीं ?

दूर-दूर तक फैले इस सन्‍नाटे में
सुनाई पडती है एक पुकार
तभी टूटकर गिर जाता है चाँद धरती पर
और गु़म होता जाता है कहीं
छिटककर तारे चले जाते हैं न जाने कहाँ ?
नगाडे की आवाज़-सी
टूट पडती है रोशनी

उत्‍तमराव क्षीरसागर

स्वार्थ का सुख और है, सेवा का सागर और है / गिरिराज शरण अग्रवाल

स्वार्थ का सुख और है, सेवा का सागर और है
आदमी के नाम का इक क़र्ज़ हम पर और है

अपने आँगन में दिया रखने से पहले ध्यान दो
बीच की दीवार के उस पार इक घर और है

कटने ही वाला है पर्वत राह का, थककर न बैठ
एक पत्थर और है, बस एक पत्थर और है

हौसले के साथ जीवन जी, मगर दोहरा न जी
घर के अंदर और है तू, घर के बाहर और है

कोई भी सागर हो, है तैराक की बाहों से कम
क्या हुआ गर रास्ते में इक समंदर और है

गिरिराज शरण अग्रवाल

पेट / उदयन वाजपेयी

माँ का पेट ढीला पड़ गया है मानो वहाँ समुद्र की कोई लहर आकर बैठ गयी हो। मैं दूर तक फैली इस लहर में गोते लगाता हूँ, भीगता हूँ और माँ को अपनी ओर मुस्कराते देखता हूँ। नानी को यह पसन्द नहीं है। वह बार-बार मुझे किनारे पर बुलाती है। इस सब से बेखबर नाना हर शाम मुझे पार्क ले जाते हैं। मैं घनी झाड़ियों में छिपकर नाना के चेहरे पर उम्र की गहराती छाया देखता हूँ।

पिता की विदाई के बाद समुद्र की लहर समुद्र लौट जाती है। माँ की गोद में फैली बालू में मेरे पैरों के निषान भरना शुरू हो जाते हैं।

उदयन वाजपेयी

प्रभु मेरी दिव्यता में / अनीता वर्मा

प्रभु मेरी दिव्यता में
सुबह-सबेरे ठंड में कांपते
रिक्शेवाले की फटी कमीज़ ख़लल डालती है

मुझे दुख होता है यह लिखते हुए
क्योंकि यह कहीं से नहीं हो सकती कविता
उसकी कमीज़ मेरी नींद में सिहरती है
बन जाती है टेबल साफ़ करने का कपड़ा
या घर का पोछा
मैं तब उस महंगी शॉल के बारे में सोचती हूं
जो मैं उसे नहीं दे पाई

प्रभु मुझे मुक्त करो
एक प्रसन्न संसार के लिए
उस ग्लानि से कि मैं महंगी शॉल ओढ़ सकूं
और मेरी नींद रिक्शे पर पड़ी रहे.

अनीता वर्मा

इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया / अंजुम सलीमी

इस से आगे तो बस ला-मकाँ रह गया
ये सफ़र भी मेरा राएगाँ रह गया

हो गए अपने जिस्मों से भी बे-नियाज़
और फिर भी कोई दरमियाँ रह गया

राख पोरों से झड़ती गई उम्र की
साँस की नालियों में धुआँ रह गया

अब तो रस्ता बताने पे मामूर हूँ
बे-हदफ़ तीर था बे-कमाँ रह गया

जब पलट ही चले हो ऐ दीदा-ए-वरो
मुझ को भी देखना मैं कहाँ रह गया

मिट गया हूँ किसी और की क़ब्र में
मेरा कतबा कहीं बे-निशाँ रह गया

अंजुम सलीमी

दिलों की ओर धुआँ सा दिखाई देता है / अहमद मुश्ताक़

दिलों की ओर धुआँ सा दिखाई देता है
ये शहर तो मुझे जलता दिखाई देता है

जहाँ के दाग़ है याँ आगे दर्द रहता था
मगर ये दाग़ भी जाता दिखाई देता है

पुकारती हैं भरे शहर की गुज़र-गाहें
वो रोज़ शाम को तन्हा दिखाई देता है

ये लोग टूटी हुई कश्तियों में सोते हैं
मेरे मकान से दरिया दिखाई देता है

ख़िज़ाँ के ज़र्द दिनों की सियाह रातों में
किसी का फूल सा चेहरा दिखाई देता है

कहीं मिले वो सर-ए-राह तो लिपट जाएँ
बस अब तो एक ही रस्ता दिखाई देता है

अहमद मुश्ताक़

रफ़्ता रफ़्ता मंज़र-ए-शब ताब भी आ जाएँ / ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

रफ़्ता रफ़्ता मंज़र-ए-शब ताब भी आ जाएँगे
नींद तो आ जाए पहले ख़्वाब भी आ जाएँगे

क्या पता था ख़ून के आँसू रूला देंगे मुझे
इस कहानी में कुछ ऐसे बाब भी आ जाएँगे

ख़ुश्‍क आँखों ने तो शायद ये कभी सोचा न था
एक दिन सहराओं में सैलाब भी आ जाएँगें

हौसले यूँ ही अगर बढ़ते गए तो देखना
साहिलों तक एक दिन गिर्दाब भी आ जाएँगे

बस ज़रा मिलने तो दो मेरी तबाही की ख़बर
दिल दुखाने के लिए अहबाब भी आ जाएँगे

आप की बज़्म-ए-मोहज़्ज़ब में नया हूँ ‘शाद’ मैं
आते आते बज़्म के आदाब भी आ जाएँगे

ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

यह पलाश के फूलने का समय है-1 / अनुज लुगुन

जंगल में कोयल कूक रही है
जाम की डालियों पर
पपीहे छुआ-हुई खेल रहे हैं
गिलहरियों की धमा-चौकड़ी
पंडुओं की नींद तोड़ रही है
यह पलाश के फूलने का समय है ।

यह पलाश के फूलने का समय है
उनके जूडे़ में खोंसी हुई है
सखुए की टहनी
कानों में सरहुल की बाली
अखाडे़ में इतराती हुई वे
किसी भी जवान मर्द से कह सकती हैं
अपने लिए एक दोना
हड़ियाँ का रस बचाए रखने के लिए
यह पलाश के फूलने का समय है ।

यह पलाश के फूलने का समय है
उछलती हुईं वे
गोबर लीप रही हैं
उनका मन सिर पर ढोए
चुएँ के पानी की तरह छलक रहा है
सरना में पूजा के लिए
साखू के पेड़ों पर वे बाँस के तिनके नचा रही हैं
यह पलाश के फूलने क समय है ।

अनुज लुगुन

मैं खड़ा बीच मझधार किनारे क्या कर लेंगे / अमित

मैं खड़ा बीच मझधार किनारे क्या कर लेंगे
मैने छोड़ी पतवार सहारे क्या कर लेंगे

तुम क़िस्मत-क़िस्मत करो जियो याचक बन कर
मैं चला क्षितिज के पार सितारे क्या कर लेंगे

तुम दिखलाते हो राह मुझे मंजिल की,
मैं आँखों से लाचार इशारे क्या कर लेंगे

हम ने जो कुछ भी कहा वही कर बैठे
जो सोचें सौ-सौ बार बेचारे क्या कर लेंगे

ना समझ कहोगे तुम मुझको मालूम है
ये फ़तवे हैं बेकार तुम्हारे क्या कर लेंगे

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

दीमक / इला प्रसाद

वक्त का दीमक
मेरे अक्षरों को चाट जाए
इससे पहले ही
दिखला देनी होगी इन्हें
दोपहर की धूप।

सीख लें ये भी,
आँच में तपना।
वक्त की कसौटी पर चढ़कर,
खरा उतरना।
धूप में चमकना।
किसी के हिस्से का सूरज बन कर,
राह में,
रोशनी-सा बरसना।

वक्त का दीमक
मेरे अक्षरों को लगे
इससे पहले ही
मैं दिखला लाऊँगी इन्हें
सुबह की धूप।

इला प्रसाद

मंज़िलें दूर हैं पैर मजबूर हैं / कांतिमोहन 'सोज़'

मंज़िलें दूर हैं पैर मजबूर हैं
साँस उखड़ी हुई दिल में नासूर हैं
फिर भी ज़िन्दा हैं हम उस जहाँ के लिए
उस घड़ी के लिए उस समाँ के लिए ।

कोई भूखा न हो कोई नंगा न हो
बे-दवा बे-कफ़न कोई मरता न हो
बाज़ कोई न हो फ़ाख़्ता के लिए
हम हैं गर्मे -सफ़र उस जहाँ के लिए ।

खून-सा लाल है उसका इक़बाल है
आज तलवार है कल वही ढाल है
सर कटा देंगे हम उस निशाँ के लिए
तायरे-अम्न के आशियाँ के लिए ।

बढ़ रहे क़ाफिले घट रहे फ़ासले
दिल को छोटा न कर हाथ में हाथ ले
ख़ार झेलें नए गुलसिताँ के लिए
अपने ख़्वाबों के हिंदोस्ताँ के लिए ।।

रचनाकाल : अक्तूबर 1979

कांतिमोहन 'सोज़'

Wednesday, January 29, 2014

बच्चा सच्ची बात लिखेगा / कुमार विनोद

बच्चा सच्ची बात लिखेगा
जीवन है सौगात, लिखेगा

जब वो अपनी पर आएगा
मरुथल मे बरसात लिखेगा

उसकी आंखों मे जुगनू हैं
सारी-सारी रात लिखेगा

नन्हें हाथों को लिखने दो
बदलेंगे हालात, लिखेगा

उसके सहने की सीमा है
मत भूलो, प्रतिघात लिखेगा

बिना प्यार की खुशबू वाली
रोटी को खैरात लिखेगा

जा उसके सीने से लग जा
वो तेरे जज्बात लिखेगा

कुमार विनोद

कालानमक / गणेश पाण्डेय

दादा के हैं ये खेत
दादा कहते थे
उनके दादा के हैं
जाने कितने परदादाओं के हैं
ये खेत
गाँव के सबसे अच्छे
जड़हनिया खेत
बरस जाए ज़रा-सा पानी
तो लग जाता है काम भर का
और
समय से मिल जाए पानी
तो झूम उठती हैं
छाती से भी ऊँची-ऊँची
काले धान की बालियाँ
जिसे देख फूल जाती है
दादा के नाती-पोतों की छातियाँ
स्वस्थ बालियों के भीतर
देख-देखकर
कालानमक चावल के
सफेद हँसमुख दाने
खिलखिला उठते हैं
उनके दाँत

दादा के परदादा कहते थे
शुद्धोदन काका के भात से
अधिक गमकता था
हमारे चूल्हे का भात
हमारा कालानमक चावल
काका के बेटे के
मशहूर होने से पहले
दूर-दूर तक जाना जाता था
जाना तो अब भी जाता है
लेकिन
उसकी ख़ुशबू को
किसी की नज़र लग गई है
उपज घट गई है
काले नमक की डली से
अधिक मोहक
और गुड़ से अधिक मीठे
दादाओं के दुलारे
कालानमक धान की ऐसी अनदेखी
कपिलवस्तु में
इससे पहले कभी न हुई थी
इसी के भात ने उपजाया था
सिद्धार्थ में वेदना का विवेक
इसी ने किया था
यशोधरा को मुग्ध
राहुल को इसी से मिला था
बल
इसी ने बनाया था मुझे कवि
मृत्युशैया पर लेटे
इस जीवनदाता को
प्रणाम ।

गणेश पाण्डेय

झुके हुए दरख्तों के पार / इला कुमार

झुके हुए दरख़्तों के पार झाँकती है एक किरण
बुझी-सी अनमनी-सी
पुरते सपनों के हर रंग को
डुबो-डुबो जाता है गाढ़ा अंधेरा

अनिश्चित को चाहते हुए असमंजस की दीवारों से घिर जाती हूँ
तो
पर्त-सी खुलती है
कि
चांद तो दूर कहीं दूर
आंधियों के पार घिर, जा चुका

रेतीले चक्रवातों के बीच
डगमगाती खड़ी हूँ
किसी नए क्षितिज कि तलाश में

इला कुमार

जाने क्या दुश्मनी है शाम के साथ / 'अना' क़ासमी

जाने क्या दुश्मनी है शाम के साथ
दिल भी टूटा पड़ा है जाम के साथ

लफ़्ज़ होने लगे हैं सफबस्ता[1]
कौन उलझा ख़्याले-ख़ाम[2]के साथ

काम की बात बस नहीं होती
रोज़ मिलते हैं एहतमाम के साथ

कितना टूटा हुआ हूं अन्दर से
फिर कमर झुक गयी सलाम के साथ

बज़्म[3]आगे बढ़े ये नामुमकिन
मुक्तदी[4]उठ गये इमाम[5] के साथ

इन्क़लाब अब नहीं है थमने का
शाहज़ादे भी हैं गुलाम के साथ

बेतकल्लुफ़ बहस हों मकतब[6]में
इल्म घटता है एहतराम के साथ

'अना' क़ासमी

क़सम इन आँखों की जिन से लहू टपकता है / अख़्तर अंसारी

क़सम इन आँखों की जिन से लहू टपकता है
मेरे जिगर में इक आतिश-कदा दहकता है

गुज़िश्ता काहिश ओ अंदोह के ख़याल ठहर
मेरे दिमाग़ में शोला सा इक भड़कता है

किसी के ऐश-ए-तमन्ना की दास्ताँ न कहो
कलेजा मेरी तमन्नाओं का धड़कता है

इलाज-ए-‘अख़्तर’-ए-ना-काम क्यूँ नहीं मुमकिन
अगर वो जी नहीं सकता तो मर तो सकता है.

अख़्तर अंसारी

ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल / ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
ये सख़्त-राह भी अब इख़्तियार करता चल

सफ़र की रात है हर गाम एहतियात बरत
पलट पलट के अंधेरों पे वार करता चल

लिए जा काम तू अपनी फ़िराख़-दस्ती से
क़दम क़दम पे मुझे ज़ेर-ए-बार करता चल

इधर उधर जो खड़े हो गए हैं तेरे लिए
उन्हें भी अपने सफ़र में शुमार करता चल

किसी ठिकाने पे तुझ को अगर पहुँचना है
तो नक़्श-ए-पा को मिरे ए‘तिबार करता चल

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

फूला है / कैलाश गौतम

फूला है गलियारे का
कचनार पिया
तुम हो जैसे
सात समन्दर पार पिया |

हरे- भरे रंगों का मौसम
भूल गये
खुले -खुले अंगों का मौसम
भूल गये
भूल गये क्या
फागुन के दिन चार पिया |

जलते जंगल कि हिरनी
प्यास हमारी
ओझल झरने की कलकल
याद तुम्हारी
कहाँ लगी है आग
कहाँ है धार पिया |

दुनियां
भूली है अबीर में
रोली में
हरे पेड़ की
खैर नहीं है
होली में
सहन नहीं होती
शब्दों की मार पिया |

कैलाश गौतम

बहुरि नहिं / कबीर

बहुरि नहिं आवना या देस॥ टेक॥

जो जो ग बहुरि नहि आ पठवत नाहिं सँस॥ १॥
सुर नर मुनि अरु पीर औलिया देवी देव गनेस॥ २॥
धरि धरि जनम सबै भरमे हैं ब्रह्मा विष्णु महेस॥ ३॥
जोगी जंगम औ संन्यासी दिगंबर दरवेस॥ ४॥
चुंडित मुंडित पंडित लो सरग रसातल सेस॥ ५॥
ज्ञानी गुनी चतुर अरु कविता राजा रंक नरेस॥ ६॥
को राम को रहिम बखानै को कहै आदेस॥ ७॥
नाना भेष बनाय सबै मिलि ढूंढि फिरें चहुँदेस॥ ८॥
कहै कबीर अंत ना पैहो बिन सतगुरु उपदेश॥ ९॥

कबीर

ताबे-दीदार जो लाये मुझे वो दिल देना / आसी ग़ाज़ीपुरी

ताबे-दीदार जो लाये मुझे वो दिल देना।
मुँह क़यामत में दिखा सकने के क़ाबिल देना॥

रश्के-खुरशीद-जहाँ-ताब दिया दिल मुझ को।
कोई दिलबर भी इसी दिल के मुक़ाबिल देना॥

अस्ल फ़ित्ना है, क़यामत में बहारे-फ़रदौस।
जुज़ तेरे कुछ भी न चाहे मुझे वो दिल देना॥

तेरे दीवाने का बेहाल ही रहना अच्छा।
हाल देना हो अगर रहम के क़ाबिल देना॥

हाय-रे-हाय तेरी उक़्दाकुशाई के मज़े।
तू ही खोले जिसे वो उक़्दये-मुश्किल देना॥

आसी ग़ाज़ीपुरी

कुहरे की दीवार खड़ी है / कात्यायनी

कुहरे की दीवार खड़ी है!
इसके पीछे जीवन कुड़कुड़
किए जा रहा मुर्गी जैसा ।

तगड़ी-सी इक बांग लगाओ,
जाड़ा दूर भगाओ,
जगत जगाओ ।

साँसों से ही गर्मी फूँको,
किरणों को साहस दो थोड़ा
कुहरे की दीवार हटाओ ।

रचनाकाल : जनवरी-अप्रैल, 2003

कात्यायनी

गाने का अभ्यास / कुमार अनुपम

यहाँ राग-विशेष के समय की गम्भीरता है जिसके अटूट सौंदर्य से पहली पहली छेड़खानी का साहस सुर में जुट रहा है निश्शब्द के शोर के दबाव में स्वर महीन और महीन और महीन हो रहा जैसे धागे का सिरा जिसे चुप्पी की सूई में पिरो जाना है जिस तरह होना है उस तरह होने से पहले की राह है जहाँ एक उम्मीद आशंका की तरह बैठी रहती है जिसकी तलाश में एक गीत आता रहता है असहायता के गलियारे में अभ्यास का समय क्या स्लेट की चिकनी चट्टान है जिस पर चढ़ना है यहाँ हवा हवा में शामिल तमाम चीज़ें आवाज़ की सतह को धमकाती हैं बार-बार एक सृजनात्मक लय में लीन गीत नहीं काँपता आवाज़ की सतह पर गीत का चेहरा काँपता है यहीं से देखने पर दिख जाता है गीत का बिम्ब जिसे होते-होते सरासर गीत होना है

कुमार अनुपम

विवश / उदय भान मिश्र

कविता का
कोई समय
नहीं होता
जैसे मन
या
नींद का!

धूप की
धुंधली दोस्ती
काम नहीं आती
अगर अंधेरा
अमावस का हो
और गुजरना
किसी जंगल से हो
दोस्तों की
पुरानी पहचान
जेब में पड़ी
सिकुड़ी रूमाल की तरह
पसीना पोंछने के
काम
तो आ सकती है।
मगर छतरी का
काम नहीं कर सकती
अजनबी शबर की
ठसा-ठस भरी
बस में
खड़े-खड़े सफर
करने की लाचारी
में
कोई बदलाव
नहीं कर सकती।

उदय भान मिश्र

आँसू / अशोक अंजुम

पीड़ा का अनुवाद हैं आँसू
एक मौन संवाद हैं आँसू

दर्द, दर्द बस दर्द ही नहीं
कभी-कभी आह्लाद हैं आँसू

जबसे प्रेम धरा पर आया
तब से ही आबाद हैं आँसू

अब तक दिल में है हलचल-सी
मुझको उनके याद हैं आँसू

कभी परिंदे कटे-परों के
और कभी सैयाद हैं आँसू

इनकी भाषा पढ़ना 'अंजुम'
मुफ़लिस की फ़रियाद हैं आँसू

अशोक अंजुम

सन्नाटोँ मेँ स्त्री / ओम पुरोहित ‘कागद’


दिन भर
आंखोँ से औझल रही
मासूम स्त्री को
रात के सन्नाटोँ मेँ
... क्योँ करते हैँ याद
ऐ दम्भी पुरुष !

दिन मेँ
खेलते हो
अपनी ताकत से खेल
सूरज को भी
धरती पर उतारने के
देखते हो सपने
ऐसे वक्त
याद भी नहीँ रखते
कौन हैँ पराये
कौन है अपने !

सांझ ढलते ही
क्यो सताती है
तुम्हेँ याद स्त्री की
भयावह रातोँ का
सामने करने को
साहस तुम्हारा
कहां चला जाता है ?
गौर से देखो
तुम्हारे भीतर भी है
एक स्त्री
जो डरती है तुम से
वही चाहती है साथ
सन्नाटोँ मेँ अपनी सखी का !

ओम पुरोहित ‘कागद’

चिडिय़ाघर में ज़ेबरा की मौत / अनुज लुगुन

चिडिय़ाघर में ज़ेबरे की मौत पर
रोने के लिए कोई और नहीं था
सिवाय उसके एक और साथी जेब्रा के
जिसे रखा गया था उसके साथ
केवल प्रजनन के उद्देश्य से,

वह डर कर दुबका हुआ था एक कोने में
भयानक अकेलेपन और अजनबीपन में
उसकी आँखें देख रही थी फ्लैश-बैक में वह दृश्य
जब वह झुण्ड के झुण्ड अपने दल के साथ
दिन भर चौकड़ी भरा करता था
जहाँ चरने के लिए खुला मैदान था
प्यास मिटाने के लिए उन्मुक्त नदी थी
और एक जंगल था आत्मिक विश्रान्ति के लिए,

अब कुछ भी नहीं रह गया
उनके हिस्से के लिए
उनका हिस्सा भी नहीं रहा
वह जो कभी उनका पूरा होता था
अगर यह सब होता तो शायद
यह न होता जो आज हुआ
अगर होता भी समय के चक्र में
तो ऐसा न होता जो आज हुआ
आज होता सामूहिक शोक
सारा गाँव आख़िरी बार फिर उसके साथ होता
उसके सम्मान में होता एक आख़िरी गीत
कोई उसकी ज़िद से उसे अन्तिम बार पहचानता
कोई उसकी नृत्य शैली से
कोई कहता करमा नाचने में उसका कोई जोड़ नहीं था
तो कोई उसे उसके पुरखों के इतिहास से पहचानता,
यहाँ जुटी भीड़ उसे नहीं पहचानती है
और न ही वह उसके साथी के लिए
शोकगीत में शामिल होगी
यह भीड़ केवल तब तक बेचैन है
जब तक कि वह उसकी तस्वीर न ले ले

मेरा दु:ख ज़ेबरे की मौत से है
और डर चिडिय़ाघर से
चिडिय़ाघर की जमीन फैल रही है और दीवार ऊँची
पिंजरों की संख्या बढ़ाई जा रही है
और वहाँ जंगल में
आदिम जनसंख्या उसके लिए तैयार की जा रही है
म्यूजियम में उसकी खाल, हड्डियाँ
वाद्य यन्त्र, भाषा और उसके गीत सुरक्षित किए जा रहे हैं

चिडिय़ाघर में ज़ेबरे की मौत
केवल ज़ेबरे की मौत नहीं,
हमारी सम्भावित आगामी मौत है ।

अनुज लुगुन

अकुशल / कुमार अंबुज

बटमारी, प्रेम और आजीविका के रास्तों से भी गुज़रना होता है
और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती
अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ
जहाँ पैर काँपते हैं और चला नहीं जाता
चलना पड़ता है उन रास्तों पर भी
जो कहते है: हमने यह रास्ता कौशल से चुना
वे याद कर सकते हैं: उन्हें इस राह पर धकेला गया था
जीवन रीतता जाता है और भरी हुई बोतल का
ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता
अकसर द्रव छलकता है कमीज़ और पेंट की सन्धि पर गिरता हुआ
छोटी सी बात है लेकिन
गिलास से पानी पिए लम्बा वक़्त गुज़र जाता है
हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी एक कुशलता है
जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं
कि विशेषज्ञ होना नए सिरे से नौसिखिया होना है
कुशलता की हद है कि फिर एक दिन एक फूल को
क्रेन से उठाया जाता है ।

कुमार अंबुज

आदमी में / ओम पुरोहित ‘कागद’

आदमी जब इकट्ठे होते हैं
आदमी से घात करते हैं
बिजली के
तारों पर बैठी
चिड़िया ने चिड़िया से
बातें की

आदमजात में ही हुए हैं-
ढोला और मरवण…
उनकी बातें तो छोड़िए
अब तो
आदमी में ही
आदमी
कब होता है
लेकिन …?


अनुवाद : नीरज दइया

ओम पुरोहित ‘कागद’

Tuesday, January 28, 2014

सोच रहा है दिन / अश्वघोष

आँखों पर ओढ़ कर नींद
सो रही है रात, दिन के इन्तज़ार मे

सोच रहा है दिन
अगर नहीं पहुँचा वक़्त से
बेहोश रहेगी आरती और अज़ान
रह रहकर धड़कता रहेगा मुर्गे का दिल
कोलाहल को तरसेगा वक़्त

सोच रहा है दिन
अलावों में घूमती रहेगी आग
चूल्हे बदलते रहेंगे करवटें
ताने देती रहेगी चाय

सोच रहा है दिन
दुकानों के जिस्म में कुलबुलाती रहेंगी चीज़ें
पैरों को तरसती रहेंगी सड़कें
लैम्पपोस्ट में पथरा जाएगीँ
रोशनी की आँखें

रोशनी का ख़्याल आते ही
भाग लिया दिन
रात की आँखों में पिघलने लगी नींद
बर्फ़ की तरह।

अश्वघोष

ये जो सूरज है ये सूरज भी कहाँ था पहले / अफ़ज़ल गौहर राव

ये जो सूरज है ये सूरज भी कहाँ था पहले
बर्फ़ से उठता हुआ एक धुआँ था पहले

मुझ से आबाद हुई है तिरी दुनिया वर्ना
इस ख़राबे में कोई और कहाँ था पहले

एक ही दाएरे में क़ैद हैं हम लोग यहाँ
अब जहाँ तुम हो कोई और वहाँ था पहले

उस को हम जैसे कई मिल गए मजनूँ वर्ना
इश्क़ लोगों के लिए कार-ए-ज़ियाँ था पहले

ये जो अब रेत नज़र आता है अफ़ज़ल ‘गौहर’
इसी दरिया में कभी आब-ए-रवाँ था पहले

ज़मीं से आगे भला जाना था कहाँ मैं ने
उठाए रक्खा यूँही सर पे आसमाँ मैं ने

किसी के हिज्र में शब से कलाम करते हुए
दिए की लौ को बनाया था हम-ज़बाँ मैं ने

शजर को आग किसी और ने लगाई थी
न जाने साँस में क्यूँ भर लिया धुआँ मैं ने

कभी तो आएँगे उस सम्त से गुलाब ओ चराग़
ये नहर यूँही निकाली नहीं यहाँ मैं ने

मिरी तो आँख मिरा ख़्वाब टूटने से खुली
न जाने पाँव धरा नींद में कहाँ मैं ने

अफ़ज़ल गौहर राव

होटों पे हँसी आँख में तारों की लड़ी है / 'क़ाबिल' अजमेरी

होटों पे हँसी आँख में तारों की लड़ी है
वहशत बड़े दिलचस्प दो-राहे पे खड़ी है

दिल रस्म-ओ-रह-ए-शौक से मानूस तो हो ले
तकमील-ए-तमन्ना के लिए उम्र पड़ी है

चाहा भी अगर हम ने तेरी बज्म से उठना
महसूस हुआ पाँव में जंजीर पड़ी है

आवारा ओ रूसवा ही सही हम मंजिल-ए-शब में
इक सुब्ह-ए-बहाराँ से मगर आँख लड़ी है

क्या नक्श अभी देखिए होते हैं नुमायाँ
हालात के चेहरे से जरा गर्द झड़ी है

कुछ देर किसी जुल्फ के साए में ठहर जाएँ
‘काबिल’ गम-ए-दौराँ की अभी धूप कड़ी है

'क़ाबिल' अजमेरी

एक हरा जंगल / कुंवर नारायण

एक हरा जंगल धमनियों में जलता है।
तुम्हारे आँचल में आग...
           चाहता हूँ झपटकर अलग कर दूँ तुम्हें
उन तमाम संदर्भों से जिनमें तुम बेचैन हो
और राख हो जाने से पहले ही
उस सारे दृश्य को बचाकर
किसी दूसरी दुनिया के अपने आविष्कार में शामिल
                                   कर लूँ

लपटें
एक नए तट की शीतल सदाशयता को छूकर
                                   लौट जाएँ।

कुंवर नारायण

पयाम आये हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे / फ़राज़

पयाम[1] आये हैं उस यार-ए-बेवफ़ा[2]के मुझे
जिसे क़रार[3] न आया कहीं भुला के मुझे

जुदाइयाँ हों तो ऐसी कि उम्र भर न मिले
फ़रेब[4]तो दो ज़रा सिलसिले बढ़ा के मुझे

नशे से कम तो नहीं याद-ए-यार [5] का आलम[6]
कि ले उड़ा है कोई दोश[7] पर हवा के मुझे

मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
उदास छोड़ गये आईना[8] दिखा के मुझे

तुम्हारे बाम[9]से अब कम नहीं है रिफ़अते-दार[10]
जो देखना हो तो देखो नज़र उठा के मुझे

खिँची हुई है मेरे आँसुओं में इक तस्वीर
'फराज़' देख रहा है वो मुस्कुरा के मुझे

शब्दार्थ:
  1. निमंत्रण
  2. वो मित्र जो वफ़ादार नहीं
  3. चैन
  4. धोखा
  5. मित्र के स्मरण
  6. समय
  7. काँधे
  8. दर्पण
  9. छत
  10. सूली की ऊँचाई
अहमद फ़राज़

ऊसर जमीन भी बन सकती है फिर से उपजाऊ 8 / उमेश चौहान

मस्तिष्क में पैदा हुआ ऊसरपन भी
दूर किया जा सकता है
थोड़े से तेजाबी विचारों का घोल
धीरे-धीरे पेवश्त कर
जड़ता की अभेद्य परत में छिपी
सिकुड़ी-सूखी शिराओं में
जैसे पहाड़ी शिला से छिटका हुआ कोई पत्थर
नदी के तीव्र प्रवाह में
धीरे-धीरे घिसता हुआ
एक दिन बन जाता है
पूजा-गृह में रखा जाने वाला सुघड़ शिवलिंग।

उमेश चौहान

माँ...क्या एक बार फिर मिलोगी? / अंजना भट्ट

तिनका तिनका जोड़ा तुमने, अपना घर बनाया तुमने
अपने तन के सुन्दर पौधे पर हम बच्चों को फूल सा सजाया तुमने
हमारे सब दुःख उठाये और हमारी खुशियों में सुख ढूँढा तुमने
हमारे लिए लोरियां गाईं और हमारे सपनों में खुद के सपने सजाये तुमने.
 
हम बच्चे अपनी अपनी राह चलते गये, और तुम?
तुम दूर खडीं चुपचाप अपना मीठा आर्शीवाद देतीं रहीं.
पल बीते क्षण बीते....
समय पग पग चलता रहा...अपना हिसाब लिखता रहा...और आज?
 
आज धीरे धीरे तुम जिन्दगी के उस मुकाम पर आ पहुंची
जहाँ तुम थकी खड़ी हो ---शरीर से भी और मन से भी.
 
मेरा मन मानने को तैयार नहीं, मेरा अंतर्मन सुनने को तैयार नहीं...
 
क्या तुम्हारे जिस्म के मिटने से सुब कुछ खत्म हो जायेगा?
क्या चली जाओगी तुम अपने प्यार की झोली समेट कर?
क्या रह जायेंगे हम तुम्हारी भोली सूरत देखने को तरसते हुए?
क्या रह जायेंगे हम तुम्हारी गोदी में छुपा अपना बचपन ढूँढते हुए?
 
बोलो माँ?
क्या कह जाओगी इन चंदा सूरज धरती और तारों से?
इन राह गुज़ारों से.....नदिया के बहते धारों से?
क्या कह जाओगी माँ? किसी सौंप जाओगी हमें माँ?
 
या फिर....? या फिर....?
बिखरा जाओगी अपना प्यार अपनी दुआएं और अपनी ममता
इस कायनात के चिरंतन समुन्दर की लहर लहर पर?
 
क्या इस जनम में चुन पायेंगे हम वो दुआएं?
पर वादा है माँ.....
 
इन सब जनमों के पार हम फिर मिलेंगे
तुम्हारी दुआएं चुन कर.
तुम्हारे प्यार से भरी झोली समेट कर, एक नया जिस्म ले कर
हम फिर मिलेंगे माँ...
जन्म जन्मान्तरों से परे...हंसते मुस्कराते.. हम फिर मिलेंगे
फिर एक नई दुनिया बसाएँगे...
इन बिखरते आंसुओं को चुन कर खुशियों में बदल देंगे
पापा, मै, तुम और बच्चे, हम फिर मिलेंगे, हमेशां साथ साथ खुश रहेंगे.
 
इन शब्दों को लिखते जीते जो आंसू मैने गिराये
और जो तुमने नहीं देखे,
वो आँसू तुम पर मेरा क़र्ज़ हैं माँ....
 
तुम्हें भी ये क़र्ज़ चुकाना होगा
इन बिखरे आँसूओं को समेट कर खुशियों में बदलना होगा
तुम्हें भी एक वाद करना होगा.....
 
क्या फिर से एक बार जन्म जन्मान्तरों के पार मिलोगी?
क्या फिर एक बार मुझसे लाल धागे का रिश्ता जोड़ोगी?
क्या फिर एक बार मुझे अपने तन पर सुन्दर फूल सा सजाओगी?
क्या फिर मेरी नन्हीं उंगली थामे मेरे संग-संग चलोगी?
क्या फिर मेरी वाणी पर अपना सम्मोहन बिखराओगी?
क्या फिर अपनी ममता की छाया से मेरा जीवन संवार दोगी?
क्या फिर अपनी मीठी लोरियां गा कर मुझे सुलाऔगी?
क्या फिर मुझे सजना संवरना और गुनगुनाना सिखाओगी?
क्या फिर मेरे नन्हे पंखों में ऊंची उड़ान भरोगी?
 
बोलो माँ? क्या फिर एक बार मिलोगी?

अंजना भट्ट

नासमझी / आकांक्षा पारे

मेरे कहने
तुम्हारे समझने के बीच
कब फ़ासला बढ़ता गया
मेरे हर कहने का अर्थ
बदलता रहा तुम तक जा कर

हर दिन
समझने-समझाने का यह खेल
हम दोनों को ही अब
बना गया है इतना नासमझ

कि
स्पर्श के मायने की
परिभाषा एक होने पर भी
नहीं समझते उसे
हम दोनों

आकांक्षा पारे

तस्वीरें / आकांक्षा पारे

कुछ न कह कर भी
बहुत कुछ कह डालती हैं

उनमें दिखाई नहीं पड़ती
मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें
फिर भी वे सहेजी जाती हैं
एक अविस्मरणीय दस्तावेज़ के रूप में

ऐसी ही तुम्हारी एक तस्वीर
सहेज रखी है मैंने
मैं चाहती हूँ उभर आएँ उस पर
तुम्हारे मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें
ताकि
तस्वीर की जगह
सहेज सकूँ उन्हें

और
तुम नज़र आओ
उस निश्छल बच्चे की तरह
जिस के मुँह पर
दूध की कुछ बूंदे
अब भी बाक़ी हैं।

आकांक्षा पारे

मौन हो गए / अजय पाठक

अक्षर-अक्षर मौन हो गए, मौन हुआ संगीत
परदेसी के साथ गया है, जब से मन का मीत।

चलता है सूरज वैसे ही दुनिया भी चलती है
और तिरोहित होकर संध्या वैसे ही ढलती है
किंतु गहनतम निशा अकेली मन को ही छलती है
अधरों पर सजने लगता है, अनजाना-सा गीत।

डाल-डाल पर खिले सुमन को ॠतुओं ने घेरा है
अपने अंतर में पतझड़ का ही केवल डेरा है
स्मृतियों के ओर छोर तक उसका ही फेरा है
उधर खिला मधुबन हँसता है रोता इधर अगीत।

दूर गगन में उगे सितारे अपनों से लगते हैं
लिए किरण की आस भोर तक वह भी तो जगते हैं
अनबोले शब्दों की भाषा में सब कुछ कहते हैं
एक सुखद जो वर्तमान था, वह भी हुआ अतीत।

सपनों के झुरमुट में उतरा कालिख-सा अँधियारा
हमने उसको रात-रात भर खोजा उसे पुकारा
खड़ा रहा बनकर निर्मोही निरर्थक रहा इशारा
जलती-बुझती रही निशा भर अनुभव की परतीत

अक्षर-अक्षर मौन हो गए, मौन हुआ संगीत
परदेसी के साथ गया है, जब से मन का मीत।

अजय पाठक

जिसने ख़ून होते देखा / अरुण कमल

नहीं, मैंने कुछ नहीं देखा
मैं अन्दर थी। बेसन घोल रही थी
नहीं मैंने किसी को...

समीर को बुला देंगी
समीर, मैंने पुकारा
और वह दौड़ता हुआ आया जैसे बीच में खेल छोड़
कुछ हाँफता
नहीं, नहीं, मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है

वह बहुत छोटा था अभी
एकदम शहतूत जब सोता
बहुत कोमल शिरीष के फूल-सा
अभी भी उसके मु~म्ह से दूध की गन्ध आती थी
ओह, मैंने क्यों पुकारा
क्यों मेरे ही मार्फ़त यह मौत, मैं ही क्यों कसाई का ठीहा, नहीं, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती, मैंने कुछ नहिं देखा
मैंने किसी को...

वे दो थे। एक तो वही...। उन्होंने मुझे बहन जी कहा या आंटी
रोशनी भी थी और बहुत अंधेरा भी, बहुत फतिंगे थे बल्ब पर
मैं पीछे मुड़ रही थी
कि अचानक
समीर, मैं दौड़ी, समीर
दूध और ख़ून
ख़ून
नहीं नहीं नहीं कुछ नहीं

मैं सब जानती हूँ
मैं उन सब को जानती हूँ
जो धांगते गए हैं ख़ून
मैं एक-एक जूते का तल्ला पहचानती हूँ
धीरे-धीरे वो बन्दूक घूम रही है मेरी तरफ़

चारों तरफ़

अरुण कमल

जागो रे मज़दूर किसान / कांतिमोहन 'सोज़'

जागो रे मज़दूर किसान
रात गई अब हुआ विहान
रात गई रे साथी !

किरनों की आहट पाकर कलियों ने आँखें खोलीं
ताक़त नई हवा से पाकर गूंगी लहरें बोलीं
गुन-गुन-गुन सब ओर गूँजता परिवर्तन का गान
रात गई रे साथी !

चलो साथियों चलो कि अपनी मंज़िल बहुत कड़ी है
उधर विजय ताज़ा फूलों की माला लिए खड़ी है
चलो साथियो तुम्हें जगाना पूरा हिन्दुस्तान
रात गई रे साथी !

खोने को हथकड़ियाँ पाने को है दुनिया सारी
चलो साथियो बढ़ो कि होगी अन्तिम विजय हमारी
सर पर कफ़न हथेली पर रख लें अब अपनी जान
रात गई रे साथी !

कांतिमोहन 'सोज़'

शिव स्तुति / कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'

वरनि सकति नहिं लघुमति मेरी अद्भुत महिमा हर की।
गुण विरोध सब रहत एक में शंका कछु नहिं डर की॥
नाशत है सब जगत जीव को शिव निज नाम धरावे।
भिक्षा करि राखत है जीवन विश्वंभर कहलावे॥
है निरोग पर बने हैं शूली राखि द्विजि एव दयाल।
विष करि पान भये मृत्यंजय अमृतभय तत्काल॥
असम नैन सभ सब उपर राखत अपन विचार।
करहु दया दुखिया सरोज पे लागहु वेगि गुह वेगि गुहार॥

कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'

डोली में बिठाई के कहार / आनंद बख़्शी

 
हो रामा रे, हो ओ रामा
डोली में बिठाई के कहार
डोली में बिठाई के कहार
लाए मोहे सजना के द्वार
ओ डोली में बिठाई के कहार
बीते दिन खुशियों के चार, देके दुख मन को हजार
ओ डोली में...

मर के निकलना था, ओ, मर के निकलना था
घर से साँवरिया के जीते जी निकलना पड़ा
फूलों जैसे पाँवों में, पड़ गए ये छाले रे
काँटों पे जो चलना पड़ा
पतझड़, ओ बन गई पतझड़, ओ बन गई पतझड़
बैरन बहार
डोली में...

जितने हैं आँसू मेरी, ओ, जितने हैं आँसू मेरी
अँखियों में, उतना नदिया में नाहीं रे नीर
ओ लिखनेवाले तूने लिख दी ये कैसी मेरी
टूटी नय्या जैसी तक़दीर
उठा माझी, ओ माझी, उठा माझी,
ओ माझी रे, उठा माझी
उठे पटवार
डोली में...

टूटा पहले मेरे मन, ओ, टूटा पहले मन अब
चूड़ियाँ टूटीं, ये सारे सपने यूँ चूर
कैसा हुआ धोखा आया पवन का झोंका
मिट गया मेरा सिंदूर
लुट गए, ओ रामा, लुट गए, ओ रामा मेरे लुट गए
सोलह श्रृंगार
डोली में...

आनंद बख़्शी

जाड़े की धूप / अरविन्द अवस्थी

कई दिन तक घिरे
घने कुहासे के बाद
खिली धूप जाड़े की ।
देखकर
खिल उठा मन
जैसे
छठें वेतन आयोग के अनुसार
मिली हो तनख़्वाह की पहली किस्त ।
जैसे
साठ रुपये किलो से
बारह पर आ गया हो
प्याज का भाव ।
धूप से मैं
और धूप मुझसे
दोनों एक दूसरे से
लिपट गए
जैसे स्कूल से पढ़कर
लौटे नर्सरी के बच्चे को
लिपटा लेती है माँ ।
धूप सोहा रही थी
जैसे जली चमड़ी पर
बर्फ़ का टुकड़ा ।
धूप खिलने की ख़बर
आतंकी अफ़ज़ल कसाब की
गिरफ़्तारी के समाचार-सी
फैल गई
गाँव-गाँव, शहर-शहर ।
लोग बाँचने लगे
उलट-पुलट कर
एक-एक पृष्ठ.

अरविन्द अवस्थी

हर गाम सँभल सँभल रही थी / 'अदा' ज़ाफ़री

हर गाम सँभल सँभल रही थी
यादों के भँवर में चल रही थी

साँचे में ख़बर के ढल रही थी
इक ख़्वाब की लौ से जल रही थी

शबनम सी लगी जो देखने मैं
पत्थर की तरह पिघल रही थी

रूदाद सफ़र की पूछते हो
मैं ख़्वाब में जैसे चल रही थी

कैफ़ियत-ए-इंतिज़ार-ए-पैहम
है आज वही जो कल रही थी

थी हर्फ़-ए-दुआ सी याद उस की
ज़ंजीर-ए-फ़िराक़ गल रही थी

कलियों को निशान-ए-रह दिखा कर
महकी हुई रात ढल रही थी

लोगों को पसंद लग़्ज़िश-ए-पा
ऐसे में 'अदा' सँभल रही थी

'अदा' ज़ाफ़री

वो तफ़व्वुतें हैं मेरे खुदा कि ये तू नहीं कोई और है / फ़राज़

वो तफ़व्वुतें हैं मेरे खुदा कि ये तू नहीं कोई और है
कि तू आसमां पे हो तो हो, पये सरे जमीं कोई और है

वो जो रास्ते थे, वफ़ा के थे, ये जो मन्जिलें है, सजा की हैं
मेरा हमसफ़र कोई और था मेरा हमनशीं कोई और है

मेरे जिस्मों जान में तेरे सिवा नहीं और कोई दूसरा
मुझे फिर भी लगता है इस तरह कि कहीं कहीं कोई और है

मैं असीर अपने गिजाल का, मैं फ़कीर दश्ते विसाल का
जो हिरन को बांध के ले गया वो सुबुक्तगीं कोई और है

मैं अजब मुसाफिर-ए-बेईमां, कि जहां जहां भी गया वहां
मुझे लगा कि मेरा खाकदान, ये जमीं नहीं कोई और है

रहे बेखबर मेरे यार तक, कभी इस पे शक, कभी उस पे शक
मेरे जी को जिसकी रही ललक, वो कमर जबीं कोई और है

ये जो चार दिन के नदीम हैं, इन्हे क्या ’फ़राज़’ कोई कहे
वो मोहब्बतें, वो शिकायतें, मुझे जिससे थीं, वो कोई और है.

अहमद फ़राज़

Monday, January 27, 2014

काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा / अख़्तर-उल-ईमान

काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा
रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा

बायस-ए-रश्क़ है तन्हा रवी-ए-रहरौ-ए-शौक़
हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंज़िल के सिवा

हम ने दुनिया की हर इक शै से उठाया दिल को
लेकिन इक शोख के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा

तेग़ मुन्सिफ़ हो जहाँ दार-ओ-रसन हों शाहिद
बेगुनाह कौन है उस शहर मे क़ातिल के सिवा

ज़ाने किस रंग से आई है गुलशन में बहार
कोई नग़मा ही नही शोर-ए-सिलासिल के सिवा


उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

अख़्तर-उल-ईमान

छू जाए दिल को ऐसा कोई फ़न अभी कहाँ / 'अना' क़ासमी

छू जाए दिल को ऐसा कोई फ़न अभी कहाँ
कोशिश है शायरी की ये सब शायरी कहाँ

यूँ भी हुआ कि रेत को सागर बना दिया
ऐसा नहीं तो जाओ अभी तिशनगी कहाँ

ये और बात दर्द ने शक्लें तराश लीं
जो नक्श बोलते हैं वो सूरत बनी कहाँ

माना हमारे जैसे हज़ारों हैं शहर में
तुम जैसी कोई चीज़ मगर दूसरी कहाँ

ये जो बरहना[1] संत है पहचानिए हुज़ूर
ये गुल खिला गई है तिरी दिल्लगी कहाँ

अब आपको तो उसके सिवा सूझता नहीं
किस शख़्स की ये बात है और आप भी कहाँ

ये क्या छुपा रहा है वो टोपी में देखिए
इस मयकदे के सामने ये मौलवी कहाँ

आँखें हैं या के तश्त में जलते हुए चराग़
करने चले हैं आप ये अब आरती कहाँ

'अना' क़ासमी

ज़ुबाँ पे दर्द भरी दास्ताँ चली आई / आनंद बख़्शी

 
ज़ुबाँ पे दर्द भरी दास्ताँ चली आई
बहार आने से पहले ख़िज़ाँ चली आई

खुशी की चाह में मैंने उठाये रंज बड़े
मेरा नसीब कि मेरे क़दम जहाँ भी पड़े
ये बदनसीबी मेरी भी वहाँ चली आई

उदास रात है वीरान दिल की महफ़िल है
न हमसफ़र है कोई और न कोई मंज़िल है
ये ज़िंदगी मुझे लेकर कहाँ चली आई

आनंद बख़्शी

साथ-साथ / केशव तिवारी

लगभग एक ही समय
इस धरती पर आए हम
एक ही समय सम्हाला होश

जब पहली बार मिले तो
लगा जैसे मुझे तुम्हारी
और तुम्हें मेरी ही तलाश थी

हम उड़ते रहे उनमुक्त
एक छान के नीचे
जो हमारे लिए
विस्तृत आकाश से कम नहीं था

उन दिनों हम हवाओं पर सवार थे
कल्पना की अर्गला हमारे साथ थी
कहीं पहुँचना कुछ भी पाना
नामुमकिन नहीं था

पर हम भूल गए थे
धीरे-धीरे छीज रही है
हमारी छान
सिमट रहा है हमारा आकाश
अचानक एक तेज़ आँधी
छूट गई अर्गला हमारे हाथ से
और
हम यथार्थ की कठोर भूमि पर
पड़े थे
फिर भी
गहे रहे एक दूसरे की बाँह
ऐसा कौन-सा दुःख था
जिसको मिल कर
साथ-साथ
नहीं सहा हमने
ऐसा कौन-सा सुख्, था
जिसमें एक ही लय पर
नहीं बज उठी हमारे
प्राणों की घण्टियाँ

अब तो
सयाने होने लगे हैं
अपने बच्चे और
तुमने भी देखने शुरू
कर दिए सपने
उनकी आँखों में ।

केशव तिवारी

कुनबा / अनूप सेठी

बाल कटाकर शीशा देखूं
आंखों में आ पिता झांकते
बाल बढ़ा लेता हूं जब
दाढ़ी में नाना मुस्काते हैं
कमीज हो या कुर्ता पहना
पीठ से भैया जाते लगते हैं

नाक पर गुस्सा आवे
लौंग का चटख लश्कारा अम्मा का
चटनी का चटखारा दादी का
पोपले मुंह का हासा नानी का

घिस घिस कर पति पत्नी भी सिलबट्टा हो जाते हैं

वह रोती मैं हंसता हूं
मैं उसके हिस्से में सोता
वह मेरे हिस्से में जगती है

बेटी तो बरसों से तेरी चप्पल खोंस ले जाती है
बेटे की कमीज में देख मुझे
ऐ जी क्यों आज नैन मटकाती है.

अनूप सेठी

किसने सोचा धूपबत्ती राख हो जाती है क्यों / गिरिराज शरण अग्रवाल

किसने सोचा धूपबत्ती राख हो जाती है क्यों
ख़ुद सुलगती है मगर घर-भर को महकाती है क्यों

शांत करनी है इसे क्या जानिए कितनों की प्यास
बिन रुके आख़िर नदी हर दम बहे जाती है क्यों

गर अँधेरा ही लिखा था, भाग्य में संसार के
शम्अ की नन्हीं-सी लौ घर-भर को चमकाती है क्यों

इक बसंती रुत ज़रूरी है हर इक पतझड़ के बाद
फूल क्यों खिलते हैं, फ़सलों पर घटा छाती है क्यों

दिन के दुखडे़ ही अगर मेरा मुकद्दर हैं तो फिर
रात मुझको नित नए सपनों से बहलाती है क्यों

गिरिराज शरण अग्रवाल

अजीब थी वो अजब तरहां चाहता था मैं / उबैदुल्लाह 'अलीम'

अजीब थी वो अजब तरहां चाहता था मैं
वो बात करती थी और खवाब देखता था मैं

विसाल का हो के उस के फ़िराक का मौसम
वोह लज्ज़तें थीं के अन्दर से टूटता था मैं

चढ़ा हुवा था वो नशा के कम न होता था
हज़ार बार उभरता था डूबता था में

बदन का खेल थीं उस की मोहब्बतें लेकिन
जो भेद जिसम के थे जान से खोलता था मैं

फिर इस तरहां कभी सोया न इस तरहां जगा
के रूह नींद में थी और जगता था मैं

कहाँ शिकस्त हुई और कहाँ सिला पाया
किसी का इश्क किसी से निभाता था मैं

मैं एहल-ए-जार के मुकाबल में था फ़क़त शायर
मगर मैं जीत गया लफ्ज़ हारता था मैं

उबैदुल्लाह 'अलीम'

कैँधौँ दृग सागर के आस पास स्यामताई / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

कैँधौँ दृग सागर के आस पास स्यामताई ,
ताही के ये अँकुर उलहि दुति बाढ़े हैँ ।
कैँधौँ प्रेम क्यारी जुग ताके ये चँहूधा रची ,
नील मनि सरन कौ बारि दुख डाढ़े हैँ ।
मूरति सुकवि तरुनी की बरुनी न होवे ,
मेरे मन आवे ये विचार चित गाढ़े हैँ ।
जेईजे निहारे मन तिनके परिकिबे को ,
देखो इन नैन हजार हाथ काढ़े हैँ ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

अज्ञात कवि (रीतिकाल)

फ़सल कटाई का गीत / कांतिमोहन 'सोज़'

अरमानों की खड़ी फ़सल काटेंगे भई काटेंगे !
चले दराँती चाहे हल हो चले दराँती चाहे हल
काटेंगे भई काटेंगे ! काटेंगे भई काटेंगे !

हमने धरती बोई है बीज पसीने का डाला
देखो जलते सूरज ने रंग किया किसका काला ?
फ़सल नहीं इज्ज़त है अपनी कैसे ले लेगा लाला
भई कैसे ले लेगा लाला ?
जो हमसे टकराएँगे धूल सरासर चाटेंगे !
काटेंगे भई काटेंगे अरमानों की खड़ी फसल !
काटेंगे भई काटेंगे चले दराँती चाहे हल !!

पण्डे पल्टन पटवारी सारे देखे-भाले हैं
बगुला-भगत कचहरी के दिल के कितने काले हैं
काले नियम अदालत काली सब मकड़ी के जाले हैं
भई सब मकड़ी के जाले हैं
सीधा अपना नारा है बोएँगे सो काटेंगे !
काटेंगे भई काटेंगे अरमानों की खड़ी फ़सल!
काटेंगे भई काटेंगे चले दराँती चाहे हल !!

रचनाकाल : 1974

कांतिमोहन 'सोज़'

चाँदो रे... ! / अनुज लुगुन

ओ मिरू!
सुनो...! रुको...
और फैल जाओ
यहाँ हमारे आँगन में
इस अलाव के पास,

बुआ साखू के पत्तों पर लपेट कर
मडुवा रोटी सिझा रही है
दादू और दादी
एक ही दोना में हँड़िया साझा कर रहे हैं
उनकी नोंक-झोंक से
झर रहे हैं गीत,

ओ चाँद..., चान्दो मुनी!
हम भी साझा करेंगे
मडुवा, हँड़िया, गीत और अलाव
तुम तो जानती ही हो
यहाँ कोई डर नहीं
यहाँ कोई छल नहीं
आओ
इस शरद पूर्णिमा में
ईंद मेला के पवित्र अवसर पर
कोई गीत नया
अपनी गठरी में बाँध लो...

 
ईंद मेला : मुंडाओं का ऐतिहासिक मेला

अनुज लुगुन

कि अब वही है साक्षात घटोत्‍कची वारिस / कुमार मुकुल

 
अपनी नजरों में
जितना बडा
या महान होना था
हो चुका वह कवि
और कुछ होने की बाबत
जानता नहीं वह
सो
होता जा रहा है पंडित फिर से
वही तोंद बजाता
गाल फुलाता
पाखंड भरे गुस्‍से से
शेखी से रोता रोना
अपने ना पूछे जाने का
सार्वजनिक तौर पर कोसता
अपने अदृश्‍य शत्रुओं को
और दृश्‍य शत्रुओं को सुरापान कराता
मुंहफट , दीवाना होने का नाटक सा करता
कि आंखों की तरेर से चलताउ काम करवाता
सोचता
कि सोच चुका सारा
अब कोंचना है
अपने विवेक को
बस कोंचते जाना है
कि अब कोई श्री या अकादमी या पीठ
मिले ना मिले
ठेंगे से
कि अब वही है साक्षात
घटोत्‍कची वारिस
तमाम
पुरस्‍कारों, सम्‍मानों, उपाधियों का
कि चतुर्दिक घेरें वे उसे
नहीं तो मरकर भी
मार डालेगा वह
न जाने कितनी अक्षौहिणी जन सेनाओं को
कि डम डम डम …
अब इस प्रण से उसे
नहीं सकता कोई डिगा …।
2009

कुमार मुकुल

दिल ने इक आह भरी आँख में आँसू आए / 'गुलनार' आफ़रीन

दिल ने इक आह भरी आँख में आँसू आए
याद ग़म के हमें कुछ और भी पहलू आए

ज़ुल्मत-ए-शब में है रू-पोश निशान-ए-मंज़िल
अब मुझे राह दिखाने कोई जुगनू आए

दिल का ही ज़ख़्म तेरी याद का इक फूल बने
मेरे पैहरान-ए-जाँ से तेरी ख़ुश-बू आए

तिश्ना-कामों की कहीं प्यास बुझा करती है
दश्त को छोड़ के अब कौन लब-ए-जू आए

एक परछाईं तसव्वुर की मेरे साथ रहे
मैं तुझे भूलूँ मगर याद मुझे तू आए

मैं यही आस लिए ग़म की कड़ी धूप में हूँ
दिल के सहरा में तेरे प्यार का आहू आए

दिल परेशान है ‘गुलनार’ तो माहौल उदास
अब जरूरत है कोई मुतरिब-ए-ख़ुश-ख़ू आए

'गुलनार' आफ़रीन

बच्चों के बीच / गिरिराज शरण अग्रवाल

कितना अच्छा लगता है
सब कुछ भूलकर
बच्चों के बीच बैठना;
उन्हें देखना जी भरके,
उनसे बातें करना
उन्हें पुचकारना
और उनकी जीत में ही

अपनी जीत मानकर
सब कुछ हार जाना ।


कितना अच्छा लगता है
बच्चों की सहज मुस्कान को
सहेजना,
उनके कोमल अंगों का
स्पर्श करना फूलों की तरह धीरे से

और फिर देर तक
उनकी आँखों में झाँकना
सचमुच, कितना अच्छा लगता है !


कितना अच्छा लगता है
बच्चों को बेबात
बड़ी-बड़ी बातें करते देखना;
या फिर बुद्धू-सा बनकर
उनकी बातों में रस लेना
उनकी ज़िद पर ख़ुशी-ख़ुशी
अपनी ज़िद छोड़ना
और उनके सपनों से

अपने सपने जोड़ना।
कितना अच्छा लगता है !


कितना अच्छा लगता है
संवादहीनता की स्थिति में भी
बच्चों के साथ संवाद बुनना,
और उनकी तोतली-सी ज़ुबान में
कही-अनकही बातों को बार-बार
बडे़ ध्यान से सुनना;

उनके आकाश को बरबस
अपनी भुजाओं में भरना
और उनके सागर को
नापने के प्रयास में
ख़ुद ही सागर बन जाना।
कितना अच्छा लगता है !


कितना अच्छा लगता है-
बच्चों के बीच बैठकर,
बिलकुल बच्चा बन जाना
और भूल जाना सारे दुख-दर्द
सचमुच, कितना अच्छा लगता है !

गिरिराज शरण अग्रवाल

घर-गिरस्ती / गिरिराज किराडू

आइए, आपका सबसे तआरूफ़ करा दूँ । ये हमारी चप्पले हैं । इन्होंने चुपचाप चलते रहने के ज़दीद तौर-तरीकों पर नायाब तज़ुर्बे किए हैं । इनसे आप शायद पहले भी मिले हैं । ये हैं हमारी शर्ट सालों-साल जीने का नुस्ख़ा इनकी जेब में ही पड़ा रहता है, गो दिखातीं किसी को नहीं । ये बैल्ट हैं, हर लम्हा जिसके चमड़े से बनी हैं, उस क़ाफ़िर की आत्मा की शांति के लिये दुआ करती रहती हैं । और ये हमारा चश्मा साफ़ देखने की इनकी इतनी तरक़ीबें नाकाम हो चुकी कि सिवा ग़फ़्लत अब कुछ नज़र ही नहीं आता इन्हें -– यही अपनी घर-गिरस्ती है
इसे देखकर आपको चाहे कोई वीराना याद आए । हमें तो कुछ सहमी कुछ संगीन अपनी ही याद आती है ।

गिरीराज किराडू

यह अग्निकिरीटी मस्तक / केदारनाथ सिंह

सब चेहरों पर सन्नाटा
हर दिल में पड़ता काँटा
हर घर में है गीला आँटा
वह क्यों होता है?

जीने की जो कोशिश है
जीने में यह जो विष है
साँसों में भरी कशिश है
इसका क्या करिये?

कुछ लोग खेत बोते हैं
कुछ चट्टानें ढोते हैं
कुछ लोग सिर्फ़ होते हैं
इसका क्या मतलब?

मेरा पथराया कन्धा
जो है सदियों से अन्धा
जो खोज चुका हर धन्धा
क्यों चुप रहता है?

यह अग्निकिरीटी मस्तक
जो है मेरे कन्धों पर
यह ज़िंदा भारी पत्थर
इसका क्या होगा?

केदारनाथ सिंह

कौन शाएर रह सकता है / अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

लफ़्ज़ अपनी जगह से आगे निकल जाते हैं
और ज़िंदगी का निज़ाम तोड़ देते हैं

अपने जैसे लफ़्ज़ों का गठ बना लेते हैं
और टूट जाते हैं
उन के टूटे हुए किनारों पर
नज़में मरने लगती हैं
लफ़्ज़ मरने लगती हैं
लफ़्ज़ अपनी साख़्त और तक़्दीर में
कमज़ोर हो जाते हैं
मामूली शिकस्त उन को ख़त्म कर देती है
उन में
टूट कर जुड़ जाने से मोहब्बत नहीं रह जाती
इन लफ़्ज़ों से
बद-सूरत और बे-तरतीब नज़में बन ने लगती हैं

सफ़्फ़ाकी से काट दिए जाने के बाद
उन की जगह लेने को
एक और खेप आ जाती है

नज़मों को मर जाने से बचाने के लिए
हर रोज़ उन लफ़्ज़ों को जुदा करना पड़ता है
और उन जैसे लफ़्ज़ों को हमले से पहले
नए लफ़्ज़ पहुँचाने पड़ते हैं

ये ऐसा कर सकता है
शाएर रह सकता है

अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

Sunday, January 26, 2014

वो नदी-सी सदा छलछलाती रही / अज़ीज़ आज़ाद

वो नदी-सी सदा छलछलाती रही
हम भी प्यासे रहे वो भी प्यासी रही

जुगनुओं को पकड़ने की हसरत लिए
मेरी चाहत यूँ ही छटपटाती रही

मेरी ऑंखों से ख़्वाबों के रिश्ते गए
याद आती रही जी जलाती रही

आज फिर मैं सुबगता रहा रात-भर
चाँदनी तो बहुत खिलखिलाती रही

वो परिन्दे न जाने कहाँ गुम हुए
बस हवा ही हवा फड़फड़ाती रही

वो न आए तो आई नहीं मौत भी
साँस आती रही साँस जाती रही

अज़ीज़ आज़ाद

जीवन / कुसुम जैन

घूंघर-घूंघर बरसती हैं बूंदें
झूमते हैं पत्ते

पत्ता-पत्ता
जी रहा है
पल-पल को
आने वाले
कल से बेख़बर

कुसुम जैन

मनखान आएगा / अवतार एनगिल

अब जंगल में आग लगी
मनखान आया
उसने उस नन्हें पौधे को
मिट्टी संग उखाड़ा
हाथों में संभाला
और विपरीत दिशा में
दौड़ता-दौड़ता चला गया

उसकी आंखों में
दहक रही थीं
जलते जंगल की परछाईयां
जिस्म में
किर्चों की तरह
चुभती थीं
आग की नीली-नारंगी आँखें
और
उस दावानल चुभन से बचने के लिए
वह तेज़,और तेज़ भागता था

उस शाम मनखान को लगा
कि वह रुक गया था
उसने दर्पण में देखा
थोड़ा झुक गया था
उसके गले में
जैसे नख चुभ रहे थे
सांस लेते हुए
वह काली हवा पी रहा था
समझ नहीं पाया मनखान
कि वह कैसे जी रहा था

एक दिन
जैसे वह सपने में जागा
आंखो खुली तो देखाअ
कि वही नन्हा पौधा
पेड़ बनकर
उसकी छाती पर खड़ा था
मनखान खुद धरती में गड़ा था
जिस पर बिछे थे
बसंत रुत में झड़े हुए
पीले कड़कड़ाते हुए पत्ते

मनखान चिल्लाया :
पेड़ भाई ! पेड़ भाई !
तुम फिर जंगल बन गये !

...

मनखान तो आएगा
फिर-फिर आएगा
पर तुम्हें बचा नहीं पाएगा
क्योंकि तुम नन्हें पौधे नहीं
बल्कि पेड़ हो,जंगल हो
मुझको तो आना है
फिर-फिर आना है
किसी नन्हें पौधे को
आंधी औ' आग से बचाना है
और उसे छाती से चिपकाकर
दौड़ते,दौड़ते चले जाना है।

अवतार एनगिल

प्रथम किरण / अज्ञेय

भोर की प्रथम किरण फीकी।
अनजाने जागी हो याद किसी की-
अपनी मीठी नीकी।

धीरे-धीरे उदित
रवि का लाल-लाल गोला
चौंक कहीं पर
छिपा मुदित बनपाखी बोला
दिन है जय है यह बहुजन की।

प्रणति, लाल रवि, ओ जन-जीवन
लो यह मेरी
सकल भावना तन की, मन की-
वह बनपाखी जाने गरिमा
महिमा
मेरे छोटे चेतन छन की!

इलाहाबाद-दिल्ली (रेल में), 3 फरवरी, 1951

अज्ञेय

दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ / कबीर

दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ ॥

पहिला जनम भूत का पै हौ, सात जनम पछिताहौउ।
काँटा पर का पानी पैहौ, प्यासन ही मरि जैहौ ॥ १॥

दूजा जनम सुवा का पैहौ, बाग बसेरा लैहौ ।
टूटे पंख मॅंडराने अधफड प्रान गॅंवैहौ ॥ २॥

बाजीगर के बानर होइ हौ, लकडिन नाच नचैहौ ।
ऊॅंच नीच से हाय पसरि हौ, माँगे भीख न पैहौ ॥ ३॥

तेली के घर बैला होइहौ, आॅंखिन ढाँपि ढॅंपैहौउ ।
कोस पचास घरै माँ चलिहौ, बाहर होन न पैहौ ॥ ४॥

पॅंचवा जनम ऊॅंट का पैहौ, बिन तोलन बोझ लदैहौ ।
बैठे से तो उठन न पैहौ, खुरच खुरच मरि जैहौ ॥ ५॥

धोबी घर गदहा होइहौ, कटी घास नहिं पैंहौ ।
लदी लादि आपु चढि बैठे, लै घटे पहुँचैंहौ ॥ ६॥

पंछिन माँ तो कौवा होइहौ, करर करर गुहरैहौ ।
उडि के जय बैठि मैले थल, गहिरे चोंच लगैहौ ॥ ७॥

सत्तनाम की हेर न करिहौ, मन ही मन पछितैहौउ ।
कहै कबीर सुनो भै साधो, नरक नसेनी पैहौ ॥ ८॥

कबीर

कल और आज / उमा अर्पिता

वो कल की बात
आज सपना हो गई है,
जब गुजर जाती थी
रात सोते-जागते
किसी के सपनों में...!
जागते/सोते/जाने-अनजाने
छाई रहती थी
चेहरे पर एक मुस्कराहट...
आने वाली दुनिया के
आकर्षक रंगों से सजी...!
और आज वही रात है, वही आँखें
ये आँखें आज भी
गुजार देती हैं/रात
आँखों में...
लेकिन मन अब सपने नहीं बुनता,
वह लगाता है हिसाब
बच्चों की फीस/मकान का किराया
दूध का बिल/पेपर का बिल
और न जाने कितने ही खर्चों का...!
जिन्हें सारी रात जोड़ता है मन
और घटाता है मिली हुई तनख्वाह में से
तनख्वाह, जिसमें इलास्टिसिटी नहीं होती--
लेकिन इस जोड़-तोड़ के
हिसाब से गुजर ही जाती है रात...!

उमा अर्पिता

जानती हैं औरतें / कमलेश

एक दिन सारा जाना-पहचाना
बर्फ़-सा थिर होगा
याद में ।

बर्फ़-सी थिर होगी
रहस्य घिरी आकृति
आँखें भर आएँगी
अवसाद में ।

आएँगे, मँडराते प्रेत सब
माँगेंगे
अस्थि, रक्त, माँस
सब दान में ।

जानती हैं औरतें
बारी यह आयु की
अपनी ।

कमलेश

हम ऐसे सोए भी कब थे हमें जगा लाते / अभिषेक शुक्ला

हम ऐसे सोए भी कब थे हमें जगा लाते
कुछ एक ख़्वाब तो शब-ख़ून से बचा लाते

ज़ियाँ तो दोनों तरह से है अपनी मिट्टी का
हम आब लाते कि अपने लिए हवा लाते

पता जो होता कि निकलेगा चाँद जैसा कुछ
हम अपने साथ सितारों को भी उठा लाते

हमें यक़ीन नहीं था ख़ुद अपनी रंगत पर
हम इस ज़मीं की हथेली पे रंग क्या लाते

बस और कुछ भी नहीं चाहता था मैं तुम से
ज़रा सी चीज़ थी दुनिया कहीं छुपा लाते

हमारे अज़्म की शिद्दत अगर समझनी थी
तो इस सफ़र में कोई सख़्त मरहला लाते

अभिषेक शुक्ला

जिंदगी फूस की झोपड़ी / उदयभानु ‘हंस’

ज़िंदगी फूस की झोंपड़ी है,
रेत की नींव पर जो खड़ी है।

पल दो पल है जगत का तमाशा,
जैसे आकाश में फुलझ़ड़ी है।

कोई तो राम आए कहीं से,
बन के पत्थर अहल्या खड़ी है।

सिर छुपाने का बस है ठिकाना,
वो महल है कि या झोंपड़ी है।

धूप निकलेगी सुख की सुनहरी,
दुख का बादल घड़ी दो घड़ी है।

यों छलकती है विधवा की आँखें.,
मानो सावन की कोई झ़ड़ी है।

हाथ बेटी के हों कैसे पीले
झोंपड़ी तक तो गिरवी पड़ी है।

जिसको कहती है ये दुनिया शादी,
दर असल सोने की हथकड़ी है।

देश की दुर्दशा कौन सोचे,
आजकल सबको अपनी पड़ी है।

मुँह से उनके है अमृत टपकता,
किंतु विष से भरी खोपड़ी है।

विश्व के 'हंस' कवियों से पूछो,
दर्द की उम्र कितनी बड़ी है।

उदयभानु ‘हंस’

मेरी नज़र मेरा अपना मुशाहिदा है कहाँ / 'आसिम' वास्ती

मेरी नज़र मेरा अपना मुशाहिदा है कहाँ
जो मुस्तआर नहीं है वो ज़ाविया है कहाँ

अगर नहीं तेरे जैसा तो फ़र्क़ कैसा है
अगर मैं अक्स हूँ तेरा तो आइना है कहाँ

हुई है जिस में वज़ाहत हमारे होने की
तेरी किताब में आख़िर वो हाशिया है कहाँ

ये हम-सफ़र तो सभी अजनबी से लगते हैं
मैं जिस के साथ चला था वो क़ाफ़िला है कहाँ

मदार में हूँ अगर मैं तो है कशिश किस की
अगर मैं ख़ुद ही कशिश हूँ तो दाएरा है कहाँ

तेरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी
है सूखने को पसीना मुआवज़ा है कहाँ

हुआ बहिश्त से बे-दख़्ल जिस के बाइस मैं
मेरी ज़बान पर उस फल का ज़ाएक़ा हैं कहाँ

अज़ल से है मुझे दर-पेश दाएरों का सफ़र
जो मुस्तक़ीम है या रब वो रास्ता है कहाँ

अगरचे उस से गुज़र तो रहा हूँ मैं आसिम
ये तजरबा भी मेरा अपना तजरबा है कहाँ

'आसिम' वास्ती

कैटभ सो / केशवदास

दुआ की राख पे मरमर का इत्र-दाँ उस का / अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

दुआ की राख पे मरमर का इत्र-दाँ उस का
ग़जीदगी के लिए दस्त-ए-मेहरबाँ उस का

गहन के रोज़ वो दाग़ी हुई जबीं उस की
शब-ए-शिकस्त वही जिस्म बे-अमाँ उस का

कमंद-ए-ग़ैर में सब अस्प ओ गोस्फ़ंद उस के
नशेब-ए-ख़ाक में ख़ुफ़्ता-सितारा-दाँ उस का

तन्नुर-ए-यख़ मे ठिठुरते हैं ख़वाब ओ ख़ूँ उस के
लिखा है नाम सर-ए-लौह-ए-रफ़्तगाँ उस का

चुनी हुई हैं तह-ए-ख़िश्त उँगलियाँ उस की
खुला हुआ है पस-ए-रेग बादबाँ उस का

वो इक चराग़ है दीवार-ए-ख़स्तगी पे रूका
हवा हो तेज़ तो हर हाल में ज़ियाँ उस का

उसी से धूप है अम्बार-ए-धुँद है रू-पोश
गिरफ़्त-ए-ख़्वाब से बरसर है कारवाँ उस का

अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

Saturday, January 25, 2014

रेत / अली मोहम्मद फ़र्शी

तेरे आतिश-फ़िशानों से बहते हुए
सुर्ख़-सैलाब की पेश-गोई
ओलम्पस के आतिश-कदे से
सुनहरी हरारत की राहत चुरा कर
प्रोमिथेस के ज़मीं पर उतरने से पहले
बहुत पहले तारीख़ के ग़ार में एक
सह-चश्मे इफ़रीत ने इस कहानी में की थी
जिसे पढ़ के ख़ुद उस पे दीवानगी का वो दौरा पड़ा
ख़ुद को अंधा किया
फिर सुनाता रहा दास्ताँ अंधी ताक़त की
बर्बादियों पर रूलाता रहा
आँख से सात सागर बहे
रेत लेकिन हमेशा की प्यासी
बुझाती रही आँसुओं से मिरे प्यास की आग को

तू नहीं जानता रेत की प्यास को
रेत की भूक को
रेत की भूक ऐसी कि जिस में समा जाएँ
लोहा उगलते पहाड़ों के सब सिलसिले
प्यास ऐसी कि जिस में उतर जाएँ
सारे समुंदर
तिरे आँसुओं के

मगर तेरे आँसू टपकने में कुछ देर है
देर कितनी लगी
हाथियों की क़तारों को
ज़ेर-ए-ज़मीं
तेल और तार बुनने की मीआद से ख़ूब वाक़िफ़ है तू
तू इसी तेल की बू पे पागल हुआ
और धमकता धरप्ता हुआ
आ गया रेत के राज में
वक़्त के आज में
वक़्त का आज तेरा है जिस में
मिर्रीख़ ओ मराइख़ से आगे रसाई है तेरी
मगर रेत तो पर नहीं ताक़त-ए-पर नहीं देखती
पाँव को तौलती है
किसे सोलती है

अली मोहम्मद फ़र्शी

देवभाषा / अरुण कमल

और वे मेरी ही ओर चले आ रहे थे
तीनों
एक तेज़ प्रकाश लगातार मुझ पर
पुत रहा था
जैसे बवंडर में पड़ा काग़ज़ का टुकड़ा
मैं घूम रहा था

तभी वे समवेत स्वर में बोले--
मांग, क्या मांगता है उल्लू!

अरे चमत्कार! चमत्कार!
देव आज हिन्दी बोले
देवों ने तज दी देवभाषा
देव निजभाषा बोले!

अब क्या मांगना चाहना प्रभु
आपने सब कुछ तो दे दिया जो
आप बोले निजभाषा
धन्य भाग प्रभु! धन्य भाग!

और तीनों देव जूतों की विश्व-कम्पनी
के राष्ट्रीय शो रूम के उद्घाटन में दौड़े-
आज का उनका यही कार्यक्रम था न्यूनतम!

अरुण कमल

अनूठी बातें / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जो बहुत बनते हैं उनके पास से,
चाह होती है कि कैसे टलें।
जो मिलें जी खोलकर उनके यहाँ
चाहता है कि सर के बल चलें॥

और की खोट देखती बेला,
टकटकी लोग बाँध लेते हैं।
पर कसर देखते समय अपनी,
बेतरह आँख मूँद लेते हैं॥

तुम भली चाल सीख लो चलना,
और भलाई करो भले जो हो।
धूल में मत बटा करो रस्सी,
आँख में धूल ड़ालते क्यों हो॥

सध सकेगा काम तब कैसे भला,
हम करेंगे साधने में जब कसर?
काम आयेंगी नहीं चालाकियाँ
जब करेंगे काम आँखें बंद कर॥

खिल उठें देख चापलूसों को,
देख बेलौस को कुढे आँखें।
क्या भला हम बिगड़ न जायेंगे,
जब हमारी बिगड़ गयी आँखें॥

तब टले तो हम कहीं से क्या टले,
डाँट बतलाकर अगर टाला गया।
तो लगेगी हाँथ मलने आबरू
हाँथ गरदन पर अगर ड़ाला गया॥

है सदा काम ढंग से निकला
काम बेढंगापन न देगा कर।
चाह रख कर किसी भलाई की।
क्यों भला हो सवार गर्दन पर॥

बेहयाई, बहक, बनावट नें,
कस किसे नहीं दिया शिकंजे में।
हित-ललक से भरी लगावट ने,
कर लिया है किसी ने पंजे में॥

फल बहुत ही दूर छाया कुछ नहीं
क्यों भला हम इस तरह के ताड़ हों?
आदमी हों और हों हित से भरे,
क्यों न मूठी भर हमारे हाड़ हों॥

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

किसी दश्त ओ दर से / अब्दुल हमीद

किसी दश्त ओ दर से गुज़रना भी क्या
हुए ख़ाक जब तो बिखरना भी क्या

वही इक समंदर वही इक हवा
मेरी शाम तेरा सँवरना भी क्या

लकीरों के हैं खेल सब ज़ाविए
इधर से उधर पाँव धरना भी क्या

मुझे ऊब सी सब से होने लगी
ये जीना भी क्या और मरना भी क्या

अगर उन से बच कर निकल जाइए
तो फिर उस की आँखों से डरना भी क्या

घने जंगलों की बुझी कैसे आग
कहीं पास था कोई झरना भी क्या

किसी तरह से उस का घर तो मिला
मगर अब मुलाक़ात करना भी क्या

अब्दुल हमीद

दुख फ़साना नहीं के तुझ से कहें / फ़राज़

दुख फ़साना नहीं के तुझसे कहें
दिल भी माना नहीं के तुझसे कहें

आज तक अपनी बेकली का सबब
ख़ुद भी जाना नहीं के तुझसे कहें

बेतरह हाले दिल है और तुझसे
दोस्ताना नहीं के तुझसे कहें

एक तू हर्फ़ आशना था मगर
अब ज़माना नहीं के तुझसे कहें

क़ासिद ! हम फ़क़ीर लोगों का
एक ठिकाना नहीं के तुझसे कहें

ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त
आब-ओ-दाना नहीं के तुझसे कहें

अब तो अपना भी उस गली में ’फ़राज’
आना जाना नहीं के तुझसे कहें

अहमद फ़राज़

हम से जाओ न बचाकर आँखें / अंजना संधीर

हम से जाओ न बचाकर आँखें
यूँ गिराओ न उठाकर आँखें

ख़ामोशी दूर तलक फैली है
बोलिए कुछ तो उठाकर आँखें

अब हमें कोई तमन्ना ही नहीं
चैन से हैं उन्हें पाकर आँखें

मुझको जीने का सलीका आया
ज़िन्दगी ! तुझसे मिलाकर आँखें।

अंजना संधीर

खेल बिन बच्चा / अनिरुद्ध नीरव

इस मुहल्ले में
नहीं मैदान
           बच्चा कहाँ खेले?
घर बहुत छोटा
बिना आंगन
बिना छत और बाड़ी,
गली में
माँ की मनाही
           तेज़ आटो तेज़ गाड़ी
हाथ में बल्ला
मगर मुँह म्लान
           बचा कहाँ खेले?

एक नन्हें दोस्त
के संग
           बाप की बैठक निहारे
एक गुंजाइश
बहुत संकरी लगे
                 सोफ़ा किनारे
बीच में पर
काँच का गुलदान
           बच्चा कहाँ खेले?

खेल बिन बच्चा
बहुत निरुपाय
                बहुत उदास है
खेल का होना
बिना बच्चा
              नहीं कुछ ख़ास है
रुक गई है
बाढ़ इस दौरान
           बच्चा कहाँ खेले?

अनिरुद्ध नीरव

ख़ैर उनको कुछ न आए / अकबर इलाहाबादी

ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा

थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा

अकबर इलाहाबादी

सब आंखों का तारा बच्चा / कुमार विनोद

सब आंखों का तारा बच्चा
सूरज चाँद सितारा बच्चा

सूरदास की लकुटि-कमरिया
मीरा का इकतारा बच्चा

कल-कल करता हर पल बहता
दरिया की जलधारा बच्चा

जग से जीत भले न पाए
खुद से कब है हारा बच्चा

जब भी मुश्किल वक्त पड़ेगा
देगा हमे सहारा बच्चा

कुमार विनोद

करे कोशिश अगर इन्सान तो क्या-क्या नहीं मिलता / अशोक अंजुम

करे कोशिश अगर इन्सान तो क्या-क्या नहीं मिलता
वो उठकर चल के तो देखे जिसे रास्ता नहीं मिलता

भले ही धूप हो कांटे हों पर चलना ही पड़ता है
किसी प्यासे को घर बैठे कभी दरिया नहीं मिलता

कमी कुछ चाल में होगी , कमी होगी इरादों में
जो कहते कामयाबी का हमें नक्शा नहीं मिलता

कहें क्या ऐसे लोगों से जो कहकर लड़खड़ाते हैं
की हम आकाश छू लेते मगर मौक़ा नहीं मिलता

हम अपने आप पर यारो भरोसा करके तो देखें
कभी भी गिडगिडाने से कोई रुतबा नहीं मिलता

अशोक अंजुम

वो इत्तेफ़ाक़ से रस्ते में मिल गया था मुझे / अख़्तर अंसारी

वो इत्तफ़ाक़ से रस्ते में मिल गया था मुझे
मैं देखता था उसे और वो देखता था मुझे

अगरचे उसकी नज़र में थी न आशनाई[1]
मैं जानता हूँ कि बरसों से जानता था मुझे

तलाश कर न सका फिर मुझे वहाँ जाकर
ग़लत समझ के जहाँ उसने खो दिया था मुझे

बिखर चुका था अगर मैं, तो क्यों समेटा था
मैं पैरहन[2] था शिकस्ता[3] तो क्यों सिया था मुझे

है मेरा हर्फ़-ए-तमन्ना[4], तेरी नज़र का क़ुसूर
तेरी नज़र ने ही ये हौसला दिया था मुझे

अख़्तर अंसारी

नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं / कविता किरण

नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं,
हम छलनी में पानी भरने निकले हैं।

आँसू पोंछ न पाए अपनी आँखों के
और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं।

पानी बरस रहा है जंगल गीला है,
हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं।

होंठो पर तो कर पाए साकार नहीं,
चित्रों पर मुस्कानें धरने निकले हैं।

पाँव पड़े न जिन पर अब तक सावन के
ऐसी चट्टानों से झरने निकले हैं।

कविता "किरण"

नैनन के तारन मै राखौ प्यारे पूतरी कै / केशव.

नैनन के तारन मै राखौ प्यारे पूतरी कै,
मुरली ज्योँ लाय राखौं दसन बसन मैं।
राखौ भुज बीच बनमाली बनमाला करि,
चंदन ज्योँ चतुर चढ़ाय राखौं तन मैँ।
केसोराय कल कंठ राखौ बलि कठुला कै,
भरमि भरमि क्यों हूँ आनी है भवन मैँ।
चंपक कली सी बाल सूँघि सूँघि देवता सी,
लेहु प्यारे लाल इन्हेँ मेलि राखौं तन मैँ।


केशव का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

केशव (रीतिकालीन कवि)

हिफ़ाज़त में कोई पलता हुआ नासूर लगता है / अशोक आलोक

हिफ़ाज़त में कोई पलता हुआ नासूर लगता है
सियासत से बहुत छोटा हरेक कानून लगता है

हमें तो जश्न का मौसम बड़ा मासूम लगता है
किसी बच्चे के हाथों में भरा बैलून लगता है

न जाने क्यों कभी ख़ामोशियों में दर्द चेहरे का
हथेली पर लिखा प्यारा कोई मज़मून लगता है

हज़ारों ख़्वाहिशें दिल में अमन के वास्ते लेकिन
दुआ का हाथ जाने क्यों बहुत मायूस लगता है

मज़ा आता है अक्सर यूं बुझाने में चिराग़ों को
हवा को क्या पता कितना जिगर का खून लगता है

अशोक आलोक

कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा / 'कैफ़' भोपाली

कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा
मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा

दिल-ए-नादाँ न धड़क ऐ दिल-ए-नादाँ न धड़क
कोई ख़त ले के पड़ौसी के घर आया होगा

इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़-ए-गुल
तू ने जिस फूल को पाला वो पराया होगा

दिल की किस्मत ही में लिक्खा था अँधेरा शायद
वरना मस्जिद का दिया किस ने बुझाया होगा

गुल से लिपटी हुई तितली हो गिरा कर देखो
आँधियों तुम ने दरख़्तों को गिराया होगा

खेलने के लिए बच्चे निकल आए होंगे
चाँद अब उस की गली में उतर आया होगा

‘कैफ’ परदेस में मत याद करो अपना मकाँ
अब के बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा

'कैफ़' भोपाली

फगुआ- ढोल बजा दे / अवनीश सिंह चौहान

हर कडुवाहट पर
जीवन की
आज अबीर लगा दे
फगुआ- ढोल बजा दे

तेज हुआ रवि
भागी ठिठुरन
शीत-उष्ण-सी
ऋतु की चितवन

अकड़ गई जो
टहनी मन की
उसको तनिक लचा दे

खोलें गाँठ
लगी जो छल की
रिहा करें हम
छवि निश्छल की

जलन मची अनबन की
उस पर
शीतल बैन लगा दे

साल नया है
पहला दिन है
मधुवन-गंध
अभी कमसिन है

सुनो, पपीहे
ऐसे में तू
कोयल के सुर गा दे

अवनीश सिंह चौहान

सबब / उत्‍तमराव क्षीरसागर


आज़ाद औरतें जानती हैं
कि
वाक़ई कि‍तनी आज़ाद हैं वे

वे जानती हैं अपने जि‍स्‍म और रूह के दरमि‍यान
भटकते-फटकते शरारती फौवारें

उन्‍हें मालूम है उनके तन और मन के बीच
आज़ादी की कि‍तनी पतली धार है

फासलों की बात अगर छोड भी दें तो
वे जानती हैं बातों के छूट जाने का सबब

उत्‍तमराव क्षीरसागर

बादलों की चिट्ठियाँ क्या आईं दरियाओं के नाम / अशहर हाशमी

बादलों की चिट्ठियाँ क्या आईं दरियाओं के नाम
हर तरफ़ पानी की इक चलती हुई दीवार थी

इंकिशाफ़-ए-शहर-ए-ना-मालूम था हर शेर में
तजरबे की ताज़ा-कारी सूरत-ए-अशआर थी

आरज़ू थी सामने बैठे रहें बातें करें
आरज़ू लेकिन बेचारी किस क़दर लाचार थी

घर की दोनों खिड़कियाँ खुलती थीं सारे शहर पर
एक ही मंज़र की पूरे शहर में तकरार थी

आँसुओं के चंद क़तरों से थी तर पूरी किताब
हर वरक़ पर एक सूरत माएल-ए-गुफ़्तार थी

उस से मिलने की तलब में जी लिए कुछ और दिन
वो भी ख़ुद बीते दिनों से बर-सर-ए-पैकार थी

अशहर हाशमी

या तो हरेक बशर के लिए मय हराम हो / कांतिमोहन 'सोज़'

या तो हरेक बशर के लिए मय हराम हो I
या फिर हरेक हाथ में लबरेज़ जाम हो II

या अहले-हक़ के वास्ते दीदारे-आम हो,
या फिर तसल्लियों का ये क़िस्सा तमाम हो I

दे दे के ख़ून हमने तुझे सेर कर दिया,
बन्दों के वास्ते भी कोई इन्तज़ाम हो I

ठहरा है क्यों अज़ाब हमारा मुतालिबा,
अपने वजूद का भी कोई एहतराम हो I

जो आए है वो सोज़ को समझाता आए है
अहले-ख़िरद की अब तो कोई रोक-थाम हो II

कांतिमोहन 'सोज़'

हुआ प्रवासी / अवनीश सिंह चौहान

हुआ प्रवासी
गंगावासी
अब
कितना घर का, गाँव का

कॉलेज टॉप
किया ज्यों ही
वह गया गाँव से अमरीका
जाते ही तब
छूट गया सब-
आँचल, राखी, रोली-टीका

बिना आसरे
घर
बूढा बापू
कभी धूप का, छाँव का !

अंतिम सांस
भरी बापू ने
क्रिया-करम को पैसा आया
घर-घर चर्चा
हुई गाँव में -
क्या खोया, क्या किसने पाया?

समय जुआरी
बैठा है
फड़ पर
सब कुछ उसके दाँव का !

दाम कमाया
नाम कमाया
बड़े दिनों से गाँव न आया
भीतर-बाहर
खोज रही माँ
अपनों में अपनों की छाया

क्या दूर बहुत
अब
हुआ रास्ता
अमरीका से गांव का?

अवनीश सिंह चौहान

आँखे अब पथरायी है बन्द दरीचे खोलो हो / अबू आरिफ़

आँखे अब पथरायी है बन्द दरीचे खोलो हो
काहे इतना ज़ुल्म किये हो कुछ तो बोलो हो

चाँद भी मद्धम तारे रोये गम का अन्धेरा और बढ़ा
रात तो सारी गुज़र गई है कुछ लम्हा तो सो लो हो

शाम उफक की लाली है या तेरा जलवा-ए-नाज़ व अदा
मेरी आँखे बरखा खूं है अपनी ज़ुल्फ भिगो लो हो

देखू तुम को शाम व सहर मैं दिल की तमन्ना कुछ ऐसी
आओ तुम भी मयखाने में बन्द ज़ुबा को खोलो हो

कदम-कदम पे रुसवा हुये हो आरिफ होश में आओ तो
दामन पे कुछ दाग लगे है अश्कों से तुम धो लो हो

अबू आरिफ़

बाइसे-शौक आजमाते हैं / अमित

बाइसे-शौक आजमाते हैं
कितने मज़बूत अपने नाते हैं

रोज़ कश्ती सवाँरता हूँ मैं
कुछ नये छेद हो ही जाते हैं

बाकलमख़ुद बयान था मेरा
अब हवाले कहीं से आते हैं

जिनपे था सख़्त ऐतराज़ उन्हे
उन्हीं नग़्मों को गुनगुनाते हैं

शम्मये-बज़्म ने रुख़ मोड़ लिया
अब ’अमित’ अन्जुमन से जाते हैं

शब्दार्थ: बाइसे-शौक = शौक के लिये

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

Friday, January 24, 2014

वक्त का अकबर / अनीता कपूर

नहीं सुन पाती अब
तेरी खामोशियों की दीवारों पर
लिखे शब्द
चुनवा दिया है
मेरे अहसाहों को
वक्त के अकबर ने
नज़रों की ईंटों से
और मैं
एक और अनारकली
बन गयी हूँ मैं

अनीता कपूर

इच्छा थी / अरुण कमल

इच्छा तो बहुत थी कि एक घर होता
मेंहदी के अहाते वाला
कुछ बाड़ी-झाड़ी

कुछ फल-फूल
और द्वार पर एक गाय
और बाहर बरामदा में बैंत की कुर्सी
बारिश होती तेल की कड़कड़ धुआं उठता
लोग-बाग आते – बहन कभी भाई साथी संगी
कुछ फैलावा रहता थोड़ी खुशफैली
पर लगा कुछ ज्यादा चाह लिया
स्वप्न भी यथार्थ के दास हैं भूल गया
खैर! जैसे भी हो जीवन कट जाएगा
न अपना घर होगा न जमीन
फिर भी आसमान तो होगा कुछ-न-कुछ
फिर भी नदी होगी कभी भरी कभी सूखी
रास्ते होंगे शहर होगा और एक पुकार
और यह भी कि कोई इच्छा थी कभी
तपती धरती पर तलवे का छाला ।

अरुण कमल

ये दुनिया इक दुल्हन / आनंद बख़्शी

 
हरे रामा, हरे रामा, रामा रामा हरे
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे
सिम सिम पोला पोला सिम सिम पोला
हरे रामा, हरे रामा, रामा रामा हरे
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण,
कृष्ण कृष्ण

वी वांट टू गो

अरे बोलो बोलो
अमेरिका, अमेरिका, अमेरिका!

लन्दन देखा, पैरिस देखा
लन्दन देखा, पैरिस देखा
और देखा जापान
मैकल देखा, एल्विस देखा
सब देखा मेरी जान
सारे जग में कहीं नहीं है
दूसरा हिन्दुस्तान, दूसरा हिन्दुस्तान, दूसरा हिन्दुस्तान

ये दुनिया, इक दुल्हन
ये दुनिया, इक दुल्हन
दुल्हन के माथे की बिन्दिया
ये मेरा इन्डिआ
ये मेरा इन्डिआ
आय लव माय इंडिया
आय लव माय इंडिया

ये दुनिया, इक दुल्हन
ये दुनिया, इक दुल्हन
दुल्हन के माथे की बिन्दिया
ये मेरा इन्डिआ
आय लव माय इंडिया
ये मेरा इन्डिआ
आय लव माय इंडिया

जब छेड़ा मल्हार किसी ने
झूम के सावन आया
आग लगा दी पानी में जब
दीपक राग सुनाया
सात सुरों का संगम
ये जीवन गीतों की माला
हम अपने भगवान को भी
कहते हैं बाँसुरी वाला
बाँसुरी वाला
बाँसुरी वाला
ये मेरा इन्डिआ
आय लव माय इंडिया
ये मेरा इन्डिआ
आय लव माय इंडिया

सिम सिम पोला पोला, सिम सिम पोला
सिम्बोला, सिम्बोला

दो रे फ़ सो
प म रे स
दो रे फ़ सो
प म रे स
दो रे फ़ सो
प म रे स
दो रे फ़ सो
प म रे स
दो रे दो रे
प म प म प म
प म प म प म
म प नि प नि प
नि प नि प नि प
नि प नि स रे रे
रे रे रे रे रे रे
स रे स रे स रि
स स स स स स
स नि प नि नि प
प म म रे रे स
स रि स रि रे

पिहू पिहू, बोले पपीहा कोयल कुहू कुहू, गाये
हँसते रोते, हमने जीवन के सब गीत बनाये
ये सारी दुनिया अपने अपने गीतों को गाये
गीत वो गाओ जिस से इस मिट्टी की खुशबू आये
मिट्टी की खुशबू आये

आय लव माय इंडिया, आय लव माय इंडिया
आय लव माय इंडिया, आय लव माय इंडिया
वतन मेरा इन्डिआ, सजन मेरा इन्डिआ

ये दुनिया
ये दुनिया
इक दुल्हन
इक दुल्हन
ये दुनिया, इक दुल्हन
दुल्हन के माथे की बिन्दिया
ये मेरा इन्डिआ, आय लव माय इंडिया
ये मेरा इन्डिआ, आय लव माय इंडिया
वतन मेरा इन्डिआ
सजन मेरा इन्डिआ
करम मेरा इन्डिआ
धरम मेरा इन्डिआ
आ आ आ आ आ

आनंद बख़्शी

वादे थे फिर वादे ही वो टूट गए तो क्या कीजे / उपेन्द्र कुमार

वादे थे फिर वादे ही वो टूट गए तो क्या कीजे
साथी थे फिर साथी ही वो छूट गए तो क्या कीजे

तन-मन से प्यारे थे सपने चाह ने जो दिखलाए
सोच की आँखें खुल जाने पर टूट गए तो क्या कीजे

प्यार के वो अनमोल खजाने आस रही तो अपने थे
उन्हें निराशा के अँधियारे लूट गए तो क्या कीजे

जीवन नैया के जो चप्पू हमने मिलकर थामे थे
अनहोनी के तेज़ भँवर मे टूट गए तो क्या कीजे

खुशहाली ने जिनकी खुशी में घर संसार सजाया था
बुरे वक़्त में मीत वही जो रूठ गए तो क्या कीजे

आस हवा का दामन निकली हम बेचारे क्या करते
इंतज़ार में भाग हमारे फूट गए तो क्या कीजे

दर्द के रिश्ते इनसानों में जब तक थे मज़बूत रहे
प्यार के धागे कोमल थे जो टूट गए तो क्या कीजे

उपेन्द्र कुमार

लम्बी जुदाई / आनंद बख़्शी

 
बिछड़े अभी तो हम
बस कल परसों
जियूंगी मैं कैसे
इस हाल में बरसों
मौत ना आये तेरी याद क्यों आये?
हाय, लम्बी जुदाई

चार दिनों का प्यार, हो रब्बा
बड़ी लम्बी जुदाई, लम्बी जुदाई
होंठों पे आये, मेरी जान, दुहाई
हाय, लम्बी जुदाई
चार दिनों का प्यार, हो रब्बा
बड़ी लम्बी जुदाई, लम्बी जुदाई

एक तो सजन मेरे पास नहीं रे
दूजे मिलन दी कोई आस नहीं रे
दूजे मिलन दी कोई आस नहीं रे
उसपे ये सावन आया
उसपे ये सावन आया
आग लगाने
हाय, लम्बी जुदाई
चार दिनों का प्यार, हो रब्बा
बड़ी लम्बी जुदाई, लम्बी जुदाई

बाग उजड़ गये, बाग उजड़ गये खिलने से पहले
पंछी बिछड़ गये मिलने से पहले
पंछी बिछड़ गये मिलने से पहले
कोयल की कूक, कोयल की कूक ने हूक उठायी
हाय, लम्बी जुदाई
चार दिनों का प्यार, हो रब्बा
बड़ी लम्बी जुदाई, लम्बी जुदाई
होंठों पे आये, मेरी जान, दुहाई
हाय, लम्बी जुदाई

टूटे ज़माने तेरे हाथ निगोड़े, हाथ निगोड़े
दिल से दिलों की तूने शीशे तोड़े, शीशे तोड़े
हिज्र की ऊँची, हिज्र की ऊँची दीवार बनायी
हाय, लम्बी जुदाई
चार दिनों का प्यार, हो रब्बा
बड़ी लम्बी जुदाई, लम्बी जुदाई

चार दिनों का प्यार, हो रब्बा
बड़ी लम्बी जुदाई
लम्बी जुदाई, लम्बी जुदाई

आनंद बख़्शी

मैं किसके नाम लिखूँ, जो अलम गुज़र रहे हैं / उबैदुल्लाह 'अलीम'

मैं किसके नाम लिखूँ, जो अलम गुज़र रहे हैं
मेरे शहर जल रहे हैं, मेरे लोग मर रहे हैं

कोई गुंचा हो कि गुल, कोई शाख हो शजर हो
वो हवा-ए-गुलिस्तां है कि सभी बिखर रहे हैं

कभी रहमतें थीं नाज़िल इसी खित्ता-ए-ज़मीन पर
वही खित्ता-ए-ज़मीन है कि अज़ाब उतर रहे हैं

वही ताएरों के झुरमुट जो हवा में झूलते थे
वो फ़िज़ा को देखते हैं तो अब आह भर रहे हैं

कोई और तो नहीं है पस-ए-खंजर-आजमाई
हमीं क़त्ल हो रहे हैं, हमीं क़त्ल कर रहे हैं

उबैदुल्लाह 'अलीम'

दुख उसने / गगन गिल

दुख उसने
बहुत दिन हुए
पीछे छोड़ दिए थे

भिक्षु की पीड़ा में
संसार गलता है अब

गगन गिल

(एक बार एक गोरे अधिकारी ने रेड इण्डियन्स की ज़मीन पर कब्ज़ा जमाने के लिए उनके सरदार से पेशकश की, उसके ज़वाब में सरदार ने उस गोरे अधिकारी से रेड इण्डियन्स की प्रकृति से सम्बद्ध जीवन के बारे में लम्बी बहस की और उसे किसी भी तरह अपनी ज़मीन देने से इनकार कर दिया और कहा कि तुम्हारे लिए यह धरती दुश्मन का इलाका भर है जिसे तुम जीत कर आगे बढ़ जाते हो।
उसके बाद एक बार फिर एक दिन गाँव के बुजुर्ग डोडे वैद्य ने गोंडवाना के युवा गोंड से कहा कि कोंड डोंगरिया, हो, मुण्डा, सन्थाल, उराँव, खडिय़ा, चीक, असुर सबसे कह दो कि अधिकारियों और व्यापारियों के पैर उनकी तरफ़ बढ़ने से पहले यहीं रोक दें।)

वहाँ तुमने अपना झण्डा गाड़ा
और फ़सलों को रौंद कर आगे बढ़ गए,

अब तुम्हारे सामने नदी थी
तुमने नदी का पानी पीया और उसके बाद उसे पहले गन्दला किया ताकि उसे
और कोई न पिए
फिर भी प्यासों ने गन्दे पानी से अपनी प्यास बुझाई तो तुमने उसे सोख लिया अब
पक्षी और तितलियाँ बिना पानी के मरने लगी हैं
तुम और आगे बढ़े, एक और नदी पर कब्ज़ा जमाया

तुमने अपने रास्ते के सारे जंगल उजाड़ डाले
जो जानवर तुम्हारी शोभा बढ़ा सकते थे उसे तुमने अपने पिंजरे में क़ैद कर लिया
और जो बाक़ी बचे थे उसका सामूहिक संहार किया,
तुमने पहाड़ पर कब्ज़ा कर उसकी ऊँचाई काट डाली,

तुम धरती के सभी प्राणियों को अनाथ कर विजेता बने हो
तुम्हारे लिए यह धरती दुश्मन का इलाका भर है
जिसे तुम जीत कर आगे बढ़ जाते हो

रचनाकाल : 19 मार्च 2013

अनुज लुगुन

हस्ती के शजर में जो यह चाहो कि चमक जाओ / अकबर इलाहाबादी

हस्ती के शज़र में जो यह चाहो कि चमक जाओ
कच्चे न रहो बल्कि किसी रंग मे पक जाओ

मैंने कहा कायल मै तसव्वुफ का नहीं हूँ
कहने लगे इस बज़्म मे जाओ तो थिरक जाओ

मैंने कहा कुछ खौफ कलेक्टर का नहीं है
कहने लगे आ जाएँ अभी वह तो दुबक जाओ

मैंने कहा वर्जिश कि कोई हद भी है आखिर
कहने लगे बस इसकी यही हद कि थक जाओ

मैंने कहा अफ्कार से पीछा नहीं छूटता
कहने लगे तुम जानिबे मयखाना लपक जाओ

मैंने कहा अकबर मे कोई रंग नहीं है
कहने लगे शेर उसके जो सुन लो तो फडक जाओ

अकबर इलाहाबादी