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Sunday, November 30, 2014

कौन हो तुम / अंजना बख्शी

तंग गलियों से होकर
गुज़रता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

फटा लिबास ओढ़े
कहता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

पैरों में नहीं चप्पल उसके
काँटों भरी सेज पर
चलता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

आँखें हो गई हैं अब
उसकी बूढ़ी
धँसी हुई आँखों से
देखता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

एक रोज़ पूछा मैंने
उससे,
कौन हो तुम
‘तेरे देश का कानून’
बोला आहिस्ता-आहिस्ता !!

अंजना बख्शी

जानाँ दिल का शहर नगर अफ़सोस का है / फ़राज़

जानाँ दिल का शहर, नगर अफ़सोस का है
तेरा मेरा सारा सफ़र अफ़सोस का है

किस चाहत से ज़हरे-तमन्ना माँगा था
और अब हाथों में साग़र अफ़सोस का है

इक दहलीज पे जाकर दिल ख़ुश होता था
अब तो शहर में हर इक दर अफ़सोस का है

हमने इश्क़ गुनाह से बरतर जाना था
और दिल पर पहला पत्थर अफ़सोस का है

देखो इस चाहत के पेड़ की शाख़ों पर
फूल उदासी का है समर अफ़सोस का है

कोई पछतावा सा पछतावा है 'फ़राज़'
दुःख का नहीं अफ़सोस मगर अफ़सोस का है

अहमद फ़राज़

इन सलोनों की भाषा सीख लो / अजेय


खिड़की के शीशों से बरफ़ की परतें खुरचते हुए
दूर तूफान में कुछ सफ़ेद लोथों की तरह
हिलते देखा था उन्हें
उलझे हुए गुत्थम-गुत्था

यह प्रणय हो सकता है
या फिर आखेट !

कभी कुछ छोटे-बड़े
पंजों के निशान दिख जाते हैं
उलझे हुए
हड़प्पा की जटिल लिपियों जैसे......
कहते हैं बड़ा कुछ दर्ज़ रहता है बरफ़ की सतह पर
बशर्ते कि आप को पढ़ना आता हो
यहाँ इन्ही आदिम भालुओं का साम्राज्य है
जो परम ज्ञानी हैं
भूख लगने पर भोजन तलाशते
थक जाने पर सो जाते
ये सलोने पढ़ाकू जीव ही बता सकते हैं, तुम्हे
इस धरती के बरफ़ हो जाने का इतिहास

फॉसिल की तरह ज़िन्दा बचा होगा
अतल गहराईयों में जो
बस, तुम इनकी भाषा सीख लो।

सुमनम, मार्च 2005

अजेय

सुख-दुःख की महिमा / कबीर

सुख - दुःख सिर ऊपर सहै, कबहु न छाडै संग |
रंग न लागै और का, व्यापै सतगुरु रंग ||


सभी सुख - दुःख अपने सिर ऊपर सह ले, सतगुरु - सन्तो की संगर कभी न छोड़े | किसी ओर विषये या कुसंगति में मन न लगने दे, सतगुरु के चरणों में या उनके ज्ञान - आचरण के प्रेम में ही दुबे रहें |


कबीर गुरु कै भावते, दुरहि ते दीसन्त |
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरंत ||


गुरु कबीर कहते हैं कि सतगुरु ज्ञान के बिरही के लक्षण दूर ही से दीखते हैं | उनका शरीर कृश एवं मन व्याकुल रहता है, वे जगत में उदास होकर विचरण करते हैं |


दासातन हरदै बसै, साधुन सो अधिन |
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ||


जिसके ह्रदे में सेवा एवं प्रेम भाव बसता है और सन्तो कि अधीनता लिये रहता है | वह प्रेम - भक्ति में लवलीन पुरुष ही सच्चा दास है |


दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास |
अब तो ऐसा होय रहूँ, पाँव तले कि घास ||


ऐसा दास होना कठिन है कि - "मैं दासो का दास हूँ | अब तो इतना नर्म बन कर के रहूँगा, जैसे पाँव के नीचे की घास " |


लगा रहै सतज्ञान सो सबही बन्धन तोड़ |
कहैं कबीर वा दास को, काल रहै हथजोड़ ||


जो सभी विषय - बंधनों को तोड़कर सदैव सत्य स्वरुप ज्ञान की स्तिति में लगा रहे | गुरु कबीर कहते हैं कि उस गुरु - भक्त के सामने काल भी हाथ जोड़कर सिर झुकायेगा |

कबीर

सुबह का अख़बार / कृष्ण कुमार यादव

आज सुबह का अख़बार देखा
वही मार-काट, हत्या और बलात्कार

रोज़ पढ़ता हूँ इन घटनाओं को
बस पात्रों के नाम बदल जाते हैं
क्या हो गया है इस समाज को

ये घटनाएँ उसे उद्वेलित नहीं करतीं
सिर्फ ख़बर बनकर रह जाती हैं
कोई नहीं सोचता कि यह घटना
उसके साथ भी हो सकती है

और लोग उसे अख़बारों में पढ़कर
चाय की चुस्कियाँ ले रहे होंगे ।

कृष्ण कुमार यादव

अजब जलवे दिखाए जा रहे हैं / अज़ीज़ आज़ाद

अजब जलवे दिखाए जा रहे हैं
ख़ुदी को हम भुलाए जा रहे हैं

शराफ़त कौन-सी चिड़िया है आख़िर
फ़कत किस्से सुनाए जा रहे हैं

बुजुर्गों को छुपाकर अब घरों में
सजे कमरे दिखाए जा रहे हैं

खुद अपने हाथ से इज़्ज़त गँवा कर
अब आँसू बहाए जा रहे हैं

हमें जो पेड़ साया दे रहे थे
उन्हीं के क़द घटाए जा रहे हैं

सुख़नवर अब कहाँ हैं महफ़िलों में
लतीफ़े ही सुनाए जा रहे हैं

‘अजीज’अब मज़हबों का नाम लेकर
लहू अपना बहाए जा रहे हैं

अज़ीज़ आज़ाद

मैं अज़ल की शाख से टूटा हुआ / अमजद इस्लाम

मैं अज़ल की शाख से टूटा हुआ
फिर रहा हूँ आज तक भटका हुआ

देखता रहता है मुझको रात दिन
कोई अपने तख़्त पर बैठा हुआ

चाँद तारे दूर पीछे रह गए
मैं कहाँ पर आ गया उड़ता हुआ

बंद खिड़की से हवा आती रही
एक शीशा था कहीं टूटा हुआ

खिडकियों में, कागजों में, मेज़ पर
सारे कमरे में है वो फैला हुआ

अपने माजी का इक समुंदर चाहिए
इक खजाना है यहाँ डूबा हुआ

दोस्तों ने कुछ सबक ऐसे दिए
अपने साये से भी हूँ सहमा हुआ

किसी कि आहट आते आते रुक गयी
किस ने मेरा साँस है रोका हुआ

अमजद इस्लाम अमजद

पिया तुज आश्ना मैं तूँ बे-गाना न कर मुंज कूँ / क़ुली 'क़ुतुब' शाह

पिया तुज आश्ना मैं तूँ बे-गाना न कर मुंज कूँ
रनी नईं यक रती तुज याद बिन तूँ न बिसर मुंज कूँ

तेरे पग तल रखी हूँ सीस अज़ल दिन थे अबद लक भी
अजब क्या है जो नित सर भईं धरें सा तो अंबर मुंज कूँ

जहाँ तूँ वाँ हूँ मैं प्यारे मुंजे क्या काम है किस सूँ
न बुत-ख़ाना का मुंज परवा न मस्जिद का ख़बर मंुज कूँ

जन्नत होर दोज़ख होर एराफ़ कुच नीं है मेरे लीखे
जिधर तूँ वाँ मेरा जन्नत जिधर नईं वाँ सक़र मुंज कूँ

जन्नत कूँ होर दोज़ख कूँ सो मस्जिद बुत-ख़ाना क्या
किसे ना जानूँ मैं मालुम नईं कोई तुज ब़गैर मुंज कूँ

क़ुली 'क़ुतुब' शाह

उम्र-ए-पस-मांदा कुछ दलील सी है / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

उम्र-ए-पस-मांदा कुछ दलील सी है
ज़िंदगानी शी अब क़लील सी है

गिर्या करता हूँ क्या मैं नज़र-ए-हुसैन
आँसुओं की जो इक सबील सी है

चला दिला वो पतंग उड़ाता है
अभी आने में उस के ढील सी है

लोग करते है वस्फ़-ए-नूर-जहाँ
मैं ने देखा तो ज़न तो फ़ील सी है

किस के मिज़गाँ ने ये किया जादू
मेरे दिल में गड़ी जो कील सी है

तू गर आवे शिकार-ए-माही की
चश्म-ए-तर आँसुओं से झील सी है

उस को सोहबत का गर दिमाग़ नहीं
तबा अपनी भी कुछ अलील सी है

दिल मेरा मिó-ए-हुस्न है तब तो
नद्दी आँखों की रूद-ए-नील सी है

है जो ये ‘मुसहफ़ी’ की हम-ख़्वाबा
है तो अच्छी पे कुछ असील सी है

ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

कुछ भी नहीं जो याद-ए-बुतान-ए-हसीं नहीं / 'अफसर' इलाहाबादी

 कुछ भी नहीं जो याद-ए-बुतान-ए-हसीं नहीं
 जब वो नहीं तो दिल भी हमारा कहीं नहीं

 किस वक़्त ख़ूँ-फ़शाँ नहीं आँखें फ़िराक़ में
 किस रोज़ तर लहू से यहाँ आस्तीं नहीं

 ऐसा न पाया कोई भी उस बुत का नक़्श-ए-पा
 जिस पर के आशिक़ों के निशान-ए-जबीं नहीं

 हर पर्दा-दार वक़्त पर आता नहीं है काम
 एक आस्तीं है आँखों पर इक आस्तीं नहीं

 दोनों जहाँ से काम नहीं हम को इश्क़ में
 अच्छा तो है जो अपना ठिकाना कहीं नहीं

 क्या हर तरफ़ है नज़ा में अपनी निगाह-ए-यास
 ज़ानू पर उस के सर जो दम-ए-वापसीं नहीं

 दोनों में सौ तरह के बखेड़े हैं उम्र भर
 ऐ इश्क़ मुझ को हौसला-ए-कुफ़्र-ओ-दीं नहीं

 वो महर वश जो आया था कल और औज था
 आज आसमाँ पे मेरे मकाँ की ज़मीं नहीं

 क्या आँख उठा के नज़ा में देखूँ किसी को मैं
 बालीं पर आप ही जो दम-ए-वापसीं नहीं

 पैदा हुई ज़रूर कोई ना-ख़ुशी की बात
 बे-वजह ये हुज़ूर की चीन-ए-जबीं नहीं

 ख़ैर आ के फ़ातिहा कभी इख़्लास से पढ़े
 उस बे-वफ़ा की ज़ात से ये भी यक़ीं नहीं

 ख़िलअत मिली जुनूँ से अजब क़ता की मुझे
 दामन हैं चाक जेब क़बा आस्तीं नहीं

 'अफ़सर' जो इस जहान में कल तक थे हुक्मराँ
 आज उन का बहर-ए-नाम भी ताज ओ नगीं नहीं

'अफसर' इलाहाबादी

मुद्दत से लापता है / 'अख्तर' सईद खान

मुद्दत से लापता है ख़ुदा जाने क्या हुआ
फिरता था एक शख़्स तुम्हें पूछता हुआ

वो ज़िंदगी थी आप थे या कोई ख़्वाब था
जो कुछ था एक लम्हे को बस सामना हुआ

हम ने तेरे बग़ैर भी जी कर दिखा दिया
अब ये सवाल क्या है के फिर दिल का क्या हुआ

सो भी वो तू न देख सकी ऐ हवा-ए-दहर
सीने में इक चराग़ रक्खा था जला हुआ

दुनिया को ज़िद नुमाइश-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर से थी
फ़रियाद मैं ने की न ज़माना ख़फ़ा हुआ

हर अंजुमन में ध्यान उसी अंजुमन का है
जागा हो जैसे ख़्वाब कोई देखता हुआ

शायद चमन में जी न लगे लौट आऊँ मैं
सय्याद रख क़फ़स का अभी दर खुला हुआ

ये इज़्तिराब-ए-शौक़ है 'अख़्तर' के गुम-रही
मैं अपने क़ाफ़िले से हूँ कोसों बढ़ा हुआ.

'अख्तर' सईद खान

फिर क्या जो फूट फूट के ख़ल्वत में रोइए / उर्फी आफ़ाक़ी

फिर क्या जो फूट फूट के ख़ल्वत में रोइए
यकसर जहान ही को न जब तक डुबोइए

दीवाना-वार नाचिये हँसिए गुलों के साथ
काँटे अगर मिलें तो जिगर में चुभोइए

आँसू जहाँ भी जिस की भी आँखों में देखिए
मोती समझ के रिष्ता-ए-जाँ में पिरोइए

हर सुब्ह इक ज़जीरा-ए-नौ की तलाश में
साहिल से दूर शोरिश-ए-तूफ़ाँ के होइए

उर्फी आफ़ाक़ी

चंदा मामा / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

चंदा मामा दौड़े आओ,
दूध कटोरा भर कर लाओ।
उसे प्यार से मुझे पिलाओ,
मुझ पर छिड़क चाँदनी जाओ।

मैं तैरा मृग-छौना लूँगा,
उसके साथ हँसूँ खेलूँगा।
उसकी उछल-कूद देखूँगा,
उसको चाटूँगा-चूमूँगा।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जानत जे हैँ सुजान तुम्हैँ तुम आपने जान गुमान गहे हो / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

जानत जे हैँ सुजान तुम्हैँ तुम आपने जान गुमान गहे हो ।
दूध औ पानी जुदे करिबे को जु कोऊ कहै तो कहा तुम कैहो ।
सेत ही रँग मराल बने हौ पै चाल कहौ जु कहाँ वह पैहो ।
प्यार सोँ कोऊ कछू हू कहै बक हौ बक हौ झख मारत रैहो ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

अज्ञात कवि (रीतिकाल)

मन करै / ओम पुरोहित ‘कागद’

मन
कीं न कीं
करतो रै’वै ।
मन करै
पाखंड़ी बणूं
कळी बणूं
फळ बणूं
या
बा डांडी बणूं
जकी माथै लागै
पांखड़ी
कळी
फूल
फळ ।
अर फेर करै
बणूं भंवरो
सुंघू फूल
बेअंत
कदै ई करै
बणूं रुत
फगत बसंत ।

ओम पुरोहित ‘कागद’

तू लिख रहा है नस्र तरन्नुम की बात कर / कांतिमोहन 'सोज़'

तू लिख रहा है नस्र तरन्नुम की बात कर I
सर्दी बहुत है जून के मौसम की बात कर II

अश्कों की बात करता है पिछड़ा हुआ है तू
शायर है चश्मे-नम के तलातुम की बात कर I

तामीर चाहता है तो ताराज करना सीख
मक़सद बहिश्त हो तो जहन्नुम की बात कर I

रब पर भी हो चला है ज़माने का कुछ असर
हो जश्न की मुराद तो मातम की बात कर I

दौरे-जदीद है तू चलन इसका सीख ले
मौक़ा हो ईद का तो मोहर्रम की बात कर I

अहले-सितम के पास हुजूमे-अदीब है
तू पाकदामनों के जरायम की बात कर I

बाजार मौत का है बहुत गर्म चारसू
ऐसे में सोज़ ज़ीस्त के दम-ख़म की बात कर II

कांतिमोहन 'सोज़'

सुरा समर्थन / काका हाथरसी

भारतीय इतिहास का, कीजे अनुसंधान
देव-दनुज-किन्नर सभी, किया सोमरस पान
किया सोमरस पान, पियें कवि, लेखक, शायर
जो इससे बच जाये, उसे कहते हैं 'कायर'
कहँ 'काका', कवि 'बच्चन' ने पीकर दो प्याला
दो घंटे में लिख डाली, पूरी 'मधुशाला'

भेदभाव से मुक्त यह, क्या ऊँचा क्या नीच
अहिरावण पीता इसे, पीता था मारीच
पीता था मारीच, स्वर्ण- मृग रूप बनाया
पीकर के रावण सीता जी को हर लाया
कहँ 'काका' कविराय, सुरा की करो न निंदा
मधु पीकर के मेघनाद पहुँचा किष्किंधा

ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार
ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार
अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ
जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुँचाओ
पकड़ें यदि सार्जेंट, सिपाही ड्यूटी वाले
लुढ़का दो उनके भी मुँह में, दो चार पियाले

पूरी बोतल गटकिये, होय ब्रह्म का ज्ञान
नाली की बू, इत्र की खुशबू एक समान
खुशबू एक समान, लड़्खड़ाती जब जिह्वा
'डिब्बा' कहना चाहें, निकले मुँह से 'दिब्बा'
कहँ 'काका' कविराय, अर्ध-उन्मीलित अँखियाँ
मुँह से बहती लार, भिनभिनाती हैं मखियाँ

प्रेम-वासना रोग में, सुरा रहे अनुकूल
सैंडिल-चप्पल-जूतियां, लगतीं जैसे फूल
लगतीं जैसे फूल, धूल झड़ जाये सिर की
बुद्धि शुद्ध हो जाये, खुले अक्कल की खिड़की
प्रजातंत्र में बिता रहे क्यों जीवन फ़ीका
बनो 'पियक्कड़चंद', स्वाद लो आज़ादी का

एक बार मद्रास में देखा जोश-ख़रोश
बीस पियक्कड़ मर गये, तीस हुये बेहोश
तीस हुये बेहोश, दवा दी जाने कैसी
वे भी सब मर गये, दवाई हो तो ऐसी
चीफ़ सिविल सर्जन ने केस कर दिया डिसमिस
पोस्ट मार्टम हुआ, पेट में निकली 'वार्निश'

काका हाथरसी

मकड़ी के जाले / अनूप अशेष

मकड़ी के जाले हैं
बाँस की अटारी
सीने में बैठी है
भूख की कटारी।

माँ के घर बेटी है
दूर अभी गौना
चूल्हे में
आँच नहीं
खाट में बिछौना,
पिता तो किवाड़ हुए
सांकल महतारी।

खेतों से बीज गया
आँखों से भाई
घर का
कोना-कोना
झाँके महँगाई,
आसों का साल हुआ
सांप की पिटारी।

पीते घुमड़े बादल
देहों का पानी
मथती
छूँछी मटकी
लाज की मथानी,
बालों का तेल हुई
गाँव की उधारी।

अनूप अशेष

ग़म से बढ़कर खुशी नहीं लगती / कांतिमोहन 'सोज़'

ग़म से बढ़कर खुशी नहीं लगती I
अब कोई शै बुरी नहीं लगती II

चलके अब आइना तलाश करें,
उसमें कोई कमी नहीं लगती I

मेरा साया है मेरे साथ अब तक,
ये तो उसकी गली नहीं लगती I

शायद इसके परे भी हो बस्ती,
ये गली आख़िरी नहीं लगती I

जैसी पहले थी अब भी है फिर क्यूँ,
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं लगती I

सबके दामन सही सलामत हैं,
आशिक़ी आशिक़ी नहीं लगती I

क़त्ल इतना हुआ है सोज़ यहाँ
ख़ुदक़ुशी ख़ुदक़ुशी नहीं लगती II

कांतिमोहन 'सोज़'

जाचन कतहू न जैये प्यारे / कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'

जाचन कतहू न जैये प्यारे ।
हाथ पसारत कुल गुन गौरव, ता छन अपन गमैये ॥
त्यागत मित्र मित्रता प्यारी, बहु दिन जाहि निवाही ।
देखत ही मुख फेरि लेतु है, अरु बोलत कछु नाँही ॥
नृप दरबार चढ़न नहिं पावत, प्रहरी डाँटि भगावे ।
सब कोउ नाच नचावन चाहे, हँसि हँसि व्यंग सुनावे ॥
जाय महत्व लहे लघुता अति, दुखन दुरे केहु भाँती ।
वामन भो हरि वलि के आगे, द्वार खड़े दिन राती ॥
जानो यह निश्र्चय ‘सरोज’ बिन दिये नाहिं कछु पैये ।
बन में रहि एक बेर सागहू, आध पेट बरु खैये ।
                   जाचन कतहू न जैयें ॥

कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'

Saturday, November 29, 2014

हम हैं जिन्हों ने नाम-ए-चमन बू नहीं किया / 'क़ाएम' चाँदपुरी

हम हैं जिन्हों ने नाम-ए-चमन बू नहीं किया
आई सबा जिधर से उधर रू नहीं किया

हम हैं हवा-ए-नस्ल में उस गुल की दर-ब-दर
जिस का सबा ने तौफ-ए-सर-ए-कू नहीं किया

वो ख़ूब-रू है कौन सा जग में फरिश्ता-वश
दो रोज़ मिल के हम जिसे बद-ख़ू नहीं किया

‘काएम’ को इस तरह से तू देता है गालियाँ
जिस को किसी ने आज तलक तू नहीं किया

'क़ाएम' चाँदपुरी

मैं अजन्मा, जन्मदिन किसका मनाऊँ / अमित

मैं अजन्मा,
जन्मदिन किसका मनाऊँ?

पंचभूतों के विरल संघात का?
क्षरित क्षण-क्षण हो रहे जलजात का?
दो दिनो के ठाट मृण्मय गात का
या जगत की वासना सहजात का?
किसे निज-अस्तित्त्व का
स्यन्दन बनाऊँ
मैं अजन्मा
जन्मदिन किसका मनाऊँ

किये होंगे जगत के अनगिनित फेरे
मिले होंगे वास के लाखों बसेरे
हैं कहाँ वो पूर्व के अवशेष मेरे?
सर्वग्रासी हैं अदृश-पथ के अँधेरे
समय के किस बिन्दु पर
टीका लगाऊँ
मैं अजन्मा
जन्मदिन किसका मनाऊँ?

नित्य स्लथ होते हुये इस आवरण को
देखता हूँ शिथिल होते आचरण को
खोजता हूँ लुप्त से अन्तःकरण को
कहाँ पहुँचा! खोजता अपनी शरण को
क्या अभीप्सित है,
भ्रमित हूँ क्या बताऊँ?
मैं अजन्मा
जन्मदिन किसका मनाऊँ?

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

ओवरकोट / अंजना संधीर

काले-लम्बे
घेरदार ,सीधे
विभिन्न नमूनों के ओवर कोट की भीड़ में
मैं भी शामिल हो गई हूँ।

सुबह हो या शाम, दोपहर हो या रात
बर्फ़ीली हड्डियों में घुसती ठंडी हवाओं को
घुटने तक रोकते हैं ये ओवरकोट।

बसों में,सब वे स्टेशनों पर इधर-उधर दौड़ते
तेज कदमों से चलते ये कोट,
बर्फ़ीले वातावरण में अजब-सी सुंदरता के
चित्र खींचते हैं।

चाँदी सी बर्फ़ की चादरें जब चारों ओर बिछती हैं
उन्हें चीर कर जब गुजरते हैं ये कोट
तब श्वेत-श्याम से मनोहारी दृश्य
ऐसे लगते हैं
मानों किसी गोरी ने
बर्फ़ीली चादरों को नजर से बचाने के लिए
ओवरकोट रूपी तिल लगा लिया हो!

अंजना संधीर

नसीबों से कोई गर मिल गया है / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

नसीबों से कोई गर मिल गया है
तो पहले उस पे अपना दिल गया है

करेगा याद क्या क़ातिल को अपने
तड़पता याँ से जो बिस्मिल गया है

लगे हैं ज़ख़्म किस की तेग़ के ये
कि जैसे फूट सीना खुल गया है

ख़ुदा के वास्ते उस को न लाओ
अभी तो याँ से वो क़ातिल गया है

कोई मजनूँ से टुक झूटे ही कह दे
के लैला का अभी महमिल गया है

अगर टुक की है हम ने जुम्बिश उस को
पहाड़ अपनी जगह से हिल गया है

कोई ऐ ‘मुसहफ़ी’ उस से ये कह दे
दुआ देता तुझे सायल गया है

ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

भानियावाला विस्थापित / कुमार अनुपम

(ग्राम-बागी के एक वाशिंदे का वक्तव्य)
 
भाईजी
देख रहे हो जो हरी-भरी फसल
यूँ ही न आई
जंगल थे जंगल
पत्थर ही पत्थर
जब धकेल दिया गया हमें
टिहरी डेम की बेकार टोकरियों की तरह
 
छूट गए वहीं
बहुत-से अभिन्न
जो सिर्फ नदी-पहाड़ दरत-जंगल
कीट-पखेरू सरीसृप-जंतु खेत-खलिहान
धूप-हवा जमीन-आसमान नहीं
परिवार के सदस्य थे हमारे
 
वह बोले जा रहा था अनलहक
 
उसकी भाषा में
कुछ चीटियाँ ढो रही थीं अपने अंडे
और कोशिश थी
एक लहराती कतार में संयत होकर चलने की
 
वह बोले जा रहा था लगातार -
पत्थर में रहनेवाले हम पत्थरदिल
आन बसे इस ओर
कुरेद कुरेद कर
बटोर बटोर कर पत्थर
बनाए खेत
बसाया घर-संसार पुनः
 
भाईजी
इधर फिर आई है खबर
पड़ोस की हवाई-पट्टी है यह
आएगी हमारे आँगन तक
फिर खदेड़ा जाएगा हमें कहीं और
फिर जारी है
हमारी सृष्टि से हमें बेदखल करने की तैयारी।

कुमार अनुपम

एक पारिवारिक प्रश्न / केदारनाथ सिंह

छोटे से आंगन में
माँ ने लगाए हैं
तुलसी के बिरवे दो

पिता ने उगाया है
बरगद छतनार

मैं अपना नन्हा गुलाब
कहाँ रोप दूँ!

मुट्ठी में प्रश्न लिए
दौड़ रहा हूं वन-वन,
पर्वत-पर्वत,
रेती-रेती...
बेकार

(1957)

केदारनाथ सिंह

अश्क ढलते नहीं देखे जाते / अब्दुल्लाह 'जावेद'

अश्क ढलते नहीं देखे जाते
दिल पिघलते नहीं देखे जाते

फूल दुश्मन के हों या अपने हों
फूल जलते नहीं देखे जाते

तितलियाँ हाथ भी लग जाएँ तो
पर मसलते नहीं देखे जाते

जब्र की धूप से तपती सड़कें
लोग चलते नहीं देखे जाते

ख़्वाब-दुश्मन हैं ज़माने वाले
ख़्वाब पलते नहीं देखे जाते

देख सकते हैं बदलता सब कुछ
दिल बदलते नहीं देखे जाते

करबला में रुख़-ए-असग़र की तरफ़
तीर चलते नहीं देखे जाते

अब्दुल्लाह 'जावेद'

जे.एन.यू. में हिंदी / केदारनाथ सिंह

जी, यही मेरा घर है
और शायद यही वह पत्थर जिस पर सिर रखकर सोई थी
वह पहली कुल्हाड़ी
जिसने पहले वृक्ष का शिकार किया था

इस पत्थर से आज भी
एक पसीने की गंध आती है
जो शायद उस पहले लकड़हारे के शरीर की
गंध है--
जिससे खुराक मिलती है
मेरे परिसर की सारी आधुनिकता को

इस घर से सटे हुए
बहुत-से घर हैं
जैसे एक पत्थर से सटे हुए बहुत-से पत्थर
और धूप हो की वर्षा यहाँ नियम यह
कि हर घर अपने में बंद
अपने में खुला

पर बगल के घर में अगर पकता है भात
तो उसकी ख़ुशबू घुस आती है
मेरे किचन में
मेरी चुप्पी उधर के फूलदानों तक
साफ़ सुनाई पड़ती है
और सच्चाई यह है कि हम सबकी स्मृतियाँ
अपने-अपने हिस्से की बारिश से धुलकर
इतनी स्वच्छ और ऐसी पारदर्शी
कि यहाँ किसी का नम्बर
किसी को याद नहीं !

विद्वानों की इस बस्ती में जहाँ फूल भी एक सवाल है
और बिच्छू भी एक सवाल
मैंने एक दिन देखा एक अधेड़-सा आदमी
जिसके कंधे पर अंगौछा था
और हाथ में एक गठरी
‘अंगौछा’- इस शब्द से
लम्बे समय बाद मेरे मिलना हुआ
और वह भी जे. एन. यू. में !

वह परेशान-सा आदमी
शायद किसी घर का नम्बर खोज रहा था
और मुझे लगा-कई दरवाज़ों को खटखटा चुकने के बाद
वह हो गया था निराश
और लौट रहा था धीरे-धीरे

ज्ञान की इस नगरी में
उसका इस तरह जाना मुझे ऐसा लगा
जैसे मेरी पीठ पर कुछ गिर रहा हो सपासप्
कुछ देर मैंने उसका सामना किया
और जब रहा न गया चिल्लाया फूटकर--
‘विद्वान लोगो ! दरवाज़ा खोलो
वह जा रहा है
कुछ पूछना चाहता था
कुछ जानना चाहता था वह
रोको.. उस अंगौछे वाले आदमी को रोको...

और यह तो बाद में मैंने जाना
उसके चले जाने के काफ़ी देर बाद
कि जिस समय मैं चिल्ला रहा था
असल में मैं चुप था
जैसे सब चुप थे
और मेरी जगह यह मेरी हिंदी थी
जो मेरे परिसर में अकेले चिल्ला रही थी ।

केदारनाथ सिंह

किसी और बहाने से / अरुणाभ सौरभ

 
1.
                         
मैंने तुमसे रात मांगी थी
और तुमने मेरे अंधेरे को
अपनी दूधियायी रोशनी से ढक दी
मैंने कहा-मुझे नींद चाहिए
और तुम जाग-जागकर अपने हिस्से की नींद
मेरे नाम करती रही
मैंने कहा-मुझे प्यास लगी है
तुम मेरी सारी तपिश को/सारे प्यास को
पी गयी गट-गट
और मेरे हिस्से
बादलों के कुछ टुकड़े छोड़ गई
मैंने कहा-मैं भूखा हूँ
और तुम थाली परोस चली गई चुपचाप
 
मैंने दर्द के हवाले से तुम्हें याद किया
तो ज़िस्म में कहीं दर्द का नामोनिशान नहीं था
मेरे रोम-रोम में सिहरन,
मांसपेशियों में गति,
नस-नस में लहू
भर देनेवाली
वो तुम ही थी
 
जाड़े की गहराती रात में
धुन्ध की हो रही थी जब बारिश
ठंढे होठों से सिसकियाँ भरकर
तेज़ साँसों से
काँपते हाथों से
जो मैंने कविता लिखी थी
उसमें,
हर जगह तुम ही थी
 
उसमें भी,
जहाँ एक आठ पैरों वाला या भुजाओं वाला ऑक्टोपस
ली फाल्क की मशहूर मैन्ड्रेक ज़ादूगर कामिक्स
से निकलकर अपनी हैरतंगेज़ कारनामों से
भविष्यवाणियाँ करके तुम्हें मेरी होने का
दावा करता करता रहा
और तुम्हारे मुँह से मेरे लिए बस निकलता रहा
"गिनिपिग-गिनिपिग ओह माइ डार्लिंग...किल मी...किल मी..."
और तुम मेरी बाहों में आकर खो गयी
 
और तुम,
ग्रीक के त्रासद नाटकों की नायिका जैसी
तुम कालीदास की विरहिणी यक्षिणी सी
जिसके लिए विधुर यक्ष ने मेघों को दूत बनाया था
जिसके लिए दुष्यंत छोड़ गए थे मुद्रिका
वो शकुंतला जैसी तुम
      
2.

और मैं,
तुम्हारे रेशमी दुपट्टे में
गूँथे हुए धागों के रेशे-रेशे में
मैं शामिल हूँ
जो तुम्हारी धड़कनों के साथ
हौले-हौले काँपता है,
तुम्हारी साँसों के उठने-गिरने की
गवाही में
समेटे ख़्वाब को बुनकर जो कुछ
कतरन जमा किया है कपड़ों का
उसके हर धागों में भी मैं ही हूँ
 
तुम्हारी आँखों में झाँकते सपनों के बीच
कई दिन,कई रात,कई मास
उनींदीयों में जागकर
कुछ सपने बुनती होगी तुम
उन सपनों की हक़ीक़त में
मैं ही हूँ,.....मैं हूँ ........
तुम्हारे होठों के गाढ़े लिपस्टिक के रंग में
मश्करे/आइलाइनर के रंगों में
बिंदी के रंगों में
सोलहों शृंगार में
और होठों पर पसरी दो बूंद प्यास के बीच
होठों पर पसरी दो बूंद प्यास के बीच
चेहरे पर हल्की बूंदें पसीने की
जिन्हें रुमाल से पोछना चाहती हो तुम
उस रुमाल के रेशे-रेशे में गूँथा मैं ही हूँ
 
अब सांसें चलती हैं रोज़
जैसे पहले चलती थी
रात-रात जैसी नहीं है,
अब नींद,नींद की तरह नहीं है
आधी रात जागकर उनींदी में कई कसक को
गले से बाहर कर
जो गीत गाये थे मैंने
उसके हर रियाज़ में तुम हो
       
3.

समय किसी ठहराव से आगे
बढ़ नहीं पा रहा है
जिस-जिस चीज़ का विरोध
आत्मा के कोर से करता रहा-ताउम्र
उन चीजों के सहारे जीना
हमारी फितरत बन गयी
हमारे बीच में
भूत की दुर्दैव यातना है,
अंधेरे के बोझ तले वर्तमान झुका है
अज्ञात रोशनी की खोज में भविष्य
निर्वंश खेत की तरह सादा है,कोरा है
 
फिर भी हम हैं,कि जीए जा रहे हैं
जैसे जीता है-घोंघा
मिट्टी के तलघर में
जैसे जीता है-साँप
किसी और के बिल में
जैसे जीता है-घड़ियाल
पानी के अजायबघर में
जैसे जीता है-बिच्छू
डंक मारने के लिए
वैसे जीते हैं-हम
अपना वजूद तय करने के लिए
 
पर वजूद-एक नकली अहंकार
दब्बू संवेदना का प्रतिफल नहीं तो
और क्या है?
एक तुम हो जो
मुझसे प्रेम करना चाहती हो
एक मैं हूँ जो
प्रेम में होना चाहता हूँ
 
हम दोनों भाषा की छत पर
शब्दों की नाव में जुगलबंदी करते हैं
 
यह आइसक्रीम,जिसे हमलोग एकसाथ
खाना चाहते हैं
किसी मरघट से लाये अंग जैसा लगता है,
ये चॉकलेट, जिसे एकसाथ चबाना चाहते हैं हम
इसमें गर्भपात की हुई अजन्मी लड़की का भ्रूण है,
ये कोल्ड़कॉफी,जिसे एक में ही दो पाइप लगाकर
चूसना चाहते हैं हम,
इसमें बलत्कृत स्त्री के
छत-विछत योनि से बहे खून का रंग है,
 
4.

कई डर शामिल हो गया है, तुम्हारी ज़िंदगी में
कितने युगों से
कितने कालखण्डों में
अपरिमित आकार को अपने
अर्थ दिलाने की युक्ति से
तन पर,मन पर,
सुख-दुख का अंबार लेकर
जमाने की धौंस सहकर
जीने की तमीज़ विकसित कर
रूप-रस-गंध शामिल कर
इतिहास की किताब में शामिल
डर-शामिल,शामिल डर.....
भोगते जीवन का रंगमहल
शामिल ज़िंदगी में
जागती रातों का डर शामिल,
चाय पानी की तरह-डर
पूनम की चाँद में
अमावश का डर
 
महाकाव्य की पंक्तियों से भी
निकलकर आता है-डर
कुछ भी सुन सकने से-डर
षोडशी,सुधामयी,प्रेममयी,अभिसारिका,प्रेयसी
जीवन में पराजित होती गयी-अहर्निश
नियति मान ली हो-पराजय
बारंबार पराजय पैदा करती है-डर
 
अर्थ देकर जीवन का
धरम-करम का,
काम-मोक्ष का,
योग-भोग का,
संजोग-वियोग का,
माया-मोह का,
आशा का,तृष्णा का,
द्वेष-वितृष्णा का,
शामिल पुरुषार्थ को
जीवन की गति में
जीवन को ऊँचाइयों से
देख लेती हो-तुम
देखकर फिर पैदा होती है-
डर...
 
भीड़-भाड़ से भरी सड़क पर
पैदल पार करने की कोशिश में
दिन में,भरी दोपहरी में
गुजरनेवाली गाडियाँ
पैदा करती है-डर
 
 
आधी रात में चमकती जुगनू
कीट-फतिंगों,छिपकलियों की
टिक-टिक,चिक-चिक...टिक-टिक,चिक-चिक...
तुम्हारे लिए पैदा करती है-डर
 
आधी रात में
पुलिस वैन से,अंबुलेस से
निकलकर आती खौफ़नाक आवाज़ें
पैदा करती है-
डर....ड...र...डर...
 
और डर हिस्सा हो गया है-हमारी ज़िंदगी का
जैसे कि-प्यार
  
5.

कुछ पल छूट सा गया है ज़िंदगी में
कुछ रातें जैसे बीतकर जैसे
कर रही हो सुबह का इंतज़ार
कुछ ख़्वाब हक़ीक़त और फसाने की
दोहरी चादर ओढ़कर
ज़िंदगी से बाहर चला गया है,
 
अब तो मौसम सुनाता है
कोई शांत संगीत
अब तो राग धुनों की शुरुआत करने
जीवन में आ गए हैं सारे
अब तो हर रागों में आलाप तुम्हारा है
अब तो चिड़ियों के गान में
बगावत की अनसुनी आवाज़ है
अब तो मछलियाँ तालाब जल से
एक-एक फूट ऊपर उछलती है,
अब तो पतझड़ के बाद पेड़ की डाल पर
वसंत आनेवाला है
अब तो हवाओं में है
उन्मत्त करनेवाली त्वरा
 
          --6
हर तरफ़ पसरते नकली जीवन में
सच का एक-एक कतरा
कहीं खो गया है
और झूठ ने मसल कर रख दी है मेरी आत्मा
आत्मा की कातर पुकार सुनकर दौड़ जाता हूँ
जहां गुलदश्ते में रखे लाल गुलाबों से
तुम मेरा इंतज़ार कर रही हो
जैसे लरजती पत्तियों से भरे बाग में
एक सुनहरे महल पर चहकती चिड़ियाँ
और तालाब में उछलती मछलियों से नज़र बचाकर
एक सूखे कनेर की टहनी से
हौले से मुझे मार रही हो
और मैं मुसकुराता जा रहा हूँ
 
और,
किसी और बहाने से तुम मिलती हो
और,हम बचाते हैं मिलकर
अपने हिस्से की
थोड़ी सी हवा
थोड़ी सी हरियाली
थोड़ा भूख
थोड़ी प्यास
थोड़ी बारिश...

अरुणाभ सौरभ

प्रेम-च्यार / ओम नागर

प्रेम-
आंख की कोर पे
धर्यो एक सुपनो
ज्ये रोज आंसू की गंगा में
करै छै अस्नान
अर निखर जावै छै
दूणो।

ओम नागर

मिरी गिरफ़्त में है ताएर-ए-ख़्याल मिरा / ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

मिरी गिरफ़्त में है ताएर-ए-ख़्याल मिरा
मगर उड़ाए लिए जा रहा है जाल मिरा

यक़ीन इतना नहीं मेरा जितना नब्ज़ का है
मिरी ज़बान से सुनता नहीं वो हाल मिरा

कमाल की वो इमारत मिरी हुई मिस्मार
खंडर की शक्ल में बाक़ी रहा ज़वाल मिरा

फ़ज़ा में झोंक दे आँधी के बाद पानी भी
उड़ाई ख़ाक तो अब ख़ुन भी उछार मिरा

ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं
वही जवाब है उस का वही सवाल मिरा

मैं सर किए हुए बैठा हूँ इक नई चोटी
कुछ और फ़ासले से देख अब कमाल मिरा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

इश्क़ मुकम्मल ख़्वाब-ए-परेशाँ / 'अनवर' साबरी

इश्क़ मुकम्मल ख़्वाब-ए-परेशाँ
हुस्न हमा ताबीर-ए-गुरेज़ाँ

क़तरे में दरिया की समाई
दर्द-ए-दो-आलम इक दिल-ए-इंसाँ

इश्क़ बहर अंदाज़-ए-तजल्ली
लरज़ाँ लरज़ाँ रक़्साँ रक़्साँ

इश्क़ ब-रंग-ए-शोला-ओ-शबनम
सोज़िश-ए-पिंहाँ अश्क नुमायाँ

मेरी निगाह-ए-फ़िक्र में 'अनवर'
इश्क़ फ़साना हुस्न है उर्यां

'अनवर' साबरी

अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और / फ़राज़

अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और
उस कू-ए-मलामत में गुजरते कोई दिन और

रातों के तेरी यादों के खुर्शीद उभरते
आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और

हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा
ए काश तेरे बाद गुजरते कोई दिन और

राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों को
तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और

गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थी
मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और

उस शहरे-तमन्ना से फ़राज़ आये ही क्यों थे
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और

कू-ए-मलामत - ऐसी गली, जहाँ व्यंग्य किया जाता हो
खुर्शीद - सूर्य, रंज - तकलीफ़, गमतलब- दुख पसन्द करने वाले
तर्के-तअल्लुक - रिश्ता टूटना( यहाँ संवाद हीनता से मतलब है)

अहमद फ़राज़

अहाँक आइ कोनो आने रंग देखइ छी / आरसी प्रसाद सिंह

अहाँक आइ कोनो आने रंग देखइ छी
बगए अपूर्व कि‍छु वि‍शेष ढंग देखइ छी

चमत्‍कार कहू, आइ कोन भेलऽ छि‍ जग मे
कोनो वि‍लक्षणे ऊर्जा-उमंग देखइ छी

बसात लागि‍ कतहु की वसन्‍तक गेलऽ ि‍छ,
फुलल गुलाब जकाँ अंग-अंग देखइ छी

फराके आन दि‍नसँ चालि‍ मे अछि‍ मस्‍ती
मि‍जाजि‍ दंग, की बजैत जेँ मृंदग देखइ छी

कमान-तीर चढ़ल, आओर कान धरि‍ तानल
नजरि‍ पड़ैत ई घायल, वि‍हंग देखइ छी

नि‍सा सवार भऽ जाइछ बि‍ना कि‍छु पीने
अहाँक आँखि‍मे हम रंग भंग देखइ छी

मयूर प्राण हमर पाँखि‍ फुला कऽ नाचय
बनल वि‍ऽजुलता घटाक संग देखइ छी।।

लगैछ रूप केहन लहलह करैत आजुक,
जेना कि‍ फण बढ़ौने भुजंग देखइ छी

उदार पयर पड़त अहाँक कोना एहि‍ ठाँ
वि‍शाल भाग्‍य मुदा, धऽरे तंग देखइ छी

कतहु ने जाउ, रहू भरि‍ फागुन तेँ सोझे
अनंग आगि‍ लगो, हम अनंग देखइ छी

आरसी प्रसाद सिंह

जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं / 'असअद' बदायुनी

जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं
अजीब लोग हैं क्या ख़्वाब देख सकते हैं

समंदरों के सफ़र सब की क़िस्मतों में कहाँ
सो हम किनारे से गिर्दाब देख सकते हैं

गुज़रने वाले जहाज़ों से रस्म ओ राह नहीं
बस उन के अक्स सर-ए-आब देख सकते हैं

हवा के अपने इलाक़े हवस के अपने मक़ाम
ये कब किसी को ज़फ़रयाब देख सकते हैं

ख़फ़ा हैं आशिक़ ओ माशूक़ से मगर कुछ लोग
ग़ज़ल में इश्क़ के आदाब देख सकते हैं

'असअद' बदायुनी

मनखान आएगा /अवतार एनगिल

ऐ मेरे उदास सूरज
तुम्हारी धूप
लौटा लाएंगे हम
 

अवतार एनगिल

Friday, November 28, 2014

इतना भी गुनहगार न मुझको बनाइये / आनंद कुमार द्विवेदी

इतना भी गुनहगार न मुझको बनाइये
सज़दे के वक़्त यूँ न मुझे याद आइये

नज़रें नहीं मिला रहा हूँ अब किसी से मैं
ताक़ीद कर गए हैं वो, कि, ग़म छुपाइये

मतलब निकालते हैं लोग जाने क्या से क्या
आँखें छलक रहीं हो अगर मुस्कराइये

वो शख्स मुहब्बत के राज़ साथ ले गया
अब लौटकर न आयेगा, गंगा नहाइये

सदियों का थका हारा था दामन में रूह के
'आनंद' सो गया है, उसे मत जगाइये

आनंद कुमार द्विवेदी

थारो बस्वास / ओम नागर

सतूळ की नांई
कतनो बैगो ढसड़ जावै छै
थारो बस्वास
बाणियां की दुकान पै
मिलतौ हो तो
कदी को धर देतो
थारी छाला पड़ी हथेळी पै
दो मुट्ठी बस्वास।

बाळू का घर की नांई
पग हटता ईं
कण-कण को हो जावै छै
थारो बस्वास
खुद आपणै हाथां
आभै पै ऊलाळ द्ये छै तू
भींत, देहळ अर वो आळ्यां बी
जठी रोजीना धर द्ये छै तू
अेक दियौ
म्हैलाडी का उजास कै लेखै।

कदी-कदी
थारो बस्वास जा बैठे छै
खज्यूर का टोरक्यां पै
अर म्हूं खोदबा लाग जाऊ छूं
छांवळी
जतनी ऊंडी खुदती जावै छै
भरम की धरणी
उतनो ई बदतौ जावै छै बस्वास।

ओम नागर

पक्षी और तारे / आलोक धन्वा

पक्षी जा रहे हैं और तारे आ रहे हैं

कुछ ही मिनटों पहले
मेरी घिसी हुई पैंट सूर्यास्त से धुल चुकी है

देर तक मेरे सामने जो मैदान है
वह ओझल होता रहा
मेरे चलने से उसकी धूल उठती रही

इतने नम बैंजनी दाने मेरी परछाई में
गिरते बिखरते लगातार
कि जैसे मुझे आना ही नहीं चाहिए

आलोक धन्वा

ललितललाम / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सरस भाव मन्दार सुमन से
समधिक हो हो सौरभ धाम।
नन्दन बन अभिराम लोक
अभिनन्दन रच मानस आराम।
लगा लगा कर हृतांत्री में
मानवता के मंजुल तार।
सूना सूना कर वसुधा-तल को
सुधा भरा उसकी झनकार।1।

गा गा कर अनुराग राग से
रंजित-अनुरागी जन राग।
धान को लय को स्वर समूह को
सब स्वर्गीय रसों में पाग।
चारु चार नयनों को दिखला
जग आलोकित कर आलोक।
कला निराली कली कली में
कला कलानिधि में अवलोक।2।

बढ़ा चौगुनी चतुरानन से
चींटी तक सेवा की चाह।
बहु विमुग्ध हो बहे हृदय में
आपामर का प्रेम-प्रवाह।
कलित से कलित कामधेनुसम
कामद कर कमनीय कलाम।
ललित से ललित बनबन देखा
अललित चित में ललितललाम।3।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

हावड़ा ब्रिज / अभिज्ञात

बंगाल में आये दिन बंद के दौरान
किसी डायनासोर के अस्थिपंजर की तरह
हावड़ा और कोलकाता के बीचोबीच हुगली नदी पर पड़ा रहता है हावड़ा ब्रिज
जैसे सदियों पहले उसके अस्थिपंजर प्रवाहित किये गये हों हुगली में
और वह अटक गया हो दोनों के बीच

लेकिन यह क्या
अचानक पता चला
डायनासोर के पैर गायब थे
जो शायद आये दिन बंद से ऊब चले गये हैं कहीं और किसी शहर में तफरीह करने
या फिर अंतरिक्ष में होंगे कहीं
जैसे बंद के कारण चला जाता है बहुत कुछ
बहुत कुछ दबे पांव

फिलहाल तो डायनासोर का अस्थिपंजर एक उपमा थी
जो मेरे दुख से उपजी थी
जिसका व्याकरण बंद के कारण हावड़ा ब्रिज की कराह की भाषा से बना था
जिसे मैंने सुना
उसी तरह जैसे पूरी आंतरिकता से सुनती हैं हुगली की लहरें

क्या आपने गौर किया है बंद के दिन अधिक बेचैन हो जाती हैं हुगली की लहरें
वे शामिल हो जाती हैं ब्रिज के दुख में

बंद के दौरान हावड़ा ब्रिज से गुज़रना
किसी बियाबान से गुज़रना है महानगर के बीचोबीच

बंद के दौरान तेज़-तेज़ चलने लगती हैं हवाएं
जैसे चल रही हों किसी की सांसें तेज़ तेज़
और उसके बचे रहने को लेकर उपजे मन में रह-रह कर सशंय

बंद के दौरान बढ़ जाती है ब्रिज की लम्बाई
जैसे डूबने से पहले होती जाती हैं छायाएं लम्बी और लम्बी
बंद में कभी गौर से सुनो तो सुनायी देती है एक लम्बी कराह
जो रुकने की व्यवस्था के विरुद्ध उठती है ब्रिज से
और पता नहीं कहां-कहां से, किस-किस सीने से
प्रतिदिन पल-पल हजारों लोगों और वाहनों को
इस पार से उस पार ले जाने वाले ब्रिज के कंधे
नहीं उठा पा रहे थे अपने एकेलेपन का बोझ
देखो, कहीं अकेलेपन के बोझ से टूटकर किसी दिन गिर न जाये हावड़ा ब्रिज

सोचता हूं तो कांप उठता हूं
बिना हावड़ा ब्रिज के कितना सूना-सूना लगेगा बंगाल का परिदृश्य

ब्रिज का चित्र देखकर लोग पहचान लेते हैं
वह रहा-वह रहा कोलकाता
अपनी ही सांस्कृतिक गरिमा में जीता और उसी को चूर-चूर करता
तिल-तिल मरता

सामान्य दिनों में हावड़ा ब्रिज पर चलते हुए
कोई सुन सकता है उसकी धड़कन साफ़-साफ़
एक सिहरन सी दौड़ती रहती है उसकी रगों में
जो हर वाहन ब्रिज से गुज़रने के बाद छोड़ जाता है अपने पीछे
देता हुआ-धन्यवाद, कहता हुआ-टाटा, फिर मिलेंगे
वाहनों की पीछे छूटी गर्म थरथराहट
ब्रिज के रास्ते पहुंच जाती है आदमी के तलवों से होती हुई उसकी धमनियों में
और आदमी एकाएक तब्दील हो जाता है
स्वयं हावड़ा ब्रिज की पीठ में, उसके किसी पुर्जे में
जिस पर से हो रहा है होता है पूरे इतमीनान के साथ आवागमन
और यह मत सोचें कि यह संभव नहीं
पुल दूसरों को पुल बनाने का हुनर जानता है
हर बार एक आदमी एक वाहन एक मवेशी का पुल पार करने
पुल को नये सिरे से बनाता है पुल
हर बार वह दूसरे के पैरों से, चक्कों से करता है अपनी ही यात्रा
पुल दूसरों के पैरों से चलता है अपने को पार करने के लिए
अपने से पार हुए बिना कोई कभी नहीं बन सकता पुल
जो यह राज़ जानते हैं वे सब हैं पुल के सगोतिये

अंग्रेज़ी राज में गांधी जी ने भी बंद को बनाया था पुल
लेकिन अब बंद पुल नहीं है
पुल नहीं रह गया है बंद
सुबह से शाम तक
हर आने जाने वाले से कहता है हावड़ा ब्रिज

यह एक पुल के ख़िलाफ़
आदमी के पक्ष में की गयी कार्रवाई नहीं है
यह पुल के अर्थ को बचाने की पुरज़ोर कोशिश है
और आख़िरकार हर कोशिश
एक पुल ही तो है!

कई बार मुझे लगा है कि बंगाल के ललाट पर रखा हुआ एक विराट मुकुट है-हावड़ा ब्रिज
यदि वह नहीं रहा तो..
तो उसके बाद बनने वाले ब्रिज होंगे उसके स्मारक
लेकिन मुकुट नहीं रहेगा तो फिर नहीं रहेगा।

अभिज्ञात

ओ केरल प्रिय-2 / कुबेरदत्त

केरल के ये लम्बे कौवे
चम्पा के अधेड़ तरुवर पर
                      फुदकें, चहकें
दिन-भर मलयालम में बोलें
भेषज के रहस्य को खोलें
धनवंतरी
चरक के
नुस्खों की
करते हैं सहज व्याख्या
अँग्रेज़ीदाँ बहरे हैं पर
शिर-पीड़ा-निदान हित दौड़ें केमिस्टों तक
जीवन को ऐस्प्रीन बनाया
                           दीन बनाया
                           हीन बनाया
कव्वे बोल-बोल थकते हैं
आधुनिकों के नेता कहते—
'ये तो ऐसे ही बकते हैं' ।

कुबेरदत्त

काग़ज़ की नाव हूँ जिसे तिनका डुबो सके / अहसन यूसुफ़ ज़ई

काग़ज़ की नाव हूँ जिसे तिनका डुबो सके
यूँ भी नहीं कि आप से ये भी न हो सके

बरसात थम चुकी है मगर हर शजर के पास
इतना तो है कि आप का दामन भिगो सके

ऐ चीख़ती हवाओं के सैलाब शुक्रिया
इतना तो हो कि आदमी सूली पे सो सके

दरिया पे बंद बाँध कर रोको जगह जगह
ऐसा न हो कि आदमी जी भर के रो सके

हल्की सी रौशनी के फ़रिश्ते हैं आस-पास
पल्कों में बूँद बूँद जहाँ तक पिरो सके

अहसन यूसुफ़ ज़ई

खुल गई नाव / अज्ञेय

       खुल गई नाव
घिर आई संझा, सूरज
        डूबा सागर-तीरे।

धुंधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
        मूक लगे मंडराने,
सूना तारा उगा
चमक कर
        साथी लगा बुलाने।

तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपीं
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
        जागी धीरे-धीरे।

स्वेज अदन (जहाज में), 5 फरवरी, 1956

अज्ञेय

ज़िक्र मत करना मेरी रुसवाई का / ओम प्रकाश नदीम

ज़िक्र मत करना मेरी रुसवाई का ।
वो बना देता है पर्वत राई का ।

कोई कहता है असर चश्मे का है,
कोई कहता है हुनर बीनाई का ।

हो गए मुँह बन्द अच्छे अच्छों के,
जब खुला दर झूठ की सच्चाई का ।

जो बड़े थे वो भी छोटे हो गए,
कौन पूछे हाल छोटे भाई का ।

बिक गई बिकती न जो मेरी किताब,
एक ये भी फल मिला रुसवाई का ।

डूबने की चाह कर बैठे ’नदीम’
हमको अन्दाज़ा न था गहराई का ।

ओम प्रकाश नदीम

प्रेम पर कुछ बेतरतीब कविताएँ-2 / अनिल करमेले

वह कितना महान क्षण था
जब शुरू किया मैंने
तुम्हें अपने भीतर महसूसना

वही जीवन का चरम था
मेरी मृत्यु
धीमी ।

अनिल करमेले

तेरा चेहरा सुब्ह का तारा लगता है / 'कैफ़' भोपाली

तेरा चेहरा सुब्ह का तारा लगता है
सुब्ह का तारा कितना प्यारा लगता है

तुम से मिल कर इमली मीठी लगती है
तुम से बिछड़ कर शहद भी खारा लगता है

रात हमारे साथ तू जागा करता है
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है

किस को खबर ये कितनी कयामत ढाता है
ये लड़का जो इतना बेचारा लगता है

तितली चमन में फूल से लिपटी रहती है
फिर भी चमन में फूल कँवारा लगता है

‘कैफ’ वो कल का ‘कैफ’ कहाँ है आज मियाँ
ये तो कोई वक्त का मारा लगता है

'कैफ़' भोपाली

तुम्हारा नाम / इला कुमार

लिखा, मिटाया
फिर लिखा, फिर मिटाया,
पता नहीं कितनी बार

नंगी चट्टान की इस रुखी कठोर छाती पर
तुम्हारा नाम
वही नाम

जो हमारे बीच के स्वप्निल पलों के बीच पला,
संबंधों के गुलाबी दायरों के बीच दौड़ा
आंखो के जादू में समाया समाया,
आखिर एक दिन

किसी नाजुक से समय में मेरे होठों से फिसल पड़ा था,
और तुमने सदा-सदा के लिए उसे अपने लिए सहेज लिया था

वही नाम
जो आज तुम्हारे लिए है,
शायद इसलिए ही इतना प्यारा है

इला कुमार

मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा / अतीक उल्लाह

मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा
या ज़मीं में उतरता चला जाऊँगा

जिस जगह नूर की बारिशें थम गईं
वो जगह तुझ से भरता चला जाऊँगा

दरमियाँ में अगर मौत आ भी गई
उस के सर से गुज़रता चला जाऊँगा

तेरे क़दमों के आसार जिस जा मिले
इस हथेली पे धरता चला जाऊँगा

दूर होता चला जाऊँगा दूर तक
पास ही से उभरता चला जाऊँगा

रौशनी रखता जाएगा तू हाथ पर
और मैं तहरीर करता चला जाऊँगा

अतीक उल्लाह

रसूल-ए-काज़िब / अज़ीज़ क़ैसी

रसूल-ए-मस्लूब के दो हज़ार बरसों के बाद ये वाक़िआ हुआ
ये उस ज़माने की बात है जब रसूल-ए-ख़ुर्शीद रास-उल-अफ़्लाक पर चमकता था
वो इक ज़मिस्ताँ की नीम-शब का समाँ था
वो नीम-शब इक रक़ीक़ चादर न जाने कब से ज़मीं के मुरदार कालबद पर
पड़ी हुई है और उस के मस्मूम रौज़नों से गले सडे जिस्म का तअफ़्फ़ुन उबल रहा है
शजर हजर धुँद के कफ़न में छुपी हुई ख़ामोशी के सीने में चुभ रहे थे
अनासिर-ए-वक़्त मुंजमिद थे
तमाम रूहें फ़िशार-ए-मरक़द में मुब्तिला थीं
और ऐसे हंगाम में इक आवाज़-ए-नूर अफ़्गन
ज़ुहूर-ए-ख़ुर्शीद की बशारत से दश्त ओ दर को जला रही थी
हज़ार-हा शब-गज़ीदगाँ के हुजूम से मैं ने उस को देखा
वो ख़ून-ए-आदम में अपनी ज़िंदा ख़िजाँ-ज़दा उँगलियाँ डुबोए खड़ा था

हुजूम से एक इक गुनहगार को बुलाता और उस के माथे पे कलमा-ए-सुब्ह लिख रहा था
तमाम मुर्दे ख़िजाँ-ज़दा उँगलियों के छुने से जागते थे
ग़ुनाहगार-ए-नफ़स था मैं भी
उम्मीद-वार-ए-शफ़ा था मैं भी
फिर उस ज़मिस्ताँ की नीम-शब में हज़ार लम्हात शाक़ गुज़रे
और एक लम्हे ने मेरे ज़ख्म-ए-जिगर को छू कर कहा
मदावा-ए-ग़म की साअत क़रीब है
सज्दा-रेज़ हो जा
ये उस ज़माने की बात है जब ज़मीन के बे-शुमार मुर्दे लहू का बपस्तिमा ले रहे थे
लहू का बपस्तिमा ले रहे हैं
रसूल-ए-ख़ुर्शीद की सदा भी तो मर गई थी कोहर में वो खो गया और
उसी ज़मिस्ताँ की नीम-शब में ख़बर मिली है
उसी शबिस्तान-ए-नूर-ओ-निकहत में बे-कफ़न लाश पर वो बैठा हुआ है
अपने ख़िज़ाँ-ज़दा हाथ से किसी के लहू की तक़्तीर कर रहा है
और अपने कासे का भर रहा है
ख़बर मिली है
लहू वो ख़ुर्शीद का लहू है

अज़ीज़ क़ैसी

ये क्या के सब से बयाँ दिल की हालतें करनी / फ़राज़

ये क्या के सब से बयाँ दिल की हालतें करनी
"फ़राज़" तुझको न आईं मुहब्बतें करनी

ये क़ुर्ब क्या है के तू सामने है और हमें
शुमार अभी से जुदाई की स'अतें करनी

कोई ख़ुदा हो के पत्थर जिसे भी हम चाहें
तमाम उम्र उसी की इबादतें करनी

सब अपने अपनी क़रीने से मुंतज़िर उसके
किसी को शुक्र किसी को शिकायतें करनी

हम अपने दिल से हैं मजबूर और लोगों को
ज़रा सी बात पे बरपा क़यामतें करनी

मिलें जब उनसे तो मुबहम सी गुफ़्तगू करना
फिर अपने आप से सौ-सौ वज़ाहतें करनी

ये लोग कैसे मगर दुश्मनी निभातें हैं
हमीं को रास न आईं मुहब्बतें करनी

कभी "फ़राज़" नये मौसमों में रो देना
कभी तलाश पुरानी रक़ाबतें करनी

अहमद फ़राज़

Thursday, November 27, 2014

ज़मीने शौक़ / ”काज़िम” जरवली

खूने दिल से ये ज़मीने शौक़ नम रक्खेगा कौन,
हम नहीं होंगे, तो काग़ज़ पर क़लम रक्खेगा कौन।

ये दुआ मांगो सभी अहले जुनू जिंदा रहें,
वरना सहराओं के काँटों पर क़दम रक्खेगा कौन।

हम से दीवानों का जीना किया है; और मरना भी किया,
जब उठेंगे हम, यहाँ परचम को ख़म रक्खेगा कौन।

मेरा साया तक नहीं तुमको गवारा है अगर,
रास्तों मेरे निशानाते क़दम रक्खेगा कौन।

जिनके हाथों की लकीरें तक नहीं बाक़ी बचीं,
उनके सर पर शहर मे दस्ते करम रक्खेगा कौन।

रह चुकी है रौशनी जिनकी सनमखानों में क़ैद,
उन चरागों को सरे ताक़े हरम रक्खेगा कौन।

आज ही माबूद करदे मेरे सजदों का हिसाब,
ता क़यामत अपनी पेशानी को ख़म रक्खेगा कौन।

अब यही बेहतर है काज़िम छोड़ दे मुझको हयात,
ये खयाले मेजबानी दम बा दम रक्खेगा कौन।। -- काज़िम जरवली

काज़िम जरवली

बना लेगी वह अपने मन की हंसी / कुमार मुकुल

अक्‍सर वह

मुझसे खेलने के मूड में रहती है

खेलने की उम्र में

पहरे रहे हों शायद

गुडि़यों का खेल भी ना खेलने दिया गया हो

सो मैं गुड्डों सा रहूं

तो पसंद है उसे

मुझे बस पड़े रहना चाहिए

चुप-चाप

किताबें तो कदापि नहीं पढनी चाहिए

बस

मुस्‍कुराना चाहिए

वैसे नहीं

जैसे मनुष्‍य मुस्‍कुराते हैं-

तब तो वह पूछेगी-

किसी की याद तो नहीं आ रही

फिर तो

महाभारत हो सकता है

इसीलिए मुझे

एक गुड्डे की तरह हंसना चाहिए

अस्‍पष्‍ट

कोई कमी होगी

तो सूई-धागा- काजल ले

बना लेगी वह

अपने मन की हंसी

जैसे

अपनी भौं नोचते हुए वह

खुद को सुंदर बना रही होती है



मेरे कपड़े फींच देगी वह

कमरा पोंछ देगी

बस मुझे बैठे रहना चाहिए

चौकी पर पैर हिलाते हुए

जब-तक कि फर्श सूख ना जाए

मेरे मित्रों को देख उसे बहुत खुशी होती

उसे लग‍ता कि वे

उसके गुड्डे को देखने आए हैं

वह बोलेगी-देखिए मैं कितना ख्‍याल रखती हूं इनका

ना होती तो बसा जाते

फिर वह भूल जाती

कि वे उसकी सहेलियां नहीं हैं

और उनके कुधे पर धौल दे बातें करने लगेगी

बेतकल्‍लुफी से

बस मुझे

चुप रहना चाहिए इस बीच

कुमार मुकुल

क़मज़र्फ़ दुनिया / अर्श मलसियानी

यह दौरे खिरद है, दौरे-जुनूं इस दौर में जीना मुश्किल है,
अंगूर की मै के धोके में ज़हराब का पीना मुश्किल है.

जब नाखूने-वहशत चलते थे, रोके से किसी के रुक न सके,
अब चाके-दिले-इन्सानियत सीते हैं तो सीना मुश्किल है.

जो ‘धर्म’ पै बीती देख चुके ‘ईमां’ पै जो गुज़री देख चुके,
इस ‘रामो-रहीम’ की दुनिया में इनसान का जीना मुश्किल है

इक सब्र के घूँट से मिट जाती, सब तिश्‍नालबों की तिश्‍नालबी,
क़मज़र्फ़-ए-दुनिया के सदके यह घूँट भी पीना मुश्किल है.

वह शोला नहीं जो बुझ जाए आँधी के एक ही झोंके से,
बुझने का सलीका आसाँ है, जलने का क़रीना मुश्किल है.

करने को रफ़ू कर ही लेंगे दुनियावाले सब ज़ख़्म अपने,
जो ज़ख़्म दिले-इनसाँ पै लगा, उस ज़ख़्म का सीना मुश्किल है.

वह मर्द नहीं जो डर जाए, माहौल के ख़ूनी मंज़र से,
उस हाल में जीना लाज़िम है, जिस हाल में जीना मुश्किल है.

मिलने को मिलेगा बिल आख़िर ऐ ‘अर्श’ सुकूने-साहिल भी,
तूफ़ाने-हवाद से लेकिन बच जाए सफ़ीना मुश्किल है.

अर्श मलसियानी

मैं तेरे इश्क़ में मर न जाऊँ कहीं / आनंद बख़्शी

 
मैं तेरे इश्क़ में मर न जाऊँ कहीं
तू मुझे आज़माने की कोशिश न कर
मैं तेरे इश्क़ में मर न जाऊँ कहीं
तू मुझे आज़माने की कोशिश न कर
ख़ूबसूरत है तू तो हूँ मैं भी हसीं
मुझसे नज़रें चुराने की कोशिश न कर
मैं तेरे इश्क़ में

शौक़ से तू मेरा इम्तहान ले
शौक़ से तू मेरा इम्तहान ले
तेरे कदमों पे रख दी है जान ले
बेकदर बेकबर मान जा ज़िद ना कर
तोड़ कर दिल मेरा ऐ मेरे हमनशीं
इस तरह मुस्कुराने की कोशिश ना कर
ख़ूबसूरत है तू तो हूँ मैं भी हसीं
मुझसे नज़रें चुराने की कोशिश न कर
मैं तेरे इश्क़ में

फेर ली क्यूँ नज़र मुझसे रूठ कर
फेर ली क्यूँ नज़र मुझसे रूठ कर
दिल के टुकड़े हुये टूट टूट कर
क्या कहा दिलरूबा तू है मुझसे ख़फ़ा
इक बहाना है ये हक़ीक़त नहीं
यूँ बहाने बनाने की कोशिश ना कर
ख़ूबसूरत है तू तो हूँ मैं भी हसीं
मुझसे नज़रें चुराने की कोशिश न कर
मैं तेरे इश्क़ में

कब से बैठी हूँ मैं इंतज़ार में
कब से बैठी हूँ मैं इंतज़ार में
झूठा वादा ही कर कोई प्यार में
क्या सितम है सनम तेरे सर की क़सम
याद चाहें ना कर तू मुझे ग़म नहीं
हाँ मगर भूल जाने की कोशिश ना कर
ख़ूबसूरत है तू तो हूँ मैं भी हसीं
मुझसे नज़रें चुराने की कोशिश न कर
मैं तेरे इश्क़ में

आनंद बख़्शी

वहीं मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी / इक़बाल

वहीं मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
मेरे काम कुछ न आया ये कमाल-ए-नै-नवाज़ी

मैं कहाँ हूँ तू कहाँ है ये मकाँ के ला-मकाँ है
ये जहाँ मेरा जहाँ है के तेरी करिश्मा-साज़ी

इसी कशमकश में गुज़रीं मेरी ज़िंदगी की रातें
कभी सोज़-ओ-साज़-ए-'रूमी' कभी पेच-ओ-ताब-ए-'राज़ी'

वो फ़रेब-ख़ुर्दा शाहीं के पला हो करगसों में
उसे क्या ख़बर के क्या है रह-ओ-रस्म-ए-शाहबाज़ी

न ज़बाँ कोई ग़ज़ल की न ज़बाँ से बा-ख़बर मैं
कोई दिल-ए-कुशा सदा हो अजमी हो या के ताज़ी

नहीं फ़क़्र ओ सल्तनत में कोई इम्तियाज़ ऐसा
ये सिपह की तेग़-बाज़ी वो निगह की तेग़-बाज़ी

कोई कारवाँ से टूटा कोई बद-गुमाँ हरम से
के अमीर-ए-कारवाँ में नहीं ख़ू-ए-दिल-नवाज़ी

अल्लामा इक़बाल

गुमशुदा की तलाश / अशोक कुमार शुक्ला

गुमशुदा की तलाश
गुमशुदा
मुझे तलाश है
रिश्तों की एक नदी की
जो गुम हो गयी है
कंक्रीट के उस जंगल में
जहॉ स्वार्थ के भेडिये,
कपट के तेंन्दुये,
छल की नागिनों जैसे
सैकडों नरभक्षी किसी भी
रिश्ते को लील जाने को
हरपल आतुर हैं
इस अभ्यारण्य में
मौकापरस्ती के चीते जैसे
जंगली जानवर
हर कंक्रीट की आड में
घात लगाये बैठे हैं
इसलिये मुझे लगता है
कि रिश्तों की वह निरीह नदी
कहीं दुबककर रो रही होगी
याकि निवाला बन गयी होगी
इन कंक्रीट के बासिंदों का,
और अब प्यास बनकर
उतर गयी होगी
उन नरभक्षियां के हलक में ?
जाने क्यों ?
फिर भी मुझे तलाश है
रिश्तों की उस नदी की
जो बीते दिनों में
तब बिछड गयी थी मुझसे
जब मैं शाम के खाने के लिये
रोजगार की लकडियां बीनने
चला आया था
इस कंक्रीट के जंगल में!

अशोक कुमार शुक्ला

ओ मेरे महाप्रभुओ / ऋषभ देव शर्मा

ओ मेरे महाप्रभुओ!
बहुत हो चुकी लीला,
अब तो अपना जाल समेटो।
बीच आँगन में
काँटेदार तारों की बाड़ लगवा दी तुमने,
मेरे जौ-मटर के खेत रौंदकर
बंदूकों के पेड़ उगवा दिए तुमने,
मेरे पिता के अस्थिकलष को
गीदड़ों के हवाले कर दिया,
मेरी माँ के शव को
भेडियों से नुचवा दिया,
फाँसी पर लटका चुके हो
चुन-चुन कर मेरे एक-एक साथी को, मेरी पत्नी समेत,
गुडि़या में बारूद भरकर
परखचे उड़ा दिए तुमने मेरी बेटी के ;
और
वह बालक जिसका खून
अभी तक चीख रहा है तुम्हारे
पैरों के समीप वाली बलिवेदी पर,
वह मेरा इकलौता बेटा था.

अब कोई नहीं बचा
सिवा मेरे!
और मैं बलि देने नहीं
बलि लेने आया हूँ ।

लो, तोड़ दिए मैंने
सब वर्ग तुम्हारे बनाए हुए,
लो, तिलांजलि देता हूँ
संप्रदायों को तुम्हारे रचे हुए.
यह लो, उतारता हूँ यज्ञोपवीत.
यह कड़ा और कंघी भी फेंकता हूँ.
छोड़ता हूँ पाँचों वक़्त की नमाज़.
क्रॉस को झोंकता हूँ चूल्हे में.
मिटा रहा हूँ ब्राह्मण भंगी का भेद.
खंडित करता हूँ रोटी - बेटी के प्रतिबंध!

और
लो, उतरता हूँ अखाड़े में
निहत्था
तुम्हारे साथ जूझने को
निर्णायक द्वंद्वयुद्ध में।

सुनो महाप्रभुओ !
मुझे नहीं अब तुम्हारी ज़रूरत,
मैं हूँ स्वयं संप्रभु
और खड़ा हूँ
तुम्हारी समस्त आज्ञाओं के विरुद्ध
यह घोषणापत्र लेकर कि

सभी महाप्रभु खाली कर दें मेरी धरती
मुझे उगाना है एक जातिहीन मनुष्य
धर्मों से परे !

ऋषभ देव शर्मा

वो कोई और न था / अहमद नदीम क़ासमी

वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे,
शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे|

अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया,
अभी अभी तो हम एक दूसरे से बिछड़े थे|

तुम्हारे बाद चमन पर जब इक नज़र डाली,
कली कली में ख़िज़ां के चिराग़ जलते थे|

तमाम उम्र वफ़ा के गुनाहगार रहे,
ये और बात कि हम आदमी तो अच्छे थे|

शब-ए-ख़ामोश को तन्हाई ने ज़बाँ दे दी,
पहाड़ गूँजते थे दश्त सन-सनाते थे|

वो एक बार मरे जिनको था हयात से प्यार,
जो जि़न्दगी से गुरेज़ाँ थे रोज़ मरते थे|

नए ख़याल अब आते है ढल के ज़ेहन में,
हमारे दिल में कभी खेत लह-लहाते थे|

ये इरतीक़ा का चलन है कि हर ज़माने में,
पुराने लोग नए आदमी से डरते थे|

'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी,
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे |

अहमद नदीम क़ासमी

मुहाने पर नदी और समुद्र-7 / अष्‍टभुजा शुक्‍ल

मुहाने पर
नदी, नदी नहीं रहती
समुद्र, समुद्र नहीं रहता
दोनों मिलकर
बनाते हैं
पानी की एक महा कलछुल

पर कोई ठठेर है पहाड़ी
सात समुन्दर पार
जो लगाता रहता है रोज़
इसकी बोली

अष्‍टभुजा शुक्‍ल

अब सामने लाएँ आईना क्या / कृश्न कुमार 'तूर'

अब सामने लाएँ आईना क्या
हम ख़ुद को दिखाएँ आईना क्या

ये दिल है इसे तो टूटना था
दुनिया से बचाएँ आईना क्या

हम अपने आप पर फ़िदा हैं
आँखों से हटाएँ आईना क्या

इस में जो अक्स है ख़बर है
अब देखें दिखाएँ आईना क्या

क्या दहर को इज़ने-आगही दें
पत्थर को दिखाएँ आईना क्या

उस रश्क़े-क़मर से वस्ल रखें
पहलू में सुलाएँ आईना क्या

हम भी तो मिसाले-आईना हैं
अब ‘तूर’ हटाएँ आईना क्या

कृश्न कुमार 'तूर'

मृत्यु और कवि / गजानन माधव मुक्तिबोध

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
"ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" ।

ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर
जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !
इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल
भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना
इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल
अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम
जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।

क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर
दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर?
इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर,
सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर
तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर
ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर ।

गजानन माधव मुक्तिबोध

असर करे न करे सुन तो ले मेरी फ़रियाद / इक़बाल

असर करे न करे सुन तो ले मेरी फ़रियाद
नहीं है दाद का तालिब ये बंद-ए-आज़ाद

ये मुश्त-ए-ख़ाक ये सरसर ये वुसअत-ए-अफ़लाक
करम है या के सितम तेरी लज़्ज़त-ए-ईजाद

ठहर सका न हवा-ए-चमन में ख़ेम-ए-गुल
यही है फ़स्ल-ए-बहारी यही है बाद-ए-मुराद

क़ुसूर-वार ग़रीब-उद-दयार हूँ लेकिन
तेरा ख़राबा फ़रिश्ते न कर सके आबाद

मेरी जफ़ा-तलबी को दुआएँ देता है
वो दश्त-ए-सादा वो तेरा जहान-ए-बे-बुनियाद

ख़तर-पसंद तबीअत को साज़-गार नहीं
वो गुलसिताँ के जहाँ घात में न हो सय्याद

मक़ाम-ए-शौक़ तेरे क़ुदसियों के बस का नहीं
उन्हीं का काम है ये जिन के हौसले हैं ज़ियाद

अल्लामा इक़बाल

औरतें / ऋषभ देव शर्मा

सुनो, सुनो,
अवधूतो! सुनो,
साधुओं! सुनो,

कबीर ने आज फिर
एक अचंभा देखा है
आज फिर पानी में आग लगी है
आज फिर चींटी पहाड़ चढ़ रही है
नौ मन काजर लाय,
हाथी मार बगल में देन्हें
ऊँट लिए लटकाय!

नहीं समझे?
अरे, देखते नहीं अकल के अंधो!
औरतों की वकालत के लिए
मर्द निकले हैं,
कुरते-पाजामे-धोती-टोपी वाले मर्द!
वे उन्हें उनके हक़
दिलवाकर ही रहेंगे।

राजनीति में सब कुछ सम्भव है।
यहाँ घोड़े और घास में
यारी हो सकती है।
कुर्सी कुछ भी करा सकती है।
-कुर्सी महा ठगिनी हम जानी!

कुर्सी का ही तो प्रताप है
कि शेर हिरनियों की
हिफाजत कर रहे हैं
(मर्द औरतों की वकालत कर रहे हैं)।

सुनो, सुनो,
अवधूतो! सुनो,
साधुओं! सुनो,
इन चीखों को सुनो,
इतिहास के खंडहरों को चीरकर
आती हुई ये चीखें औरतों की हैं,
मर्दों की सताई हुई
औरतों की कलपती हुई आत्माएं
नाचती हैं चुडैल बनकर,
हाहाकार मचाती हैं,
चीखती चिल्लाती हैं,
दुनिया की तरफ़
दोनों हाथ फैलाकर
बार बार बताती हैं :


हम चुडै़लें हैं,
हम औरतें थीं;
हमारी भी जात-बिरादरी थी,
हममें भी ऊँच-नीच थी,
हमारे भी धरम-ईमान थे,
लकिन मर्दों ने
जब जब हमें घरों से निकाला,
हंटरों से पीटा
ठोकरों से मारा,
आग में झोंका,
पहियों तले रौंदा,
खेतों में फाड़ा,
दफ्तरों में उघाड़ा,
बिस्तर में भोगा,
बाज़ार में बेचा,
सडकों पर नंगे घुमाया,
मगरमच्छों को खिलाया,
तंदूर में पकाया,
तब तब हमने जाना :
हमारी कोई
जात-बिरादरी न थी;
हममें कोंई
ऊँच-नीच न थी;
हमारे कोई
धरम-ईमान न थे;
हम औरतें थीं,
सिर्फ़ औरतें;
मर्दों की खातिर औरतें!

रूप कुंवर, शाह बानो,
लता, अमीना, भंवरी बाई,
माया त्यागी, फूलन...,
श्रीमती अ,
मैडम ब,
या बेगम स...
नाम कुछ भी हो,
औरतें सिर्फ़ औरतें हैं
मर्दों की दुनिया में.
औरतें... चुडै़लें...!
चुडै़लें...औरतें...!

सुनो, सुनो,
अवधूतो! सुनो,
साधुओ! सुनो,
इन नारों को सुनो,
इन भाषणों को सुनो,
संसद और विधान मंडलों को
घेरकर उठती हुई
इन आवाजों को सुनो,
रुदालियों की पोशाक में
मर्द स्यापा कर रहे हैं,
छाती पीट रहे हैं,
धरती कूट रहे हैं,
आसमान फाड़ रहे हैं.

मानते हैं -
औरतजात एक हैं
सारी दुनिया में;
पर कुर्सी की राजनीति को
ऐसा एका बर्दाश्त नहीं,
कुर्सी की खातिर उन्हें
तोड़ना ही होगा
जात - बिरादरी में,
बिखेरना ही होगा
धर्म और मजहब में !

और वे चीख़़ रहे हैं:

औरतें एक नहीं हैं!
औरतें एक नहीं हो सकतीं!
कैसे हो सकती हैं औरतें एक,
हमसे पूछे बिना?

सुनो, सुनो,
अवधूतो ! सुनो,
साधुओ ! सुनो,
इतिहास के खँडहर में
नाच रही हैं चुडै़लें
हँसती हुईं, रोती हुईं , गाती हुईं :

दुनिया भर की औरतों , एक हो !
तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है
खोने को -
सिवा मर्दों की गुलामी के !!

ऋषभ देव शर्मा

अजब दिन थे के इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था / 'असअद' बदायुनी

अजब दिन थे के इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था
कभी हासिल हमें ख़स-ख़ाना ओ बरफ़ाब रहता था

उभरना डूबना अब कश्तियों का हम कहाँ देखें
वो दरिया क्या हुआ जिस में सदा गिर्दाब रहता था

वो सूरज सो गया है बर्फ़-ज़ारों में कहीं जा कर
धड़कता रात दिन जिस से दिल-ए-बे-ताब रहता था

जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
हमारी सब किताबों में इक ऐसा बाब रहता था

सुहाने मौसमों में उस की तुग़यानी क़यामत थी
जो दरिया गरमियों की धूप में पायाब रहता था

'असअद' बदायुनी

नश्तर और नुस्ख़ा / अमोघ

निश्चय ही राष्ट्र की इमारत के वे ठेकेदार
वंचक हैं, राष्ट्रद्रोही हैं
खिलाया जिन्होंने हमें माँग-चाँग लाए
घुने गेहूँ का दलिया,
पिलाया निःसत्त्व विदेशी पाउडर का दूध,
रटाया अहिंसक नाम बुद्ध का
और आश्वस्त रहे
कि ख़ूब बुद्धू बना छोड़ा है ।
भुलाकर शक्ति-पूजा राम की
चलाया चक्र अशोक का ।
भुलाकर श्रम और स्वावलंबन का महत्त्व
आदत डलवाई
मुफ्तख़ोरी, कामचोरी, बेरोज“गारी-रिश्वतख़ोरी की,
सत्ता के लोभ में भूलकर स्वदेश-भक्ति
टुकड़े-टुकड़े तोड़ा सुसंगठित समाज को,
परोसा स्वराज्य का प्रसाद ।
जाति, धर्म, अगड़े-पिछड़े
भाषा और क्षेत्रा के अलग-अलग कटोरे में
कृषि-सभ्यता के मेरुदंड गो-वंश को भेजा कसाई-घर
विदेशी मुद्रा के लोभ में बेचारे

बनकर रह गए पूरे कसाई ।

आज जब घुस-पैठ
ख़ूँरेजी करने लगे हैं दस्यु,
तब तुम आतंकित हो माँगते हो हमसे
धन, बल और वीरता
शक्ति और शूरता !
हे अभागी जनता के भाग्यवान नेता,

क्या सचमुच चाहते हो कि
राष्ट्र शक्तिशाली हो?
तो, तोड़ो भ्रम-जाल, दूर फेंको सारे छद्म वेश,
एक प्रण, एक प्राण, एकनिष्ठ श्रद्धा से
निश्छल एकात्म भाव से
गूँथो एक सूत्र में बिखरे फूल-शक्ति के
अर्पित करो भारत माता को।
शक्ति और श्रद्धा का अर्ध्य
तुम नरसिंह हो, धधका दो फिर शक्ति-ज्वाला
वाहन हो शक्ति के, तुम सिंह-गर्जना करो !


रचनाकाल : चीनी और पाकिस्तानी आक्रमण के बाद, 1965

अमोघ नारायण झा 'अमोघ'

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो / अखिलेश तिवारी

ख्वाबों की बात हो न ख्यालों की बात हो
मुफलिस की भूख उसके निवालों की बात हो

अब ख़त्म भी हो गुज़रे जमाने का तज़्किरा
इस तीरगी में कुछ तो उजालों की बात हो

जिनको मिले फरेब ही मंजिल के नाम पर
कुछ देर उनके पाँव के छालों की बात हो

अखिलेश तिवारी

तेरे सांचे मे ढल नहीं सकता / आदिल रशीद

          
मुहावरा ग़ज़ल
गिर के उठ कर जो चल नहीं सकता
वो कभी भी संभल नहीं सकता

तेरे सांचे में ढल नहीं सकता
इसलिए साथ चल नहीं सकता

आप रिश्ता रखें, रखें न रखें
मैं तो रिश्ता बदल नहीं सकता

वो भी भागेगा गन्दगी की तरफ
मैं भी फितरत बदल नहीं सकता

आप भावुक हैं आप पागल हैं
वो है पत्थर पिघल नहीं सकता

इस पे मंजिल मिले , मिले न मिले
अब मैं रस्ता बदल नहीं सकता

तुम ने चालाक कर दिया मुझको
अब कोई वार चल नहीं सकता

इस कहावत को अब बदल डालो
खोटा सिक्का तो चल नहीं सकता

आदिल रशीद

अंटार्कटिका का एक हिमखण्ड / अरविन्द श्रीवास्तव

अभी खड़ा था
यही कोई लाख वर्षों से
समुद्र की देह पर
चुपचाप
निहार रहा था हमें

हार-थक कर एक झटके में
वह टूटा
पिघला
और मिनटों में खो गया
समुद्र में ।

अरविन्द श्रीवास्तव

आत्मनिर्णय / अनीता कपूर

मैं कमजोर थी
तुम्हारे हित में,
सिवाय चुप रहने के
और कुछ नहीं किया मैंने
अब अंतर के
आंदोलित ज्वालामुखी ने
मेरी भी सहनशीलता की
धज्जियाँ उड़ा दी
मैंने चाहा, कि मैं
तुमसे सिर्फ नफरत करूँ
मैं चुप रही
तुमने मेरी चुप को
अपने लिए सुविधाजनक मान लिया था
मैं खुराक के नाम पर सिर्फ
आग ही खाती रही थी,
तुम तो यह भी भूल गए थे कि
आदमी के भीतर भी
एक जंगल होता है
और, आत्मनिर्णय के
संकटापन्न क्षणों में
उग आते हैं मस्तिष्क में
नागफनी के काँटे,
हाथों में मजबूती से सध जाती है
निर्णय की कुल्हाड़ी
फिर अपने ही एकांत में
खोये एहसास की उखड़ी साँसों का शोर
जंगल का एक रास्ता
दिमाग से जुड़ जाता है
उन्ही कुछ ईमानदार क्षणों में
मैंने भी अंतिम निर्णय ले लिया है
मेरी चुप्पी में कहीं एक दरार सी पड़ गयी है
तेरे-मेरे रिश्ते का सन्नाटा
आज टूट कर बिखर गया है

अनीता कपूर

ग़रीब रोई तो ग़ुंचों को भी हँसी आई / अर्श मलसियानी

चमन में कौन है पुरसाने-हाल शबनम का?
ग़रीब रोई तो ग़ुंचों को भी हँसी आई

नवेदे-ऐश से भी लुत्फ़े-ऐश मिल न सका
लिबासे-ग़म ही में आई अगर ख़ुशी आई

अजब न था कि ग़मे-दिल शिकस्त खा जाता
हज़ार शुक्र तेरे लुत्फ़ में कमी आई

दिए जलाए उम्मीदों ने दिल के गिर्द बहुत
किसी तरफ़ से न इस घर में रोशनी आई

हज़ार दीद पै पाबन्दियां थीं, पर्दे थे
निगाहे-शौक़ मगर उनको देख ही आई

अर्श मलसियानी

जो कहता था हमारा सरफिरा दिल, हम भी कहते थे / अकील नोमानी

जो कहता था हमारा सरफिरा दिल, हम भी कहते थे
कभी तनहाइयों को तेरी महफ़िल, हम भी कहते थे

हमें भी तजरिबा है कुफ्र की दुनिया में रहने का
बुतों के सामने अपने मसाइल हम भी कहते थे

यहाँ इक भीड़ अंजाने में दिन कहती थी रातों को
उसी इक भीड़ में हम भी थे शामिल, हम भी कहते थे

अकील नोमानी

केहि समुझावौ / कबीर

केहि समुझावौ सब जग अन्धा॥ टेक॥

इक दु होयँ उन्हैं समुझावौं
सबहि भुलाने पेटके धन्धा।
पानी घोड पवन असवरवा
ढरकि परै जस ओसक बुन्दा॥ १॥
गहिरी नदी अगम बहै धरवा
खेवन-हार के पडिगा फन्दा।
घर की वस्तु नजर नहि आवत
दियना बारिके ढूँढत अन्धा॥ २॥
लागी आगि सबै बन जरिगा
बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा।
कहै कबीर सुनो भाई साधो
जाय लंगोटी झारि के बन्दा॥ ३॥

कबीर

प्रवासी का प्रश्न / इला प्रसाद

हम ,
जो चले गए थे
अपनी जड़ों से दूर,
लौट रहे हैं वापस
अपनी जड़ों की ओर

और हैरान हैं यह देखकर
कि तुमने तो
हमारी शक्ल अख्तियार कर ली है

अब हम अपने को
कहाँ ढ़ूँढ़ें ?

इला प्रसाद

Wednesday, November 26, 2014

माँ का दुख / ऋतुराज

कितना प्रामाणिक था उसका दुख
लड़की को कहते वक़्त जिसे मानो
उसने अपनी अंतिम पूंजी भी दे दी

लड़की अभी सयानी थी
इतनी भोली सरल कि उसे सुख का
आभास तो होता था
पर नहीं जानती थी दुख बाँचना
पाठिका थी वह धुंधले प्रकाश में
कुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की

माँ ने कहा पानी में झाँककर
अपने चेहरे पर मत रीझना
आग रोटियाँ सेंकने के लिए होती है
जलने के लिए नहीं
वस्त्राभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह
बंधन हैं जीवन के

माँ ने कहा लड़की होना
पर लड़की जैसा दिखाई मत देना।

ऋतुराज

कभी ख़ुश भी किया है दिल किसी रिन्दे-शराबी का / ख़्वाजा मीर दर्द


कभी ख़ुश भी किया है दिल किसी रिन्दे-शराबी का
भिड़ा दे मुँह से मुँह साक़ी हमारा और गुलाबी का

छिपे हरगिज़ न मिस्ल-ए-बू वो पर्दों में छिपाए से
मज़ा पड़ता है जिस गुल पैरहन को बे-हिजाबी का

शरर-ओ-बर्क़ की-सी भी नहीं याँ फ़ुर्सते-हस्ती
फ़लक़ ने हम को सौंपा काम जो कुछ था शताबी का

मैं अपना दर्दे-दिल चाहा कहूँ जिस पास आलम में
बयाँ करने लगा क़िस्सा वो अपनी ही ख़राबी का

ज़माने की न देखी ज़र्रा-रेज़ी ‘दर्द’ कुछ तूने
मिलाया मिस्ले-मीना ख़ाक में ख़ूँ हर शराबी का

ख़्वाजा मीर दर्द

राँग नंबर / अनुज लुगुन

(लिंगाराम के लिए)

उस दिन
जब तुम्हें फोन आया था
दरअस्ल वह जंगलों का एक प्रस्ताव था कि
तुम उन्हें अपने स्पर्श से भर दो
उनकी सूनी आँखों को रोशनी दो
तुम्हें एक महान कदम उठाना था
प्रेम की ओर,
तुम यह कर सकते थे
उससे प्रेम करके
जो अपनी जंगली पगडंडियों से होकर
आ पहुँचा था तुम्हारी सड़कों तक
यह कदम था उसका तुम्हारी ओर
लेकिन शायद
वह राँग नंबर था तुम्हारे लिए
तुम्हारी बेरुखी ने उसे याद दिलाया होगा कि
अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी
तुमने उसके पैरों में बेड़ियाँ डाल दी होंगी
लेकिन जेल की सलाखों के पीछे
वह अपनी मुट्ठियाँ भींच रहा होगा।

अनुज लुगुन

नहीं है उसको मेरे रंजो ग़म का अंदाज़ा / अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी

नहीं है उसको मेरे रंजो ग़म का अंदाज़ा
बिखर न जाए मेरी ज़िंदगी का शीराज़ा

अमीरे शहर बनाया था जिस सितमगर को
उसी ने बंद किया मेरे घर का दरवाज़ा

सितम शआरी में उसका नहीं कोई हमसर
सितम शआरों में वह है बुलंद आवाज़ा

गुज़र रही है जो मुझपर किसी को क्या मालूम
जो ज़ख्म उसने दिए थे हैं आज तक ताज़ा

गुरेज़ करते हैँ सब उसकी मेज़बानी से
भुगत रहा है वह अपने किए का ख़मियाज़ा


है तंग क़फिया इस बहर में ग़ज़ल के लिए
दिखाता वरना मैं ज़ोरे क़लम का अंदाज़ा

वह सुर्ख़रू नज़र आता है इस लिए `बर्क़ी'
है उसके चेहरे का ख़ूने जिगर मेरा ग़ाज़ा

 
अमीरे शहर-हाकिम, सितम शआरी-ज़ुल्म
सितम शआर- ज़लिम, ग़ाज़ा-क्रीम, बुलंद आवाज़ा- मशहूर

अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी

तोता / उद्‌भ्रान्त

1

अगर कहीं मैं
तोता होता...
तो क्या होता?
याद मुझे आ गई अचानक
उस तोते की...

तोता उसको कहना ठीक नहीं होगा
...उस शिशु तोते की

जिसे पक्षियों के बजार से
मैंने पिंजड़े सहित खरीदा
अपनी सबसे छोटी बेटी
की सुन-सुन लम्बी फरमाइश
दसियों बरस पूर्व
जब वह थी नन्हीं बच्ची
और मुझे अकसर ही कहती...
पापा! मुझे चाहिए तोता
अगर कहीं मैं तोता होता
तो क्या होता?


2

कानपुर के सीसामऊ वाले बजार से
निकल रहा था जब मैं
नजर अचानक गई
किनारे बैठे पक्षी-विक्रेता के ऊपर
जिसके पास अनेकों
हरियल तोते
अपनी-अपनी उम्र और
कद-काठी के अनुसार
छोटे-बड़े-मँझोले
पिंजड़ों में थे कैद;
और ताकते निर्निमेष
अपने-अपने पिंजड़ों के बाहर
सोच रहे थे...
'शायद कोई मुक्त हमें
करने को आए।
'एक शिकारी ने
छीनकर स्वातन्त्र्य हमारा
हमें बना डाला है बन्दी;
शायद कोई
भगत सिंह, गांधी अथवा सुभाष
गुजरता हुआ
इस बजार से, जिसमें
स्थानिकता से लेकर
राष्ट्रीयता एवं
अन्तर्राष्ट्रीयता के
गुण भी भरपूर हैं
मुक्त कराए,
स्वतन्त्रता दिलाये हमको।'

इसीलिए जब मैंने
रिक्शा रुकवाया उस विक्रेता के पास तो
सारे तोते उत्सुकता से लगे देखने मेरी तरफ
और अपेक्षा की नजरों से!
कि 'आखिरकार मिल गया हमको
भगतसिंह, गांधी, सुभाष जैसा ही कोई,
जो अपने आत्मिक बल,
साहस, चतुराई या कूटनीति से
निश्चय हमें दिला पाएगा वापस
वह स्वतन्त्रता जिसको
खो बैठे थे हम
अपने भोलेपन से या कि मूर्खता से ही!'

सचमुच ऐसा सोच रहे थे वे
कि मुझे ही
झूठा यह आभास हुआ?

झूठ, फरेब और धोखे के
शिकार हो चुकने के बाद
क्या अब वे हो चुके सतर्क
और किसी भी
नये और अनजान व्यक्ति को
ठीक तरह जाँचने-परखने के ही बाद
अपनी आत्मा का
निश्छल सौन्दर्य्य
प्रकट करने को उत्सुक?


3

तोते को जब देखा मैंने
अपनी नन्हीं-मुन्नी आँखों से वह
देख रहा था
पिंजड़े के घेरे से बाहर,
ललक भरी नजरों में उसकी।

चंद दिनों पहले ही उसने
शायद रक्खा कदम
जिन्दगी की धरती पर।

उसे नहीं था ज्ञान
कि यह दुनिया है कैसी!

अक्षर-ज्ञान अभी तक नहीं मिला था उसको,
और न उसे ज्ञान था.
'तोतारंटत' वाली अपनी अद्भुत प्रतिभा का ही!


4

अपनी अद्भुत रंटत
विद्या के गुण को
तोतों ने वितरित किया
हम मनुष्यों के बीच
अपनी चित्ताकर्षक मुखाकृति
और हरियल सुन्दरता की
खुशबू के सँग।

प्रत्युत्तर में हमने
उनके साथ किया अत्याचार,
अपने क्षणिक मनोरंजन-हेतु
जबरन अपनी भाषा के
चंद टुकड़े अथवा चंद शब्द
सुनने के लिए!
और इसके लिए हमने
उन्हें अन्न के दानों की जगह
खाने को दी
तिक्त हरी मिर्च!
करते हुए नहीं कोई भी परवाह
कि उसे खाने के पश्चात
उनकी कण्ठ-नली में
होगा प्रवाहित भयंकर दर्द;

'राम, राम' ...बोले हम,
कहते हुए
'मिट्ठू! बोलो राम! राम!'
कड़वी मिर्च खिला
उसे मिट्ठू नाम से पुकारनेवाले
निर्दयी हम मनुष्यों को
अपनी भोली-भाली आँखों से
देखते हुए
वाणी की कृपा से वंचित
वे हरियल तोते
चीत्कार करते जोर-जोर से।

और उनका चीत्कार सुनते ही
हर्ष से भर ताली पीटते हम
और कहने लगते आस-पड़ोस से...
देखो! हमारा मिट्ठू
बोल रहा 'राम-राम'
हमारा ही वाणी में,
कैसा चमत्कारी है!
बेबस तोते अवश्य सोचते...
'इस निर्दयी मनुष्य को भी
जबरदस्ती कड़वी मिर्चें खिलाकर
क्यों न कोई बाध्य करता
बोली बोलने को हमारी भी।'


5

विक्रेता से तोते को खरीदते वक्त
समझीं मैंने सभी हिदायतें जो थीं
उसके पालन-पोषण हेतु;
और सावधानी के साथ
दर्ज डायरी में की अपनी

जाहिल ढोंगी विक्रेता को
उसका ध्यान रखने
उसे लाड़-प्यार देने का
पूरा आश्वासन देकर
आया चला वहाँ से ले उसको।

लेकिन यह क्या हुआ कि
उसने मुटुर-मुटर आँखों से अपनी
मेरी ओर देखने के बाद भी
नहीं लिया कोई नोटिस मेरा और
बिना एक भी बोले शब्द, वह...
पिंजड़े में बैठा रहा चुप
उदास नजरों से!


6

विक्रेता की सभी हिदायतों के अनुसार मैंने
पिंजड़े में रक्खे कुछ दाने,
हरी-हरी मिर्च
कटोरी में शीतल जल
और टाँग दिया उसे
अपने कमरे में गर्व से भरकर।

नन्हीं बिटिया उसे देख-देख
खुशी से उछलती,
पीटती ताली।
अगले दिन रात्रि को जब
लौटा मैं दफ्तर से

तोता नहीं दिखा,
नहीं दिखा उसका पिंजड़ा कहीं।
पूछा जब पत्नी से मैंने तो
उसने दुख भरे स्वर में
किया मुझे सूचित कि
मिट्ठू! आज दिन में ही चल बसा,
और उसके दुख में दुखी
बिटिया सो गई रोते-रोते
भोजन छोड़कर।

तोते ने आखिर मुक्ति पा ही ली,
पा ही ली स्वतन्त्रता,
मुझे जैसे एक क्रूर
हृदयहीन व्यक्ति को भी
देते हुए दर्जा
गांधी का, भगतसिंह का,
नेताजी का!

अपनी तथाकथित स्वतन्त्रता पाने के लिए
उसके पास था ही क्या और
जिसे वह खोता?

मेरे भी पास अब शेष था क्य
सिवा इसी उलझन के
कि अगर कहीं
मैं तोता होता
तो क्या होता?

उद्‌भ्रान्त

साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है / अमित

इल्तिजा उसकी मुहब्बत में सनी होती है
साफ इन्कार में ख़ातिर शिकनी होती है

यूँ कमानी की तरह भौंह तनी होती है
नज़र पड़ते ही कहीं आगजनी होती है

अपना ही अक्स नज़र आती है अक्सर मुझको
वो हर इक चीज जो मिट्टी की बनी होती है

सौदा-ए-इश्क़ का दस्तूर यही है शायद
माल लुट जाये है तब आमदनी होती है

मैं पयाले को कई बार लबों तक लाया
क्या करूँ जाम की क़िस्मत से ठनी होती है

इतने अरमानो की गठरी लिये फिरते हो ’अमित’
उम्र इंसान की आख़िर कितनी होती है

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

सृष्टि / अनामिका

सृष्टि की पहली सुबह थी वह!
कहा गया मुझसे
तू उजियारा है धरती का
और छीन लिया गया मेरा सूरज!
कहा गया मुझसे
तू बुलबुल है इस बाग़ का
और झपट लिया गया मेरा आकाश!
कहा गया मुझसे
तू पानी है सृष्टि की आँखों का
और मुझे ब्याहा गया रेत से
सुखा दिया गया मेरा सागर!
कहा गया मुझसे
तू बिम्ब है सबसे सुन्दर
और तोड़ दिया गया मेरा दर्पण |

बाबा कबीर की कविता की माटी की तरह नहीं,
पेपर मैशी की लुगदी की तरह
मुझे "रूंदा" गया,
किसी-किसी तरह मैं उठी,
एक प्रतिमा बनी मेरी,
कोई था जिसने दर्पण की किरचियाँ उठाई
और रोम-रोम में प्रतिमा के जड़ दी!
एक ब्रह्माण्ड ही परावर्तित था
रोम-रोम में अब तो!
जो सूरज छीन लिया था मुझसे
दौड़ता हुआ आ गया वापस
और हपस कर मेरे अंग लग गया!
आकाश खुद एक पंछी -सा
मेरे कंधे पर उतर आया |

वक़्त सा समुन्दर मेरे पाँव पर बिछ गया,
धुल गयी अब युगों की कीचड़!
अब मैं व्यवस्थित थी!
पूरी यह कायनात ही मेरा घर थी अब!
अपने दस हाथों से
करने लगी काम घर के और बाहर के!
एक घरेलू दुर्गा
भाले पर झाड़न लपेट लिया मैंने
और लगी धूल झाड़ने
कायदों की, वायदों की, रस्मों की, मिथकों की,
इतिहास की मेज भी झाड़ी!
महिषासुर के मैंने काट दिए नाख़ून,
नहलाकर भेज दिया दफ्तर!
एक नयी सृष्टि अब
मचल रही थी मेरे भीतर!

अनामिका

शाम और मज़दूर-4 / अख़्तर यूसुफ़

शाम और मज़दूर बहुत पास-पास बैठे थे
मिट्टी की डोंगी में गुड़ की चाय पीते थे
महुआ के खेतों से पछुआ सीधी चली
आती थी तेज़ कभी होती थी और कभी
धीमी ख़ुशबू तेज़ महुआ की गुड़ की चाय
जैसे कि बस भड़क-सी दारू दोनों को
नशा था झोंपड़ी मज़दूर की महुआ की
ख़ुशबू में भीगी थी तेज़ हवा में दिया
बुझा था दोनों शाम और मज़दूर मदहोश
हम बिस्तर और बिस्तर हो रहे थे।

अख़्तर यूसुफ़

है जुस्तजू कि ख़ूब से हो ख़ूबतर कहाँ / अल्ताफ़ हुसैन हाली

है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूबतर कहाँ
अब ठहरती है देखिये जाकर नज़र कहाँ

या रब! इस इख़्त्लात का अँजाम हो बख़ैर
था उसको हमसे रब्त मगर इस क़दर कहाँ

इक उम्र चाहिये कि गवारा हो नेशे -इश्क़
रक्खी है आज लज़्ज़ते-ज़ख़्मे-जिगर कहाँ

हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझ-से लाख सही , तू मगर कहाँ

अल्ताफ़ हुसैन हाली

आँखों की सड़क / अनीता कपूर

मेरी आँखों की सड़क पर
जब तुम चलकर आते थे
कोलतार मखमली गलीचा बन जाता था
मेरी आँखों की सड़क से जब
तुम्हें वापस जाते देखती थी
वही सड़क रेगिस्तान बन जाती थी
तुम फिर जब-जब वापस नहीं आते थे
रगिस्तान की रेत आँख की किरकिरी बन जाती थी
आँखों ने सपनों से रिश्ता तोड़ लिया था
फिर मुझे नींद नहीं आती थी

अनीता कपूर

जीभ की गाथा / अरुण कमल

दाँतों ने जीभ से कहा-- ढीठ, सम्भल कर रह
हम बत्तीस हैं और तू अकेली

चबा जाएंगे


जीभ उसी तरह रहती थी इस लोकतांत्रिक मुँह में
जैसे बाबा आदम के ज़माने से
बत्तीस दाँतों के बीच बेचारी इकली जीभ

बोली, मालिक आप सब झड़ जाओगे एक दिन
फिर भी मैं रहूंगी
जब तक यह चोला है।

अरुण कमल

कहो गीतों से / कुमार रवींद्र

कहो गीतों से
कि वे सन्यास ले लें
बेतुका है यह समय
वे लय-तुकों की बात करते
नेह का दीपक जलाते
उसे आंगन-घाट धरते
देखते वे नहीं
घर में चढ़ीं कितनी अमरबेलें
कभी वंशीधुन
कभी वे शंख का हैं नाद जीते
किसी भोले देवता के संग
युग का जहर पीते
चाहिये उनको
कि वे भी छल-कपट के खेल खेलें
याद करते रामजी के राज की वे
शाह अबके सभी अंधे
संत-बानी साधते वे
शब्द अब तो हुए धंधे
नियति उनकी
वे समय के अनर्गल संवाद झेलें

कुमार रवींद्र

Tuesday, November 25, 2014

हमने क़ुदरत की हर इक शै से मोहब्बत की है / ओम प्रकाश नदीम

हमने क़ुदरत की हर इक शै से मोहब्बत की है ।
और नफ़रत की हर इक बात से नफ़रत की है ।।

क़ुदरत ने तो हर शख़्स को इंसान बनाया,
किसने उसे तफ़रीक़ का सामान बनाया ?
इंसान की ख़िदमत के लिए आया था इंसां,
किसने उसे मज़हब का निगहबान बनाया ?

जिसने इंसान को तक़्सीम किया ख़ानों में,
उसने क़ुदरत की अमानत में ख़यानत की है ।
हमने क़ुदरत की हर इक शै...

कोई भी यहाँ साथ में जब कुछ नहीं लाया,
किसने तुम्हें मालिक हमें मज़दूर बनाया ?
क़ुदरत का ख़ज़ाना तो ख़ज़ाना था सभी का,
किसने हमें मुफ़्लिस तुम्हें धनवान बनाया ?

हम भले चुप हैं मगर हम कोई नादान नहीं,
हमको मालूम है किसने ये सियासत की है ।
हमने क़ुदरत की हर इक शै.....

सपने जो हमारे थे उन्हें चूर किया है,
ईमान को बिक जाने पे मजबूर किया है,
पहले से बढ़ी फ़ीस को कुछ और बढ़ा कर,
कमज़ोर को तालीम से भी दूर किया है,

दिल में उट्ठा है जो उस दर्द की आवाज़ है ये,
हमको तकलीफ़ हुयी है तो शिकायत की है ।
हमने क़ुदरत की हर इक शै.....

तुम रूस के अख़बार से ये पूछ के देखो,
तुम चीन की दीवार से ये पूछ के देखो,
’बिस्मिल’ से ’भगतसिंह’ से ’अशफ़ाक़’ से पूछो,
तारीख़ के सरदार से ये पूछ के देखो,

ज़ुल्म चुपचाप सहे हमने हमेशा लेकिन,
ज़ुल्म जब हद से बढ़ा है तो बग़ावत की है ।
हमने क़ुदरत की हर इक शै से मोहब्बत की है ।।

ओम प्रकाश नदीम

जिसने पाप ना किया हो / आनंद बख़्शी

 
यार हमारी बात सुनो ऐसा इक इन्सान चुनो
जिसने पाप ना किया हो जो पापी ना हो
जिसने पाप ना किया हो जो पापी ना हो

कोई है चालाक आदमी कोई सीधा-सादा
कोई है चालाक आदमी कोई सीधा-सादा
हममें से हर एक है पापी थोड़ा कोई ज़्यादा
हो कोई मान गया रे कोई रूठ गया
हो कोई पकड़ा गया कोई छूट गया
यार हमारी बात सुनो ऐसा इक बेईमान चुनो
हो जिसने पाप ना ...

इस पापन को आज सज़ा देंगे मिलकर हम सारे
इस पापन को आज सज़ा देंगे मिलकर हम सारे
लेकिन जो पापी न हो वो पहला पत्थर मारे
हो पहले अपने मन साफ़ करो रे फिर औरों का इन्साफ़ करो
यार हमारी बात सुनो ऐसा इक नादान चुनो
हो जिसने पाप ना ...

आनंद बख़्शी

अगवानी / क्रांति

हमें ही ख़ुद उठकर
करनी होती है
प्रकाश की अगवानी

वह कभी दरवाज़े पर
दस्तक नहीं देता
हवा की तरह

क्रांति

हे दिवाकर! / कविता मालवीय

हे दिवाकर!
तुममें ऐसा क्या है यार
निखरते हो
तो महफ़िल की वाहवाही समेट लेते हो
डूबते हो
तो आहों से जग को लपेट लेते हो
तुम कभी
उच्चतर भावना से ग्रस्त नहीं होते!
कृष्ण के बचपन में,
दीवानों (कवि) की जमात में
सुबहो शाम शामिल रहने से पस्त नहीं होते
शायर हो क्या?
जो मुश्किलात (चंद्रग्रहण) में भी
दर्द की हर अंगडाई का
फ़साना बना देते हो
दंगाई हो क्या?
जो अच्छे भले
शांत माहौल में आग लगा देते हो?
तुममें ऐसा क्या है यार

कविता मालवीय

मादाम बोवारी से क्षमा / गिरिराज किराडू

वह मादाम बोवारी का अभिनय कर रही है
बिल्कुल अंतिम दृश्य है विष उसके शरीर में फैल रहा है वह क्षमा मांगती है
यह देखते हुए मैं उसके पति की भूमिका में हूँ
मैं भी उससे क्षमा मांगता हूँ –

क्षमा करो प्रिये, मैं इस कथा से अभी विदा नहीं ले सकता
तुम्हारा अंतिम संस्कार मेरा अंतिम संस्कार नहीं है
मैं तुम्हारा समाधिलेख नहीं हूँ
मैं जीवन का आज्ञाकारी पालतू हूँ
मुझे तुम्हारी याद की ही नहीं कब्र की भी देखभाल करनी है

क्षमा करो, प्रिये, क्षमा

गिरीराज किराडू

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं / फ़राज़

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं

सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं

वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं

जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं

रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं

तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं

ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं

यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं

न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं

यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं

अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं

बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं

अहमद फ़राज़

झूठ जब भी सर उठाये वार होना चाहिए / अभिनव अरुण

झूठ जब भी सर उठाये वार होना चाहिए,
सच को सिंहासन पे ही हर बार होना चाहिए।

बात की गांठें ज़रा ढीली ही रहने दो मियाँ,
हो किला मज़बूत लेकिन द्वार होना चाहिए।

फ़िक्र ऐसी हो कि हम फाके में भी सुलतान हों,
क्या ज़रूरी है कि बंगला - कार होना चहिये।

मैं कि दुनिया से मिलूँ कैफ़ी और साहिर की तरह,
पास तुम आओ तो मन गुलज़ार होना चाहिए।

घर से शाला तक मेरा बचपन कहीं गुम हो गया,
जी करे हर रोज़ ही इतवार होना चाहिए।

साफ़गोई है तो दिल चेहरे से झांकेगा ज़रूर,
आदमी लिपटा हुआ अखबार होना चाहिए।

मुल्क की खातिर फकत झंडे न फहराएँ हुजूर,
इश्क है तो इश्क का इज़हार होना चाहिए।

अभिनव अरुण

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री / अमीर खुसरो

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया
अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया
अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि साबन आया
बेटी तेरा मामु तो बांका री - कि सावन आया

अमीर खुसरो

ऊसर जमीन भी बन सकती है फिर से उपजाऊ 5 / उमेश चौहान

पृथ्वी की उत्पत्ति भले ही अभी भी एक रहस्य हो
किन्तु ऊसर की उत्पत्ति के बारे में कुछ भी रहस्यमय नहीं
धरती पर रेगिस्तान भले ही बनते हों जलवायु-परिवर्तनों से
लेकिन ऊसर जमीन तो पैदा होती है
उर्वर व सिंचित प्रदेशों में ही।

गहरा नाता होता है ऊसर भूमि का
अतीत में किए गए उसकी उर्वरता के दोहन से
गनीमत यही है कि
स्थायी नहीं होती धरती की यह अक्षमता
उपचारित किए जाने पर कभी भी बन सकती है
कोई भी ऊसर भूमि उपजाऊ।

उमेश चौहान

अपने होने का सुबूत / कृष्ण बिहारी 'नूर'

कोई भटकता बादल / फ़राज़


कोई भटकता बादल

दूर इक शहर में जब कोई भटकता बादल
मेरी जलती हुई बस्ती की तरफ़ जाएगा
कितनी हसरत[1] से उसे देखेंगी प्यासी आँखें
और वो वक़्त की मानिंद[2] गुज़र[3] जाएगा

जाने किस सोच में खो जाएगी दिल की दुनिया
जाने क्या-क्या मुझे बीता हुआ याद आएगा
और उस शह्र का बे-फैज़[4]भटकता बादल
दर्द की आग को फैला के चला जाएगा

अहमद फ़राज़

देश, बच्चा और मैं / अच्युतानंद मिश्र

बेतरतीब रखी हुई
चीज़ों के बीच
कौन सा सलीका
ढूँढ़ता हूँ मैं
अब तक ?

छोड़ आया था नींद
रात के तीसरे पहर मैं
जिस पत्थर के पास,
क्या वहाँ अब तक
बचा होगा कुछ ?
कुछ न कुछ तो
बचा ही रहता है !!
ताकि हर बचे से
रिसता रहे कुछ लगातार ।

नींद और उदासी के
समन्दर से बाहर
स्याह सड़कों पर दौड़ता,
घुटने तुड़वाता,
उस बच्चे के दुःख में
कहीं खो जाता हूँ मैं,
जो अँधेरे मुँह निकला था
रात को जब लौटा तो
झोपड़ी कहीं नहीं थी -

बस सुलगती हुई इच्छाएँ,
दम तोड़ती आशाएँ,
मुँह फाड़े ठंडा चूल्हा था
जो अब तक टूटा नहीं था
पर आग नहीं थी उसमें ।
आग सिर्फ़ भीतर थी
बाहर के ठंडेपन पर
चीख़ती हुई-सी!

मैं उस बच्चे की ठिठुरन,
उसकी कपँकपी, उसकी भूख,
उसकी उदासी, उसकी नींद,
हर तरफ़ होना चाहता हूँ ।
लेकिन थककर उसी पत्थर पर
सिर रखकर सोने लगता हूँ,
अपनी कल की छूटी हुई नींद से
आज की नींद को
धागों से गाँठने लगता हूँ ।

मैनें चीज़ें साबुत देखी ही नहीं
‘‘मैं गाँठ लगाने को ही
साबुत समझता हूँ’’

जब रात अपने स्वर में
कराहती है,
जब सड़कों पर अँधेरा
अपनी दोनों आँखे खोलता है,
जब चाँद किसी भूतही
बिल्डिंग के पीछे छिप जाता है-
आत्मा पूरे दर्द के साथ
जग जाती है ।

मुझे माँ की याद सताती है ।
मैं रोना चाहता हूँ ।
पर अकेले का रोना
क्या कोई रोना होता है ?

बस यह सोचकर
और यही सोचकर
मैं हँसता हूँ !

मैं जानता हूँ
उस वक़्त मेरा चेहरा
बहुत-बहुत कुरूप हो जाता है ।

मैं ख़ुद को यक़ीन दिलाता हूँ ।
अपने सीने को कस के पकड़ कर
यक़ीन करने लगता हूँ -
‘‘जो कुछ था, वह बस एक नींद थी ।
सवेरा तो अब तक हुआ ही नहीं’’
अपने इस खेल पर मैं
एक बार फिर हँसता हूँ ।
इतने में बिल्डिंग की बत्ती बुझती है
चाँद पीछे से निकलता है,
मैं डर जाता हूँ ।

मैं चाँद से बहुत डरता हूँ ।
मुझे सबसे ख़तरनाक लगती है
चाँद की रोशनी
जो उजाले और अँधेरे को झुठलाती है
वह बच्चा भी तो अब तक
किसी पत्थर पर सिर रखे
सोया होगा
पर क्या, उसने कुछ खाया होगा ?
क्या उसके कपड़ो से बाहर उघड़ी देह,
जिससे रिस रहा था ख़ून,
सूख गया होगा,
क्या किसी ने उसे चादर ओढ़ाया होगा ?
क्या कल फिर सुबह
सड़कों पर वह यूँ ही निकल पड़ेगा,
पर रात को कहाँ लौटेगा वह ?
क्या उसने भी मेरी तरह
चाँद को गुस्से से देखा होगा ?

क्या वह बच्चा मैं था ?
क्यों नहीं था
मैं वह बच्चा ?
वह बच्चा कोई और क्यों है ?
अगर पत्थर देश का है
तो बच्चा देश का क्यों नहीं ?
देश गहरी नींद में सोया था
बच्चा पूरी रात ठिठुरता रहा
और मैं ?
विचारों की चादर ओढ़े
रात भर भटकता रहा !

अच्युतानंद मिश्र

रमता दृग / अमित कल्ला

दृग रमता है
रमता ही जाता है
पाता पर्वत
पानी पाताल का चखता
दृग रंग पकड़ता है
रेखाओं की संगत करता

दृग कबीर बन
अन्तरिक्ष के दिगांत विस्तार को
ताने-बाने में बुनता
दृग नानक सा फिरता है
हजारों हज़ार आँखों से देखता
हजारों हज़ार पगों से चलता है

दृग कोयल का काजल
तितली की बिंदिया
पंछी की परछाई
मखमल का जोबन चुराता

दृग शब्द पकड़ता है
इबारतों की इबादत कर
द्रश्य पार कर जाता
दृग रमता है
रमता ही जाता है ।

अमित कल्ला

गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे / 'असअद' भोपाली

गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे
ज़रा थपक के सुला दे ख़याल-ए-यार मुझे

न आया ग़म भी मोहब्बत में साज़-गार मुझे
वो ख़ुद तड़प गए देखा जो बे-क़रार मुझे

निगाह-ए-शर्मगीं चुपके से ले उड़ी मुझ को
पुकारता ही रहा कोई बार बार मुझे

निगाह-ए-मस्त ये मेयार-ए-बे-ख़ुदी क्या है
ज़माने वाले समझते हैं होशियार मुझे

बजा है तर्क-ए-तअल्लुक़ का मशवरा लेकिन
न इख़्तियार उन्हें है न इख़्तियार मुझे

बहार और ब-क़ैद-ए-ख़िज़ाँ है नंग मुझे
अगर मिले तो मिले मुस्तक़िल बहार मुझे

'असअद' भोपाली

गंगा के इस पावन तट पर / अनुपमा पाठक

आना सांसारिक प्रपंचों से बिलकुल निपट कर
गंगा के इस पावन तट पर

यहाँ की छटा है दिव्य
सकल रश्मियाँ आँचल में आ गयी सिमट कर
गंगा के इस पावन तट पर

मन कुछ और निर्मल हो गया
हवाएं गुजरी जो कुछ आत्मा से सट कर
गंगा के इस पावन तट पर

अपनी क्षुद्रता का एहसास और प्रबल हो गया
रजकणों से लिपट कर
गंगा के इस पावन तट पर

आरती की थाल सजी है
झूमता हुआ सा माहौल है सारे जहां से हट कर
गंगा के इस पावन तट पर

आखिर क्या हासिल कर लोगे
स्वार्थ का बेतुका गणितीय पहाड़ा रट कर
गंगा के इस पावन तट पर

आना सांसारिक प्रपंचों से बिलकुल निपट कर
गंगा के इस पावन तट पर

अनुपमा पाठक

Monday, November 24, 2014

दोनों ही पक्ष आए हैं / कुँअर बेचैन

दोनों ही पक्ष आए हैं तैयारियों के साथ
हम गर्दनों के साथ हैं वो आरियों के साथ

बोया न कुछ भी, फ़सल मगर ढूँढते हैं लोग
कैसा मज़ाक चल रहा है क्यारियों के साथ

कोई बताए किस तरह उसको चुराऊँ में
पानी की एक बूँद है चिंगारियों के साथ

सेहत हमारी ठीक रहे भी तो किस तरह
आते हैं ख़ुद हक़ीम ही बीमारियों के साथ

कुछ रोज़ से मैं देख रहा हूँ कि हर सुबह
उठती है इक कराह भी किलकारियों के साथ

कुँअर बेचैन

मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ / इरफ़ान सिद्दीकी

मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ
तुम मसीहा नहीं होते हो तो क़ातिल हो जाओ

दश्त से दूर भी क्या रंग दिखाता है जुनूँ
देखना है तो किसी शहर में दाखिल हो जाओ

जिस पे होता ही नहीं खूने-दो-आलम साबित
बढ़ के इक दिन उसी गर्दन में हमाइल हो जाओ

वो सितमगर तुम्हे तस्ख़ीर किया चाहता है
ख़ाक बन जाओ और उस शख्स को हासिल हो जाओ

इश्क़ क्या कारे-हवस भी कोई आसान नहीं
खैर से पहले इसी काम के क़ाबिल हो जाओ

मैं हूँ या मौजे-फना, और यहाँ कोई नहीं
तुम अगर हो तो ज़रा राह में हाइल हो जाओ

अभी पैकर ही जला है तो ये आलम है मियाँ
आग ये रूह में लग जाए तो कामिल हो जाओ

इरफ़ान सिद्दीकी

हाथ-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’

कुछ लोग
जुबान चला रहे थे
कुछ लोग
हाथ चला रहे थे
कुछ लोग
इन पर
बात चला रहे थे
मामला शांत हुआ !
अब
लोग बतिया रहे थे;
मामला सुलझाने में
हमारी जुबान थी
कुछ ने कहा
हमारी बातों का
सिलसिला था
कुछ ने कहा
इस समझाइश में तो
हमारा ही हाथ था
में
ढूंढ रहा था
उन हाथों को
जिसने रचा था
इस घटनाक्रम को
आद्योपांत !

ओम पुरोहित ‘कागद’

भटका हुआ कारवाँ / गिरिजाकुमार माथुर

उन पर क्‍या विश्‍वास जिन्‍हें है अपने पर विश्‍वास नहीं
वे क्‍या दिशा दिखाएँगे, दिखता जिनको आकाश नहीं

बहुत बड़े सतरंगे नक़्शे पर
बहुत बड़ी शतरंज बिछी
धब्‍बोंवाली चादर जिसकी
कटी, फटी, टेढ़ी, तिरछी
जुटे हुए हैं वही खिलाड़ी
चाल वही, संकल्‍प वही
सबके वही पियादे, फर्जी
कोई नया विकल्‍प नहीं

चढ़ा खेल का नशा इन्‍हें, दुनिया का होश-हवास नहीं
दर्द बँटाएँगे क्‍या, जिनको अपने से अवकाश नहीं

एक बाँझ वर्जित प्रदेश में
पहुँच गई जीवन की धारा
भटक रहा लाचार कारवाँ
लुटा-पिटा दर-दर मारा
बिक्री को तैयार खड़ा
हर दरवाजे झुकनेवाला
अदल-बदल कर पहन रहा है
खोटे सिक्‍कों की माला

इन्‍हें सबसे ज़्यादा दुख का है कोई अहसास नहीं
अपनी सुख-‍सुविधा के आगे, कोई और तलाश नहीं

ख़त्‍म हुई पहचान सभी की
अजब वक़्त यह आया है
सत्‍य-झूठ का व्‍यर्थ झमेला
सबने खूब मिटाया है
जातिवाद का ज़हर किसी ने
घर-घर में फैलाया है
वर्तमान है वृद्ध
भविष्‍यत अपने से कतराया है

उठती हैं तूफ़ानी लहरें, तट का है आभास नहीं
पृथ्‍वी है, सागर सूरज है लेकिन अभी प्रकाश नहीं ।

गिरिजाकुमार माथुर

भक्ति की महिमा / कबीर

भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्त |
ऊँच नीच घर अवतरै, होय सन्त का सन्त ||


की हुई भक्ति के बीज निष्फल नहीं होते चाहे अनंतो युग बीत जाये | भक्तिमान जीव सन्त का सन्त ही रहता है चाहे वह ऊँच - नीच माने गये किसी भी वर्ण - जाती में जन्म ले |


भक्ति पदारथ तब मिलै, तब गुरु होय सहाय |
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ||


भक्तिरूपी अमोलक वस्तु तब मिलती है जब यथार्थ सतगुरु मिलें और उनका उपदेश प्राप्त हो | जो प्रेम - प्रीति से पूर्ण भक्ति है, वह पुरुषार्थरुपी पूर्ण भाग्योदय से मिलती है |


भक्ति जो सीढ़ी मुक्ति की, चढ़ै भक्त हरषाय |
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ||


भक्ति मुक्ति की सीडी है, इसलिए भक्तजन खुशी - खुशी उसपर चदते हैं | आकर अपने मन में समझो, दूसरा कोई इस भक्ति सीडी पर नहीं चढ़ सकता | (सत्य की खोज ही भक्ति है)


भक्ति बिन नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय |
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ||


कोई भक्ति को बिना मुक्ति नहीं पा सकता चाहे लाखो लाखो यत्न कर ले | जो गुरु के निर्णय वचनों का प्रेमी होता है, वही सत्संग द्वरा अपनी स्थिति को प्राप्त करता है |


भक्ति गेंद चौगान की, भावै कोइ लै लाय |
कहैं कबीर कुछ भेद नहिं, कहाँ रंक कहँ राय ||


भक्ति तो मैदान में गेंद के समान सार्वजनिक है, जिसे अच्छी लगे, ले जाये | गुरु कबीर जी कहते हैं कि, इसमें धनी - गरीब, ऊँच - नीच का भेदभाव नहीं है |


कबीर गुरु की भक्ति बिन, अधिक जीवन संसार |
धुँवा का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ||


कबीर जी कहते हैं कि बिना गुरु भक्ति संसार में जीना धिक्कार है | यह माया तो धुएं के महल के समान है, इसके खतम होने में समय नहीं लगता |


जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय |
नाता तोड़े गुरु बजै, भक्त कहावै सोय ||


जब तक जाति - भांति का अभिमान है तब तक कोई भक्ति नहीं कर सकता | सब अहंकार को त्याग कर गुरु की सेवा करने से गुरु - भक्त कहला सकता है |


भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव |
भक्ति भाव एक रूप हैं, दोऊ एक सुभाव ||


भाव (प्रेम) बिना भक्ति नहीं होती, भक्ति बिना भाव (प्रेम) नहीं होते | भाव और भक्ति एक ही रूप के दो नाम हैं, क्योंकि दोनों का स्वभाव एक ही है |


जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय |
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ||


जाति, कुल और वर्ण का अभिमान मिटाकर एवं मन लगाकर भक्ति करे | यथार्थ सतगुरु के मिलने पर आवागमन का दुःख अवश्य मिटेगा |


कामी क्रोधी लालची, इतने भक्ति न होय |
भक्ति करे कोई सुरमा, जाति बरन कुल खोय ||


कामी, क्रोधी और लालची लोगो से भक्ति नहीं हो सकती | जाति, वर्ण और कुल का मद मिटाकर, भक्ति तो कोई शूरवीर करता है |

कबीर