शाम और मज़दूर बहुत पास-पास बैठे थे
मिट्टी की डोंगी में गुड़ की चाय पीते थे
महुआ के खेतों से पछुआ सीधी चली
आती थी तेज़ कभी होती थी और कभी
धीमी ख़ुशबू तेज़ महुआ की गुड़ की चाय
जैसे कि बस भड़क-सी दारू दोनों को
नशा था झोंपड़ी मज़दूर की महुआ की
ख़ुशबू में भीगी थी तेज़ हवा में दिया
बुझा था दोनों शाम और मज़दूर मदहोश
हम बिस्तर और बिस्तर हो रहे थे।
Wednesday, November 26, 2014
शाम और मज़दूर-4 / अख़्तर यूसुफ़
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