अजब दिन थे के इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था
कभी हासिल हमें ख़स-ख़ाना ओ बरफ़ाब रहता था
उभरना डूबना अब कश्तियों का हम कहाँ देखें
वो दरिया क्या हुआ जिस में सदा गिर्दाब रहता था
वो सूरज सो गया है बर्फ़-ज़ारों में कहीं जा कर
धड़कता रात दिन जिस से दिल-ए-बे-ताब रहता था
जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
हमारी सब किताबों में इक ऐसा बाब रहता था
सुहाने मौसमों में उस की तुग़यानी क़यामत थी
जो दरिया गरमियों की धूप में पायाब रहता था
Thursday, November 27, 2014
अजब दिन थे के इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था / 'असअद' बदायुनी
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