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Monday, March 31, 2014

बादल / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सखी !
बादल थे नभ में छाये
बदला था रंग समय का
थी प्रकृति भरी करूणा में
कर उपचय मेघ निश्चय का।।

वे विविध रूप धारण कर
नभ–तल में घूम रहे थे
गिरि के ऊँचे शिखरों को
गौरव से चूम रहे थे।।

वे कभी स्वयं नग सम बन
थे अद्भुत दृश्य दिखाते
कर कभी दुंदभी–वादन
चपला को रहे नचाते।।

वे पहन कभी नीलाम्बर
थे बड़े मुग्ध कर बनते
मुक्तावलि बलित अघट में
अनुपम बितान थे तनते।।

बहुश: –खन्डों में बँटकर
चलते फिरते दिखलाते
वे कभी नभ पयोनिधि के
थे विपुल पोत बन पाते।।

वे रंग बिरंगे रवि की
किरणों से थे बन जाते
वे कभी प्रकृति को विलसित
नीली साड़ियां पिन्हाते।।

वे पवन तुरंगम पर चढ़
थे दूनी–दौड़ लगाते
वे कभी धूप छाया के
थे छविमय–दृश्य दिखाते।।

घन कभी घेर दिन मणि को
थे इतनी घनता पाते
जो द्युति–विहीन कर¸ दिन को
थे अमा–समान बनाते।।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से / कुँअर बेचैन


जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पुरवा का झोंका तेरा घुँघरू
हर बादल की रिमझिम तेरी भावना
हर सावन की बूंद तुम्हारी ही व्यथा
हर कोयल की कूक तुम्हारी कल्पना

जितनी दूर ख़ुशी हर ग़म से
जितनी दूर साज सरगम से
जितनी दूर पात पतझर का छाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पत्ती में तेरा हरियाला बदन
हर कलिका के मन में तेरी लालिमा
हर डाली में तेरे तन की झाइयाँ
हर मंदिर में तेरी ही आराधना

जितनी दूर प्यास पनघट से
जितनी दूर रूप घूंघट से
गागर जितनी दूर लाज की बाँह से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

कैसे हो तुम, क्या हो, कैसे मैं कहूँ
तुमसे दूर अपरिचित फिर भी प्रीत है
है इतना मालूम की तुम हर वस्तु में
रहते जैसे मानस् में संगीत है

जितनी दूर लहर हर तट से
जितनी दूर शोख़ियाँ लट से
जितनी दूर किनारा टूटी नाव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

कुँअर बेचैन

एक चाय की चुस्की / उमाकांत मालवीय

एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।

चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के ।
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।

एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा ।

एक क़सम जीने की
ढेर उलझनें
दोनों ग़र नहीं रहे
बात क्या बने ।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा ।

उमाकांत मालवीय

गो मेरे दिल के ज़ख़्म जाती हैं / अहमद नदीम क़ासमी

गो मेरे दिल के ज़ख़्म ज़ाती हैं
उनकी टीसें तो कायनाती हैं

आदमी शशजिहात का दूल्हा
वक़्त की गर्दिशें बराती हैं

फ़ैसले कर रहे हैं अर्शनशीं
आफ़तें आदमी पर आती हैं

कलियाँ किस दौर के तसव्वुर में
ख़ून होते ही मुस्कुराती हैं

तेरे वादे हों जिनके शामिल-ए=हाल
वो उमंगें कहाँ समाती हैं

ज़ाती= निजी; कायनाती= सांसारिक; शशजिहात=छह दिशाओं का; अर्शनशीं= कुरसी पर बैठे हुए व्यक्ति

अहमद नदीम क़ासमी

पुरानी बात / आशुतोष दुबे

हर बार का गिरना
कुछ फर्क से गिरना होता है

पहली बार शायद वेग की वजह से
गिरकर उठ जाते हैं जल्दी ही
और कोशिश होती है
जहाँ से जितने गिरे थे
उसी के नज़दीक -
उसी के आसपास -
पहुँच जाएँ फिर
उसके बाद का गिरना
उस तेज़ी को क्रमश:
खो देना है
जो पहली बार फिर से उठ खड़े होने में थी
अंत में हम पाते हैं
उठने का हर संकल्प ही भूमिसात हो जाता है
गिरना पुरानी बात हो जाती है
लुढ़कना सहज होता जाता है

आशुतोष दुबे

एक सूखी हड्डियों का इस तरफ़ अम्बार था / अतीक़ुल्लाह

एक सूखी हड्डियों का इस तरफ़ अम्बार था
और उधर उस का लचीला गोश्त इक दीवार था

रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए
आप अपनी ज़ात से उस को बहुत इंकार था

लोग नंगा करने के दर पे थे मुझ को और मैं
बे-सरोसामानियों के नश्शे में सरशार था

मुझ में ख़ुद मेरी अदम-ए-मौजूदगी शामिल रही
वर्ना इस माहौल में जीना बहुत दुश्वार था

एक जादुई छड़ी ने मुझ को ग़ाएब कर दिया
मैं कि अल्फ़-ए-लैला के क़िस्से का अहम किरदार था

अतीक़ुल्लाह

कभी फूलों कभी खारों से बचना / अनवर जलालपुरी

कभी फूलों कभी खारों से बचना
सभी मश्कूक़ किरदारों से बचना

हरीफ़ों से भी मिलना गाहे गाहे
जहाँ तक हो सके यारों से बचना

जो मज़हब ओढ़कर बाज़ार निकलें
हमेशा उन अदाकारों से बचना

ग़रीबों में वफ़ा ह उनसे मिलना
मगर बेरहम ज़रदारों से बचना

हसद भी एक बीमारी है प्यारे
हमेशा ऐसे बीमारों से बचना

मिलें नाक़िद करना उनकी इज़्ज़त
मगर अपने परस्तारों से बचना

अनवर जलालपुरी

आम का पेड़ / आलोक धन्वा

बीसों साल पुराना
यह पेड़ आम का
शाम के रंग का
 
ज़मीन तक झुक कर
ऊपर उठी हैं इसकी कई डालियाँ
कुछ तने को ऊपर उठाती
साथ-साथ गई हैं खुले में
 
रात में इसके नीचे
सूखी घास जैसी गरमाहट
नीड़, पक्षियों की साँस
उनके डैनों और बीट की गंध
काली मिट्टी जैसी छाया।
(1996)

आलोक धन्वा

यह प्यार / अरुणा राय

आख़िर क्यों है यह प्यार
कितना भयानक है प्यार
हमें असहाय और अकेला बनाता
हमारे हृदय-पटों को खोलता
बेशुमार दुनियावी हमलों के मुक़ाबिल
खड़ा कर देता हुआ निहत्था
कि आपके अंतर में प्रवेश कर
उथल-पुथल मचा दे कोई भी अनजाना
और एक निकम्मे प्रतिरोध के बाद
चूक जाएँ आप
कि आप ही की तरह का एक मानुष
महामानव बनने को हो आता
आपको विराट बनाता हुआ
वह आपसे कुछ माँगता नहीं
पर आप हो आते तत्पर सब कुछ देने को उसे
दुहराते कुछ आदिम व्यवहार
मसलन ...
आलिंगन
चुंबन
सीत्कार

बंधक बनाते एक-दूसरे को
डूबते चले जाते
एक धुँधलके में
हँसते या रोते हुए
दुहराते
कि नहीं मरता है प्यार
कल्पना से यथार्थ में आता
प्यार
दिलो-दिमाग को
त्रस्त करता
अंततः जकड लेता है
आत्मा को
और ख़ुद को मारते हुए
उस अकाट्य से दर्द को
अमर कर जाते हैं हम...

अरुणा राय

पर्यटन / गिरिराज किराडू

(अल्लाह जिलाई बाई के नाम, माफ़ी के साथ)

अब यह स्वांग ही करना होगा, अच्छे मेज़बान होने का
– अलंकारों के मारे और क्या कर पायेंगे –
तुम्हारे जीवन में एक वाक्य ढूँढ रहे हैं दीवाने
उद्धरण के लिए हत्या भी कर सकते हैं, इन्हें मीठी छाछ पिलाओ

बिस्तरा लगाओ
कोई धुन बजाओ
राम राम करके सुबह लाओ

ठीक से उठना सुबह खाट से
घर तक आ गई है खेत की बरबादी
ऊपर के कमरे में चल रहा
सतरह लड़कों दो लड़कियों का फोकटिया इस्कूल

अऊत मास्टर के अऊत चेले

अऊत क्लास में हर स्लेट पे
" पधारो म्हारे देस "

गिरीराज किराडू

गुलामगिरी / अनुज लुगुन

गुलाम खरीद रहे हैं
चावल सौ रूपये किलो
तेल सौ रूपये किलो
प्याज सौ रूपये किलो
टमाटर अस्सी रूपये किलो
आलू पच्चास रूपये किलो
कपड़ा हजार रूपये जोड़े
खपड़ा सौ रूपये जोड़े
स्कूल फीस पांच हजार रूपये प्रति
अस्पताल फीस पांच हजार रूपये प्रति
जो नहीं खरीद सक रहे हैं वे मर रहे हैं ,

मालिक बाजार में खड़ा है
हँस रहा है -
टमाटर अस्सी रूपये किलो ..?
हँसता है ,कहता है –
‘कोल्ड स्टोरेज में रखवा लो’
आलू ,प्याज,दाल,चावल,..सड़ रहा है.?
हँसता है ,कहता है-
‘कुत्ते को दे दो .!’
गुलाम ही तो हैं
सब्जी खरीदने वाले
मोल भाव करने वाले ..?
कीमत चुकाने वाले ..?
चुप रहने वाले .?

मेरा हम-उम्र राजकुमार था
राजा हो गया ,मालिक हो गया
मेरा पड़ोसी लोहार था
सांसद हो गया,मालिक हो गया
मेरा भाई मेरे साथ
कचरा ढोता था
अफ़सर हो गया ,मालिक हो गया

एक मैं था –
किसान था, गुलाम हो गया
मजदूर था, गुलाम हो गया
बेरोजगार था, गुलाम हो गया
क्लर्क था, गुलाम हो गया
शिक्षक था, गुलाम हो गया
सिपाही था, गुलाम हो गया
मैं एक देश था
अपने ही देश में गुलाम हो गया

कुछ गुलाम जिन्होंने
आजादी का मतलब जान लिया है
वे विद्रोही हो गये हैं
वे बगावत पर उतर आए हैं
वे छापामारी कर रहे हैं
वे मारे जा रहे हैं
कुछ गुलाम उन्हें मारने में
मालिक का सहयोग कर रहे हैं

गुलाम हैं,गुलामगिरी को
जिन्दा किये हुए हैं

कुछ देर में गुलाम
मालिक के कहने पर
सड़कों पर आयेंगे वोट डालेंगे
और जश्न मनाएंगे -
“लोकतंत्र..लोकतंत्र..लोकतंत्र ..”

अनुज लुगुन

इन परिंदों का नहीं है ज़ोर कुछ तूफ़ान पर / अश्वघोष

इन परिंदों का नहीं है ज़ोर कुछ तूफ़ान पर
लौटकर आना है इनको फिर इसी जलयान पर

ज़िंदगी चिथड़ों में लिपटी भूख को बहला रही
और हम फिर भी फ़िदा हैं अधमरे ईमान पर

हरिया, जुम्मन और जोसफ़ सब के सब बेकार हैं
फ़ख़्र हम कैसे करें फिर आज के विज्ञान पर

ज़िंदगी यूँ तो गणित है, पर गणित-सा कुछ नहीं
चल रही है इसकी गाड़ी अब महज़ अनुमान पर

जिसको इज़्ज़त कह रहे हो, दर हक़ीक़त कुछ नहीं
हर नज़र है आपके बस कीमती सामान पर !

अश्वघोष

इतना बतला के मुझे हरजाई हूँ मैं यार कि तू / क़लंदर बख़्श 'ज़ुरअत'

इतना बतला के मुझे हरजाई हूँ मैं यार कि तू
मैं हर इक शख्स से रखता हूँ सरोकार के तू

कम-सबाती मेरी हरदम है मुखातिब ब-हबाब
देखें तो पहले हम उस बहर से हों पार के तू

ना-तवानी मेरी गुलशन में ये ही बहसें है
देखें ऐ निकहत-ए-गुल हम हैं सुबुक-बार के तू

दोस्ती कर के जो दुश्मन हुआ तू ‘जुरअत’ का
बे-वफा वो है फिर ऐ शोख सितम-गार के तू

क़लंदर बख़्श 'ज़ुरअत'

नीम बेहोशी में / अजित कुमार

एक उजली-सी नागिन
धीमे-धीमे फुफकारती
मेरे आगे लहराती रही
फिर उसने मुझे अपनी गुंजलक में घेरा
और आख़िरकार डस लिया।

दम तोड़ने से पहले की नीम बेहोशी में
बचपन के घर का आँगन मुझे याद आया

स्कूल से लौटा हूँ-
एड़ी में फँसा हुआ चूड़ीदार पाजामा
उतारने की कोशिश में
मुझे घसीटता है छोटू
चकरघिन्नी की तरह पूरे आँगन में
खिलखलाहटों से मुझे भरता

तभी आई थी
खूसट वह बड़दंती बुढ़िया-
- एक चुड़ैल
जिसे देखते ही
डर से चीख़ मैं कोठरी में जा छिपा था।

कितना अजीब है कि
नागिन के ज़हर के असर में
मेरे शैशव की डाइन वह
आज मुझे
लगभग अप्सरा-सी लगी।

और उसने मुझे जिलाया।

अजित कुमार

वे चाहती हैं लौटना / अंजना संधीर

 
ये गयाना की साँवली-सलोनी ,
काले-लम्बे बालों वाली
तीखे-तीखे नैन-नक्श, काली-काली आँखों वाली
भरी-भरी , गदराई लड़कियाँ
अपने पूर्वजों के घर, भारत
वापस जाना चाहती हैं।

इतने कष्टों के बावजूद,
भूली नहीं हैं अपने संस्कार।
सुनती हैं हिन्दी फ़िल्मी गाने
देखती हैं , हिन्दी फ़िल्में अंग्रेजी सबटाइटिल्स के साथ
जाती हैं मन्दिरों में
बुलाती हैं पुजारियों को हवन करने अपने घरों में।
और, कराती हैं हवन संस्कृत और अंग्रेजी में।

संस्कृत और अंग्रेजी के बीच बचाए हुए हैं
अपनी संस्कृति।
सजाती हैं आरती के थाल, पहनती हैं भारतीय
पोशाकें तीज-त्योहारों पर।
पकाती हैं भारतीय खाने , परोसती हैं अतिथियों को
पढ़ती रहती हैं अपनी बिछुड़ी संस्कृति के बारे में

और चाहती हैं लौटना
उन्हीं संस्कारों में जिनसे बिछुड़ गईं थीं
बरसों पहले उनकी पीढ़ियाँ।

अंजना संधीर

निकल के हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर / अमजद इस्लाम

निकल के हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर से जाएँ कहीं
ज़मीं के साथ न मिल जाएँ ये ख़लाएँ कहीं

सफ़र की रात है पिछली कहानिया न कहो
रुतों के साथ पलटती हैं कब हवाएँ कहीं

फ़ज़ा में तेरते रहते हैं नक़्श से क्या क्या
मुझे तलाश न करती हों ये बालाएँ कहीं

हवा है तेज़ चराग़-ए-वफ़ा का ज़िक्र तो किया
तनाबें ख़ेमा-ए-जाँ की न टूट जाएँ कहीं

मैं ओस बन के गुल-ए-हर्फ़ पर चमकता हूँ
निकलने वाला है सूरज मुझे छुपाएँ कहीं

मेरे वजूद पे उतरी हैं लफ़्ज़ की सूरत
भटक रही थीं ख़लाओं में ये सदाएँ कहीं

हवा का लम्स है पाँव में बेड़ियों की तरह
शफ़क़ की आँच से आँखें पिघल न जाएँ कहीं

रुका हुआ है सितारों का कारवाँ 'अमजद'
चराग़ अपने लहू से ही अब जलाएँ कहीं

अमजद इस्लाम अमजद

प्रीति अगर अवसर देती तो हमनें भाग्य संवारा होता / अमित

प्रीति अगर अवसर देती तो हमनें भाग्य संवारा होता।
कमल दलों का मोह न करते आज प्रभात हमारा होता।

नीर क्षीर दोनों मिल बैठे बहुत कठिन पहचान हो गई,
किन्तु नीर नें नाम खो दिया और क्षीर की शान खो गई,
काश! कभी प्रेमी हृदयों को विधि नें दिया सहारा होता।
प्रीति अगर ... ...

सिन्धु मिलन के लिये नदी नें क्या-क्या बाधायें तोड़ी थीं,
जलधि अंक में मिल जानें की क्या-क्या आशायें जोड़ी थीं,
नदी सिन्धु से प्रीति न करती क्यों उसका जल खारा होता।
प्रीति अगर ... ...

अनजानें अनुबन्ध हो गये, होने लगे पराये अपनें,
श्यामाम्बर पर रजत कल्पना खींचा करती निशिदिन सपने,
मीत तुम्हें जाना ही था तो पहले किया इशारा होता।
प्रीति अगर ... ...

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

जो शब को मंज़र-ए-शब ताब में तब्दील करते हैं / ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

जो शब को मंज़र-ए-शब ताब में तब्दील करते हैं
वो लम्हें नींद को भी ख़्वाब में तब्दील करते हैं

जो आँसू दर्द की गहराइयों में डूब जाते हैं
वही आँखों को भी गिर्दाब में तब्दील करते हैं

किसी जुगनू को हम जब रात की ज़ीनत बनाते हैं
ज़रा सी रौशनी महताब में तब्दील करते हैं

अगर मिल कर बरस जाएँ यही बिखरे हुए बादल
तो फिर सहराओं को सैलाब में तब्दील करते हैं

जो मुमकिन हो तो उन भूले हुए लम्हात से बचना
जो अक्सर ख़ून को ज़ेहराब में तब्दील करते हैं

यही क़तरे बनाते हैं कभी तो घास पर मोती
कभी शबनम को ये सीमाब में तब्दील करते हैं

कहीं देखी नहीं ऐ ‘शाद’ हम ने ऐसी ख़ुशहाली
चलो इस मुल्क को पंजाब में तब्दील करते हैं

ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

चल इंशा अपने गाँव में / इब्ने इंशा

यहाँ उजले उजले रूप बहुत
पर असली कम, बहरूप बहुत

इस पेड़ के नीचे क्या रुकना
जहाँ साये कम, धुप बहुत

चल इंशा अपने गाँव मैं
बेठेंगे सुख की छाओं में

क्यूँ तेरी आँख सवाली है ?
यहाँ हर एक बात निराली है

इस देस बसेरा मत करना
यहाँ मुफलिस होना गाली है

जहाँ सच्चे रिश्ते यारों के
जहाँ वादे पक्के प्यारों के

जहाँ सजदा करे वफ़ा पांव में
चल इंशा अपने गाँव में

इब्ने इंशा

कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा / अतहर नफीस

कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
होता रहता है यूँ की क़र्ज़ बराबर मेरा

टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझ में
डूब जाता है कभी मुझ में समुंदर मेरा

किसी सहरा में बिछड़ जाएँगे सब यार मेरे
किसी जंगल में भटक जाएगा लश्कर मेरा

बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
बे-वफ़ा हूँ तो हुआ नाम भी घर घर मेरा

कितने हँसते हुए मौसम अभी आते लेकिन
एक ही धूप ने कुम्हला दिया मंज़र मेरा

आख़िरी ज़ुरअ-ए-पुर-कैफ़ हो शायद बाक़ी
अब जो छलका तो छलक जाए गा साग़र मेरा

अतहर नफीस

Sunday, March 30, 2014

मनखान आएगा /अवतार एनगिल

सहयोगः
         केशव
         मोहन निराश

अवतार एनगिल

रती बिन साधु, रती बिन संत / गँग

रती बिन साधु, रती बिन संत, रती बिन जोग न होय जती को॥
रती बिन मात, रती बिन तात, रती बिन मानस लागत फीको।
'गंग कहै सुन साह अकब्बर, एक रती बिन पाव रती को॥
एक को छोड बिजा को भजै, रसना जु कटौ उस लब्बर की।

गँग

ऊरूज-ए-आदमियत / ”काज़िम” जरवली

अगर मैं आसमानों की खबर रखता नहीं होता,
ग़ुबार-ए-पाए-गेति मेरा सरमाया नहीं होता ।

ऊरूज-ए-आदमियत है मिज़ाजे ख़ाकसारी मे,
कभी मिटटी का दामन धूल से मैला नहीं होता ।

अगर हम चुप रहे तो चीख्ने चीखने लगती है ख़ामोशी,
किसी सूरत हमारे घर मे सन्नाटा नहीं होता ।

मै एक भटका हुआ अदना मुसाफ़िर, और वो सूरज है,
मेरे साये से उसके क़द का अंदाज़ा नहीं होता ।

हयाते-नौ अता होगी, हमें बे सर तो होने दो,
बहार आने से पहले शाख पर पत्ता नहीं होता ।

हमारी तशनगी सहराओ तक महदूद रह जाती
हमारे पाँव के नीचे अगर दरया नहीं होता ।

सफ़र की सातएंइन आती तो हैं घर तक मगर ”काज़िम”,
कभी हम खुद नहीं होते, कभी रास्ता नहीं होता ।। --”काज़िम” जरवली

काज़िम जरवली

हम सितारों में तेरा अक्स न ढलने देंगे / अम्बरीन सलाहुद्दीन

हम सितारों में तेरा अक्स न ढलने देंगे
चाँद को शाम की दहलीज़ पे जलने देंगे

आज छू लेंगे कोई अर्श मेरे वहम ओ गुमाँ
ख़्वाब को नींद की आँखों में मचलने देंगे

हम भी देखेंगे कहाँ तक है रसाई अपनी
दिल को बहलाएँगे हम और न सँभलने देंगे

शब की आग़ोश में फैलें न गुमाँ के साए
अब निगाहों में कोई ख़ौफ़ न पलने देंगे

हो न जाए कहीं अंजाम से पहले अंजाम
इस कहानी को इसी तौर से चलने देंगे

अक्स-दर-अक्स मिलेंगे तुझे मंज़र मंज़र
तू अगर चाहे भी तुझ को न बदलने देंगे

नक़्श-दर-नक़्श यहीं ख़ाक हुए जाएँगे
ख़ुद को इस दश्त-ए-गुमाँ से न निकलने देंगे

अम्बरीन सलाहुद्दीन

बातें तेरी वो वो फ़साने तेरे / अब्दुल हमीद 'अदम'

बातें तेरी वो वो फ़साने तेरे
शगुफ़्ता शगुफ़्ता बहाने तेरे

बस एक ज़ख़्म नज़्ज़ारा हिस्सा मेरा
बहारें तेरी आशियाने तेरे

बस एक दाग़-ए-सज्दा मेरी क़ायनात
जबीनें तेरी आस्ताने तेरे

ज़मीर-ए-सदफ़ में किरन का मुक़ाम
अनोखे अनोखे ठिकाने तेरे

फ़क़ीरों का जमघट घड़ी दो घड़ी
शराबें तेरी बादाख़ाने तेरे

बहार-ओ-ख़िज़ाँ कम निगाहों के वहम
बुरे या भले सब ज़माने तेरे

'अदम' भी है तेरा हिकायतकदाह
कहाँ तक गये हैं फ़साने तेरे

अब्दुल हमीद 'अदम'

सियाराम / कैलाश गौतम

सियाराम का मन रमता है नाती-पोतों में
नहीं भागता मेले-ठेले बागों-खेतों में

बच्चों के संग सियाराम भी सोते जगते हैं
बच्चों में रहते हैं हरदम बच्चे लगते हैं

टाफ़ी खाते, बिस्कुट खाते ठंडा पीते हैं
टी.वी. के चैनल से ज्यादा चैनल जीते हैं

घोड़ा बनते इंजन बनते गाल फुलाते हैं
गुब्बारे में हवा फूँकते और उड़ाते हैं

सियाराम की दिनभर की दिनचर्या बदल गई
नहीं कचहरी की चिन्ता, बस आई निकल गई

चश्मे का शीशा फूटा औ’ छतरी टूट गई
भूल गए भगवान सुबह की पूजा छूट गई

कैलाश गौतम

प्राण / इष्टदेव सांकृत्यायन

माचिस की डिब्बी
डिब्बी में तीली
बाहर-भीतर की यह
आदत ज़हरीली।

सिकुड़ी-सी
लगतीं है
इस घर में आँतें
चौखट के बाहर हैं
समता की बातें

मूल्यों का कैसे
निर्वाह करें बोलो
अब है उठान कम
पर आवक खर्चीली?

एक अदद प्राण और
छः-छः दीवारें
अफनाएँ अक्सर-हम
पर किसे पुकारें?

तेजी का झोंका औ’
मंदी का दौर
भर आईं फिर-फिर से
आँखें सपनीली।

इष्टदेव सांकृत्यायन

हर इक फ़नकार ने जो कुछ भी लिक्खा ख़ूब-तर लिक्खा / अज़ीज़ अहमद खाँ शफ़क़

हर इक फ़नकार ने जो कुछ भी लिक्खा ख़ूब-तर लिक्खा
हवा ने पानियों पर पानियों ने रेत पर लिक्खा

दरख़्शाँ कितने लम्हे कर गया इक बर्ग-ए-जाँ रफ़्ता
शजर से गिर के उस ने दाएरों में किस क़दर लिक्खा

सुबुक से रंग हल्के दाएरा उभरे हुए शोशे
किसी ने कितनी फ़नकारी से इस के जिस्म पर लिक्खा

मैं हूँ ज़ुल्मत-गज़ीं ये खेल है तक़दीर का वर्ना
सियाही से भी मैं ने रौशनी के नाम पर लिक्खा

‘शफ़क़’ का रंग कितने वालेहाना-पन से बिखरा है
ज़मीं ओ आसमाँ ने मिल के उनवान-ए-सहर लिक्खा

अज़ीज़ अहमद खाँ शफ़क़

सब कुछ होते हुए भी थोडी बेचैनी है / कुमार विनोद

सब कुछ होते हुए भी थोडी बेचैनी है
शायद मुझमे इच्छाओं की एक नदी है

कहीं पे भी जब कोई बच्चा मुस्काया है
फूलों के संग तितली भी तो खूब हंसी है

गर्माहट काफूर हो गयी है रिश्तों से
रगों मे जैसे शायद कोई बर्फ जमी है

सतरंगी सपनो की दुनिया मे तुम आकर
जब भी मुझको छू लेती हो ग़ज़ल हुयी है

कुमार विनोद

जल्वों के बाँक-पन में न रानाइयों में है / 'उनवान' चिश्ती

जल्वों के बाँक-पन में न रानाइयों में है
वो एक बात जो तेरी अंगड़ाईयों में है

ख़ुद तुझ से कोई ख़ास तआरूफ़ नहीं जिसे
इक ऐसा शख़्स भी तेरे सौदाइयों में है

महसूस कर रहा हूँ रगें टूटती हुई
पोशीदा एक हश्र उन अँगड़ाइयों में है

रक़्साँ नफ़स-नफ़स है फ़रोज़ाँ नज़र नज़र
ये कौन जलवा-जा मेरी तन्हाईयों में है

क़दमों में है ज़मीं तो ख़याल आसमान पर
कितना फ़राज़ इश्‍क़ की गहराईयों में हैं

दिल की जराहतों के चमन दर चमन खुले
क्या सेहर तेरी याद की अँगड़ाईयों में है

रक़्स-ए-जुनूँ से काम है ‘उनवाँ’ उन्हें मुदाम
मेरी अदा अदा मेरी परछाइयों में है

'उनवान' चिश्ती

एक बार तुम भी / अपर्णा भटनागर

एक बार तुम भी फिर से चाहो मुझे
अपनी एटलस साईकल से
पीछे आते-आते
गुनगुनाते हुए फ़िल्मी धुन
और खट से उतर जाए
साईकिल की चेन
तुम्हारी कनखियों पर लग जाए
वही समय की ग्रीज़
मैं रुकी रहूँ इस दृष्टि-पथ पर
अनंत कालों तक
इसी तरह तुम्हे चाहते हुए

लो पकड़ो तो
ये गिटार, तुम्हारा तो है
एक बार फिर से पकड़ो उँगलियों में गिटार-पिक
बजा दो दूरियाँ बनाये तारों को
एक गति से

क्या भूल गए हो
हम भी इन्हीं तारों -से महसूस होते रहे थे
एक-दूसरे को
दिशाओं में गूँजती स्वर-लहरी से

इसी तरह तुम्हे चाहते हुए
चाहूँ, तुम भी चाहो अटकी हुई स्मृतियों की पतंगे
आओ दौड़ लें इनके पीछे
आसमान ने छोड़ दिए हैं धागे
इन्हें लौटाने के लिए

अपर्णा भटनागर

तेरी सदा का है सदियों से इन्तेज़ार मुझे / खलीलुर्रहमान आज़मी

तेरी सदा का है सदियों से इंतज़ार मुझे
मेरे लहू के समुन्दर जरा पुकार मुझे

मैं अपने घर को बुलंदी पे चढ़ के क्या देखूं
उरूज-ए-फ़न मेरी दहलीज़ पर उतार मुझे

उबलते देखी है सूरज से मैंने तारीकी
न रास आएगी ये सुब्ह-ए-ज़रनिगार मुझे

कहेगा दिल तो मैं पत्थर के पाँव चूमूंगा
ज़माना लाख करे आ के संगसार मुझे

वो फाकामस्त हूँ जिस राह से गुज़रता हूँ
सलाम करता है आशोब-ए-रोज़गार मुझे

खलीलुर्रहमान आज़मी

अन्धे कहार / अवतार एनगिल

मैंने कहा था
मुझको तो आना है
फिर-फिर आना है
...
तो लो
आता हूं मैं
लेकर अपनी कथा

अवतार एनगिल

शान्त रात / अनीता वर्मा

मैं पहाड़ी हवा थी
बादलों के नीचे पत्तों की गोद में बहती हुई
नीली रोशनी पर सवार
पानी में अपने पैर टिकाए रहती थी |

गाती थी मूँगे और पंखों के गीत
सफ़ेद घोड़ों के अयाल सहलाती
किसी पुरानी गुफ़ा की आँच में डूबी
हाथ की अँगूठी चुम्बनों की बनी हुई |

अब जबकि कोई नहीं है मेरे साथ
बँटी हुई है वह हवा दो खण्डों में पूर्वी और पश्चिमी
मधुमक्खियों ने बिखेर दिया है सारा शहद
समुद्र से उड़ती रहती है भाप और बादल नहीं बनता
समय के पैरों में चकाचौंध की बेड़ियाँ हैं
मैं देखती हूँ अपने उत्सव की नदी को
बहते हुए इस शान्त रात में

अनीता वर्मा

लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में / कैफ़ी आज़मी

लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना[1] तेरे शहर में ।
फिर बनेंगी मस्जिदें मयख़ाना तेरे शहर में ।

आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँ
आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में ।

जुर्म है तेरी गली से सर झुकाकर लौटना
कुफ़्र[2] है पथराव से घबराना तेरे शहर में ।

शाहनामे[3] लिक्खे हैं खंडरात की हर ईंट पर
हर जगह है दफ़्न इक अफ़साना तेरे शहर में ।

कुछ कनीज़ें[4] जो हरीमे-नाज़[5] में हैं बारयाब[6]
माँगती हैं जानो-दिल नज़्राना तेरे शहर में ।

नंगी सड़कों पर भटककर देख, जब मरती है रात
रेंगता है हर तरफ़ वीराना तेरे शहर में ।

कैफ़ी आज़मी

दिल की आवाज़ में क़याम करें / कामी शाह

दिल की आवाज़ में क़याम करें
आ मिरे यार आ कलाम करें

तितलियाँ ढूँडने में दिन काटें
और जंगल में एक शाम करें

आईनों को बुलाएँ घर अपने
और चराग़ों को एहतिमाम करें

उस के होंटों को ध्यान में रख कर
सुर्ख़-फूलों को इंतिज़ार करें

जिस के दम से है ये सुख़न आबाद
ये ग़ज़ल भी उसी के नाम करें

कामी शाह

बहार आई / अकबर इलाहाबादी

बहार आई, मये-गुल्गूँ के फ़व्वारे हुए जारी
यहाँ सावन से बढ़कर साक़िया फागुन बरसता है
फ़रावानी हुई दौलत की सन्नाआने योरप में
यह अब्रे-दौरे-इंजन है कि जिससे हुन बरसता है

अकबर इलाहाबादी

Saturday, March 29, 2014

वो जो आ जाते थे आँखों में सितारे लेकर / फ़राज़

वो जो आ जाते थे आँखों में सितारे लेकर
जाने किस देस गए ख़्वाब हमारे लेकर

छाओं में बैठने वाले ही तो सबसे पहले
पेड़ गिरता है तो आ जाते हैं आरे लेकर

वो जो आसूदा-ए-साहिल हैं इन्हें क्या मालूम
अब के मौज आई तो पलटेगी किनारे लेकर

ऐसा लगता है के हर मौसम-ए-हिज्राँ में बहार
होंठ रख देती है शाख़ों पे तुम्हारे लेकर

शहर वालों को कहाँ याद है वो ख़्वाब फ़रोश
फिरता रहता था जो गलियों में गुब्बारे लेकर

नक़्द-ए-जान सर्फ़ हुआ क़ुल्फ़त-ए-हस्ती में 'फ़राज़'
अब जो ज़िन्दा हैं तो कुछ सांस उधारे लेकर

अहमद फ़राज़

कोई इशारा कोई इस्तिआरा क्यूँकर हो / असलम इमादी

कोई इशारा कोई इस्तिआरा क्यूँकर हो
अब आसमान-ए-सुख़न पर सितारा क्यूँकर हो

अब उस के रंग में है बेशतर तग़ाफ़ुल सा
अब उस के तौर शनासी का चारा क्यूँकर हा

वो सच से ख़ुश न अगर हो तो झूठ बोलेंगे
कि वो जो रूठे तो अपना गुज़ारा क्यूँकरहो

उन्हें ये फ़िक्र कि दिल को कहाँ छुपा रक्खें
हमें ये शौक़ कि दिल का ख़सारा क्यूँकर हो

उरूज कैसे हो ज़ौक़-ए-जुनूँ को अब ‘असलम’
सुकूँ का आइना अब पारा पारा क्यूँकर हो

असलम इमादी

हवा, पानी और धूप / उपेन्द्र कुमार

हवा, पानी और धूप
हवा
या पानी
चाहे जैसे भी फैलें
धूप की ही तरह
घुलते नहीं किसी भी सम्भावना में
बस धीरे से हो जाते हैं शामिल
घटनाओं में बारातियों की तरह
न धूप में सामर्थ्य है
हवा बनने की
न हवा में ताक़त है पानी बनने की
और चाहे जितना लहरा ले
चमक ले धूप में
पानी नहीं बन सकता धूप
कुछ और बनना है
केवल भटकना
सही तो है यही
कि रहे वह वही जो है
और बदलने की बजाय
अपने को बनाता रहे
समय के दुहराव में
क्रमशः बेहतर
हवा चले तो गुनगुनाती हुई
धूप पसरे तो उम्मीदें जगाती हुई
और पानी की धार मन को गुदगुदाती हुई

उपेन्द्र कुमार

व्यवहार की महिमा / कबीर

कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस |
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ||


कबीर जी कहते हैं कि इस जवानी कि आशा में पड़कर मद न करो | दस दिनों में फूलो से पलाश लद जाता है, फिर फूल झड़ जाने पर वह उखड़ जाता है, वैसे ही जवानी को समझो |


कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन कि आस |
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ||


गुरु कबीर जी कहते हैं कि मद न करो चर्ममय हड्डी कि देह का | इक दिन तुम्हारे सिर के छत्र को काल उखाड़ देगा |


कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान |
सबही ऊभा पन्थसिर, राव रंक सुल्तान ||


जीना तो थोड़ा है, और ठाट - बाट बहुत रचता है| राजा रंक महाराजा --- आने जाने का मार्ग सबके सिर पर है, सब बारम्बार जन्म - मरण में नाच रहे हैं |


कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल |
दिन दस के व्येवहार में, झूठे रंग न भूले ||


गुरु कबीर जी कहते हैं कि इस संसार की सभी माया सेमल के फूल के भांति केवल दिखावा है | अतः झूठे रंगों को जीवन के दस दिनों के व्यवहार एवं चहल - पहल में मत भूलो |


कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि |
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ||


गुरु कबीर जी कहते हैं कि जीव - किसान के सत्संग - भक्तिरूपी खेत को इन्द्रिय - मन एवं कामादिरुपी पशुओं ने एकदम खा लिया | खेत बेचारे का क्या दोष है, जब स्वामी - जीव रक्षा नहीं करता |


कबीर रस्सी पाँव में, कहँ सोवै सुख चैन |
साँस नगारा कुंच का, है कोइ राखै फेरी ||


अपने शासनकाल में ढोल, नगाडा, ताश, शहनाई तथा भेरी भले बजवा लो | अन्त में यहाँ से अवश्य चलना पड़ेगा, क्या कोई घुमाकर रखने वाला है |


आज काल के बीच में, जंगल होगा वास |
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ||


आज - कल के बीच में यह शहर जंगल में जला या गाड़ दिया जायेगा | फिर इसके ऊपर ऊपर हल चलेंगे और पशु घास चरेंगे |


रात गँवाई सोयेकर, दिवस गँवाये खाये |
हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय ||


मनुष्य ने रात गवाई सो कर और दिन गवाया खा कर, हीरे से भी अनमोल मनुष्य योनी थी परन्तु विषयरुपी कौड़ी के बदले में जा रहा है |


ऊँचा महल चुनाइया, सुबरन कली दुलाय |
वे मंदिर खाली पड़े रहै मसाना जाय ||


स्वर्णमय बेलबूटे ढल्वाकर, ऊँचा मंदिर चुनवाया | वे मंदिर भी एक दिन खाली पड़ गये, और मंदिर बनवाने वाले श्मशान में जा बसे |


कहा चुनावै भेड़िया, चूना माटी लाय |
मीच सुनेगी पापिनी, दौरी के लेगी आप ||


चूना मिट्ठी मँगवाकर कहाँ मंदिर चुनवा रहा है ? पापिनी मृत्यु सुनेगी, तो आकर धर - दबोचेगी |

कबीर

शायद मेरी निगाह में कोई शिगाफ़ था / अशअर नजमी

शायद मेरी निगाह में कोई शिगाफ़ था
वरना उदास रात का चेहरा तो साफ़ था

इक लाश तैरती रही बर्फ़ीली झील में
झूठी तसल्लियों का अमीं ज़ेर-ए-नाफ़ था

बोसों की राख में थे सुलगते शरार-ए-लम्स
चेहरे की सिलवटों में कोई इंकिशाफ़ था

दोज़ख के गिर्द गूँगें फ़रिश्ते थे महव-ए-रक़्स
और पिस्लियों की टीस पे मिला गिलाफ़ था

खिड़की से झाँकता हुआ वो पुर-ग़ुरूर सर
ताज़ा हवा से उस का कोई इख़्तिलाफ़ था

रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
अपनी शिकस्त का मुझे क्यूँ एतराफ़ था

अशअर नजमी

यायावर / लहब आसिफ अल-जुंडी / किरण अग्रवाल

मैं इस ठंडी रात में उठ बैठा हूँ
तुम अब भी सो रहे हो
लेकिन पक्षी नहीं जानते
चुप रहना

कुछ पुकार रहा है मुझे
तुम्हारे गर्म शरीर से कुछ अधिक
कुछ अधिक नींद के स्पर्श से
थकी आँखों पर
बहुत बार मैं बुलाया गया हूँ
या वापस भेज दिया गया हूँ
आँखें खोलने के लिए
अपने आवरणों के नीचे से शरीर को हिलाने के लिए
और वार्तालाप करने के लिए
रात्रि की आत्मा के साथ

मैं प्रायः चकित होता हूँ तुम कहाँ हो
जब मैं जागकर विचरता हूँ
इस जगह में जिसे हम घर कहते हैं

किरण अग्रवाल

ऊँची सी उसासैँ लै लै पूछत है परोसिन सोँ / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

ऊँची सी उसासैँ लै लै पूछत है परोसिन सोँ ,
मेरे उर कठिन कठोर भए बाँके हैँ ।
ताके अति सोचन तेँ कछू ना सोहात मोहिँ ,
कीजिये उपाय ये पिरात नहिँ पाके हैँ ।
मदन कहै तू ना डेराय अलबेली बाल ,
ये है रति जाल जीव पोखन सुधा के हैँ ।
होत उर जाके पीर होत नहिँ ताके ,
जौन इन्हैँ कोऊ ताकै पीर होत उर ताके हैँ ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

अज्ञात कवि (रीतिकाल)

इंकिशाफ़-ए-ज़ात के आगे धुआँ है और बस / अशअर नजमी

इंकिशाफ़-ए-ज़ात के आगे धुआँ है और बस
एक तू है एक मैं हूँ आसमाँ है और बस

आईना-ख़ानों में रक़्िसंदा रूमूज़-ए-आगही
ओस में भीगा हुआ मेरा गुमाँ है और बस

कैनवस पर है ये किस का पैकर-ए-हर्फ़-ओ-सदा
इक नुमूद-ए-आरज़ू जो बे-निशाँ है और बस

हैरतों की सब से पहले सफ़ में ख़ुद मैं भी तो हूँ
जाने क्यूँ हर एक मंज़र बे-ज़ुबाँ है और बस

अजनबी लम्स-ए-बदन की रेंगती हैं चूँटियाँ
कुछ नहीं है साअत-ए-मौज-ए-रवाँ है और बस

अशअर नजमी

आगवानी का शोक-गीत / अनुज लुगुन

अभी-अभी पहुँच रहे हैं
हमारे नेतागण
अनवरत प्रतीक्षा कराने के बाद
हम मंच पर उनकी आगवानी करने के लिए खड़े हैं
हमारे शृंगार के पत्ते और फूल मुरझा गए हैं
पराग और तितली नदारद हैं
लेकिन भी हमें नाचना है उनके सम्मान के लिए

मंच पर उनका इन्तज़ार कर रही हैं
आरामदेह कुर्सियाँ
और उसके सामने बने बैरिकेट्स के उस पार
नंगे आसमान तले नंगी धरती पर खड़ी है बड़ी भीड़
कौतुहूल से देखती हुई उनके सुरक्षाकर्मियों के अत्याधुनिक हथियार
कि उनके नेता कितने शक्तिशाली और वैभव सम्पन्न हैं
कि क्या ये बन्दूक जनता से सुरक्षा के लिए
जनता के लिए नेताजी को संवैधानिक तरीके से दिए गए हैं
जैसे कोई मध्ययुग का सामन्त अपने लठैतों के साथ
आ पहुँचा हो अपनी दानवीरता का प्रदर्शन करने

हमारी कोई भूमिका नहीं रह जाती है
मंच पर उनको बैठाने के बाद
वे दम्भ से फूलते जाते हैं कि
उनके स्वागत में गाया गया गीत हज़ारों लोगों का समर्पण है
लेकिन वे अगली ही पंक्तियों में जब सम्बोधन शुरू करते हैं
कहीं नहीं होते हैं हज़ारों गाने वालों के कण्ठ
वे विपक्ष पर हमला करते हुए शब्दों की चक्की चलाते हैं
और घुन की तरह पिसते जाते हैं नृत्य-मण्डली के सदस्य

वृद्धावस्था पेंशन, बेरोज़गारी भत्ता, महिला सुरक्षा
समाजिक न्याय की बात करने के बाद
वे कलाकारों और साहित्य के भविष्य की काग़ज़ी योजना पेश करते हैं
और कला-अकादमियों के सदस्य, अध्यक्ष, और कुछ बुद्धिजीवी
नृत्य-मण्डली को 'बुक' कर लेते हैं अगले कार्यक्रम में
नेताजी की आगवानी के लिए

लाल-पीली बत्ती के साथ हूटर बजाती
उनकी गाड़ी जब मंच से निकलती है
उसकी उड़ती धूल में दफ़न हो जाते हैं नृत्य-मण्डली के लोग
और तब इतिहास के पन्नों में दफ़न
सामन्त अपने लठैतों के साथ उठ खड़े होते हैं
वे लिंकन से कहते हैं कि
उसे जनता से ज़्यादा अपनी क़ब्र की चिन्ता करनी चाहिए ।

अनुज लुगुन

बैद को बैद गुनी को गुनी / कृष्णदास

बैद को बैद गुनी को गुनी ठग को ठग ढूमक को मन भावै ।
काग को काग मराल मराल को कान्ध गधा को खजुलावै ।
कृष्ण भनै बुध को बुध त्योँ अरु रागी को रागी मिलै सुर गावै ।
ग्यानी सो ग्यानी करै चरचा लबरा के ढिँगै लबरा सुख पावै ।


कृष्णदास का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

कृष्णदास

कुछ बला और कुछ सितम ही सही / इन्दिरा वर्मा

कुछ बला और कुछ सितम ही सही
 इश्क़ में फ़ुर्क़त-ए-सनम ही सही

 जिस को चाहें उसे ख़ुशी दे दें
 मेरे हिस्से में उन के ग़म ही सही

 कितनी वीरान है सदाक़त भी
 बुत-कदा गर नहीं हरम ही सही

 मेरी ख़ुददारी-ए-वफ़ा देखो
 सर झुकाने से सर क़लम ही सही

 ज़िंदगी आज तेरा लुत्फ़ ओ करम
 कम अगर है तो आज कम ही सही

 जैसे मुमकिन हो बात रख लेना
 'इंदिरा' का ज़रा भरम ही सही

इन्दिरा वर्मा

जो लोग जान बूझ के नादान बन गये / अब्दुल हमीद 'अदम'

जो लोग जान बूझ के नादान बन गये
मेरा ख़याल है कि वो इंसान बन गये

हम हश्र में गये मगर कुछ न पूछिये
वो जान बूझ कर वहाँ अन्जान बन गये

हँसते हैं हम को देख के अर्बाब-ए-आगही
हम आप की मिज़ाज की पहचान बन गये

मझधार तक पहुँचना तो हिम्मत की बात थी
साहिल के आस पास ही तूफ़ान बन गये

इन्सानियत की बात तो इतनी है शैख़ जी
बदक़िस्मती से आप भी इंसान बन गये

काँटे बहुत थे दामन-ए-फ़ितरत में ऐ 'अदम'
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गये

अब्दुल हमीद 'अदम'

मन मस्त हुआ / अल्हड़ बीकानेरी

आदि से अनूप हूँ मैं, तेरा ही स्वरूप हूँ मैं
मेरी भी कथाएँ हैं अनन्त मेरे राम जी
लागी वो लगन तुझसे कि मन मस्त हुआ
दृग में समा गया दिगन्त मेरे राम जी
सपनों में आ के कल बोले मेरी बुढ़िया से
बाल-ब्रह्मचारी हनुमन्त मेरे राम जी
लेता है धरा पे अवतार जाके सदियों में
‘अल्हड़’ सरीखा कोई सन्त मेरे राम जी

अल्हड़ बीकानेरी

बाकी कुछ / इला प्रसाद

एक बार फिर मैं
दूर हूँ सबसे
नंगे पाँव चलती हूँ
अहसासों की कच्ची सड़क पे
अपनी ही सोच की दीवार तले
पली बढ़ी मैं
हर बार अलग हो जाती हूँ सबसे
अकेलेपन का दर्द
छोटा पड़ जाए
अगर मैं अपनी सोच को सार्थक कर सकूँ
लेकिन मेरी सोच का सार्थक होना अभी बाकी है
बाकी है अकेलापन
कुछ चोटें, कुछ रिस रहे घाव
तब भी
सबसे जुड़ने, सबके देने,
सबसे पाने का सपना
अभी बाकी है
पूरा होगा कभी सपना मेरा
या सबसे जुड़कर भी
अलग थलग पड़ जाऊँगी मैं
ज़िंदगी के इस मोड़ का
हिसाब अभी बाकी है

इला प्रसाद

कितने टूटे कितनों का मन हार गया / ओमप्रकाश यती


कितने टूटे , कितनों का मन हार गया
रोटी के आगे हर दर्शन हार गया

ढूँढ रहा है रद्दी में क़िस्मत अपनी
खेल-खिलौनों वाला बचपन हार गया

ये है जज़्बाती रिश्तों का देश, यहाँ
विरहन के आँसू से सावन हार गया

मन को ही सुंदर करने की कोशिश कर
अब तू रोज़ बदल कर दर्पन हार गया

ताक़त के सँग नेक इरादे भी रखना
वर्ना ऐसा क्या था रावन हार गया

ओमप्रकाश यती

इस तरह मोहब्बत में दिल पे हुक्मरानी है / 'कैफ़' भोपाली

इस तरह मोहब्बत में दिल पे हुक्मरानी है
दिन नहीं मेरा गोया उन की राजधानी है

घास के घरौंदे से ज़ोर-आज़माई क्या
आँधियाँ भी पगली है बर्क भी दिवानी है

शायद उन के दामन ने पोंछ दीं मेरी आँखें
आज मेरे अश्कों का रंग ज़ाफरानी है

पूछते हो क्या बाबा क्या हुआ दिल-ए-ज़िदा
वो मेरा दिल-ए-ज़िंदा आज आँजहानी है

‘कैफ’ तुझ को दुनिया ने क्या से क्या बना डाला
यार अब मेरे मुँह पर रंग है न पानी है

'कैफ़' भोपाली

प्रमाणपत्र को ठेंगा / कुमार सुरेश

उस शहर से जहां नौकरी
तीज-त्यौहार पर
या किसी और वक्त
लौटता हँू उस शहर
जहाँ एक स्त्री
मेरे आने भर से
खुश हो जाती है बेशर्त
बूढी ओखों की चमक देखते बनती है
बीमारियों और कष्टों की झुर्रियों को भेद
छलकने लगती है उसकी खुशी

चाहती है केवल इतना
कुल पल बैठ लँू उसके पास
वह पूछे मुझसे
इतना कमजोर क्यों हुआ
अच्छे से खाता पीता नहीं
बहू कैसी है क्यों नहीं लाया उसे
मेरे आज ही लौटने की बात सुनकर
मनुहार करती है
एक दिन और रूक जा
चले जाना कल

उसके पास बैठते ही
उमग आता है भीतर
सुकून का एक टापू
जहाँ सुस्ताता हँू कुछ पल

लोटने पर उस शहर में जहां
रोज सिद्ध करना हेाता है खुदको
जहाँ हर योद्धा अभिशप्त है
गलातार लडने गिरने
फिर भुला दिये जाने को
रहता हँू आश्वस्त
चाहे सिद्ध न कर पाउँ अपने आप को
मेरा भी मूल्य है
हर प्रमाण पत्र को ठेंगा दिखाते हुएा

कुमार सुरेश

ऐ दिल न सुन अफ़साना किसी शोख़ हसीं का / 'अहसन' मारहरवी

ऐ दिल न सुन अफ़साना किसी शोख़ हसीं का
ना-आक़ेबत-अँदेश रहेगा न कहीं का

दुनिया का रहा है दिल-ए-नाकाम न दीं का
इस इश्क़-ए-बद-अंजाम ने रक्खा न कहीं का

हैं ताक में इक शोख़ की दुज़-दीदा निगाहें
अल्लाह निगह-बान है अब जान-ए-हज़ीं का

हालत दिल-ए-बे-ताब की देखी नहीं जाती
बेहतर है के हो जाए ये पैवंद ज़मीं का

गो क़द्र वहाँ ख़ाक भी होती नहीं मेरी
हर वक़्त तसव्वुर है मगर दिल में वहीं का

हर आशिक़-ए-जाँ-बाज़ को डर ऐ सितम-आरा
तलवार से बढ़ कर है तेरी चीन-ए-जबीं का

कुछ सख़्ती-ए-दुनिया का मुझे ग़म नहीं ‘अहसन’
खटका है मगर दिल को दम-ए-बाज़-पसीं का

'अहसन' मारहरवी

दुनिया के ज़ोर प्यार के दिन / ख़ुमार बाराबंकवी

दुनिया के ज़ोर प्यार के दिन याद आ गये
दो बाज़ुओ की हार के दिन याद आ गये

गुज़रे वो जिस तरफ से बज़ाए महक उठी
सबको भरी बहार के दिन याद आ गये

ये क्या कि उनके होते हुए भी कभी-कभी
फोर्दोस-ए-इंत्ज़ार के दिन याद आ गये

वादे का उनके आज खयाल आ गया मुझे
शक और ऐतबार के दिन याद आ गये

नादा थे जब्त-ए-गम का बहुत हज़रत-ए-"खुमार"
रो-रो जिए थे जब वो याद आ गये

ख़ुमार बाराबंकवी

हम को दीवाना जान के क्या क्या जुल्म न ढाया लोगों ने / 'कैफ़' भोपाली

हम को दीवाना जान के क्या क्या जुल्म न ढाया लोगों ने
दीन छुड़ाया धर्म छुड़ाया देस छुड़ाया लोगो नें

तेरी गली में आ निकले थे दोश हमारा इतना था
पत्थर मारे तोहमत बाँधी ऐब लगाया लोगों ने

तेरी लटों में सो लेते थे बे-घर आशिक बे-घर लोग
बूढ़े बरगद आज तुझे भी काट गिराया लोगों ने

नूर-ए-सहर ने निकहत-ए-गुल ने रंग-ए-शफक ने कह दी बात
कितना कितना मेरी ज़बाँ पर कुफ्ल लगाया लोगों ने

‘मीर’ तकी के रंग का गाज़ा रू-ए-ग़जल पर आ न सका
‘कैफ’ हमारे ‘मीर’ तकी का रंग उड़ाया लोगों ने

'कैफ़' भोपाली

बंद फ़सीलें शहर की तोड़ें ज़ात की / अब्दुल अहद 'साज़'

बंद फ़सीलें शहर की तोड़ें ज़ात की गिरहें खोलें
बरगद नीचे नदी किनारे बैठ कहानी बोलें

धीरे धीरे ख़ुद को निकालें इस बँधन जकड़न से
संग किसी आवारा मनुश के हौले हौले हो लें

फ़िक्र की किस सरशार डगर पर शाम ढले जी चाहा
झील में ठहरे अपने अक्स को चूमें होंट भिगो लें

हाथ लगा बैठे तो जीवन भर मक़रूज़ रहेंगे
दाम न पूछें दर्द के साहब पहले जेब टटोलें

नौशादर गंधक की ज़बाँ में शेर कहें इस युग में
सच के नीले ज़हर को लहजे के तेज़ाब में घोलें

अपनी नज़र के बाट न रक्खें 'साज़' हम इक पलड़े हैं
बोझल तनक़ीदों से क्यूँ अपने इज़हार को तौलें

अब्दुल अहद ‘साज़’

नज़र की चोट अब दिल पर अयाँ मालूम होती है / 'उनवान' चिश्ती

नज़र की चोट अब दिल पर अयाँ मालूम होती है
कहाँ चमकी थी ये बिजली कहाँ मालूम होती है

कभी ख़ानदाँ कभी गिर्या-कुनाँ मालूम होती है
मोहब्बत इम्तिहाँ दर इम्तिहाँ मालूम होती है

बईं गुलशन-परस्ती उस का हक़ है मौसम-ए-गुल पर
जिसे बिजली चराग़-ए-आशियाँ मालूम होती है

मोहब्बत को तअय्युन की हदों में ढूँढने वालो
मोहब्बत माँ-वारा-ए-दो-जहाँ मालूम होती है

यहाँ अब तक ग़म-ए-दिल की नज़ाकत आ गई ‘उनवाँ’
निगाह-ए-लुत्फ़ भी दिल पर गिराँ मालूम होती है

'उनवान' चिश्ती

Friday, March 28, 2014

दिलों की उक़दा-कुशाई का वक़्त है के नहीं / 'अज़ीज़' हामिद मदनी

दिलों की उक़दा-कुशाई का वक़्त है के नहीं
ये आदमी की ख़ुदाई का वक़्त है के नहीं

कहो सितारा-शनासो फ़लक का हाल कहो
रुख़ों से पर्दा-कुशाई का वक़्त है के नहीं

हवा की नर्म-रवी से जवाँ हुआ है कोई
फ़रेब-ए-तंग-क़बाई का वक़्त है के नहीं

ख़लल-पज़ीर हुआ रब्त-ए-मेहर-ओ-माह में वक़्त
बता ये तुझ से जुदाई का वक़्त है के नहीं

अलग सियासत-ए-दर-बाँ से दिल में है इक बात
ये वक़्त मेरी रसाई का वक़्त है के नहीं

दिलों को मरकज़-ए-असरार कर गई जो निगह
उसी निगह की गदाई का वक़्त है के नहीं

'अज़ीज़' हामिद मदनी

अच्छा लगा / कुंवर नारायण

पार्क में बैठा रहा कुछ देर तक
अच्छा लगा,
पेड़ की छाया का सुख
अच्छा लगा,
डाल से पत्ता गिरा- पत्ते का मन,
"अब चलूँ" सोचा,
तो यह अच्छा लगा...

कुंवर नारायण

सयानी बिटिया / अशोक अंजुम

जबसे हुई सयानी बिटिया
भूली राजा-रानी बिटिया

बाज़ारों में आते-जाते
होती पानी-पानी बिटिया

जाना तुझे पराये घर को
मत कर यों मनमानी बिटिया

किस घर को अपना घर समझे
जीवन-भर कब जानी बिटिया

चॉकलेट भैया को भाये
पाती है गुड़धानी बिटिया

सारा जीवन इच्छाओं की
देती है कुर्बानी बिटिया

चौका, चूल्हा, झाडू, बर्तन
भूल गई शैतानी बिटिया

हल्दी, बिछूए, कंगल मेंहदी
पाकर हुई बिरानी बिटिया

अशोक अंजुम

बार एक कतरा आँसू का / ख़ुर्शीद अकरम

एक सच्ची कहानी
जब धकेल दी जाती है
किसी फ़िल्मी क्लाइमेक्स की तरफ़
अपना मुँह छुपा लेता है सूरज
फीके चाँद की ओट में
एक दूसरे के गिर्द घूमते कबूतर
मग़्मूम हो कर बैठ जाते हैं
परों में मुँह दे कर
और धरती तय्यारी करती है
बार उठाने की
एक क़तरा आँसू का

ख़ुर्शीद अकरम

अंग अंग चंदन वन / कन्हैयालाल नंदन

एक नाम अधरों पर आया
अंग-अंग चन्दन
वन हो गया।

बोल हैं कि वेद की ऋचाएँ?
साँसों में सूरज उग आए
आँखों में ऋतुपति के छन्द
तैरने लगे
मन सारा
नील गगन हो गया।

गन्ध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में
देह बोलने लगी
पूजा का
एक जतन हो गया।


पानी पर खींचकर लकींरें
काट नहीं सकते जंज़ीरें।
आसपास
अजनबी अंधेरों के डेरे हैं
अग्निबिन्दु
और सघन हो गया!

कन्हैयालाल नंदन

मेरा मिथ्यालय / अजन्ता देव

आमंत्रण निमन्त्रण नहीं
अनायास खींच लेता है अपनी ओर
मेरा मिथ्यालय

श्रेष्ठ जनों के बीच
यहीं रचा जाता है
कलाओं का महारास

मेरे द्वार कभी बंद नहीं होते
वे खुले रहेंगे
तुम्हारे जाने के बाद भी ।

अजन्ता देव

रजनी बैठ बिताऊँ / केदारनाथ पाण्डेय

इन तारों का हार पिरोकर रजनी बैठ बिताऊँ।
जीवन की इस चपल लहर में
नवलनिशा के नील पहर में

जाग जागकर सुमन सेज पर यों मोती बगराऊँ।
छवि मतवाली रजनी सूनी
होती टीस हृदय की दूनी

अमल कमल के कलित-क्रोण में कैसे भंवर भुलाऊँ।
ललित लता के कुंज पुंज में
अलि अलिनी की मधुर गुंज में

पीर भरे अपने अन्तर को कैसे हँस बहलाऊँ।
जीवन नौका तिरती जाती
उसपर बदली घिरती जाती

फूल फलों से कुन्तल दल को कैसे आज सजाऊँ।
सिहर समीर धीर सा आता
अलक-अलक करके सहलाता

रोते युग बीते सुहास कैसे अपने में पाऊँ।
कहते लोग योग वह तेरा
वैसे जैसे रैन बसेरा

जीवन पल में काट चलूँ यदि तुझे पास में पाऊँ।
तुम चन्दा मैं चपल चकोरी
तुम नटनागर मैं ब्रज छोरी

अपने मन मधुवन में कैसे वंशी-धुन सुन पाऊँ।
सूख रही फूलों की माला
होते तुम होता उजियाला

तिमिर भरे जीवन वन में कैसे प्रकाश बिखराऊँ।
जैसे हो वैसे तुम आओ
जीवन उपवन को हुलसाओ

तुमको अपने में औ अपने में तुमको मैं पाऊँ
इन तारों का हार पिरोकर रजनी बैठ बिताऊँ।

केदारनाथ पाण्डेय

चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था / आनंद बख़्शी

 
चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था

ना रस्में हैं ना कसमें हैं
ना शिकवे हैं ना वादे हैं
इक सूरत भोली भाली है
दो नैना सीधे सादे हैं
दो नैना सीधे सादे हैं
ऐसा ही रूप खयालों में था
जैसा मैंने सोचा था, हाँ ...

मेरी खुशियाँ ही ना बाँटे
मेरे ग़म भी सहना चाहे
देखे ना ख्वाब वो महलों के
मेरे दिल में रहना चाहे
इस दुनिया में कौन था ऐसा
जैसा मैंने सोचा था, हाँ ...

आनंद बख़्शी

आ घिर आई दई मारी घटा कारी। / अमीर खुसरो

आ घिर आई दई मारी घटा कारी। बन बोलन लागे मोर दैया री
बन बोलन लगे मोर। रिम-झिम रिम-झिम बरसन लागी छाय री चहुँ ओर।
आज बन बोलन लगे मोर। कोयल बोल डार-डार पर पपीहा मचाए शोर।
ऐसे समय साजन परदेस गए बिरहन छोर।

अमीर खुसरो

श्रीगोबिन्द पद-पल्लव सिर पर बिराजमान / गदाधर भट्ट

श्रीगोबिन्द पद-पल्लव सिर पर बिराजमान,
कैसे कहि आवै या सुखको परिमान।
ब्रजनरेस देस बसत कालानल हू त्रसत,
बिलसत मन हुलसत करि लीलामृत पान॥१॥

भीजे नित नयन रहत प्रभुके गुनग्राम कहत,
मानत नहिं त्रिबिधताप जानत नहिं आन।
तिनके मुखकमल दरस पातन पद-रेनु परस,
अधम जन गदाधरसे पावैं सनमान॥२॥

गदाधर भट्ट

इस दौर में किसी को किसी की ख़बर नहीं / अज़ीज़ आज़ाद

इस दौर में किसी को किसी की ख़बर नहीं
चलते हैं साथ-साथ मगर हमसफ़र नहीं

अपने ही दायरों में सिमटने लगे हैं लोग
औरों की ग़म-ख़ुशी का किसी पे असर नहीं

दुनिया मेरी तलाश में रहती है रात-दिन
मैं सामने हूँ मुझ पे किसी की नज़र नहीं

वो नापने चले हैं समन्दर की वुसअतें[1]
लेकिन ख़ुद अपने क़द पे किसी की नज़र नहीं

राहे-वफ़ा में ठोकरें होती हैं मंज़िलें
इस रास्ते में मौत का कोई भी डर नहीं

सजदे में सर को काट के ख़ुश हो गया यजीद
ये साफ़ बुज़दिली[2] है तुम्हारा हुनर नहीं

हम लोग इस ज़हान में होकर हैं गुम ‘अज़ीज़’
जीते रहे हैं ऐसे के जैसे बशर[3] नहीं

अज़ीज़ आज़ाद

अम्मा, ग़रज़ पड़ै चली आओ चूल्हे की भटियारी ! / ऋषभ देव शर्मा

दो बेटे हैं मेरे.
बहुत प्यार से धरे थे मैंने
इनके नाम - बलजीत और बलजोर!

गबरू जवान निकले दोनों ही.
जब जोट मिलाकर चलते,
सारे गाँव की छाती पर साँप लोट जाता.
मेरी छातियाँ उमग उमग पड़तीं.
मैं बलि बलि जाती
अपने कलेजे के टुकडों की!

वक़्त बदल गया.
कलेजे के टुकडों ने
कलेजे के टुकड़े कर दिए.
ज़मीन का तो बँटवारा किया ही,
माँ भी बाँट ली!

ज़मीन के लिए लड़े दोनों
      - अपने अपने पास रखने को,
माँ के लिए लड़े दोनों
     - एक दूसरे के मत्थे मढ़ने को!

बलजोर ने बरजोरी लगवा लिया अँगूठा
तो माँ उसके काम की न रही,
बलजीत के भी तो किसी काम की न रही!

दोनों ने दरवाजे बंद कर लिए,
मैं बाहर खड़ी तप रही हूँ भरी दुपहरी;
                    दो जवान बेटों की माँ!

जीवन भर रोटी थेपती आई.
आज भी जिसका चूल्हा झोंकूँ,
रोटी दे दे ...शायद!

ऋषभ देव शर्मा

ये तो है कि घर को हम बचा नहीं सके, / अशोक रावत

ये तो है कि घर को हम बचा नहीं सके,
चक्रवात पर हमें झुका नहीं सके.

ये भी है की मंज़िलें कभी नहीं मिलीं,
रास्ते मगर हमें थका नहीं सके.

हम किसी की ओट में नहीं थे पर हमें,
आँधियों के सिलसिले बुझा नहीं सके.

देखिए गुलाब की तरफ भी एक बार,
फूल क्या जो ख़ार से निभा नहीं सके.


                    अंधकार के हज़ार संगठन कभी,
रौशनी के वंश को मिटा नहीं सके.

अशोक रावत

सबा बनाते हैं ग़ुंचा-दहन बनाते हैं / अमीर हम्ज़ा साक़िब

सबा बनाते हैं ग़ुंचा-दहन बनाते हैं
तुम्हारे वास्ते क्या क्या सुख़न बनाते हैं

सिनान ओ तीर की लज़्ज़त लहू में रम कर है
हम अपने आप को किस का हरन बनाते हैं

ये धज खिलाती है क्या गुल ज़रा पता तो चले
के ख़ाक-ए-पा को तेरी पैरहन बनाते हैं

वो गुल-अज़ार इधर से आएगा सौ दाग़ों से
हम अपने सीने को रश्क-ए-चमन बनाते हैं

शहीद-ए-नाज़ ग़ज़ब के हुनर-वराँ निकले
लहू की छींटों से अपना कफ़न बनाते हैं

तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
तुम्हारे ज़िक्र को सब शर्त-ए-फ़न बनाते हैं

अमीर हम्ज़ा साक़िब

मर्सिया-२ / गिरिराज किराडू

सात दिन में दूसरी बार एक शव के सम्मुख
ठीक उसी घोंसले के नीचे
यह हथेली में समा जाये जितना शव है
उड़ना सीखते हुए शव हुआ एक बच्चा

दोस्त के हाथों फोन पर अपमानित होने की खरोंच और
अपने किए में सब गुनाह ढूँढने की आदत से बेज़ार
मुझे नहीं दिखा वह
न उसे खाने में तल्लीन चींटियाँ
फिर से एक क्रूर अंतिम संस्कार करना है

[ तुम्हारे होने से मेरे संसार में मनुष्यो के परे भी सृष्टि है
कवि होने से परे भी कोई अज़ाब है ]

जब केवल उजाड़ था हमारे बीच उन दिनों भी हमने
एक पक्षी होने की कोशिश की, शवों के अभिभावक होने की कोशिश की –

यह सोचते हुए तुम्हें जाते हुए देखता हूँ एक दूसरे संसार में
दरअसल एक बरबाद बस में

गिरीराज किराडू

मुझ को आता है तयम्मुम न वज़ू आता / 'शाएर' क़ज़लबाश

मुझ को आता है तयम्मुम न वज़ू आता है
सजदा कर लेता हूँ जब सामने तू आता है

यूँ तो शिकवा भी हमें आईना-रू आता है
होंट सिल जाते हैं जब सामने तू आता है

हाथ धोए हुए हूँ नीस्ती ओ हस्ती से
शैख़ क्या पूछता है मुझ से वज़ू आता है

मिन्नतें करती है शोख़ी के मना लूँ तुझ को
जब मेरे सामने रूठा हुआ तू आता है

पूछते क्या हो तमन्नाओं की हालत क्या है
साँस के साथ अब अश्कों में लहू आता है

यार का घर कोई काबा तो नहीं है 'शाएर'
हाए कमबख़्त यहीं मरने को तू आता है

आग़ा 'शाएर' क़ज़लबाश

मेरी मदद करो / अलका सर्वत मिश्रा

भाइयों! बहनों!!
मातृ-पितृ गण
दादाओं! चाचाओं!!
बेटे-बेटियों
थोड़ी मेरी मदद करो.....
 
एक नारी हूँ मैं
मेरे पास
दया भी है, ममता भी
प्यार भी है
एहसास भी
मगर ज्यों लिखना चाहती हूँ
एक प्रेम भरी कविता;
ये मेरी कलम पता नहीं क्यों
आग उगलने लगती है.
 
कलमें बदल कर देख लीं
स्याहियों के रंग बदल लिए
कागजों को भी देख लिया
बदल-बदल के
बैठाने की जगह बदलने की भी
कोशिश कर ली
घर, कमरे, पार्क, छत
ट्रेन, आफिस, बसें
मगर नहीं बदल सकी मैं
कविताओं में आग उगलने की आदत
 
क्या करूँ?
सच कहूँ
मैं लिखना चाहती हूँ
एक प्रेम भरी कविता
जिसमें स्वर्ग का अक्स हो
फूलों की महक हो
शब्द प्रेम उड़ेलें
मात्राएँ ममता बिखेरें
पर कैसे...?

अलका सर्वत मिश्रा

रोज़ ही होता था यह सब / अरुण आदित्य

रोज़ ही गुजरना होता था उस सड़क से
पर कभी नहीं लगा आज से पहले
कि कितने सुंदर-सुंदर वृक्ष हैं सड़क के दोनों ओर
 
रोज़ ही उड़ती होंगी तितलियाँ फूलों के आसपास
पर कभी नहीं लगा आज से पहले
कि उपवन में उड़ती हुई तितलियाँ
किस तरह उडऩे लगती हैं हमारे मन में
 
रोज़ ही मिलाते हैं किसी न किसी से हाथ
पर आज से पहले किसी से हाथ मिलाते हुए
कभी नहीं याद आईं केदार काका की पंक्तियाँ
कि दुनिया को हाथ की तरह
गर्म और सुंदर होना चाहिए
 
रोज़ ही इसी तरह बात करती है वह लड़की
पर कभी नहीं लगा आज से पहले
कि मिश्री घुली हुई है उसकी जबान में।
 
रोज़ ही मुस्कराकर स्वागत करता है दफ़्तर का चौकीदार
पर आज से पहले
कभी इतनी दिव्य नहीं लगी उसकी मुस्कराहट
 
रोज़ ही होता था यह सब
पर कभी नहीं लगा आज से पहले
कि इतना अच्छा भी हो सकता है यह सब
कितना अच्छा हो
कि हर दिन हो जाए आज की तरह।

अरुण आदित्य

बनारस की सुबह वाले / उमाशंकर तिवारी

शाम की रंगीनियाँ
किस काम की
किसलिए कहवाघरों के
चोंचले?
आचमन करते
उषा की ज्योति से
हम बनारस की सुबह वाले
भले।
मन्दिरों के साथ
सोते - जागते
हम जुड़े हैं सीढियों से,
घाट से
एक चादर है
जुलाहे की जिसे
ओढ़कर लगते किसी
सम्राट से
हम हवा के पालने के
झूलते
हम खुले आकाश के
नीचे पले।

हम न डमरू की तरह
बजते अगर
व्याकरण के सूत्र
कैसे फूटते?
हम अगर शव-साधना
करते नहीं
सभ्यता के जाल से
क्या छूटते?
भंग पीकर भी अमंग
हुए यहाँ
सत्य का विष पी
हुए हैं बावले।

हों ॠचाएँ, स्तोत्र हों
या श्लोक हों
हम रचे जाते लहर से,
धार से
एक बीजाक्षर अहिंसा
का लिए
आ रही आवाज़
वरुणा -पार से
हम अनागत की
अदेखी राह पर
हैं तथागत - गीत
गाते बढ़े चले।

उमाशंकर तिवारी

ये मुझसे पूछिए क्या जूस्तजू में लज़्ज़त है / असग़र गोण्डवी

ये मुझ से पूछिए क्या जूस्तजू में लज़्ज़त है
फ़ज़ा-ए-दहर में तहलियल हो गया हूँ मैं

हटाके शीशा-ओ-सागर हुज़ूम-ए-मस्ती में
तमाम अरसा-ए-आलम पे छा गया हूँ मैं

उड़ा हूँ जब तो फलक पे लिया है दम जा कर
ज़मीं को तोड़ गया हूँ जो रह गया हूँ मैं

रही है खाक के ज़र्रों में भी चमक मेरी
कभी कभी तो सितारों में मिल गया हूँ मैं

समा गये मेरी नज़रों में छा गये दिल पर
ख़याल करता हूँ उन को कि देखता हूँ मैं

असग़र गोण्डवी

Thursday, March 27, 2014

तेगा ले गुरु ज्ञान का, राम भक्ति की ढाल / गंगादास

तेगा ले गुरु ज्ञान का, राम भक्ति की ढाल ।
धर्म तमंचा बाँध ले, कदी लुटै ना माल ।।

कदी लुटै ना माल पडे डाका ना तस्कर ।
बेखटकै ले नफा जहाँ चोरों के लस्कर ।।

गंगादास कह कदी माल अपना ना देगा ।
कर दे मार मदान ज्ञान का लेकर तेगा ।।

गंगादास

जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआ / ग़ालिब

जादा-ए-रह ख़ुर को वक़्त-ए-शाम है तार-ए-शुआ
चर्ख़ वा करता है माह-ए-नौ से आग़ोश-ए-विदा

ग़ालिब

कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है / कैफ़ी आज़मी

कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है
जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है

मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़ज़ा
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है

मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ
कि आज दामन-ए-यज़दाँ भी तार-तार-सा है

सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पे ख़ालिक़-ए-कोनैन शर्मसार सा है

तमाम जिस्म है बेदार, फ़िक्र ख़ाबीदा
दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार सा है

सब अपने पाँव पे रख-रख के पाँव चलते हैं
ख़ुद अपने दोश पे हर आदमी सवार सा है

जिसे पुकारिए मिलता है इस खंडहर से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी के इश्तेहार सा है

हुई तो कैसे बियाबाँ में आके शाम हुई
कि जो मज़ार यहाँ है मेरे मज़ार सा है

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है

कैफ़ी आज़मी

आँख वा थी / ख़ालिद कर्रार

आँख वा थी
होंट चुप थे
एक रिदा-ए-यख़ हवा ने ओढ़ ली थी
जबीं ख़ामोश
सज्दे बे-ज़बाँ थे
आगे इक काला समंदर
पीछे सुब्ह-ए-आतिशीं थी
और जब लम्हें रवाँ थे
हम कहाँ थे

ख़ालिद कर्रार

एक परी / अवनीश सिंह चौहान

एक परी
आयी महफ़िल में
लेकर एक छड़ी
एक इशारे में
रुक जाती
सबसे बड़ी घड़ी

उसका जादू
घट-घट बोले
गूंगे-बहरे
आँखें खोले
रुक जाते हैं
धावक सारे
जब हो जाय खड़ी

सम्मोहन के
सूत पिरोये
दीवानों को
खूब भिगोये
चाह रही कुछ
हासिल करना
देकर फूल-लड़ी

घड़ी देखकर
बदले पाला
बड़ कुर्सी पर
डाले माला
पढी-लिखी है
लेकिन ज्यादा
उससे कहीं कढ़ी

अवनीश सिंह चौहान

होने में सुबह पलक झपकने की देर है / ओमप्रकाश यती


होने में सुबह पलक झपकने की देर है

सूरज में जमी बर्फ़ पिघलने की देर है।


यह भीड़ तोड़ डालेगी हर शीशमहल को

पत्थर कहीं से एक उछलने की देर है।


बनने लगेगा कारवां आने लगेंगे लोग

घर छोड़ के बस तेरे निकलने की देर है।


फूलों के बिस्तरे पे पहुँचना नहीं कठिन

काँटों के रास्ते से गुज़रने की देर है।


जिस काम को ‘यती’ समझ रहे हो असंभव

उस काम को करने पे उतरने की देर है।

ओमप्रकाश यती

चार दिनों की उम्र मिली है और फ़ासले जन्मों के / अज़ीज़ आज़ाद

चार दिनों की उम्र मिली है और फ़ासले जन्मों के
इतने कच्चे रिश्ते क्यूँ हैं इस दुनिया में अपनो के

सिर्फ़ मुहब्बत की दुनिया में सारी ज़बानें अपनी हैं
बाकी बोली अपनी-अपनी खेल तमाशे लफ़्ज़ों के

आँखों ने आँखों को पल में जाने क्या-क्या कह डाला
ख़ामोशी ने खोल दिये हैं राज छुपे सब बरसों के

अबके सावन ऐसा आया दिल ही अपना डूब गया
अश्कों के सैलाब में गुम है गाँव हमारे सपनों के

किसी मनचली मौज ने आकर इतने फूल खिला डाले
कोई पागल लहर ले गई सारे घरौंदे बच्चों के

नई हवा ने दुनिया बदली सुर-संगीत बदल डाले
हम आशिक‘आज़ाद’हैं अब भी उन्हीं पुराने नगमों के

अज़ीज़ आज़ाद

जो हलाल नहीं होता / कुमार मुकुल


मेरे सामने बैठा
मोटे कद का नाटा आदमी
एक लोकतांत्रिक अखबार का
रघुवंशी संपादक है

पहले यह समाजवादी था
पर सोवियत संघ के पतन के बाद
आम आदमी का दुख
इससे देखा नहीं गया
और यह मनुष्‍यतावादी हो गया

घोटाले में पैसा लेने वाले संपादकों में
इसका नाम आने से रह गया है
यह खुशी इसे और मोटा कर देगी
इसी चिंता में
परेशान है यह
क्‍योंकि बढ़ता वजन इसे
फिल्‍मी हीरोइनों की तरह
हलकान करता है
और टेबल पर रखे शीशे में देखता
बराबर वह
अपनी मांग संवारता दिखता है

राज्‍य के संपादकों में
सबसे समझदार है यह
क्‍योंकि वही है
जो अक्‍सर अपना संपादकीय खुद लिखता है
मतलब
बाकी सब अंधे हैं
जिनमें वह
राजा होने की
कोशिश करता है

राजा,
इसीलिए
गौर से देखेंगे
तो वह शेर की तरह
चेहरे से मुस्‍कुराता दिखता है
पर भीतर से
गुर्राता रहता है

पहले
उसके नाम में
शेर के दो पर्यायवाची थे
समाजवाद के दौर में
एक मुखर पर्यायवाची को
इसने शहीद कर दिया
पर जबसे वह मानवधतावादी हुआ है
शहीद की आत्‍मा
पुनर्जन्‍म के लिए
कुलबुलाने लगी है
जिसकी शांति के लिए उसने
अपने गोत्र के
शेर के दो पर्याय वाले मातहत को
अपना सहयोगी बना लिया है

यह अखबार
इसका साम्राज्‍य है
जिसमें एक मीठे पानी का झरना है
इसमें इसके नागरिकों का पानी पीना मना है
गर कोई मेमना
(यहां का हर नागरिक मेमना है)
झरने से पानी पीने की हिमाकत करता है
तो मुहाने पर बैठे शेर की आंखों में
उसके पूर्वजों का खून उतर आता है
और मेमना अक्‍सर हलाल हो जाता है
जो हलाल नहीं हुआ
समझो, वह दलाल हो जाता है

दलाल
कई हैं इस दफ्तर में
जिनकी कुर्सी
आगे से कुछ झुकी होती है
जिस पर दलाल
बैठा तो सीधा नज़र आता है
पर वस्‍तुत: वह
टिका होता है
ज़रा सी असावधानी
और दलाल
कुर्सी से नीचे...

कुमार मुकुल

रूख़ से पर्दा उठा दे ज़रा साक़िया बस अभी रंग-ए-महफ़िल बदल जाएगा
है जो बे-होश वो होश में आएगा गिरने वाला है जो वो सँभल जाएगा

तुम तसल्ली न दो सिर्फ़ बैठे रहो वक़्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा
क्या ये कम है मसीहा के रहने ही से मौत का भी इरादा बदल जाएगा

तीर की जाँ है दिल दिल जाँ तीर है तीर को यूँ न खींचो कहा मान लो
तीर खींचा तो दिल भी निकल आएगा दिल जो निकला तो दम भी निकल जाएगा

लोग समझे थे इंक़िलाब आते ही नज़्म-ए-कोहना चमन का बदल जाएगा
ये ख़बर किस को थी आतिश-ए-गुल से ही तिनका तिनका नशेमन का जल जाएगा

एक मुद्दत हुई उस को रोए हुए एक अरसा हुआ मुस्कुराए हुए
ज़ब्त-ए-ग़म का अब और उस से वादा न हो वरना बीमार का दम निकल जाएगा

अपने परदे का रखना है गर कुछ भरम सामने आना जाना मुनासिब नहीं
एक वहशी से ये छेड़ अच्छी नहीं क्या करोगे अगर ये मचल जाएगा

अपने वादे का एहसास है तो मगर देख कर तुम को आँसु उमड़ आए है
और अगर तुम को ये भी गवारा नहीं अब्र बरसे बग़ैर अब निकल जाएगा

मेरा दामन तो जल ही चुका है मगर आँच तुम पर भी आए गवारा नहीं
मेरे आँसुओं न पोंछो ख़ुदा के लिए वरना दामन तुम्हारा भी जल जाएगा

दिल में ताज़ा ग़म-ए-आशियाँ है अभी मेरे नालों से बरहम न सय्याद हो
धीरे धीरे ये आँसू भी थम जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता ये दिल भी बहल जाएगा

मेरी फ़रियाद से वो तड़प जाएँगे मेरे दिल का मलाल इस का होगा मगर
क्या ये कम है कि वो बे-नक़ाब आएँगे मरने वाले का अरमाँ निकल जाएगा

फूल कुछ इस तरह तोड़ दे बाग़बाँ शाख़ हिलने न पाए न आवाज़ हो
वरना गुलशन पे रोनक़ न फिर आएगी दिल अगर हर किसी का दहल जाएगा

उस के हँसने में रोने का अंदाज़ है ख़ाक उड़ाने में फ़रियाद का राज़ है
उस को छेड़ों न ‘अनवर’ ख़ुदा के लिए वरना बीमार का दम निकल जाएगा

अनवर मिर्जापुरी

कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है / ग़ालिब

कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-राहत ख़ून-ए-गर्म-ए-दहक़ाँ है

ग़ुंचा ता शगुफ़्तन-हा बर्ग-ए-आफ़ियत मालूम
बा-वजूद-ए-दिल-जमई ख़्वाब-ए-गुल परेशाँ है

हम से रंज-ए-बेताबी किस तरह उठाया जाए
दाग़ पुश्त-ए-दस्त-ए-अज्ज़ शोला ख़स-ब-दंदाँ है

इश्क़ के तग़ाफ़ुल से हर्ज़ा-गर्द है आलम
रू-ए-शश-जिहत-आफ़ाक़ पुश्त-ए-चश्म-ए-ज़िन्दाँ है

ग़ालिब

छात्रावास में कविता-पाठ / ऋतुराज

कोई पच्चीस युवा थे वहाँ
सीटी बजी और सबके सब
एकत्रित हो गए

कौन कहता है कि वे
कुछ भी सुनना-समझना नहीं चाहते
वे चाहते हैं दुरुस्त करना
समय की पीछे चलती घड़ी को
धक्का देना चाहते हैं
लिप्साओं के पहाड़ पर चढ़े
सत्तासीनों को नीचे

कहाँ हुई हिंसा?
किसने विद्रोह किया झूठ से?
भ्रम टूटे मोहभंग हुए और प्रकाश के
अनूठे पारदर्शीपन में
उन्होंने सुनी कविताएँ और नए
आत्मविश्वास से आलोकित हो गए
उनके चेहरे

क्या वे अपना रास्ता खुद खोजेंगे?
क्या इससे पहले ही
उन्हें खींचकर ले जाएँगे
राजनीति के गिद्ध?

नहीं, कविताएँ इतनी तो
असफल नहीं हो सकतीं
उनमें से कोई तो उठेगा और कहेगा
हमें बदल देना चाहिए यह सब...

ऋतुराज

रचना / अशोक वाजपेयी

कुछ प्रेम
कुछ प्रतीक्षा
कुछ कामना से
रची गई है वह,
— हाड़माँस से तो
बनी थी बहुत पहले।

अशोक वाजपेयी

सागर के उस पार / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

सागर के उस पार
सनेही,
सागर के उस पार ।

मुकुलित जहाँ प्रेम-कानन है
परमानन्द-प्रद नन्दन है ।
शिशिर-विहीन वसन्त-सुमन है
होता जहाँ सफल जीवन है ।
जो जीवन का सार
सनेही ।
सागर के उस पार ।

है संयोग, वियोग नहीं है,
पाप-पुण्य-फल-भोग नहीं है ।
राग-द्वेष का रोग नहीं है,
कोई योग-कुयोग नहीं है ।
हैं सब एकाकार
सनेही !
सागर के उस पार ।।

जहाँ चवाव नहीं चलते हैं,
खल-दल जहाँ नहीं खलते हैं ।
छल-बल जहाँ नहीं चलते हैं,
प्रेम-पालने में पलते हैं ।
है सुखमय संसार
सनेही !
सागर के उस पार ।।

जहाँ नहीं यह मादक हाला,
जिसने चित्त चूर कर डाला ।
भरा स्वयं हृदयों का प्याला,
जिसको देखो वह मतवाला ।
है कर रहा विहार
सनेही !
सागर के उस पार ।।

नाविक क्यों हो रहा चकित है ?
निर्भय चल तू क्यों शंकित है ?
तेरी मति क्यों हुई थकित है ?
गति में मेरा-तेरा हित है।
निश्चल जीवन भार
सनेही !
सागर के उस पार ।।

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

दर ओ दीवार पे शकलें से बनाने आई / 'कैफ़' भोपाली

दर ओ दीवार पे शकलें से बनाने आई
फिर ये बारिश मेरी तनहाई चुराने आई

ज़िंदगी बाप की मानिंद सजा देती है
रहम-दिल माँ की तरह मौत बचाने आई

आज कल फिर दिल-ए-बर्बाद की बातें है वही
हम तो समझे थे के कुछ अक्ल ठिकाने आई

दिल में आहट सी हुई रूह में दस्तक गूँजी
किस की खुशबू ये मुझे मेरे सिरहाने आई

मैं ने जब पहले-पहल अपना वतन छोड़ा था
दूर तक मुझ को इक आवाज़ बुलाने आई

तेरी मानिंद तेरी याद भी ज़ालिक निकली
जब भी आई है मेरा दिल ही दुखाने आई

'कैफ़' भोपाली

अभी तो शाम है ऐ दिल अभी तो रात बाक़ी है / अनवर जलालपुरी

अभी तो शाम है ऐ दिल अभी तो रात बाक़ी है
अमीदे वस्ल वो हिजरे यार की सौग़ात बाक़ी है

अभी तो मरहले दारो रसन तक भी नहीं आये
अभी तो बाज़ीये उलफ़त की हर एक मात बाक़ी है

अभी तो उंगलियाँ बस काकुले से खेली हैं
तेरी ज़ुल्फ़ों से कब खेलें ये बात बाक़ी है

अगर ख़ुशबू न निकले मेरे सपनों से तो क्या निकले
मेरे ख़्वाबों में अब भी तुम, तुम्हारी ज़ात बाक़ी है

अभी से नब्ज़े आलम रूक रही है जाने क्यों ‘अनवर’
अभी तो मेरे अफ़साने की सारी रात बाक़ी है

अनवर जलालपुरी

नव वर्ष / अवनीश सिंह चौहान

चालक- पथ की
जीवन रथ की
लेकर नव भाषाएं
आया है
नव वर्ष हमारा
जागीं सब आशाएं

नये रंगों से
रंगी ज़िन्दगी
रंगोली-सी सोहे
सात सुरों से
सजी बांसुरी
जैसे तन-मन मोहे

चलो समय का
पहिया घूमा
बदलीं परिभाषाएं!

फूल-फूल में
प्रेम बढ़ेगा
महकेगी फुलवारी
धूप-चांदनी,
बरखे बरखा
लहकेगी हर क्यारी
 
झोली में
सबके फल होंगे-
पूरी अभिलाषाएं!

अवनीश सिंह चौहान

अब ख़ून नहीं डर बह रहा है / उमाशंकर चौधरी

हर छोटे से छोटा धमाका भी अगर तुम्हें
लगता है बम का धमाका और
तुम्हारी रुह काँप जाती है, तब समझो तुम कि
तुम्हारी धमनियों में अब
ख़ून नहीं डर बह रहा है ।

वह बच्चा जो क्रिकेट की जीत की ख़ुशी में
फोड़ रहा है एक छोटा-सा पटाखा
और तुम काँप जाते हो
तब समझो तुम कि अब ख़ून नहीं डर बह रहा है ।

क्या तुमने बँद कमरे में सुनी है
राह चलते उस औरत के कान से गिरे झुमके की
झन्न से आवाज़
और उस बच्चे के बारे में क्या कहोगे
जिसका गुब्बारा सिर्फ़ इसलिए फूट जाता है कि
वह हरी दूब की नोंक से टकरा जाता है ।

क्या तुम सचमुच डर नहीं गए थे
जब तुम्हारी टूटियों से महीनों बाद निकल पड़ी थी अचानक
पानी की एक धार ।

सच यह है कि चिड़ियों की चहचहाहट
पत्तियों की सरसराहट या फिर
साइकिल की टायर से निकलने वाली हवा की आवाज़
और फिर दूध पीते बच्चे के मुँह से निकलने वाली
एक पतली सी आवाज़ से अब
जुड़ गई है तुम्हारी धड़कन की तार ।

सच यह है कि अब तुम्हारी धड़कन तक
पहुँचने वाले ख़ून ने अचानक से बदल ली है
अपनी शक्ल ।

अगर तुम बीच चौराहे पर यह कहोगे कि
तुम्हारी धमनियों में अब
ख़ून नहीं डर बह रहा है तब
वह तुमसे पूछेगा डर का रंग और
जब तुम उससे कह दोगे झक्क सफ़ेद,
तब वह बंद कमरे में सिरिंज से निकालेगा ख़ून की दो बूँद
और फिर वह पछाड़ खाकर गिर जाएगा
उसी बँद कमरे में ।

क्या यह बँद कमरा वाकई लोकतंत्र की लेबोरेटरी नहीं है ?

उमाशंकर चौधरी

खामियाज़ा / अनीता कपूर

सुनो
जा रहे हो तो जाओ
पर अपने यह निशां भी
साथ ले ही जाओ
जब दोबारा आओ
तो चाहे, फिर साथ ले लाना
नहीं रखने है मुझे अपने पास
यह करायेंगे मुझे फिर अहसास
मेरे अकेले होने का
पर मुझे जीना है
अकेली हूँ तो क्या
जीना आता है मुझे
लक्ष्मण रेखा के अर्थ जानती हूँ
माँ को बचपन से रामायण पढ़ते देखा है
मेरी रेखाओं को तुम
अपने सोच की रेखाएँ खींच कर
छोटा नहीं कर सकते
युग बदले, मै ईव से शक्ति बन गयी
तुम अभी तक अहम के आदिम अवस्था में ही हो
दोनों को एक जैसी सोच को रखने का
खामियाज़ा तो भुगतना तो पड़ेगा

अनीता कपूर

Wednesday, March 26, 2014

गुजरात - 2002 - (तीन) / कात्यायनी

भूतों के झुण्ड गुज़रते हैं
कुत्तों-भैसों पर हो सवार
जीवन जलता है कण्डों-सा
है गगन उगलता अन्धकार ।

यूँ हिन्दू राष्ट्र बनाने का
उन्माद जगाया जाता है
नरमेध यज्ञ में लाशों का
यूँ ढेर लगाया जाता है ।

यूँ संसद में आता बसन्त
यूँ सत्ता गाती है मल्हार
यूँ फासीवाद मचलता है
करता है जीवन पर प्रहार ।

इतिहास रचा यूँ जाता है
ज्यों हो हिटलर का अट्टाहास
यूँ धर्म चाकरी करता है
पूँजी करती वैभव-विलास ।

(रचनाकाल : अप्रैल 2002)

कात्यायनी

सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है / अतहर नफीस

सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है
वही कानों में अब तक गूँजता है

ग़नीमत है कि अपने ग़म-ज़दों को
वो हुस्न-ए-ख़ुद नगर पहचानता है

जिसे खो कर बहुत मग़्मूम हूँ मैं
सुना है उस का ग़म मुझ से सिवा है

कुछ ऐसे ग़म भी हैं जिन से अभी तक
दिल-ए-ग़म-आशना ना-आश्ना है

बहुत छोटे हैं मुझ से मेरे दुश्मन
जो मेरा दोस्त है मुझ से बड़ा है

मुझे हर आन कुछ बनना पड़ेगा
मिरी हर साँस मेरी इब्तिदा है

अतहर नफीस

मैं कहीं और भी होता हूँ / कुंवर नारायण

मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता

कुछ भी करते हुए
कहीं और भी होना
धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है

हर वक़्त बस वहीं होना
जहाँ कुछ कर रहा हूँ
एक तरह की कम-समझी है
जो मुझे सीमित करती है

ज़िन्दगी बेहद जगह मांगती है
फैलने के लिए

इसे फैसले को ज़रूरी समझता हूँ
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें...

कुंवर नारायण

ऊब चले हैं (हाइकु) / कमलेश भट्ट 'कमल'

(हाइकु)


ऊब चले हैं
वर्षा की प्रतीक्षा में
पेड़-पौधे भी।

कमलेश भट्ट 'कमल'

बीज / कुमार अंबुज

जो पराजित है वह धन है संसार का
यह हवा बहेगी
एक हारे हुए का जीवन सँभालने के लिए ही
जो जानती है कि पराजित होना जिंदगी से बाहर होना नहीं
दाखिल होना है एक विशाल दुनिया में
जिंदगी में दाखिल हो गए इस व्यक्ति को
ईर्ष्या और प्रशंसा और अचरज से
देखता है जीवन से बाहर खड़ा आदमी
वह समझ ही नहीं पाता है कि वह तो
फ्रेम से बाहर खड़ा हुआ प्रेक्षक है एक
जो पराजित है और टूट नहीं गया है
वह
नए संसार के होने के लिए
एक नया बीज है !

कुमार अंबुज

'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं / ग़ालिब

'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
कि है सर-पंजा-ए-मिज़्गान-ए-आहू पुश्त-ख़ार अपना

ग़ालिब

घर / ओम पुरोहित ‘कागद’


घर
घर है
और
बाहर
बाहर ही
...दोनोँ का
अपनी अपनी जगह रहना
बहुत जरूरी है
घर से बाहर होने पर
घर साथ रहे तो
घर कभी
बिखरता नहीँ
और यदि
घर लौटते वक्त
बाहर भी
घर के भीतर
आ जाए तो
कभी कभी
बिखर जाता है घर ।

ओम पुरोहित ‘कागद’

छिन्दवाड़ा-1 / अनिल करमेले

मोहब्बत है अज़ीयत है हुजूम-ए-यास-ओ-हसरत है / अख़्तर अंसारी

मोहब्बत है अज़ीयत है हुजूम-ए-यास-ओ-हसरत है
जवानी और इतनी दुख भरी कैसी क़यामत है

वो माज़ी जो है इक मजमुआ अश्कों और आहों का
न जाने मुझ को इस माज़ी से क्यूँ इतनी मोहब्बत है

लब-ए-दरिया मुझे लहरों से यूँही चहल करने दो
के अब दिल को इसी इक शुग़्ल-ए-बे-मानी में राहत है

तेरा अफ़साना ऐ अफ़साना-ख़्वाँ रंगीं सही मुमकिन
मुझे रूदाद-ए-इशरत सुन के रो देने की आदत है

कोई रोए तो मैं बे-वजह ख़ुद भी रोने लगता हूँ
अब 'अख़्तर' चाहे तुम कुछ भी कहो ये मेरी फ़ितरत है

अख़्तर अंसारी

जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया / अब्दुल अहद 'साज़'

जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
जिस घड़ी फ़तह का एलान हुआ हार गया

थक के लौट आए अलम-दार-ए-मसावात आख़िर
दूर तक सिलसिला-ए-अंदक-ओ-बिस्यार गया

जिस को सब सहल-तलब जान के करते थे गुरेज़
इक वही शख़्स सू-ए-मंज़िल-ए-दुश्वार गया

इन दिनों ज़ेहन की दुनिया में है मसरूफ़ बशर
दिल की तहज़ीब गई दर्द का व्यवहार गया

हम गुनह-गारों से बा-मानी रहा हश्र का दिन
वरना ये सारा ही मंसूबा था बेकार गया

'साज़' है दिल-ज़दा अब भी तेरे शेरों के तुफ़ैल
हम तो समझे थे के ऐ मीर ये आज़ार गया

अब्दुल अहद ‘साज़’

ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ / आनंद बख़्शी

 
ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ -
अब क्या सुनाएं?

ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ,
क्यूँ हुआ, जब हुआ, तब हुआ
ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ,
क्यूँ हुआ, जब हुआ, तब हुआ
ओ छोड़ो, ये ना सोचो, ये क्या हुआ...

हम क्यूँ, शिकवा करें झूठा, क्या हुआ जो दिल टूटा
हम क्यूँ, शिकवा करें झूठा, क्या हुआ जो दिल टूटा
शीशे का खिलौना था, कुछ ना कुछ तो होना था, हुआ
ये क्या हुआ...

ऐ दिल, चल पीकर झूमें, इन्हीं गलियों में घूमें
ऐ दिल, चल पीकर झूमें, इन्हीं गलियों में घूमें
यहाँ तुझे खोना था, बदनाम होना था, हुआ
ये क्या हुआ...

हमने जो, देखा था सुना था, क्या बताऐं वो क्या था
हमने जो, देखा था सुना था, क्या बताऐं वो क्या था
सपना सलोना था, खत्म तो होना था, हुआ
ये क्या हुआ...

आनंद बख़्शी

एक लहर की कहानी / अनुपमा पाठक

इतराती हुई
बह रही थी लहरों संग
सागर में एक लहर
सुनहरी धूप... मस्त पवन
सबका आनंद लेती हुई
ईठला रही थी हर पहर

तभी देखा उसने
किनारे से टकरा कर
लहरों को दम तोड़ते हुए
हर पल
मिटने की वृहद कथा में
नया अध्याय जोड़ते हुए

देख यह दृश्य
करुण,
लहर सहम गयी
चिंतित हो उठा हिय
मन शिथिल
उमंग सारी थम गयी

विचारमग्न देख उसे
पास से गुज़र रही लहर
कारण जानने को अकुलायी
आसन्न विपत्ति से
दुखी लहर ने तब
किनारे पर मिट रही लहरों की दशा दिखायी

यह देख
पास से गुज़र रही उस लहर ने
कुछ गुना
सागर का
तरंगित संगीत
मन ही मन सुना

फिर
स्मित मुस्कान के साथ
बोली-
बह रहे हैं संग
हम दोनों हैं
हमजोली

दुखी न हो
क्यूंकि न तुम लहर हो
न ही क्षण भर का किस्सा हो
ये मिटना
भ्रम है केवल
तुम तो सागर का हिस्सा हो!

अनुपमा पाठक

एक डरपोक औरत का प्रश्न / अनीता कपूर

सृष्टि के विशाल होने से
क्या अंतर पड़ता है
मेरी तो बालकनी है
पूरा विश्व घूमता है
आँख की धुरी तक
हलचल जीवन की
कोलाहल जीवन में
मेरा तो अपना हृदय है
जो घूमता है चक्र की तरह
वहीं घूमना मेरी हलचल है
आवाज़
शोर उस चक्र का
मेरे लिए कोलाहल है
समय जो बहने वाला
नदी की तरह
रूका हुआ है मेरे लिए
चेतना की झनझनाहट
असीम दुख का केंद्र बिन्दु
अँधेरा
निर्जीव विस्तार
निस्त्ब्ध्ता
स्वरहीन
रुकना, विराम नहीं
गति की थकान को मिटाना है
अतीत और भविष्य
वर्तमान के बिन्दु की नोक पर
बिन्दु एक दुख
दुख एक स्थिरता
झटका लगताई है
केमरे के लेंस जैसा
विस्फोट होता है
आकाश में धुआँ ही धुआँ
धुएँ की बाहें
समेटती हैं चिंगारियाँ
चिंगारियाँ रूक गयी है
भरा है उसमे
असंतोष
अतृप्ति
आशंका
एक बिन्दु चमकता है
चमन में उमंग, जीवन में सब कुछ है
भावना है, और है एक
वास्तविकता
प्रश्न चिह्न बन कर

अनीता कपूर

ठंड / इला प्रसाद

दरवाज़ा खोला
तो ठंड दरवाज़े पर,
बाँहें खोले -
आगे बढ़,
भेंटने को तैयार।

हवा घबराई-सी
इधर उधर पत्ते बुहारती,
ख़बरदार करती
घूम रही थी।

निकलूँ न निकलूँ का असमंजस फलाँग
मैं जैसे ही आई
ठंड के आगोश में
एक थप्पड़ लगा
झुँझलाई हुई हवा का -
"मना किया था न!"

और सूरज -
बादलों को भेद,
मुसकुरा उठा!

इला प्रसाद

बाढ़-4 / अच्युतानंद मिश्र

एक डूबते हुए आदमी को
एक आदमी देख रहा है

एक आदमी यह दृश्य देख कर
रो पड़ता है

एक आदमी
आँखें फेर लेता है

एक आदमी हड़बड़ी में देखना
भूल जाता है

याद रखो
वे तुम्हें भूलना सिखाते हैं ...

अच्युतानंद मिश्र

जीने का अरमान / ईश्‍वर दत्‍त माथुर

दु:ख में मुझको जीने का अरमान था
सुख आया जीवन में ऐसे
लेकिन मैं कंगाल था ।

लक्ष्‍य नहीं था, दिशा नहीं थी
लेकिन बढ़ते ही जाना था
नहीं सूझता था मुझको कुछ
अपनी ही धुन में गाता था ।

पंख लगाकर समय उड़ गया
लेकिन मैं ग़मख़्वार था ।

सुख की बदली ऐसी आई
मन में केवल प्रीत समाई ।
दिन के पंख लगे कुछ ऐसे
शेष नहीं केवल परछाईं ।

अब अपने ही लगे डराने
लेकिन मैं लाचार था ।

ईश्‍वर दत्‍त माथुर

मैं झूठ हूँ / ऋषभ देव शर्मा

मैं झूठ हूँ, फरेब हूँ, पाखंड बड़ा हूँ
लेकिन तुम्हारे सत्य के पैरों में पड़ा हूँ
 
हीरा भी नहीं हूँ खरा मोती भी नहीं हूँ
फिर भी तुम्हारी स्वर्ण की मुंदरी में जड़ा हूँ
 
सब चूडियों को भाग्य से मेरे जलन हुई
मैं आपकी कोमल कलाइयों का कड़ा हूँ
 
दुनिया तो लड़ी द्वेष से, नफरत से, क्रोध से
मैं जब भी लड़ा तुमसे मुहब्बत से लड़ा हूँ
 
काँटा हूँ, दर्द ही सदा देता हूँ मैं तुम्हें
मैं जानता हूँ, मैं तुम्हारे दिल में गड़ा हूँ

ऋषभ देव शर्मा

हमारा प्यारा हिन्दुस्तान / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

जिसको लिए गोद में सागर,
हिम-किरीट शोभित है सर पर ।
जहाँ आत्म-चिन्तन था घर-घर,
पूरब-पश्चिम दक्षिण-उत्तर ।।
                    जहाँ से फैली ज्योति महान ।
                    हमारा प्यारा हिन्दुस्तान ।।
जिसके गौरव-गान पुराने,
जिसके वेद-पुरान पुराने ।
सुभट वीर-बलवान पुराने,
भीम और हनुमान पुराने ।।
                    जानता जिनको एक जहान ।
                    हमारा प्यारा हिन्दुस्तान ।।
जिसमें लगा है धर्म का मेला,
ज्ञात बुद्ध जो रहा अकेला ।
खेल अलौकिक एक सा खेला,
सारा विश्व हो गया चेला ।।
                    मिला गुरु गौरव सम्मान ।
                    हमारा प्यारा हिन्दुस्तान ।।
गर्वित है वह बलिदानों पर,
खेलेगा अपने प्रानों पर ।
हिन्दी तेगे है सानों पर,
हाथ धरेगा अरि कानों पर ।।
                    देखकर बाँके वीर जवान ।
                    हमारा प्यारा हिन्दुस्तान ।।

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

जो तू शराब पिए क्यूँकि दिल कबाब न हो / इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

जो तू शराब पिए क्यूँकि दिल कबाब न हो
लगे जब आग कहाँ तक ये ज़हरा आब न हो

ख़ुनुक गुज़रते हैं अय्याम-ए-इश्क़ दाग़ बग़ैर
कि सर्द होवे हवा जिस दिन आफ़ताब न हो

दिवाने शहर से याँ आ के चैन पाते हैं
ख़ुदा करे ये ख़राबा कभी ख़राब न हो

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

बगैर छाँव के होता नहीं गुज़र उसका / ओम प्रकाश नदीम

बगैर छाँव के होता नहीं गुज़र उसका ।
हमारे साथ न हो पाएगा सफ़र उसका ।

बुलन्दियों से शुरूआत की थी दरिया ने,
ढलान ही में रहा उम्र भर सफ़र उसका ।

जो बात दफ़्न थी उस पर बना दिया है मज़ार,
पता नहीं ये अक़ीदत है या हुनर उसका ।

मैं सोचता हूँ मुझे फ़ायदा ही क्या होगा,
न कुछ भी कर नुक़सान मैं अगर उसका ।

हम एक-दूजे को ख़ूब जानते थे ’नदीम’
हमारा उस पे न हम पर हुआ असर उसका ।

ओम प्रकाश नदीम

Tuesday, March 25, 2014

रंगरेज / आलोक धन्वा


एक पुरानी कार रंगी जा रही है
छलकने तक रंगी जायेगी।


(1991)

आलोक धन्वा

फुटकर शेर / ओम प्रकाश नदीम

1.

उल्फ़त में रुसवाई का भी हिस्सा है ।
इस पानी में काई का भी हिस्सा है ।
 
2.

पेट काटा है ख़ुद अपना जिस्म ढकने को ’नदीम’
यूँ भी कुछ लोगों ने बस्ती में मनाई, ईद है ।

3.

हर तरफ़ से मुझ पे डाली जा रही है रोशनी,
क़द न बढ़ पाए तो साया ही बड़ा हो कुछ तो हो ।

4.

सफ़दर हाशमी को बतौर खिराज-ए-अक़ीदत

सफ़दर तुम्हारे क़त्ल ने तुमको सुला दिया,
लेकिन तुम्हारी नींद ने सबको जगा दिया,
तुम तो ख़मोश हो गए बस ’हल्ला बोल’ कर,
लेकिन तुम्हारे ख़ून ने हल्ला मचा दिया ।
 
5.

ये बेदारी जो उग आई है ज़ह्नों में,फले-फूले ।
ये ग़ुस्से का ग़ुबार उठ कर सड़क से आसमाँ छू ले ।

6.

उसका क्या वो दरिया था उसको बहना ही बहना था ।
लेकिन तुम तो पर्वत थे तुमको तो साबित रहना था ।

7.

हर किसी की हाँ में हाँ करता नहीं हूँ ।
इसलिए मैं आदमी अच्छा नहीं हूँ ।

8.

दीवाली पर

बना दी है हमारे दौर ने हर चीज़ बाज़ारी,
कोई कुछ बेचता है कोई करता है ख़रीदारी,
हमें मालूम है रस्मन है ये सब कुछ मगर फिर भी,
मुबारक हो अन्धेरे में उजाले की तरफ़दारी ।

9.

भरे बाज़ार से अक्सर मैं, ख़ाली हाथ आता हूँ,
कभी ख़्वाहिश नहीं होती, कभी पैसे नहीं होते ।

ओम प्रकाश नदीम

नूर पकड़ो ख़ुदा मम्बा-ए-नूर है / अनीस अंसारी

नूर पकड़ो ख़ुदा मम्बा-ए-नूर है
अपने मरकज़ को शायद यह जाने लगे

इस सितारे से कर आस्माँ का सफ़र
अर्श पर गर्द-ए-पा उड़ के जाने लगे

इश्क़-ए-सरमद का ऐसे वज़ीफ़ा पढ़ो
वस्ल-ए-लम्हा में गोया ज़माने लगे

थे हमारी कहानी के मुश्ताक़ तुम
दोस्तों हम तुम्हारी सुनाने लगे

ऐसा इक घर बनाने में मसरूफ़ हूँ
जिस में सारी ख़ुदाई समाने लगे

संग मुझ पर ते रे अक्स पर वा र है
ताकि किरचों में तू टुट जाने लगे

चोट जब भी लगी तुम को रोया था मैं
तुम मेरी चोट पर मुस्कुराने लगे

मिल के ‘अंसारी’ साहब, से अच्छा लगा
ग़म अलग रख के हंसने हंसाने लगे

अनीस अंसारी

दोर्जे गाईड की बातें / अजेय

(ग³ स्ता³ हिमनद का नज़ारा देखते हुए)


इससे आगे?
इससे आगे तो कुछ भी नहीं है सर!
यह इस देश का आखिरी छोर है।
इधर बगल में तिबत है
ऊपर कश्मीर
पश्चिम मे जम्मू
उधर बड़ी गड़बड़ है

गड़बड़ पंजाब से उठकर
कश्मीर चली गई है जनाब
लेकिन हमारे पहाड़ शरीफ हैं
सर उठाकर
सबको पानी पिलाते हैं
दूर से देखने मे इतने सुन्दर
पर ज़रा यहाँ रूककर देखो ...

नहीं सर,
वह वैसा नहीं है
जैसा कि अदीब लिखता है-
भोर की प्रथम किरणों की
स्वर्णाभा में सद्यस्नात्
शंख-धवल मौन शिखर,
स्वप्न लोक, रहस्यस्थली ...
वगैरा-वगैरा

जिसे हाथों से छू लेने की इच्छा रखते हो
वो वैसा खामोश नहीं है
जैसा कि दिखता है।
बड़ी हलचल है वहाँ दरअसल
बड़ी-बड़ी चट्टानें
गहरे नाले और खाईयाँ
खतरनाक पगडंडियाँ हैं
बरफ के टीले और ढूह
भरभरा कर गिरते रहते हैं
गहरी खाईयों में

बड़ी ज़ोर की हवा चलती है
हिया काँप जाती हैं, माहराज,
साक्षात् `शीत´ रहता है वहाँ!
यहाँ सब उससे डरते हैं

वह बरफ का आदमी
बरफ की छड़ी ठकठकाता
ठीक `सकरांद´ के दिन
गाँव से गुज़रते हुए
संगम में नहाता है

इक्कीस दिनों तक
सोई रहती है नदियाँ
दुबक कर बरफ की रज़ाई में
थम जाता है चन्द्रभागा का शोर
परिन्दे तक कूच कर जाते हैं
रोहतांग के पार
तन्दूर के इर्द गिर्द हुक्का गुडगुड़ाते बुजुर्ग
गुप चुप बच्चों को सुनाते हैं
उसकी आतंक कथा।

नहीं सर
झूठ क्यों बोलना?
अपनी आँखों से नहीं देखा है उसे
पर कहते हैं
घर लौटते हुए
कभी चिपक जाता है
मवेशियों की छाती पर

औरतें और बच्चे
भुर्ज की टहनियों से
डंगरो को झाड़ते हैं-
``बर्फ की डलियाँ तोडो
`डैहला´ के हार पहनो
शीत देवता
अपने `ठार´ जाओ
बेज़ुबानों को छोड़ो´´
सच माहराज, आँखों से तो नहीं...
कहते हैं
गलती से जो देख लेता है
वहीं बरफ हो जाता है
`अगनी कसम´।

अब थोडा अलाव ताप लो सर,
इससे आगे कुछ नहीं है
यह इस देश का आखिरी छोर है
`शीत´ तो है यहाँ
उससे डरना भी है
पर लड़ना भी है
यहाँ सब उससे लड़ते हैं जनाब
आप भी लड़ो।

अजेय

हम उसूलों पर चले दुनिया में शोहरत हो गई / ओम प्रकाश नदीम

हम उसूलों पर चले दुनिया में शोहरत हो गई ।
लेकिन अपने घर के लोगों में बग़ावत हो गई ।

आँधियों में तेरी लौ से जल गई उँगली मगर,
ये तसल्ली है मुझे तेरी हिफ़ाज़त हो गई ।

पहले उसका आना-जाना इक मुसीबत-सा लगा,
रफ़्ता-रफ़्ता उस मुसीबत से मोहब्बत हो गई ।

जो गवाही से थे वाबस्ता वो सब पकड़े गए,
और जो मुल्ज़िम थे उन सब की ज़मानत हो गई ।

मेरे मेहमाँ भी थे ख़ुश-ख़ुश और मैं भी मुत्मईन,
उनकी पिकनिक हो गई मेरी इबादत हो गई ।

आज फिर दिल को जलाया मैंने उनकी याद से,
आज फिर उनकी अमानत में खयानत हो गई ।

मेरी हालत तो नहीं सुधरी मगर इस फेर में,
ये हुआ मेरी तरह उसकी भी हालत हो गई ।

ओम प्रकाश नदीम

आँख की दहलीज़ से उतरा तो सहरा हो गया / अय्यूब ख़ावर

आँख की दहलीज़ से उतरा तो सहरा हो गया
क़तर-ए-ख़ूँ पानियों के साथ रूसवा हो गया

ख़ाक की चादर में जिस्म ओ जाँ सिमटते ही नहीं
और ज़मीं का रंग भी अब धुप जैसा हो गया

एक इक कर के मेरे सब लफ़्ज़ मिट्टी हो गए
और इस मिट्टी में धँस कर मैं ज़मीं का हो गया

तुझ से क्या बिछड़े कि आँखें रेज़ा रेज़ा हो गईं
आइना टूटा तो इक आईना-ख़ाना हो गया

ऐ हवा-ए-वस्ल चल फिर से गुल-ए-हिज्राँ खिला
सर उठा फिर ऐ निहाल-ए-ग़म सवेरा हो गया

ऐ जमाल-ए-फ़न उसे मत रो कि तन-आसान था
तेरी दुनियाओं का ‘ख़ावर’ सर्फ़-ए-दुनिया हो गया

अय्यूब ख़ावर

मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना / अब्दुल अहद ‘साज़’

मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
छोटी छोटी बातों में दिलचस्पी लेना

जज़्बों के दो घूँट अक़ीदों[1] के दो लुक़मे[2]
आगे सोच का सेहरा[3] है, कुछ खा-पी लेना

नर्म नज़र से छूना मंज़र की सख़्ती को
तुन्द हवा से चेहरे की शादाबी[4] लेना

आवाज़ों के शहर से बाबा ! क्या मिलना है
अपने अपने हिस्से की ख़ामोशी लेना

महंगे सस्ते दाम , हज़ारों नाम थे जीवन
सोच समझ कर चीज़ कोई अच्छी सी लेना

दिल पर सौ राहें खोलीं इनकार ने जिसके
‘साज़’ अब उस का नाम तशक्कुर[5] से ही लेना

शब्दार्थ:
  1. श्रद्धाओं
  2. निवाले
  3. रेगिस्तान
  4. ताज़गी
  5. शुक्रिया / धन्यवाद
अब्दुल अहद ‘साज़’

मजदूर का जन्म / केदारनाथ अग्रवाल

एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
हाथी सा बलवान,

जहाजी हाथों वाला और हुआ !

सूरज-सा इन्सान,

तरेरी आँखोंवाला और हुआ !!

एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ!
माता रही विचार,

अँधेरा हरनेवाला और हुआ !

दादा रहे निहार,

सबेरा करनेवाला और हुआ !!

एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
जनता रही पुकार,

सलामत लानेवाला और हुआ !

सुन ले री सरकार!

कयामत ढानेवाला और हुआ !!

एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !

केदारनाथ अग्रवाल

हमारा ज़िक्र जो ज़ालिम की अंजुमन में नहीं / आरज़ू लखनवी

हमारा ज़िक्र जो ज़ालिम को अंजुमन में नही।
जभी तो दर्द का पहलू किसी सुख़न में नहीं॥

शहीदे-नाज़ की महशर में दे गवाही कौन?
कोई लहू का भी धब्बा मेरे कफ़न में नहीं॥

आरज़ू लखनवी

ग़र चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे / अदम गोंडवी

गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे

जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?

जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे ?

तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे ?

अदम गोंडवी

अर्थशाला / भूमिका / केशव कल्पान्त

उचित नहीं उद्देश्य एक बस,
मानव की कल्याण साधना।
द्रव्य तराजू लिए हाथ में,
मानव का कल्याण आँकना।

केशव कल्पान्त

Monday, March 24, 2014

यूँ वफ़ा के सारे निभाओ ग़म के फ़रेब में / इन्दिरा वर्मा

 यूँ वफ़ा के सारे निभाओ ग़म के फ़रेब में भी यक़ीन हो
 कोई बात ऐसी कहो सनम के फ़रेब में भी यक़ीन हो

 ये दयार-ए-शीशा-फ़रोश है यहाँ आईनों की बिसात क्या
 यहाँ इस तरह से रखो क़दम के फ़रेब में भी यक़ीन हो

 मेरी चाहतों में ग़ुरूर हो दिल-ए-ना-तवाँ में सुरूर हो
 तुम्हें अब के खाना है वो क़सम के फ़रेब में भी यक़ीन हो

 यही बात कह दो पुकार के वही सिलसिले रहें प्यार के
 इसी नाज़ में रहे फिर भरम के फ़रेब में भी यक़ीन हो

 मेरे इश्क़ का ये मेयार हो के विसाल भी न शुमार हो
 इसी ऐतबार पे हो करम के फ़रेब में भी यक़ीन हो

 मेरे इंतिज़ार को क्या ख़बर तुम्हें इख़्तियार है इस क़दर
 मुझे दो सलीक़ा ये कम से कम के फ़रेब में भी यक़ीन हो

 जहाँ ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा मिले वहीं 'इंदिरा' का क़लम चले
 ये किताब-ए-इश्क़ में हो रक़म के फ़रेब में भी यक़ीन हो

इन्दिरा वर्मा

ये ज़माना कहीं मुझ से न चुरा ले मुझ को / कामिल बहज़ादी

ये ज़माना कहीं मुझ से न चुरा ले मुझ को
कोई इस आलम-ए-दहशत से बचा ले मुझ को

मैं इसी ख़ाक से निकलूँगा शरारा बन कर
लोग तो कर गए मिट्टी के हवाले मुझ को

कोई जुगनू कोई तारा न उजाला देगा
राह दिखलाँएगे ये पाँव के छाले मुझ को

उन चराग़ों में नहीं हूँ कि जो बुझ जाते हैं
जिस का जी चाहे हवाओं में जला ले मुझ को

दर्द की आँच बढ़ेगी तो पिघल जाऊँगा
अपने आँचल में कोई आ के छुपा ले मुझ को

इस क़दर मैं ने सुलगते हुए घर देखे हैं
अब तो चुभने लगे आँखों में उजाले मुझे को

तजि़्करा मेरा किताबों में रहेगा ‘कामिल’
भूल जाएँगे मिरे चाहने वाले मुझ को

कामिल बहज़ादी

तुम्हारी जेब में एक सूरज होता था / अजेय

तुम्हारी जेबों मे टटोलने हैं मुझे
दुनिया के तमाम खज़ाने
सूखी हुई खुबानियाँ
भुने हुए जौ के दाने
काठ की एक चपटी कंघी और सीप की फुलियाँ

सूँघ सकता हूँ गन्ध एक सस्ते साबुन की
आज भी
मैं तुम्हारी छाती से चिपका
तुम्हारी देह को तापता एक छोटा बच्चा हूँ माँ
मुझे जल्दी से बड़ा हो जाने दे

मुझे कहना है धन्यवाद
एक दुबली लड़की की कातर आँखों को
मूँगफलियाँ छीलती गिलहरी की
नन्ही पिलपिली उँगलियों को

दो-दो हाथ करने हैं मुझे नदी की एक वनैली लहर से
आँख से आँख मिलानी है हवा के एक शैतान झोंके से

मुझे तुम्हारी सब से भीतर वाली जेब से चुराना है
एक दहकता सूरज
और भाग कर गुम हो जाना है
तुम्हारी अँधेरी दुनिया में एक फरिश्ते की तरह
जहाँ औँधे मुँह बेसुध पड़ीं हैं
तुम्हारी अनगिनत सखियाँ
मेरे बेशुमार दोस्त खड़े हैं हाथ फैलाए

कोई ख़बर नहीं जिनको
कि कौन सा पहर अभी चल रहा है
और कौन गुज़र गया है अभी-अभी

सौंपना है माँ
उन्हें उनका अपना सपना
लौटानी है उन्हें उनकी गुलाबी अमानत
सहेज कर रखा हुआ है
जिसे तुम ने बड़ी हिफाज़त से
अपनी सब से भीतर वाली जेब में !

सुमनम, 05.12.2010

अजेय

एक चिड़िया आई / अनूप अशेष

जिस दिन मेरे घर
एक चिड़िया
आई पंख फुलाए।

मैंने देखा वह दिन
मेरे मन का था।
भूल गई थीं
सभी झंझटें
लिखी गई थी सिर्फ़ राग-मय
मीठी-मीठी घर-गाथा।

मुझे लगा यह दिवस
सुरों में
मुझको गाए।

हर कश्मीरी-क्षण मुझमें
जो डरा-डरा था।
अपने पंखों
लाल गुलों का बाग खिलाए
अब तक जो मेरी आँखों में
नुचा-मरा था।

मेरा आज
तुम्हारे कल की
भोर जगाए।

अनूप अशेष

मुहाने पर नदी और समुद्र-9 / अष्‍टभुजा शुक्‍ल

पागल हब्सी की तरह नदी
कभी ताबड़तोड़ तमाचे मारती है
समुद्र के गाल पर

कभी चढ़ जाती है
समुद्र की पीठ पर
नदी
कभी पटक देती है
समुद्र को
पानी पर
तो पलट जाता है समुद्र
फिर नदी
फिर समुद्र
फिर समुद्र
फिर नदी....

अष्‍टभुजा शुक्‍ल

हम बेवफ़ा हरगिज न थे / आनंद बख़्शी

 
हम बेवफ़ा हरगिज़ न थे
पर हम वफ़ा कर ना सके
हमको मिली उसकी सजा
हम जो ख़ता कर ना सके

कितनी अकेली थी वो राहें हम जिनपर
अब तक अकेले चलते रहें
तुझसे बिछड़ के भी ओ बेखबर
तेरे ही ग़म में जलते रहें
तूने किया जो शिकवा
हम वो गिला कर ना सके

तुमने जो देखा सुना सच था मगर
इतना था सच ये किसको पता
जाने तुम्हे मैने कोई धोखा दिया
जाने तुम्हे कोई धोखा हुआ
इस प्यार में सच झूठ का
तुम फ़ैसला कर ना सके

आनंद बख़्शी

कावाक / अज़ीज़ क़ैसी

सब आँखें टाँगों में जड़ी है
रीढ़ की हड्डी के मनकों में कान लगे हैं
नाफ़ के ऊपर रोएँ रोएँ में एक ज़बाँ है
पतलूनें सारी आवाज़ें सुन लेती हैं
दो पतलूनें सारी आवाज़ें सुन लेती हैं
दो पतलूनें झगड़ रही हैं
‘‘इतनी क़ीमत क्यूँ लेती हो तुम में ऐसी क्या ख़ूबी है’’
‘‘कैसे गाह हो तुम आख़िर मोल बदन का दे सकते हो
पति-व्रता को मोल तुम्हारे पास नहीं है
चुस्त नुकीला ब्रज़िअर ये चीख़ रहा है
शर्म नहीं आते कुत्तों को चर्च के आगे खड़े हुए हैं
रूस्तम ठर्रा पिए खड़ा है बस-स्टॉप की छत के नीचे
और सोहराब से पूछ रहा है
‘‘बेटा माल कहाँ मिलता है’’
मंदिर की चौखट पर बैठी अंधी आँखें
आते जाते औतारों की ख़ुफ़िया जेबें ताक रही हैं
हस्पताल के ऊँचे नीचे ज़ीनों पर इक इक मुर्दे को
गाँधी जी दोनों हाथों से इंजेक्शन देते फिरते हैं
वॉशिंगटन वियतनाम में बैठा ब्रह्म-पुत्र के पानी को व्हिस्की के जाम में घोल रहा है
लंदन लंका की सड़कों पे सर निव्ढ़ाए घूम रहा है
काँगों आवार फिरता है पैरिस के गंदे चकलों में
बुध के टूटे फूटे बुत के सर पर बूढ़ा कर्गस
मुर्दों की मज्लिस में बैठा अपनी बिपता सुना रहा है
मस्जिद के साए में बैठा कम-सिन गीदड़
उस की गवाही में कहता है
बेचारा कम-सिन है उस की चोंच से अब तक
दूध की ख़ुश्बू सी आती है’’
ऊपर नीले खुले गगन में
एक कबूतर अपनी चोंच में इक ज़ैतून की शाख़ लिए उड़ता फिरता है
और उस शाख़ के दोनों जानिब
एटम बम के पात लगे हैं
इंसाँ का दाया बाज़ूँ इक बर्ग-ए-ख़िज़ाँ की तरह लरज़ कर टूट रहा है
और उस के बाएँ बाज़ू पर कोह-ए-हिमालया धरा हुआ है
जाने फिर भी वो तल्वार की धार पे कैसे चल सकता हूँ
मैं इस भीड़ में चौराहे पर तन्हा बैठा सोच रहा हूँ
दुनिया इस्राफ़ील के पहले सूर के बाद यूँही लगती है
‘‘गैस के कमरे’’ में शायद यूँही होता है
पोप पाल की टोपी मेरे भेजे में धँसती जाती है

अज़ीज़ क़ैसी

अब आए न मोरे सांवरिया / अमीर खुसरो

अब आए न मोरे साँवरिया, मैं तो तन मन उन पर लुटा देती।
घर आए न मोरे साँवरिया, मैं तो तन मन उन पर लुटा देती।
मोहे प्रीत की रीत न भाई सखी, मैं तो बन के दुल्हन पछताई सखी।
होती न अगर दुनिया की शरम मैं तो भेज के पतियाँ बुला लेती।
उन्हें भेज के सखियाँ बुला लेती।

अमीर खुसरो

तीन बार कहना विदा / अपूर्व शुक्ल

भोर के जामुनी एकांत मे
जब रात का थका-हारा उनींदा शुक्रतारा
टूट कर गिरने को होगा अपनी नींद की भंवर मे
और सुबह की पहली ट्रेन की सीटी के बीच
शहर की नींद आखिरी अँगड़ाइयाँ ले रही होगी

मै छोड़ रहा होऊँगा
तुम्हारा शहर आखिरी बार, निःशब्द
जैसे नवंबर की ओसभीगी सुबह
चाय को छोड़ रही होती है भाप
बिना पदचाप के चुपचाप

शहर छोड़ती हुई गाड़ी का पीछा
सिर्फ़ सड़क की आवारा धूल करती है
कुछ दूर, हाँफ कर बैठ जाने तलक

और यह जानते हुए
कि हमारी यह मुलाकात
काफ़ी पी कर औंधा कर रख दिये गये
कप जैसी आखिरी है
मै इस बचे पल को काफ़ी के आखिरी घूँट की तरह
हमेशा के लिये घुलते रहने देना चाहता हूँ
जैसे कि भोर का अलार्म बजने से ठीक पहले के
स्वप्निल कामनाओं से भरे पवित्र पल
सहेज लेते हैं आखिरी मीठी नींद,

मै तुमसे कहूँगा विदा
वैसे नही जैसे कि पेड़ परिंदो को विदा कहते हैं हर सुबह
और ऋतुएँ पेड़ को कहती है विदा
बल्कि ऐसे जैसे हरापन पत्तों को कहता है
और कातर पत्ता पेड़ को कहता हैं विदा
टूट कर झरने से पहले
हाँ तुम कहना विदा
कि तीन बार कहने मे ’विदा’
दो बार का वापस लौटना भी शामिल होता है

हर रात
धो कर रख दिये जाते हैं काफ़ी के कप
बदलते रहते हैं फ़्लेवर्स हर बार, चुस्कियाँ लेते होठ
कुछ भी तो नही रहता है कप का अपना
एक ठंडी विवशता के अतिरिक्त

मै समेटूँगा शहर से अपने होने के अवशेष
खोलते हुए अपनी आवाज की स्ट्रिंग्स
तह करूँगा अपनी बची उम्र,
जलता रहेगा सपने मे लकड़ी का एक पुराना पुल
देर रात तक

चला जाऊँगा इतनी दूर
जहाँ एकांत के पत्थर पर
मौन की तरह झरती है बर्फ़
रात की काई-सनी पसलियों मे
बर्फ़ के खंजर की तरह धँसती हैं धारदार हवाएँ
जहाँ जोगी सरीखे वीतरागी ओक के वृक्ष प्रार्थनारत
धैर्यपूर्वक करते हैं अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा
और जहाँ बारिशों का बदन पसीने से नही
ओस से बना होता है

ऊँची उठती है हवा मे अकेली पतंग
टूटता है अकार्डियन की करुण धुन का माझा
आकाश की स्मृति मे कभी कुछ शेष नही रहता

तुम्हारे शहर मे
होती रहेंगी अब भी हर शाम बेतहाशा बारिशें
फूल कर झरते रहेंगे सुर्ख गुलमोहर अथाह
हवाएं तुम्हारे कालर से
उड़ा ले जायेंगी
फाड़ देंगी मेरी महक का आखिरी पुर्जा
बादल रगड़ कर धो देंगे
तुम्हारे कदमों के संग बने मेरे पाँवों के निशान
हमारी साझी सड़कों के याद्‍दाश्त से
एकाकी रह जायेंगे तुम्हारे पद-चिह्न

यहाँ बौने होते जायेंगे मेरे दिन
और रातें परछाइयों सी लम्बी होती रहेंगी
मै भटकता फिरूँगा
लाल ईंटों बनी भीड़ भरी तंग गलियों मे
शोरगुल भरी बसों, व्यस्त ट्रेन-प्लेटफ़ार्मों पर, पार्क की ठंडी भीगी बेंचो पर
मै तलाशा करूँगा तुमसे मिलती जुलती सूरतें
अतीत से बने उजड़े भग्न खंडहरों मे
वार्धक्य के एकांत से सूने पड़े चर्चों मे
करूँगा प्रतीक्षा
और रात खत्म होने से पहले खत्म हो जायेंगी सड़कें

फिर घंटियाँ बजाता गुजरेगा नवंबर तुम्हारे शहर से
थरथरायेंगे गुलमोहर
और त्याग देंगे अपने सूखे पीले पत्ते
चीखेंगे और उड़ते फिरेंगे शहर की हर गली मे दर-बदर लावारिस
अपने आँचल मे समेट लेंगी उनको विधवा हवायेँ
उन्हे आग और पानी के हवाले कर आयेंगीं

तुम्हारे चेहरे की पेंचदार गलियों मे
रास्ता भटक जायेगी उम्र
आजन्म वसंत के लिये अभिशप्त होगी तुम
तुम्हारे शहर के माथे से सूरज कभी नही ढलेगा
बदलती रहोगी तुम शहर की तरह हर दिन-साल
बदलता जायेगा शहर
हर नवागंतुक क्षण के साथ
मगर कहीं
शहर के गर्भ मे दबे रहेंगे मेरे पहचान के बीज
छुपा रहेगा हमारा जरा सा साझा अतीत
तुम्हारी विस्मृतियों के तलघर मे
ट्राय के घोड़े के तरह

और थोड़ा सा शहर
जो चु्पके से बाँध लाया मै
अपनी स्मृति के पोटली मे
बना रहेगा हमेशा वैसा का वैसा/ अपरिवर्तित
गुलमोहर का एक पत्ता
सहेजा हुआ है मेरी उम्र की किताब के सफ़हों के बीच
उम्मीद जैसा थोड़ा सा हरापन बाकी रहेगा उसमे हमेशा

टूटे हुए कप के कोरों पर
अंकित रह जाता है हमेशा
गर्म होठों का आखिरी स्वाद

अपूर्व शुक्ल