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Wednesday, December 31, 2014

हुस्न जब इश्क़ से मन्सूब नहीं होता है / अनवर जलालपुरी

हुस्न जब इश्क़ से मन्सूब नहीं होता है
कोई तालिब कोई मतलूब नहीं होता है

अब तो पहली सी वह तहज़ीब की क़दरें न रहीं
अब किसी से कोई मरऊब नहीं होता है

अब गरज़ चारों तरफ पाँव पसारे है खड़ी
अब किसी का कोई महबूब नहीं होता है

कितने ईसा हैं मगर अम्न-व-मुहब्बत के लिये
अब कहीं भी कोई मस्लूब नहीं होता है

पहले खा लेता है वह दिल से लड़ाई में शिकस्त
वरना यूँ ही कोई मजज़ूब नहीं होता है

अनवर जलालपुरी

हम भी हों यूँ परेशां और तुम भी पशेमां हो / आशीष जोग


हम भी हों यूँ परेशां और तुम भी पशेमां हो,
ऐ ज़िन्दगी हमारा ऐसा ना इम्तिहाँ हो |

माना के ये बोहोत है वो जानते हैं मुझको,
इसके भी आगे शायद कोई और भी जहाँ हो |

हम तुमसे हैं मुख़ातिब कहने दो दिल की बातें,
कल कौन जाने हम तुम किस हाल में कहाँ हों |

सोचा था जब मिलेंगे कह दूंगा दिल की बातें,
वो सामने खड़े हैं हमसे ना कुछ बयां हो |

जब जब भी मिले हम तुम कुछ दिल में उलझनें थीं,
ऐसे भी मिलें इक दिन जब कुछ ना दरमियाँ हो |

तन्हाई से हमारा है वास्ता पुराना,
ऐ काश रहगुज़र में ना साथ कारवां हो |

चेहरों पे कितने चेहरे दम घुट रहा यहाँ पर,
चल आज मुझे ले चल आवारगी जहाँ हो |

इस भीड़ में हूँ खोया मैं कैसे खुद को पाऊं,
कबसे पुकारता हूँ आवाज़ दो कहाँ हो |

जो कल में जी रहे हैं वो आज खो रहे हैं,
किसको पता है कब तक ये वक़्त मेहरबां हो |

ऐसा मुझे मकां दो जिसमें ना हों दीवारें,
नीचे ज़मीं हो ऊपर तारों का आसमां हो |

ग़र नाम है रिश्ते का तो वो नाम का है रिश्ता,
रिश्ता तो असल वो है कोई नाम जिसका ना हो |

अंदाज़-ए-बयाँ उनका मुश्किल है अब समझना,
ना हमको कह रहे हैं दिल में भले ही हाँ हो |

आशीष जोग

जियो तो ऐसे जियो / अनिता ललित

चढ़ो... तो आसमाँ में चाँद की तरह...
कि आँखों में सबकी... बस सको...
ढलो... तो सागर में सूरज की तरह...
कि नज़र में सबकी टिक सको...!

अनिता ललित

अमन की कोई आख़री गुंजाइश नहीं होती / उत्‍तमराव क्षीरसागर

हवाओं का झूलना
वक्‍़त - बेवक्‍़त
अपनी उब से, अपने हिंडोले पर


इन हवाओं को
मि‍ला होता रूख, तो ज़रूर जाती
कि‍सी षड्यंत्र में शामि‍ल नहीं होती


हवाओं में
लटकी हैं नंगी तलवारें
सफ़ेद हाथ अँधेरों के
उजालों की शक्‍ल काली


अमन की कोई आख़री गुंजाइश नहीं होती ।

                               - 1999 ई0

उत्‍तमराव क्षीरसागर

पायन को परिबो अपमान अनेक सोँ केशव मान मनैबो / केशव.

पायन को परिबो अपमान अनेक सोँ केशव मान मनैबो ।
सीठी तमूर खवाइबो खैबो विशेष चहूँ दिशि चौँकि चितैबो ।
चीर कुचीलन ऊपर पौढ़िबो पातहु के खरके भगि ऎबो ।
आँखिन मूँद के सीखत राधिका कुँजन ते प्रति कुँजन जैबो ।


केशव.का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

केशव (रीतिकालीन कवि)

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में / आलम खुर्शीद

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में
धूप उतर आई कैसे तहख़ाने में

जाने कब तक गहराई में डूबूँगा
तैर रहा है अक्स कोई पैमाने में

उस मोती को दरिया में फेंक आया हूँ
मैं ने सब कुछ खोया जिसको पाने में

हम प्यासे हैं ख़ुद अपनी कोताही से
देर लगाई हम ने हाथ बढ़ाने में

क्या अपना हक़ है हमको मालूम नहीं
उम्र गुज़ारी हम ने फ़र्ज़ निभाने में

वो मुझ को आवारा कहकर हँसते हैं
मैं भटका हूँ जिनको राह पे लाने में

कब समझेगा मेरे दिल का चारागर
वक़्त लगेगा ज़ख्मों को भर जाने में

हँस कर कोई ज़ह्र नहीं पीता आलम
किस को अच्छा लगता है मर जाने में

आलम खुर्शीद

सहज मिले अविनासी / कबीर

पानी बिच मीन पियासी।
मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी ।।
आतम ग्यान बिना सब सूना, क्या मथुरा क्या कासी ।
घर में वसत धरीं नहिं सूझै, बाहर खोजन जासी ।।
मृग की नाभि माँहि कस्तूरी, बन-बन फिरत उदासी ।
कहत कबीर, सुनौ भाई साधो, सहज मिले अविनासी ।।

कबीर

तू अब भी वही पुजारिन / अनिल पाण्डेय

समझने लगी है यह दुनिया, माता तू हत्यारिन
नहीं समझता कोई ऐसा तू अब भी वही पुजारिन
लड़की क्या, क्या होता बेटा सबको ममता देती है
साल-साल भर कोख में रखकर महाकर्म तू करती है
  
जनती जब तू लड़का तो घर वाले भी ख़ुश होते हैं
अन्यथा लड़की होने पर असह्य ताड़ना देते है
सास-श्वसुर के ताने-बाने, पति अवहेलना करता है
देवर, ननद, आरी-पड़ोस बांझ तुझे सब कहता है
  
दिन दिन खटवाते काम कराते हो, न हो सब कुछ करवाते
पहले तो चूल्हा बरतन ही था अब गाय, भैंस, गोरू चरवाते
नहीं अन्त है, प्रारम्भ यह दुख भरे तेरे जीवन का
देखते हैं सब, जानते हैं आनन्द उठाते तुझ मज़॔बूरन का
  
फिर भी रे तू महाप्राण! जो इन सबको सह लेती है
पिसती-मरती, सब दुख सहती पर सुख संसार को देती है
ऐसे में क्या उचित है ऐसा कि तुझ को कहें हत्यारिन
नहीं, नहीं, नहीं रे, मॉ तू अब भी वही पुजारिन॥।

अनिल पाण्डेय

उससे तो इस सदी में / अकबर इलाहाबादी

उससे तो इस सदी में नहीं हम को कुछ ग़रज़
सुक़रात बोले क्या और अरस्तू ने क्या कहा

बहरे ख़ुदा ज़नाब यह दें हम को इत्तेला
साहब का क्या जवाब था, बाबू ने क्या कहा

अकबर इलाहाबादी

देश के बारे में / अच्युतानंद मिश्र

मिलों में, मंडियों में
खेतों में
घिसटता हुआ
लुढ़कता हुआ
पहुँच रहा हूँ
पेट की शर्तों पर

हमारे संविधान में
पेट का ज़िक्र कहीं नहीं हैं
संविधान में बस
मुँह और टाँगें हैं
कभी मैं सोचता हूँ
1975 में जब तोड़ी गई थी
नाक संविधान की
उसी हादसे में
शायद मर गया हो संविधान
राशन-कार्ड हाथ में लिए
लाइनों में खड़े-खड़े
मैंने बहुत बार सोचना चाहा है
देश के बारे में,
देश के लोगों के बारे में
पर मेरे सामने
तपेदिक से खाँसते हुए
पिता का चित्र
घूम गया है

मैं जब भी कहीं
झंडा लहराता देखता हूँ
सोचने लगता हूँ
कितने झंडों के
कपड़ों को
जोड़कर
मेरी माँ की साड़ी
बन सकती है

ये सोचकर मैं
शर्मिन्दा होता हूँ
और चाहता हूँ
कि देश पिता हो जाए
मेरे सिर पर हाथ रखे
और मैं उसके सामने
फूट-फूटकर रोऊँ

मेरे जीवन के सबसे अच्छे दिन
मेरे बचपन के दिन थे
मैंने अपने बचपन के दिनों की यादें
बहुत सहेज कर रखीं हैं
पर मुझे हर वक़्त उनके खोने का डर
लगा रहता है

मैं पूछना चाहता हूँ
क्या हमारे देश में
कोई ऐसा बैंक खुला है,
जहाँ वे लोग
जो पैसा नहीं रख सकते
अपने गुज़रे हुए दिन
जमा कर सके
एकदम सुरक्षित !

अच्युतानंद मिश्र

Tuesday, December 30, 2014

हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना / ग़ालिब अयाज़

हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना
अभी सुकूँ से किए जाओं इंतिज़ार अपना

उठा लिया है हलफ़ गरचे जाँ-निसारी का
मुझे संभाल कि होता हूँ बार बार अपना

उदास आँख को है इंतिज़ार फ़स्ल-ए-मुराद
कभी तौ मौसम-ए-जाँ होगा साज़गार अपना

तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं
वहाँ तो छोड़ के आए हैं हम ग़ुबार अपना

बहुत बुलंद हुई जाती है अना की फ़सील
सो हम भी तंग किए जाते हैं हिसार अपना

हर इक चराग़ को है दुश्मनी हवा के साथ
बेचारी ले के कहाँ जाए इंतिशार अपना

ग़ालिब अयाज़

मैंने आहुति बन कर देखा / अज्ञेय

 
मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937

अज्ञेय

बुझा के मुझ में मुझे बे-कराँ बनाता है / ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

बुझा के मुझ में मुझे बे-कराँ बनाता है
वो इक अमल जो शरर को धुआँ बनाता है

न जाने कितनी अज़ीयत से ख़ुद गुज़रता है
ये ज़ख़्म तब कहीं जा कर निशां बनाता है

मैं वो शजर भी कहाँ जो उलझ के सूरज से
मुसाफिरों के लिए साएबाँ बनाता है

तू आसमाँ से कोई बादलों की छत ले आ
बरहना शाख़ पे क्या आशियाँ बनाता है

अजब नसीब सदफ़ का के उस के सीने में
गोहर न होना उसे राइगाँ बनाता है

फ़कत़ मैं रंग ही भरने का काम करता हूँ
ये नक़्श तो कोई दर्द-ए-निहाँ बनाता है

न सोच ‘शाद’ शिकस्ता-परों के बारे में
यही ख़याल-सफ़र को गिराँ बनाता है

ख़ुशबीर सिंह 'शाद'

रात देखो जा रही है / अमित

भय कहीं विश्राम लेने जा रहा है
भोर का तारा नज़र बस आ रहा है
और अब पहली किरन मुस्का रही है
रात देखो जा रही है।

फड़फड़ाये पंख पीपल के
कि पत्ते पक्षियों के
झुण्ड वापस जा रहे हैं
नगर के उपरक्षियों के
ठण्ड से सिकुड़ी हवा
मानो पुनः गति पा रही है।
रात देखो जा रही है।

मौन था अभिसार फिर भी
मुखर है अभिव्यक्ति उसकी
जागरण के चिह्न आँखों में
लटें हैं मुक्त जिसकी
भींचती रसबिम्ब
आँगन पार करती आ रही है।
रात देखो जा रही है।

यंत्र-चालित से उठे हैं हाथ
यह क्या? पार्श्व खाली
कहा दर्पण ने मिटा लो
वक्त्र से सिन्दूर, लाली
रात्रि के मधुपान की
स्मृति हृदय सहला रही है।
रात देखो जा रही है।

फिर उड़ेला चिमनियों ने
ज़हर सा वातावरण में
हुआ कोलाहल चतुर्दिक
उठो, भागो चलो रण में
स्वप्न-समिधा ,
जीविका की वेदिका सुलगा रही है।
रात देखो जा रही है।

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

नैया पड़ी मंझधार / कबीर

नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार॥

साहिब तुम मत भूलियो लाख लो भूलग जाये।
हम से तुमरे और हैं तुम सा हमरा नाहिं।
अंतरयामी एक तुम आतम के आधार।
जो तुम छोड़ो हाथ प्रभुजी कौन उतारे पार॥
गुरु बिन कैसे लागे पार॥

मैं अपराधी जन्म को मन में भरा विकार।
तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार।
अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब निवाज़।
जो मैं पूत कपूत हूं कहौं पिता की लाज॥
गुरु बिन कैसे लागे पार॥

कबीर

पानी के बाहर भी / अनूप अशेष

दिन हथकड़ियों के
बेड़ी में पाँव फँसे।।

सुबह-सुबह भी जैसे
काली रात खड़ी,
इस स्वाधीन
समय में
मुर्दा जात बड़ी।

पानी के बाहर भी
कोई जाल कसे।।

छोटों के दिन
बड़े-बड़ों के पेटों के,
भीतर धँसी
सलाखों
बाहर आखेटों के।

चीन्ह-चीन्ह कर मारा
उनके घाव हँसे।।

जिनके शासित हम
भूमंडल के पाखी,
आसमान में उनके
लटकी
अपनों की बैसाखी।

ताक़त की सत्ता में
आदम कहाँ बसे।।
अनूप अशेष

समंदर ने तुम से क्या कहा / अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

समंदर ने तुम से क्या कहा
इस्तिग़ासा के वकील ने तुम से पूछा
और तुम रोने लगीं

जनाब-ए-आली ये सवाल ग़ैर-ज़रूरी है
सफ़ाई के वकील ने तुम्हारे आँसू पोंछते हुए कहा

अदालत ने तुम्हारे वकील पर एतराज़
और तुम्हारे आँसू मुस्तरद कर दिए

आँसू रिकॉर्ड-रूम में चले गए
और तुम ने अपनी कोठरी में

ये शहर सतह-ए-समंदर से नीचे आबाद है
ये अदालतें शहर की सतह से थी नीचे
और ज़ेर-ए-समाअत मुलज़िमों की कोठरियाँ
इन से भी नीचे

कोठरी में कोई तुम्हें रेशम की एक डोर दे जाता है
तुम हर पेशी तक एक शाल बुन लेती हो
और अदालत बर्ख़ास्त हो जाने के बाद
उसे उधेड़ देती हो

ये डोर तुम्हें कहाँ से मिली
सुपरिटेंडेंट ऑफ़ प्रज़ेंस ने तुम से पूछता है
ये डोर एक शख़्स लाया था

अपने पाँव में बाँध कर
एक बला को ख़त्म करने के लिए
एक पुर-पेच रास्ते से गुज़रने के लिए

वो आदमी अब कहाँ है
ठंडे पानी में तुम्हें ग़ोता दे कर पूछा जाता है

वो आदमी रास्ता खो बैठा
समंदर ने तुम से यही कहा था

अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

तुम्हारा अंक / अरुण चन्द्र रॉय

तालिकाओं में
खोए
आँकड़ों के जाल में
उलझे-उलझे
हम

मानो अंक
अंक ना हो...

तुम्हारा अंक हो !

अरुण चन्द्र रॉय

जाओ देखो तो / अपर्णा भटनागर

जाओ, देखो तो
क्या रख आई हूँ तुम्हारी स्टडी -टेबल पर
हल्दी की छींटवाला, एक खत चोरी-भरा

पढ़ लेना समय से
खुली रहती है खिड़की कमरे की
धूप, हवा, चिड़िया से

कहीं उड़ न जाएँ
हल्दी की छींटताज़ी

आज तुम ही आना किचिन में
कॉफ़ी का मग लेने
हम्म
कई दिनों बाद उबाले हैं ढेर टेसू केसरिया
तुम्हें पुरानी फाग याद है न
मैं कुछ भूल -सी गई हूँ
कई दिनों से कुछ गुनगुनाया ही नहीं
साफ़ करती रही शीशे घर के

अपर्णा भटनागर

अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं / ख़ुमार बाराबंकवी


अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहुत ख़ुश हैं गुस्ताख़ियों पर हमारी
बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है
दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं

बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं

ख़ुमार बाराबंकवी

मैं रोज़ नींद में लोहे की धमक सुनता हूँ / अनिल करमेले

जेठ की घाम में
बन रही होती, मि‍ट्टी बोवाई के लि‍ए
तपे ढेले टूटते, लय में

उसी लय में भीमा लुहार की सांसें
फड़कती, फि‍सलती हाथों की मछलियाँ
भट्टी में तपते फाल की रंगत लि‍ए

गाँव में इकलौता लुहार था भीमा
और घर में अकेला मरद
धरती में बीज डालने के औजारों का अकेला नि‍र्माता

गाँव का पूरा लोहा
उतरते जेठ, रात के तीसरे पहर से ही
शुरू हो जाती, उसके घन की धमक
साथ ही तेज सांसों का हुंकारा
धम...ह:.धम...ह:.धम...ह:.धम...ह:.

पूरा गाँव सुनता धमक, उठता नींद से गाफि‍ल
आते आषाढ़ में वैसे भी कि‍सान को नींद कहाँ
लोग उठते और फारि‍ग हो, ले पहुँचते अपना अपना लोहा

दहकते अंगारों से भीमा की भट्टी
खि‍लखि‍ला उठती धरती की उर्वर कोख हरि‍याने
भट्टी के लाल उजाले में
देवदूत की तरह चमकता भीमा का चेहरा
घन उठता और हज़ार घोड़ों की ताक़त से
तपते लोहे पर गि‍रता
लाल कि‍रचि‍या बि‍खरतीं टूटते तारों की मानिंद
गि‍रते पसीने से छन-छन करता पकता लोहा

भीमा घन चलाता
उसकी पत्‍नी पकड़ती संड़सी से लोहे का फाल
घन गि‍रता और पत्‍नी के स्‍तन
धरती की तरह कांप जाते
जैसे बीजों के लि‍ए उनमें भी उतरता दूध

लगते आषाढ़
जि‍तनी भीड़ खेतों में होती
उतनी ही भीमा की भट्टी पर
धौकनी चलती, तपता लोहा, बनते फाल
कुँआरी धरती पर पहली बारि‍श में
बीज उतरते करते फालों को सलाम

भीमा की तड़कती देह
फि‍र अगहन की तैयारी में जुटती
बरस भर लोहा उतरता उसके भीतर
बि‍न लोहा अन्‍न और बि‍न भीमा लोहा
अब भी संभव नहीं है।

अनिल करमेले

फ़ित्ना-सामानियों की ख़ू न करे / असग़र गोण्डवी

फ़ित्ना-सामानियों[1] की ख़ू[2] न करे।
मुख़्तसर यह कि आरज़ू न करे॥

पहले हस्ती की है तलाश ज़रूर।
फिर जो गुम हो तो जुस्तजू न करे॥

मावराये-सुख़न[3] भी है कुछ बात।
बात यह है कि गुफ़्तगू न करे॥




शब्दार्थ:
  1. सांसारिक वस्तुओं
  2. इच्छा
  3. वाई का संयम
असग़र गोण्डवी

बाहर बहुत बर्फ़ है / अपर्णा भटनागर

तुम्हारे देश के उम्र की है
अपने चेहरे की सलवटों को तह कर
इत्मीनान से बैठी है
पश्मीना बालों में उलझी
समय की गर्मी

तभी सूरज गोलियाँ दागता है
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है
पर तुम घर में
कितनी मासूमियत से ढूँढ़ रही हो
काँगड़ी और कुछ कोयले जीवन के

तुम्हारी आँखों की सुइयाँ
बुन रही हैं
रेशमी शालू
कसीदे
फुलकारियाँ
दरियाँ
 
और तुम्हारी रोयें वाली भेड़
अभी-अभी देख आई है
कि चीड़ और देवदार के नीचे
झीलों में ख़ून का गंधक है
और पी आई है वह...
पानी के धोखे में सारी झेलम
अजीब सी बू में
मिमियाती
 
किसी अंदेशे को सूंघती
कानों में फुसफुसाना चाहती है
पर हलक में पड़े शब्द
चीत्कार में क़ैद
सिर्फ बिफ़रन बन
रिरियाते हैं

तुम हठात
अपनी झुर्रियों में
कस लेती हो उसे
लगता है बाहर बहुत बर्फ़ है !

अपर्णा भटनागर

ऐन / अली मोहम्मद फ़र्शी

दूसरा कौन है
कौन है साथ मेरे
अंधेरे में जिस का वजूद
अपने होने के एहसास की लौ तेज़ रखते हुए
मेरे सहमे हुए साँस की रास थामे हुए चल रहा है
दिया एक उम्मीद का जल रहा है
कहीं आबशारों के पीछे
घनी नींद जैसे अंधेरों में
सहरा की ला-सम्त पहनाई में
पाँव धँसते हुए
साँस रूक रूक के चलते हुए
कितना बोझल है वो
जिस को सहरा की इक सम्त से दूसरी सम्त में
ले के जाने पे मामूर हूँ
मैं रूकूँ तो ज़माँ गर्दिशें रोक कर बैठ जाए
आसमाँ थक के सहरा के बिस्तर पे चित गिर पड़े
चल रहा हूँ
बहुत धीमे धीमे
क़सम
छे दिनों की
मुसलसल चलूँगा
मैं बुर्राक़ से क्या जलूँगा
बस इक सोच में धँस गया था
कि ये दूसरा कौन है
कोई हारून है
या कि हारूत है

अली मोहम्मद फ़र्शी

क्या भला मुझ को परखने का नतीज़ा निकला / अहमद नदीम क़ासमी

क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला

तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला

जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला

तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला

(तिश्नगी: प्यास)

अहमद नदीम क़ासमी

चक्रान्त शिला – 19 / अज्ञेय

उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त-

वह काक चोंच से लिखता ही जाता है अविश्राम
पल-छिन, दिन-युग, भय-त्रास, व्याधि-ज्वर,
जरा-मृत्यु, बनने-मिटने के कल्प, मिलन, बिछुड़न,
गति-निगति-विलय के अन्तहीन चक्रान्त।


इस धवल शिला पर यह आलोक-स्नात,

उजला ईश्वर-योगी, अक्लान्त शान्त,
अपनी स्थिर, धीर, मन्द स्मिति से वह सारी लिखत
मिटाता जाता है। योगी!
वह स्मिति मेरे भीतर लिख दे:
मिट जाए सभी जो मिटता है।
वह अलम् होगी।
अज्ञेय

नाख़ुदा बन के लोग आते हैं / अज़ीज़ आज़ाद

नाख़ुदा बन के लोग आते हैं
ख़ुद किनारों पे डूब जाते हैं

जिनकी हालत है रहम क़ाबिल
मुझसे हमदर्दियाँ जताते हैं

क्यूँ बनाते हैं रिश्ते जन्मों के
कच्चे धागे तो टूट जाते हैं

प्यार का नाम ले के होंठों पर
क्यूँ तमाशा इसे बनाते हैं

दो क़दम साथ जो निबाह न सके
दूर के ख़्वाब क्यूँ दिखाते हैं

मैं तो उनकी भी लाज़ रख लूँगा
उँगलियाँ मुझ पे जो उठाते हैं

जिनमें एहसासे कमतरी है ‘अज़ीज़’
वो निगाहें कहाँ मिलाते हैं

अज़ीज़ आज़ाद

Monday, December 29, 2014

हर एक राज़ कह दिया बस एक जवाब ने / अशोक अंजुम

हर एक राज़ कह दिया बस एक जवाब ने
हमको सिखाया वक़्त ने, तुमको किताब ने

इस दिल में बहुत देर तलक सनसनी रही
पन्ने यूँ खोले याद के, सूखे गुलाब ने

ये खुरदुरी ज़मीन अधिक खुरदुरी लगी
उलझा दिया कुछ इस तरह जन्नत के खाब ने

हालत ने हर रंग को बदरंग कर दिया
सोंपे थे जो भी रंग हमें आफताब ने

दो झील, एक चाँद, खिले फूल, तितलियाँ
क्या-क्या छुपा रखा था तुम्हारे नकाब ने

अशोक अंजुम

बड़े लोग / अंजू शर्मा

वे बड़े थे,
बहुत बड़े,
वे बहुत ज्ञानी थे,

बड़े होने के लिए जरूरी हैं
कितनी सीढियाँ
वे गिनती जानते थे,

वे केवल बड़े बनने से
संतुष्ट नहीं थे,
उन्हें बखूबी आता था
बड़े बने रहने का भी हुनर,

वे सिद्धहस्त थे
आंकने में
अनुमानित मूल्य
इस समीकरण का,
कि कितना नीचे गिरने पर
कोई बन सकता है
कितना अधिक बड़ा ............

अंजू शर्मा

तलाश / अनुलता राज नायर

परेशां हूँ
जाने कहाँ खो सी गयी हूँ...
खोजती हूँ खुद को
यहाँ/वहां/खुद में/तुम में
हैरां हूँ..
तुम्हारे भीतर भी नहीं हूँ?
रात तुम्हारी नींद को भी टटोला....
नहीं!!!
तुम्हारे ख़्वाबों में भी नहीं

आखिर कहाँ गुम हुई मैं, तुम्हें पाने के बाद...

अनुलता राज नायर

शब्द के अर्थ ने द्वार खोला नहीं / केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’

गीत लिखकर थका, गीत गाकर थका
शब्द के अर्थ ने द्वार खोला नहीं

छंद तारे बने, छंद नभ भी बना
छंद बनती हवाएं रही रातभर
छंद बनकर उमड़ती चली निर्झरी
रह गया देखता मुग्ध पर्वत-शिखर

तीर से वीचियों का मिलन एक क्षण
छंद वह भी बना, प्यार बोला नहीं

वृक्ष की पत्तियों पर शिखा रूप् की
मुस्कुराती रही, रात ढलती गई
पाटियां पारकर आयु की हर किरन
रक्त बहता रहा-राह चलती गई।

केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

किसी से दिल की हिक़ायत कभी कहा नहीं की / फ़राज़

किसी से दिल की हिक़ायत कभी कहा नहीं की,
वगर्ना ज़िन्दगी हमने भी क्या से क्या नहीं की,

हर एक से कौन मोहब्बत निभा सकता है,
सो हमने दोस्ती-यारी तो की वफ़ा नहीं की,

शिकस्तगी में भी पिंदारे-दिल सलामत है,
कि उसके दर पे तो पहुंचे मगर सदा नहीं की,

शिक़ायत उसकी नहीं है के उसने ज़ुल्म किया,
गिला तो ये है के ज़ालिम ने इंतेहा नहीं की,

वो नादेहंद अगर था तो फिर तक़ाज़ा क्या,
के दिल तो ले गया क़ीमत मगर अदा नहीं की,

अजीब आग है चाहत की आग भी के ‘फ़राज़’,
कहीं जला नहीं की और कहीं बुझा नहीं की,

अहमद फ़राज़

सायलेंट अल्फाबेट्स / कुमार अनुपम

उनके पास
अपनी ध्वनि थी
अपनी बोली थी

फिर भी
गूंगे थे वे

स्वीकार था उन्हें
अपने स्वर का तिरस्कार
इसलिए वे
अँग्रेज़ी के अरण्य में रहते थे

कुमार अनुपम

कविर्मनीषी / अमोघ

युग द्रष्टा हूँ,
युग स्रष्टा हूँ,
मुझे नहीं यह मान्य
कि रुक महफिल में गाऊँ,
याकि किसी भी बड़ी मौत
पर लिखूँ मर्सिया
विरुदावलि गानेवाला तो
कोई चारण होगा।

कवि हूँ, नहीं बहा करता हूँ कालानिल पर
मैं त्रिकाल को मुट्ठी में कर बंद
साँस में आँधी औ तूफान लिए चलता हूँ।
रचता हूँ दुनिया गुलाब की
काँटों को भी साथ लिए चलता हूँ।

प्रदूषणों की मारी
ओ बीमार मनुजता,
मलय पवन की मदिर गंध से
मैं तेरा उपचार किया करता हूँ।

आओ, भोगवाद की जड़ता से आगे
दिव्य चेतना के प्रकाश में तुझे ले चलूँ,
चिदानंद की तरल तरंगों के झूले पर तुझे झुला दूँ,
मधु-पराग से नहा
तुम्हारे सारे-कल्मष दूर भगाऊँ
कर दूँ स्वस्थ, सबल, स्फूर्तिमय।

मेघदूत की सजल कल्पना
के झूले पर तुझे झुलाऊँ।
सुषमा के हाथों आसव,
श्रद्धा के हाथों अमिय पिलाऊँ।

आज भले तुम मूल्य
आँक लो कवि से अधिक
कार-मैकेनिक का
क्योंकि तुम्हारे कवि तो हैं बेकार;
और सरकार तुम्हारी साथ कार के
पर दशाब्दियों या
शताब्दियों बाद कहोगे
ख़ूब कह गया,
रहा नहीं बेचारा!
खोजो डीह कहाँ है,
हाँ, हाँ खोजो डीह कहाँ है?


रचनाकाल : जुलाई 1961

अमोघ नारायण झा 'अमोघ'

हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू / फ़राज़

हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू
कहाँ गया है मेरे शहर के मुसाफ़िर तू

बहुत उदास है इक शख़्स तेरे जाने से
जो हो सके तो चला आ उसी की ख़ातिर तू

मेरी मिसाल कि इक नख़्ल-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ
तेरा ख़याल कि शाख़-ए-चमन का ताइर तू

मैं जानता हूँ के दुनिया तुझे बदल देगी
मैं मानता हूँ के ऐसा नहीं बज़ाहिर तू

हँसी ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है
ये हर मक़ाम पे क्या सोचता है आख़िर तू

"फ़राज़" तूने उसे मुश्किलों में डाल दिया
ज़माना साहिब-ए-ज़र और सिर्फ़ शायर तू

अहमद फ़राज़

ख़मोशी साज़ होती जा रही है / मुल्ला

ख़मोशी साज़ होती जा रही है
नज़र आवाज़ होती जा रही है

नज़र तेरी जो इक दिल की किरन थी
ज़माना-साज़ होती जा रही है

नहीं आता समझ में शोर-ए-हस्ती
बस इक आवाज़ होती जा रही है

ख़मोशी जो कभी थी पर्दा-ए-ग़म
यही ग़म्माज़ होती जा रही है

बदी के सामने नेकी अभी तक
सिपर-अंदाज़ होती जा रही है

ग़ज़ल 'मुल्ला' तेरे सेहर-ए-बयाँ से
अजब एजाज़ होती जा रही है

आनंद नारायण मुल्ला

आजा तुझको पुकारे मेरे गीत रे / आनंद बख़्शी

 
आ जा तुझको पुकारें मेरे गीत रे, मेरे गीत रे
ओ मेरे मितवा, मेरे मीत रे, आजा ...

नाम न जानूँ तेरा देश न जानूँ
कैसे मैं भेजूँ सन्देश न जानूँ
ये फूलों की ये झूलों की, रुत न जाये बीत रे
आजा तुझको ...

तरसेगी कब तक प्यासी नज़रिया
बरसेगी कब मेरे आँगन बदरिया
तोड़ के आजा छोड़ के आजा, दुनिया की हर रीत रे
आजा तुझको ...

आनंद बख़्शी

हक मुझे बातिल आशना न करे / इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

हक मुझे बातिल आशना न करे
मैं बुतों से फिरूँ ख़ुदा न करे

दोस्ती बद-बला है उस में ख़ुदा
किसी दुश्मन को मुब्तला न करे

है वो मक़तूल काफ़िर-ए-नेमत
अपने क़ातिल को जो दुआ न करे

रू मेरे को ख़ुदा क़यामत तक
पुश्त-ए-पा से तेरी जुदा न करे

नासेहो ये भी कुछ नसीहत है
कि ‘यक़ीं’ यार से वफ़ा न करे

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं / ग़ालिब

लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं
अच्छा अगर न हो तो मसीहा का क्या इलाज

ग़ालिब

सुबह के इन्तज़ार में / अच्युतानंद मिश्र

रात के हारमोनियम पर
बजता है एक क्षीण स्वर
सीटी बजाती हुई रेलगाड़ी
दूर जाकर रूक गई है ।

बैचेन आत्माओं को
नींद कहाँ आती है ?

गुदरी से बाहर निकलती देह
ताकती है आसमान को
समय का रथ कहीं
कीचड़ में फँसा-सा लगता है
भीषण रात ये
सीने पर वज्रपात ये
कटेगी मगर रात ज़रूर
स्मृतियाँ भाप बन
थोड़ा गर्मा रही है मन को
शांत क्षणों में
काँपती हैं क्षीण कायाएँ ।

मगर अभी-अभी खुलते देखा
कुछ कोंपलों को
बढ़ रहे हैं ये
लेकर खाद पानी मिट्टी से
हम भी तो टिके हैं
इन्हीं मिट्टियों पर
खुदे न सही जुड़े तो हैं ।
कुछ बढ़ेंगे
हम ज़रूर
दुःख अभी आधा ही है
पकड़े हुए है मिट्टी
आधा दुःख
यह आधी रात
सुबह के इंतज़ार में

अच्युतानंद मिश्र

Sunday, December 28, 2014

ग़ज़ल मेरी में कोई छल नही है / अभिनव अरुण

ग़ज़ल मेरी में कोई छल नहीं है,
समस्याएं बहुत हैं हल नहीं है।

तुम्हारी फाइलें नोटों से तर हैं,
पियासे गांव में एक नल नहीं हैं।

तरक्की के नए आयाम देखो,
बुजुर्गो के लिये एक पल नहीं है।

यकीनन आज की सूरत है मुश्किल,
ये मिलकर तय करें ये कल नहीं है।

बहुत रंगीन दिखती है जो रिश्वत,
ये जेट्रोफा है कोई फल नहीं है।

तुम अपनी लिस्ट को फांसी चढा दो,
अगर उस लिस्ट में अफजल नहीं है।

समीक्षक है तो होगा अपने घर का,
मुझे खारिज करे ये बल नहीं है।

अभिनव अरुण

नज़र को आइना दिल को तेरा शाना बना देंगे / कलीम आजिज़

नज़र को आइना दिल को तेरा शाना बना देंगे
तुझे हम क्या से क्या ऐ जुल्फ-ए-जनाना बना देंगे

हमीं अच्छा है बन जाएँ सरापा सर-गुजिश्त अपनी
नहीं तो लोग जो चाहेंगे अफसाना बना देंगे

उम्मीद ऐसी न थी महफिल के अर्बाब-ए-बसीरत से
गुनाह-ए-शम्मा को भी जुर्म-ए-परवाना बना देंगे

हमें तो फिक्र दिल-साज़ी की है दिल है तो दुनिया है
सनम पहले बना दें फिर सनम-खाना बना देंगे

न इतना छेड़ कर ऐ वक्त दीवाना बना हम को
हुए दीवाने हम तो सब को दीवाना बना देंगे

न जाने कितने दिल बन जाएँगे इक दिल के टुकड़े से
वो तोड़ें आईना हम आईना-खाना बना देंगे

कलीम आजिज़

दिन चार ये रहें / अनूप अशेष

दोपहर कछार में रहें
दिन मेरे चार ये रहें।

महुआ की कूँचों से
गेहूँ की बाली तक,
शाम की महकती
करौंदे की डाली तक।
आँगन कचनार के रहें
दिन मेरे चार ये रहें।

सारस के जोड़े
डोलें अपने खेत में,
हंसिए के पाँवों
उपटे निशान रेत में।
बाँहें आभार को गहें
दिन मेरे चार ये रहें।।

छोटी-सी दुनिया
दो-पाँवों का खेलना,
गमछे में धूल भरे
अगिहाने झेलना।
पुटकी को प्यार से गहें
दिन मेरे चार ये रहें।।

अनूप अशेष

जिनको इन राहों में फूल मिले / कुमार अनिल

जिनको इन राहों में फूल मिले
              वो बहार के गीत सुनाते चले ।
जिनके पग में बस ख़ार चुभे,
              पतझर के गीत सुनाते चले ।
ये जीत के गीत सुनाते चले ,
              वो हार के गीत सुनाते चले ।
हमको तो तुम्हारा प्यार मिला,
              हम प्यार के गीत सुनाते चले ।

कुमार अनिल

थियेटर / आलोक धन्वा


पार्क की बेंच का
कोई अंत नहीं है
वह सिर्फ़ टिकी भर है पार्क में
जब कि मौजूदगी है उसकी शहर के बाहर तक

पुल की रोशनियों का
कहीं अंत नहीं हैं
मेरी रातें उनसे भरी हैं
मुझे तो मृत्यु के सामने भी
वे याद आयेंगी

लंबी चोंच वाला छोटा पक्षी कठफोड़वा
मुश्किल से दिखाई पड़ा मुझे
दो-तीन बार
पिछले दस-‍बारह वर्षों में

वह फिर दिखाई देगा
इस बार थियेटर में

थियेटर का कोई अंत नहीं है
थियेटर किसी एक इमारत का नाम नहीं है।


(1996)

आलोक धन्वा

पेड़-10 / अशोक सिंह

औरों की तरह पेडो़ को भी
ईश्वर से शिकायत है

शिकायत है कि
ईश्वर ने उसे पेड़ क्यों बनाया ?

अगर बनाया ही तो
क्यों नहीं दिए हाथ-पैर-जुबान
ताकि डटकर कुल्हाड़ियों का सामना कर सकते
कर सकते जबाब-तलब
आदमी से आदमी की तरह !

ख़ैर, जो दिया सो दिया
इतना तो कर ही सकता है ईश्वर अभी भी
कि उस आदमी के हाथों का फल-फूल
स्वीकार नहीं करे कभी
जिन हाथों ने कभी कोई फल-फूल तक के
पेड़ नहीं लगाए !

अशोक सिंह

पराजित होकर लौटा हुआ इन्सान / अरविन्द कुमार खेड़े

पराजित होकर लौटे हुए इन्सान की
कोई कथा नहीं होती है
न कोई क़िस्सा होता है
वह अपने आप में
एक जीता-जागता सवाल
होता है

वह गर्दन झुकाये बैठा रहता है
घर के बाहर
दालान के उस कोने में
जहाँ सुबह-शाम
घर की स्त्रियाँ
फेंकती है घर का सारा कूड़ा-कर्कट

उसे न भूख लगती
न प्यास लगती है
वह न जीता है
न मरता है
जिए तो मालिक की मौज
मरे तो मालिक का शुक्रिया

वह चादर के अनुपात से बाहर
फैलाए गए पाँवों की तरह होता है
जिसकी सज़ा भोगते हैं पाँव ही ।

अरविन्द कुमार खेड़े

दर्द-ए-दिल, दर्द-ए-जिगर दिल में जगाया आपने / आनंद बख़्शी

 
दर्द-ए-दिल, दर्द-ए-जिगर दिल में जगाया आपने
पहले तो मैं, शायर था, आशिक़ बनाया आपने

आपकी मद्होश नज़रें कर रहीं हैं शायरी
ये ग़ज़ल मेरी नहीं ये ग़ज़ल हैं आपकी
मैं ने तो बस वो लिखा जो कुछ लिखाया आपने
दर्द-ए-दिल ...

कब कहाँ सब खो गयी जितनी भी थी परछाइयाँ
उठ गयी यारो की महफ़िल हो गयी तन्हाइयाँ
क्या किया शायद कोई परदा गिराया आपने
दर्द-ए-दिल ...

और थोड़ी देर में बस, हम जुदा हो जायेंगे
आपको ढूँढूँगा कैसे, रास्ते खो जायेंगे
नाम तक तो भी नहीं अपना बताया आपने
दर्द-ए-दिल ...

आनंद बख़्शी

फोकिस में औदिपौस / अज्ञेय

राही, चौराहों पर बचना!
राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी
जिस की जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी
पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में

अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं:
उन की ललकारों से आदिम रुद्र-भाव जग जाते हैं,
कभी पुरानी सन्धि-वाणियाँ
और पुराने मानस की धुँधली घाटी की अन्ध गुफा को

एकाएक गुँजा जाती हैं;
काली आदिम सत्ताएँ नागिन-सी
कुचले सीस उठाती हैं-
राही शापों की गुंजलक में बँध जाता है:

फिर जिस पाप-कर्म से वह आजीवन भागा था,
वह एकाएक अनिच्छुक हाथों से सध जाता है।
राही, चौराहों से बचना!
वहाँ ठूँठ पेड़ों की ओट

घात बैठ रहती हैं जीर्ण रूढ़ियाँ
हवा में मँडराते संचित अनिष्ट, उन्माद, भ्रान्तियाँ-
जो सब, जो सब
राही के पद-रव से ही बल पा,

सहसा कस आती हैं
बिछे, तने, झूले फन्दों-सी बेपनाह!
राही, चौराहों पर बचना।

अज्ञेय

बैल मत ख़ुद को समझ / अनिरुद्ध नीरव

मुट्ठियाँ मत भींच
तनगू मुट्ठियाँ,
भूल जा सरपंच की धमकी
खड़ी बेपर्द गाली
खींच मांदर गा लगा ले ठुमकियाँ ।

बैल मत ख़ुद को समझ
हैं बैल के दो सींग भी ।
भौंकता वह
मारना मत श्वान वाली डींग भी ।

देखकर तुझको फ़कत
शरमा रही हैं बकरियाँ ।

साँवला यह मेघ-सा तन
स्वेद का सावन झरे ।
पर न कोई गड़गड़ाहट
गाज या बिजली गिरे ।

जबकि रखतीं आग हैं
मृत फास्फोरस हड्डियाँ ।

धान कब
किसने चुराया ?
जबकि तू पहरे पे था ?
चर गए
क्यों ढोर खेती ?
क्या नहीं अहरें पे था ?

तू खुरच कर सो बदन से
प्रश्न की ये चिप्पियाँ ।

अनिरुद्ध नीरव

बच्चा / अवधेश कुमार

बच्चा अपने आपसे कम से कम क्या मांग सकता है ?

एक चांद
एक शेर
किसी परीकथा में अपनी हिस्सेदारी
या आपका जूता !

आप उसे ज़्यादा से ज़्यादा क्या दे सकते हैं ?

आप उसे दे सकते हैं केवल एक चीज़ -
अपना जूता : बाक़ी तीन
चीज़ें आप क़िताब के हवाले कर देते हैं ।

कि फिर वह बच्चा ज़िन्दगी भर सोचता रह जाता है
कि अपना पैर किस में डाले
उस क़िताब में या आपके जूते में !

अवधेश कुमार

भोला शंकर-6 / कुमार सुरेश

नंगा, साँवला बच्चा
रमाये
पूरे शरीर पर
सीमेन्ट

लगता
भोला शंकर-सा।

कुमार सुरेश

गाने का अभ्यास / कुमार अनुपम

यहाँ राग-विशेष के समय की गम्भीरता है जिसके अटूट सौंदर्य से पहली पहली छेड़खानी का साहस सुर में जुट रहा है निश्शब्द के शोर के दबाव में स्वर महीन और महीन और महीन हो रहा जैसे धागे का सिरा जिसे चुप्पी की सूई में पिरो जाना है जिस तरह होना है उस तरह होने से पहले की राह है जहाँ एक उम्मीद आशंका की तरह बैठी रहती है जिसकी तलाश में एक गीत आता रहता है असहायता के गलियारे में अभ्यास का समय क्या स्लेट की चिकनी चट्टान है जिस पर चढ़ना है यहाँ हवा हवा में शामिल तमाम चीज़ें आवाज़ की सतह को धमकाती हैं बार-बार एक सृजनात्मक लय में लीन गीत नहीं काँपता आवाज़ की सतह पर गीत का चेहरा काँपता है यहीं से देखने पर दिख जाता है गीत का बिम्ब जिसे होते-होते सरासर गीत होना है

कुमार अनुपम

मैं बुरा ही सही भला न सही / 'ऐश' देलहवी

मैं बुरा ही सही भला न सही
पर तेरी कौन सी जफ़ा न सही

दर्द-ए-दिल हम तो उन से कह गुज़रे
गर उन्हों ने नहीं सुना न सही

शब-ए-ग़म में बला से शुग़ल तो है
नाला-ए-दिल मेरा रसा न सही

दिल भी अपना नहीं रहा न रहे
ये भी ऐ चर्ख़-ए-फ़ित्ना-ज़ा न सही

देख तो लेंगे वो अगर आए
ताक़त-ए-अर्ज़-ए-मुद्दआ न सही

कुछ तो आशिक़ से छेड़-छाड़ रही
कज-अदाई सही अदा न सही

क्यूँ बुरा मानते हो शिकवा मेरा
चलो बे-जा सही ब-जा न सही

उक़दा-ए-दिल हमारा या क़िस्मत
न खुला तुझ से ऐ सबा न सही

वाइज़ो बंद-ए-ख़ुदा तो है 'ऐश'
हम ने माना वो पारसा न सही

'ऐश' देलहवी

इस गाँव को उन बच्चों की नज़र से देखना है / अजेय

इस गाँव तक पहुँच गया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौडा राजमार्ग

जीभ लपलपाता
लार टपकाता एक लालची सरीसृप

पी गया है झरनों का सारा पानी
चाट गया है पेड़ों की तमाम पत्तियाँ

इस गाँव की आँखों में
झोंक दी गई है ढेर सारी धूल

इस गाँव की हरी-भरी देह
बदरंग कर दी गई है

चैन ग़ायब है
इस गाँव के मन में
सपनों की बयार नहीं
संशय का गर्दा उड़ रहा है

बड़े-बड़े डायनोसॉर घूम रहे हैं
इस गाँव के स्वप्न में
तीतर, कोयल और हिरन नहीं
दनदना रहे हैं हेलिकॉप्टर
और भीमकाय डम्पर

इस काले चिकने लम्बे-चौड़े राजमार्ग से होकर
इस गाँव में आया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौड़ा आदमी

इस गाँव के बच्चे हैरान हैं
कि इस गाँव के सभी बड़े लोग एक स्वर में
उस वाहियात आदमी को ‘बड़ा आदमी’ बतला रहे
जो उन के ‘टीपू’ खेलने की जगह पर
काला धुँआ उड़ाने वाली मशीन लगाना चाहता है !

जो उनकी खिलौना पनचक्कियों
और नन्हे गुड्डे गुड्डियों को
धकियाता रौंदता आगे निकल जाना चाहता है !

मुझे इस गाँव को
एक ‘बड़े आदमी’ की तरह डाक बंगले
या शेवेर्ले की खिड़की से नहीं देखना है

मुझे इस गाँव को
उन ‘छोटे बच्चों’ की तरह अपने
कच्चे घर के जर्जर किवाड़ों से देखना है
और महसूसना है
इन दीवारों का दरक जाना
इन पल्लों का खड़खड़ाना
इस गाँव की बुनियादों का हिल जाना !

पल-लमो, जून 7, 2010

अजेय

कबित्त (कवित्त) / इब्ने इंशा

(एक)

जले तो जलाओ गोरी,पीत का अलाव गोरी
अभी न बुझाओ गोरी, अभी से बुझाओ ना ।
पीत में बिजोग भी है, कामना का सोग भी है
पीत बुरा रोग भी है, लगे तो लगाओ ना ।।
गेसुओं की नागिनों से, बैरिनों अभागिनों से
जोगिनों बिरागिनों से, खेलती ही जाओ ना ।
आशिकों का हाल पूछो, करो तो ख़याल- पूछो
एक-दो सवाल पूछो, बात जो बढ़ाओ ना ।।

(दो)

रात को उदास देखें, चांद को निरास देखें
तुम्हें न जो पास देखें, आओ पास आओ ना ।
रूप-रंग मान दे दें, जी का ये मकान दे दें
कहो तुम्हें जान दे दें, मांग लो लजाओ ना ।।
और भी हज़ार होंगे, जो कि दावेदार होंगे
आप पे निसार होंगे, कभी आज़माओ ना ।
शे'र में 'नज़ीर' ठहरे, जोग में 'कबीर' ठहरे
कोई ये फ़क़ीर ठहरे, और जी लगाओ ना ।।

इब्ने इंशा

नया कवि / गिरिजाकुमार माथुर

जो अंधेरी रात में भभके अचानक
चमक से चकचौंध भर दे
मैं निरंतर पास आता अग्निध्वज हूँ

कड़कड़ाएँ रीढ़
बूढ़ी रूढ़ियों की
झुर्रियाँ काँपें
घुनी अनुभूतियों की
उसी नई आवाज़ की उठती गरज हूँ।

जब उलझ जाएँ
मनस गाँठें घनेरी
बोध की हो जाएँ
सब गलियाँ अंधेरी
तर्क और विवेक पर
बेसूझ जाले
मढ़ चुके जब
वैर रत परिपाटियों की
अस्मि ढेरी

जब न युग के पास रहे उपाय तीजा
तब अछूती मंज़िलों की ओर
मैं उठता कदम हूँ।

जब कि समझौता
जीने की निपट अनिवार्यता हो
परम अस्वीकार की
झुकने न वाली मैं कसम हूँ।

हो चुके हैं
सभी प्रश्नों के सभी उत्तर पुराने
खोखले हैं
व्यक्ति और समूह वाले
आत्मविज्ञापित ख़जाने
पड़ गए झूठे समन्वय
रह न सका तटस्थ कोई
वे सुरक्षा की नक़ाबें
मार्ग मध्यम के बहाने
हूँ प्रताड़ित
क्योंकि प्रश्नों के नए उत्तर दिए हैं
है परम अपराध
क्योंकि मैं लीक से इतना अलग हूँ।

सब छिपाते थे सच्चाई
जब तुरत ही सिद्धियों से
असलियत को स्थगित करते
भाग जाते उत्तरों से
कला थी सुविधा परस्ती
मूल्य केवल मस्लहत थे
मूर्ख थी निष्ठा
प्रतिष्ठा सुलभ थी आडम्बरों से
क्या करूँ
उपलब्धि की जो सहज तीखी आँच मुझमें
क्या करूँ
जो शम्भु धनु टूटा तुम्हारा
तोड़ने को मैं विवश हूँ।

गिरिजाकुमार माथुर

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ / अख़्तर नाज़्मी

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ।
या किसी और तलबगार को दे देता हूँ।

धूप को दे देता हूँ तन अपना झुलसने के लिये
और साया किसी दीवार को दे देता हूँ।

जो दुआ अपने लिये मांगनी होती है मुझे
वो दुआ भी किसी ग़मख़ार को दे देता हूँ।

मुतमइन अब भी अगर कोई नहीं है, न सही
हक़ तो मैं पहले ही हक़दार को दे देता हूँ।

जब भी लिखता हूँ मैं अफ़साना यही होता है
अपना सब कुछ किसी किरदार को दे देता हूँ।

ख़ुद को कर देता हूँ कागज़ के हवाले अक्सर
अपना चेहरा कभी अख़बार को देता हूँ ।

मेरी दुकान की चीजें नहीं बिकती नज़्मी
इतनी तफ़सील ख़रीदार को दे देता हूँ।

अख़्तर नाज़्मी

परदे हटा के देखो / अशोक चक्रधर

ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।

लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।

चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।

नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना
ये ख़ुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।

अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।

इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो।

ऐ चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो।

अशोक चक्रधर

इन्हीं ख़ुश-गुमानियों में कहीं जाँ से भी न जाओ / फ़राज़

इन्हीं ख़ुशगुमानियों में कहीं जाँ से भी न जाओ
वो जो चारागर नहीं है उसे ज़ख़्म क्यूँ दिखाओ

ये उदासियों के मौसम कहीं रायेगाँ न जाएँ
किसी ज़ख़्म को कुरेदो किसी दर्द को जगाओ

वो कहानियाँ अधूरी जो न हो सकेंगी पूरी
उन्हें मैं भी क्यूँ सुनाऊँ उन्हें तुम भी क्यूँ सुनाओ

मेरे हमसफ़र पुराने मेरे अब भी मुंतज़िर हैं
तुम्हें साथ छोड़ना है तो अभी से छोड़ जाओ

ये जुदाइयों के रस्ते बड़ी दूर तक गए हैं
जो गया वो फिर न लौटा मेरी बात मान जाओ

किसी बेवफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ "फ़राज़" कब तक
जो तुम्हें भुला चुका है उसे तुम भी भूल जाओ

अहमद फ़राज़

Saturday, December 27, 2014

एक मेरा दोस्त मुझसे फ़ासला रखने लगा / उदयप्रताप सिंह

एक मेरा दोस्त मुझसे फ़ासला रखने लगा
रुतबा पाकर कोई रिश्ता क्यों भला रखने लगा

जब से पतवारों ने मेरी नाव को धोखा दिया
मैं भँवर में तैरने का हौसला रखने लगा

मौत का अंदेशा उसके दिल से क्या जाता रहा
वह परिन्दा बिजलियों में घोसला रखने लगा

जिसकी ख़ातिर मैंने सारी दीन-दुनिया छोड़ दी
वह मेरा दिल मुझसे ही शिकवा-गिला रखने लगा

मेरी इन नाकामियों की कामयाबी देखिए
मेरा बेटा दुनियादारी की कला रखने लगा

उदयप्रताप सिंह

इक्कीसवीं सदी की सुबह / उत्पल बैनर्जी

कालचक्र में फँसी पृथ्वी
तब भी रहेगी वैसी की वैसी
अपने ध्रुवों और अक्षांशों पर
वैसी ही अवसन्न और आक्रान्त!

धूसर गलियाँ
अहिंसा सिखाते हत्यारे
असीम कमीनेपन के साथ मुस्कराते
निर्लज्ज भद्रजन,
असमय की धूप और अंधड़...
कुछ भी नहीं बदलेगा!
किसी चमत्कार की तरह नहीं आएंगे देवदूत
अकस्मात हम नहीं पहुँच सकेंगे
किसी स्वर्णिम भविष्य में
सत्ताधीशों के लाख आश्वासनों के बावजूद!

पृथ्वी रहेगी वैसी की वैसी!

रहेंगी --
पतियों से तंग आती स्त्रियाँ
फतवे मूर्खता और गणिकाएँ
बनी रहेंगी बाढ़ और अकाल की समस्याएँ
मठाधीशों की गर्वोक्तियाँ
और कभी पूरी न हो सकने वाली उम्मीदें
शिकायतें... सन्ताप...

बचे रहेंगे --
चीकट भक्ति से भयातुर देवता
सांस्कृतिक चिन्ताओं से त्रस्त
भाण्ड और मसखरे
उदरशूल से हाहाकार करते कर्मचारी!
रह जाएगा --
ज़िन्दगी से बाहर कर दी गईं
बूढ़ी औरतों का दारुण विलाप
एक-दूसरे पर लिखी गईं व्यंग्य-वार्ताओं का टुच्चापन
और विलम्वित रेलगाड़ियों का
अवसाद भरा कोरस...

तिथियों के बदलने से नहीं बदलेंगी आदतें
चेहरे बदलेंगे... रंग-रोग़न बदल जाएगा

सोचो लोगो!
आज इक्कीसवीं सदी की पहली सुबह
क्या तुम ठीक-ठीक कह सकते हो
कि हम किस सदी में जी रहे हैं?

उत्पल बैनर्जी

अनंत यात्रा / आकांक्षा पारे

अपनी कहानियों में मैंने
उतारा तुम्हारे चरित्र को
उभार नहीं पाई
उसमें तुम्हारा व्यक्तित्व।

बांधना चाहा कविताओं में
रूप तुम्हारा
पर शब्दों के दायरे में
न आ सका तुम्हारा मन

इस बार रंगों और तूलिका से
उकेर दी मैंने तुम्हारी देह

असफलता ही मेरी नियति है
तभी सूनी है वह तुम्हारी आत्मा के बिन

आकांक्षा पारे

यादें / अंजना बख्शी

यादें बेहद ख़तरनाक होती हैं
अमीना अक्सर कहा करती थी
आप नहीं जानती आपा
उन लम्हों को, जो अब अम्मी
के लिए यादें हैं...
ईशा की नमाज़ के वक़्त
अक्सर अम्मी रोया करतीं
और माँगतीं ढेरों दुआएँ
बिछड़ गए थे जो सरहद पर,
सैंतालीस के वक़्त उनके कलेजे के
टुकड़े.
उन लम्हों को आज भी
वे जीतीं दो हज़ार दस में,
वैसे ही जैसे था मंज़र
उस वक़्त का ख़ौफनाक
भयानक, जैसा कि अब
हो चला है अम्मी का
झुर्रीदार चेहरा, एकदम
भरा सरहद की रेखाओं
जैसी आड़ी-टेढ़ी कई रेखाओं
से, बोझिल, निस्तेज और
ओजहीन !

अंजना बख्शी

दाने / केदारनाथ सिंह

नहीं
हम मण्डी नहीं जाएंगे
खलिहान से उठते हुए
कहते हैं दाने॔

जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे
जाते- जाते
कहते जाते हैं दाने

अगर लौट कर आये भी
तो तुम हमे पहचान नहीं पाओगे
अपनी अन्तिम चिट्ठी में
लिख भेजते हैं दाने

इसके बाद महीनों तक
बस्ती में
कोई चिट्ठी नहीं आती।

रचनाकाल : 1984

केदारनाथ सिंह

क्रान्ति की प्रतीक्षा-8 / कमलेश

मेरे बहुत दिन नहीं गुज़रे हैं केवल उतने ही जितने
किसी दूसरी राह पर चलना अलाभदायक
कर देते हैं, और मुझे पत्थरों, पहाड़ियों, झरनों से
प्यार है हालाँकि मेरे मन में केवल
खेत आते हैं, सूखे हुए तालाब और परती की
जली हुई दूब जहाँ गाँव में
मेरा बचपन बीता है वहाँ के झोपड़े हैं और
गलियाँ हैं और सारी गन्दगी, मल और मूत्र ।

लेकिन इतिहास कभी गाँवों का बाशिन्दा
नहीं रहा, क्रान्ति हमेशा शहरों से हो कर
गुज़रती रही, मैं कैसे
दूर रहता उस मार्ग से ।

मैं शहर में रहता हूँ, अपने बनाए कष्ट
झेलता हूँ, अगली लड़ाई के क़िस्से
सोचता हूँ, दाने चुगता हूँ गगनचुम्बी अट्टालिकाओं पर
चिड़ियों के छोड़े हुए, किताबें पढ़ता हूँ,
सभाओं में जाता हूँ, प्रदर्शन करता हूँ,
बिना सर फोड़े हुए पुलिस का
जेल चला जाता हूँ ।

कमलेश

गैर को ही पर सुनाये तो सही / कविता किरण

ग़ैर को ही पर सुनाए तो सही
शेर मेरे गुनगुनाए तो सही

हाँ, नहीं हमसे, रकीबों से सही
आपने रिश्ते निभाए तो सही

किन ख़ताओं की मिली हमको सज़ा
ये कोई हमको बताए तो सही

आँख बेशक हो गई नम फिर भी हम
ज़ख़्म खाकर मुस्कुराए तो सही

याद आए हर घड़ी अल्लाह हमें
इस क़दर कोई सताए तो सही

ज़िन्दगी के तो नहीं पर मौत के
हम किसी के काम आए तो सही

कविता "किरण"

दोस्ती पर कुछ तरस खाया करो / ओम प्रकाश नदीम

दोस्ती पर कुछ तरस खाया करो ।
बेज़रूरत भी कभी आया करो ।

सोचो मैंने क्यों कही थी कोई बात,
हू-ब-हू मुझको न दोहराया करो ।

रोशनी के तुम अलमबरदार हो,
रोशनी में भी कभी आया करो ।

बर्फ़ होता जा रहा हूँ मैं ’नदीम’
मेरे ऊपर धूप का साया करो ।

ओम प्रकाश नदीम

दोहे / कैलाश गौतम

नये साल में रामजी, इतनी-सी फरियाद,
बना रहे ये आदमी, बना रहे संवाद।
नये साल में रामजी, बना रहे ये भाव,
डूबे ना हरदम, रहे पानी ऊपर नाव ।
नये साल में रामजी, इतना रखना ख्याल,
पांव ना काटे रास्ता, गिरे न सिर पर डाल।
नये साल में रामजी, करना बेड़ा पार,
मंहगाई की मार से, रोये ना त्यौहार ।
नये साल में रामजी, कहीं न हो हड़ताल,
ज्यादातर हड़ताल के, अगुवा आज दलाल।
नये साल में रामजी, बिगड़े ना भूगोल,
गैस रसोईं को मिले, गाड़ी को पेट्रोल ।
नये साल में रामजी, सुख बांटे मेहमान,
ज्यों का त्यों साबुत मिले, घर का हर सामान।
नेताओं को रामजी, देना बुद्धि विवेक,
सबका मन हो आईना, नीयत सबकी नेक।
नये साल में रामजी, कटे न मेरी बात,
रंगों की सौगात में, खुशबू हो इफ़रात ।
नये साल में रामजी, पाजी जायें जेल,
बार-बार है प्रार्थना, मिले न उनको बेल।
नये साल में रामजी, दुहरायें ना भूल,
पास न हो प्रस्ताव फिर, कोई ऊलजलूल ।
नये साल में रामजी, सपने हों साकार,
साथ भगीरथ के चले, जैसे जल की धार ।
नये साल में रामजी, ना हो भारत बंद,
हरदम छाया ही रहे, पब्लिक मे आनंद ।

कैलाश गौतम

लीला लाल गोवर्धनधर की / कृष्णदास

लीला लाल गोवर्धनधर की।
गावत सुनत अधिक रुचि उपजत रसिक कुंवर श्री राधावर की॥१॥
सात द्योस गिरिवर कर धार्यो मेटी तृषा पुरंदरदर की।
वृजजन मुदित प्रताप चरण तें खेलत हँसत निशंक निडर की॥२॥
गावत शुक शारद मुनि नारद रटत उमापति बल बल कर की।
कृष्णदास द्वारे दुलरावत मांगत जूठन नंदजू के घर की॥३॥

कृष्णदास

यात्रा / कुमार अनुपम


हम चले
तो घास ने हट कर हमें रास्ता दिया

हमारे कदमों से छोटी पड़ जाती थीं पगडंडियाँ
हम घूमते रहे घूमती हुई पगडंडियों के साथ

हमारी लगभग थकान के आगे
हाज़ी नूरुल्ला का खेत मिलता था
जिसके गन्नों ने हमें
निराश नहीं किया कभी

यह उन दिनों की बात है जब
हमारी रह देखती रहती थी
एक नदी

हमने नदी से कुछ नहीं छुपाया
नदी पर चलाये हाथ पाँव
ज़रूरी एक लड़ाई सी लड़ी

नदी ने
धारा के ख़िलाफ़
हमें तैरना सिखाय

कुमार अनुपम

कब तक? / अवनीश सिंह चौहान

दाँव लगा
कपटी शकुनी से
हार वरूँ मैं कब तक ?

कहो, तात-
विपरीत तटों का
सेतु बनूँ मैं कब तक ?
इनका-उनका
बोझा-बस्ता
पीठ धरूँ मैं कब तक ?

बड़े-बड़े
ज़ालिम पिंडों की
चोट सहूँ मैं कब तक ?

पाँव फँसाए
गहरे पानी
खड़ा रहूँ मैं कब तक ?
नीली होकर
उधड़ी चमड़ी
धार गहूँ मैं कब तक ?

कोई तो
बतलाए आकर
यहाँ रहूँ मैं कब तक ?

रोआँ-रोआँ
हाड़ कँपाती
शीत सहूँ मैं कब तक ?
बिजली, ओलों,
बारिश वाली
रात सहूँ मैं कब तक ?

बहुत हुआ,
अब और न होगा
धीर धरूँ मैं कब तक ?

अवनीश सिंह चौहान

घोड़ा और चिड़िया / केशव शरण

उसकी पूंछ की मार से
मर सकती है
वह चिड़िया
जो शरारत
या थकान से
आ बैठी है
घास चर रहे
घोड़े की पीठ पर

शायद घास बहुत स्वादिष्ट है
और घोड़ा बहुत भूखा
कि उसका सारा ध्यान
सिंर्फ चरने पर है

लेकिन चिड़िया
नहीं जानती कि
बेध्यानी में भी
कुछ ठिकाना नहीं है
घोड़े की पूंछ का

पत्थर मारकर झूठ-मूठ का
क्यों न मैं ही उड़ा दूं उसे?
000

हाथों के प्रति
ंखुद के साथ
ऐड़ी
कूल्हे
घुटने
टूटने से
बचाने के लिए
कुछ पकड़ना चाहते थे हाथ
लेकिन कुछ नहीं था
जिसे वो पकड़ लेते
पैर जब
रपट रहे थे

फिर भी
दायीं कलाई में
हल्की मोच के साथ
कामयाब रहे हाथ
ऐड़ी
कूल्हे
और घुटनों को
बचाने में
गलती के अहसास से ग्रस्त
ंखैर मनाते
अति कृतज्ञ हैं पैर
हाथों के प्रति
ऐड़ी से कूल्हे तक
और इसी क्रम में
सिर
चेहरे
और कंधों की भी
हिंफाात के लिए
जो चोटिल होते तो
णरुर लानत भेजते उन पर
000

अब सोचने से क्या
'हां' के बाद
अब कोई सवाल
नहीं उठना चाहिए
लेकिन सवाल ही सवाल
उठ रहे हैं
जिसके कारण दिमांग में उलझन है
दिल में धड़कन

अब एकदम से 'ना'
कैसे जवाब हो सकता है

अब तो समय बतायेगा
कि सिला मिलेगा कि नहीं
मिलेगा तो कब
और कितना

'हां' के पहले
नहीं सोचा तो
अब सोचने से क्या?

केशव शरण

अजूबा रंग-मंच / उमेश चौहान

बड़ा अजूबा रंग-मंच है,
बदला-बदला सबका वेश
कोई धरे मुखौटा चोखा
देता हर दर्शक को धोखा
कोई लंबे बाल संवारे
कोई है मुंडवाए केश

कोई बोले रटी-रटाई
कोई कहे ज़िगर की खाई
कोई दुमुही जैसा बोले
कोई बोले केवल श्लेष

कोई डुबो-डुबो कर खाए
कोई झूठी आस बंधाए
कोई भर घड़ियाली आँसू
हमदर्दी से आए पेश

कोई दौलत पर इतराए
कोई सत्ता पा बौराए
कोई सब्ज़-बाग दिखलाता
बेंचे लेता सारा देश

उमेश चौहान

ख़्वाब आँखों में पालते रहना / आदिल रशीद

ख़्वाब आँखों में पालते रहना
जाल दरिया में डालते रहना

ज़िंदगी पर क़िताब लिखनी है
मुझको हैरत में डालते रहना

और कई इन्किशाफ़[1] होने हैं
तुम समंदर खंगालते रहना

ख़्वाब रख देगा तेरी आँखों में
ज़िन्दगी भर संभालते रहना

तेरा दीदार[2] मेरी मंशा[3] है
उम्र भर मुझको टालते रहना
 
ज़िंदगी आँख फेर सकती है
आँख में आँख डालते रहना

तेरे एहसान भूल सकता हूँ
आग में तेल डालते रहना

मैं भी तुम पर यकीन कर लूँगा
तुम भी पानी उबालते रहना

इक तरीक़ा है कामयाबी का
ख़ुद में कमियाँ निकालते रहना

आदिल रशीद

ठहरी ये ज़िन्दगी / आशीष जोग


ठहरे हुए पानी सि थी ठहरी ये ज़िन्दगी,
पत्थर उछाल कर कोई हलचल सी कर गया |

रहता था कोई दिल में मेरे अब तलक मगर,
हैरान हूँ के दिल को तोड़ कर किधर गया |

कहने को तो जिंदा हूँ मगर लग रहा है क्यूँ,
हिस्सा मेरा कल तक जो था वो आज मर गया |

जो मैं समझ रहा था वो ये शख्स नहीं है,
आइना देख कर मैं खुद ही से ही डर गया |

वादों पे अब नहीं रहा है मेरा ऐतबार,
जिसने भी किया जाने क्यूँ वो फिर मुक़र गया |

अब तक था गुलिस्तान ये बेरंग खिजां में,
कल रात आके कौन इसमें रंग भर गया |

अच्छी भली गुज़र रही थी ज़िन्दगी मगर,
ठहरा जो घडी भर को मैं सब कुछ ठहर गया |

दिल के किसी कोने में छिपाया था कोई ख्वाब,
टूटा जो दिल तो ख्वाब वो गिर कर बिखर गया |

आशीष जोग

निर्वचन / आरसी प्रसाद सिंह

चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।
अब न झंझावात है वह अब न वह विद्रोह मेरा।

भूल जाने दो उन्हें, जो भूल जाते हैं किसी को।
भूलने वाले भला कब याद आते हैं किसी को?
टूटते हैं स्वप्न सारे, जा रहा व्यामोह मेरा।
चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।

ग्रीष्म के संताप में जो प्राण झुलसे लू-लपट से,
बाण जो चुभते हृदय में थे किसी के छल-कपट से!
अब उन्हीं चिनगारियों पर बादलों ने राग छेड़ा।
चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।

जो धधकती थी किसी दिन, शांत वह ज्वालामुखी है।
प्रेम का पीयूष पी कर हो गया जीवन सुखी है।
कालिमा बदली किरण में ; गत निशा, आया सवेरा।
चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।

आरसी प्रसाद सिंह

आखिरी बात / अजेय

आखिरी बात तो अभी कही जानी है
यह जो कुछ कहा है
आखिरी बात कहने के लिए ही कहा है।

आखिरी बात तो दोस्त
 बरसात की तरह कही जाएगी
बौछारों में
और जो परनाले चलेंगे
पिछली तमाम बातें उनमें बह जाएंगी।
बातों -बातों में बातों की
बेबुनियाद इमारतें ढह जाएंगी।
फिर उसके बाद कोई बात कहने की
ज़रूरत नहीं रह जाएगी।

आखिरी बात कह डालने के लिए ही
जिए जा रहा हूँ
जीता रहूँगा
आखिरी बात कहे जाने तक।
1999

अजेय

मजनूँ ने शहर छोड़ा है सहरा भी छोड़ दे / इक़बाल


मजनूँ ने शहर छोड़ा है सहरा भी छोड़ दे
नज़्ज़ारे[1] की हवस हो तो लैला भी छोड़ दे

वाइज़[2] कमाले-तर्क [3] से मिलती है याँ मुराद[4]
दुनिया जो छोड़ दी है तो उबक़ा[5] भी छोड़ दे

तक़लीद[6] की रविश[7] से तो बेहतर है ख़ुदकुशी
रस्ता भी ढूँढ, ख़िज़्र का सौदा [8] भी छोड़ दे

शबनम की तरह फूलों पे रो और चमन से चल
इस बाग़ में क़याम[9] का सौदा भी छोड़ दे

सौदागरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है
ऐ बेख़बर जिज़ा[10] की तमन्ना भी छोड़ दे

अच्छा है दिल के पास रहे पास्बाने-अक़्ल[11]
लेकिन कभी-कभी उसे तन्हा भी छोड़ दे

जीना वो क्या जो हो नफ़्से-ग़ैर[12] पर मदार[13]
शोहरत की ज़िन्दगी का भरोसा भी छोड़ दे

वाइज़[14] सबूत लाए जो मय[15] के जवाज़[16] में
इक़बाल को ये ज़िद है कि पीना भी छोड़ दे

अल्लामा इक़बाल

सब तुम्‍हें नहीं कर सकते प्यार / कुमार अंबुज

यह मुमकिन ही नहीं कि सब तुम्हेंत करें ‍प्यार
यह जो तुम बार-बार नाक सिकोड़ते हो
और माथे पर जो बल आते हैं
हो सकता है कि किसी एक को इस पर आए ‍प्यार
लेकिन इसी बात पर तो कई लोग चले जाएंगे तुमसे दूर
सड़क पार करने की घबराहट खाना खाने में जलदीबाजी
या जरा सी बात पर उदास होने की आदत
कई लोगों को एक साथ तुमसे ‍प्यार करने से रोक ही देगी
फिर किसी को पसंद नहीं आएगी तुम्हा्री चाल
किसी को आंखों में आंखें डालकर बात करना गुज़रेगा नागवार
चलते चलते रूककर इमली के पेड़ को देखना
एक बार फिर तुम्हामरे ख़िलाफ़ जाएगा
फिर भी यदि बहुत से लोग एक साथ कहें
कि वे सब तुमको करते हैं ‍प्यार तो रूको और सोचो
यह बात जीवन की साधरणता के विरोध में जा रही है
देखो, इस शराब का रंग नीला तो नहीं हो रहा है

तुम धीरे-धीरे अपनी तरह का जीवन जियोगे
और यह होगा ही तुम अपने ‍प्यार करने वालों को
मुश्किल में डालते चले जाओगे
जो उन्नीमस सौ चौहत्त र में और जो
उन्नी्स सौ नवासी में करते थे तुमसे प्यार
और उगते हुए पौधे की तरह देते थे पानी
जो थोड़ी सी जगह छोडकर खडे हो गए थे कि तुम्हे मिले प्रकाश

वे भी एक दिन इसलिए ख़फ़ा हो सकते हैं कि अब
तुम्हाएरे होने की परछाई उनकी जगह तक पहुंचती है
कि कुछ लोग तुम्हेह प्यार करना बंद नहीं करते
और कुछ नए लोग
तुम्हा रे खुरदरेपन की वजह से भी करने लगते हैं प्यार

उस रंगीन चिड़िया की तरफ देखो
जो कि किसी का मन मोहती है
और ठीक उसी वक़्त
एक दूसरा देखता है उसे शिकार की तरह ।

कुमार अंबुज

बन्धन / आभा बोधिसत्त्व

हेनरी फ़ोर्ट ने कहा-
बन्धन मनुष्यता का कलंक है,
दादी ने कहा-
जो सह गया समझो लह गया,
बुआ ने किस्से सुनाएँ
मर्यादा पुरुषोत्तम राम और सीता के,
तो मां ने
नइहर और सासुर के गहनों से फ़ीस भरी
कभी दो दो रुपये तो
कभी पचास- पचास भी।
मैने बन्धन के बारे मे बहुत सोचा
फिर-फिर सोचा
मै जल्दी जल्दी एक नोट लिखती हूँ,
बेटा नीद मे बोलता है,
मां मुझे प्यास लगी है।

आभा बोधिसत्त्व

Friday, December 26, 2014

यकायक / अमित कल्ला

छलकता
नेत्रों की
गहराई से ,
रिझा रिझा कर
कराता
स्वीकार
हार

तोड़ता
कैसे
न जाने
अंहकार को

वह इक
यकायक ।

अमित कल्ला

हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दार भी गया / फ़राज़

हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दर भी गया
चिराग़ को जो बचाते थे उन का घर भी गया

पुकारते रहे महफ़ूज़ किश्तियों वाले
मैं डूबता हुआ दरिया के पार उतर भी गया

अब एहतियात की दीवार क्या उठाते हो
जो चोर दिल में छुपा था वो काम कर भी गया

मैं चुप रहा कि इस में थी आफ़ियत जाँ की
कोई तो मेरी तरह था जो दार पर भी गया

सुलगते सोचते वीराँ मौसमों की तरह
कड़ा था अहद-ए-जवानी मगर गुज़र भी गया

जिसे भुला न सका उस को याद क्या रखता
जो नाम दिल में रहा ज़ेहन से उतर भी गया

फटी-फटी हुई आँखों से यूँ न देख मुझे
तुझे तलाश है जिस की वो शख़्स मर भी गया

मगर फ़लक की अदावत उसी के घर से न थी
जहाँ "फ़राज़" न था सैल-ए-ग़म उधर भी गया

अहमद फ़राज़

थोड़ी सी इस तरफ़ भी नज़र होनी चाहिए / अताउल हक़ क़ासमी

थोड़ी सी इस तरफ़ भी नज़र होनी चाहिए
ये ज़िंदगी तो मुझ से बसर होनी चाहिए

आए है लोग रात की दहलीज़ फाँद कर
उन के लिए नवेद-ए-सहर होना चाहिए

इस दर्जा पारसाई से घुटने लगा है दम
मैं हूँ बशर ख़ता-ए-बशर होनी चाहिए

वो जानता नहीं तो बताना फ़ुज़़ूल है
उस को मिरे ग़मों की ख़बर होनी चाहिए

अताउल हक़ क़ासमी

नीं बतावै / ओम पुरोहित ‘कागद’

कठै राजा
कठै परजा
कठै सत्तू-फत्तू
कठै अल्लाद्दीन दब्यो
घर सूं निकळ
थेड़ काळीबंगा रो
हाडक्यां भी मून है
नीं बतावै
आपरो दीन-धरम ।

ओम पुरोहित ‘कागद’

भय का अंधा समय / उत्‍तमराव क्षीरसागर


भय का अंधा समय
धर्म की लाठी लेकर
पार करना चाहता है
नि‍रपेक्ष रास्‍तों को

वैधानि‍क चेतावनी के बावजूद
नशे में धुत्‍त हो जाता है एक नागरि‍क
राजस्‍व प्राप्‍त कर ख़ुश है प्रशासन
नशा मुक्‍ति‍ अभि‍यान के लि‍ए
पर्याप्‍त धन पाकर ख़ुश हैं स्‍वयंसेवी संगठन

साधु-संत, पुजारी और धर्मानुयायी
पूजा-अर्चना और प्रार्थना से कारगर मानते रहे हैं
जलसा-जुलूस और आंदोलन को

अराजकता और आतंक के अनुबंध
मुँहमॉंगी कीमत पर तय हो रहे हैं
रक़म अदायगी का अनुशासन है

उत्‍तमराव क्षीरसागर

चश्मे-जहाँ से हालते अस्ली छिपी नहीं / अकबर इलाहाबादी

चश्मे जहाँ से हालते असली नहीं छुपती
अख्बार में जो चाहिए वह छाप दीजिए

दावा बहुत बड़ा है रियाजी मे आपको
तूले शबे फिराक को तो नाप दीजिए

सुनते नहीं हैं शेख नई रोशनी की बात
इंजन कि उनके कान में अब भाप दीजिए

जिस बुत के दर पे गौर से अकबर ने कह दिया
जार ही मैं देने लाया हूँ जान आप दीजिए

अकबर इलाहाबादी

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह / अकबर इलाहाबादी

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह
मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई

एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान
ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई

अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र
आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई

नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई
लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई

शब्दार्थ :
नागुफ़्ता बेह= जिसका ना कहना ही बेहतर हो;
रूबकारी=जान-पहचान
जाँनिसारी= जान क़ुर्बान करना
सैलाने-तबीयत= तबीयत की आवारागर्दी
नज्द= अरब के एक जंगल का नाम जहाँ मजनू मारा-मारा फिरता था।

अकबर इलाहाबादी

विज्ञापन / अवनीश सिंह चौहान

गटक रहे हैं
लोग यहाँ पर
विज्ञापन की गोली

एक मिनट में
दिख जाती है
दुनिया कितनी गोल
तय होता है
कहाँ -कहाँ कब
किसका कितना मोल
जाने कितने
करतब करती
विज्ञापन की टोली

चाहे या
ना चाहे कोई
मन में चाह जगाती
और रास्ता
मोड़-माड़ कर
घर अपने ले जाती
विज्ञापन की
अदा निराली-
बन जाती हमजोली

ज्ञानी अपना
ज्ञान भूलकर
मूरख बन ही जाता
मूरख तो
मूरख ही ठहरा
कहाँ कभी बच पता
सबके काँधे
धरी हुई है
विज्ञापन की डोली

अवनीश सिंह चौहान

नदी / अजेय

एक

दोस्त ,
मैं यहाँ इस किनारे
टीले पर चढ़ बैठा
कि तुम्हे उधर सागर की तरफ
बहता हुआ देखूँ.......
मज़ा तो खूब आया
लेकिन पीछे छूट गया !

1990

दो

उतरूँ
तुझ में
और तैर जाऊँ
बिन भीगे
उस पार !

2004

अजेय

गुजरात-2002 / अनिल त्रिपाठी

जल रहा है गुजरात
जल रहे हैं गाँधी
गोडसे के नववंशजों ने
मचाया है रक्तपात ।

हत्यारे ही हत्यारे
दीख रहे हैं सड़कों पर
एक विशेष समुदाय पर
गिर रही है गाज ।

फ़रमान है न बचे कोई
घर के घर, एक-एक घर में
दस से बीस को ज़िन्दा
जला रहे हैं हत्यारे ।

कौन कहे इज़्ज़त आबरू की
यहाँ तो जान पर बन आई है ।

समाज को बाँट, वोट को छाँट
रथारूढ़ रावण एक बार फिर
कर रहा है अट्टाहास
खल खल ख...ल...ख...ल ।

दिल्ली के देवताओं को
पूज लिया है उसने
उसका कोई भी नहीं
बिगाड़ सकता है कुछ भी
है यह विश्वास अटल
अ...ट...ल ।

मेरे पास कोई चारा नहीं
सिवाय इस सदिच्छा के
कि गुज़र जा रात
क़त्लोग़ारत की रात
गुज़र जा गुजरात ।

अनिल त्रिपाठी

इन दिनों... / अनुलता राज नायर

1.

इन दिनों,
सांझ ढले,आसमान से
परिंदों का जाना
और तारों का आना
अच्छा नहीं लगता
गति से स्थिर हो जाना सा
अच्छा नहीं लगता...

2.

इन दिनों,
कुछ दिनों में
बीत गए कितने दिन
मानों
ढलें हो
कई कई सूरज
हर एक शाम...
 
3.

इन दिनों
दहका पलाश
दर्द देता है...
भरमाता है
इसका चटकीला रंग
जीवन की झूठी तसल्ली देता सा...

4.

इन दिनों,
तितलियाँ नहीं करतीं
इधर का रुख...
न रंग है न महक है
इधर इन दिनों...

5.

इन दिनों,
ज़िन्दगी के हर्फ़
उल्टे दिखाई देते हैं
तकदीर आइना दिखा गयी है
ज़िन्दगी को इन दिनों!!

6.

इन दिनों,
चुन रही हूँ कांटे
जो चुभे थे तलवों पर
तुम तक आते आते...
तुम्हारे ख़याल से परे
रख रही हूँ अपना ख़याल
इन दिनों...

अनुलता राज नायर

नज़र है जलवा-ए-जानाँ है देखिए क्या हो / 'क़मर' मुरादाबादी

नज़र है जलवा-ए-जानाँ है देखिए क्या हो
शिकस्त-ए-इश्क का इम्कान है देखिए क्या हो

अभी बहार-ए-गुज़िश्ता का गम मिटा भी नहीं
फिर एहतमाम बहाराँ है देखिए क्या हो

कदम उठे भी नहीं बज्म-ए-नाज की जानिब
खयाल अभी से परेशाँ है देखिए क्या हो

किसी की राह में काँटे किसी की राह में फूल
हमारी राह में तूफाँ है देखिए क्या हो

खिरद का जोर है आराइश-ए-गुलिस्ताँ पर
जुनूँ हरीफ-ए-बहाराँ है देखिए क्या हो

जिस एक शाख पे बुनियाद है नशेमन की
वो एक शाख भी लर्जां है देखिए क्या हो

है आज बज्म में फिर इज़्न-ए-आम साकी का
‘कमर’ हनोज मुसलमाँ है देखिए क्या हो

'क़मर' मुरादाबादी

सर्दियाँ (१) / कुँअर बेचैन

छत हुई बातून वातायन मुखर हैं
सर्दियाँ हैं।

एक तुतला शोर
सड़कें कूटता है
हर गली का मौन
क्रमशः टूटता है
बालकों के खेल घर से बेख़बर हैं
सर्दियाँ हैं।

दोपहर भी
श्वेत स्वेटर बुन रही है
बहू बुड्ढी सास का दुःख
सुन रही है
बात उनकी और है जो हमउमर हैं
सर्दियाँ हैं।

चाँदनी रातें
बरफ़ की सिल्लियाँ हैं
ये सुबह, ये शाम
भीगी बिल्लियाँ हैं
साहब दफ़्तर में नहीं हैं आज घर हैं
सर्दियाँ हैं।

कुँअर बेचैन

सरोवर है श्वसन में / ओम प्रभाकर

सरोवर है
शवासन में !

हवा व्‍याकुल
गंध कन्‍धों पर धरे
वृक्ष तट के
बौखलाहट से भरे ।
मूढ़ता-सी छा रही है
मृगों के मन में !

मछलियाँ बेचैन
मछुआरे दुखी
घाट-मंदिर-देवता
सारे दुखी ।
दुखी हैं पशु गाँव में
तो पखेरू वन में ।

सरोवर है
शवासन में !

ओम प्रभाकर

ओ देस से आने वाले बता! / 'अख्तर' शीरानी

ओ देस से आने वाले बता!
क्‍या गांव में अब भी वैसी ही मस्ती भरी रातें आती हैं?
देहात में कमसिन माहवशें तालाब की जानिब जाती हैं?
और चाँद की सादा रोशनी में रंगीन तराने गाती हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
क्‍या अब भी गजर-दम1चरवाहे रेवड़ को चराने जाते हैं?
और शाम के धुंदले सायों में हमराह घरों को आते हैं?
और अपनी रंगीली बांसुरियों में इश्‍क़ के नग्‍मे गाते हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
आखिर में ये हसरत है कि बता वो ग़ारते-ईमाँ2 कैसी है?
बचपन में जो आफ़त ढाती थी वो आफ़ते-दौरां3 कैसी है?
हम दोनों थे जिसके परवाने वो शम्‍मए-शबिस्‍तां4 कैसी हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
क्‍या अब भी शहाबी आ़रिज़5 पर गेसू-ए-सियह6 बल खाते हैं?
या बहरे-शफ़क़ की7 मौजों पर8 दो नाग पड़े लहराते हैं?
और जिनकी झलक से सावन की रातों के से सपने आते हैं?

ओ देस से आने वाले बता!
अब नामे-खुदा, होगी वो जवाँ मैके में है या ससुराल गई?
दोशीज़ा है या आफ़त में उसे कमबख़्त जवानी डाल गई?
घर पर ही रही या घर से गई, ख़ुशहाल रही ख़ुशहाल गई?
ओ देस से आने वाले बता!

'अख्तर' शीरानी

दिल-ए-दीवाना अर्ज़-ए-हाल पर माइल तो क्या होगा / 'क़ाबिल' अजमेरी

दिल-ए-दीवाना अर्ज़-ए-हाल पर माइल तो क्या होगा
मगर वो पूछे बैठे खुद ही हाल-ए-दिल क्या होगा

हमारा क्या हमें तो डूबना है डूब जाएँगे
मगर तूफान जा पहुँचा लब-ए-साहिल तो क्या होगा

शराब-ए-नाब ही से होश उड़ जाते है इन्सां के
तेरा कैफ-ए-नजर भी हो गया शामिल तो क्या होगा

खिरद की रह-बरी ने तो हमें ये दिन दिखाए है
जुनूँ हो जाएगा जब रह-बर-ए-मंजिल तो क्या होगा

कोई पूछे तो साहिल पर भरोसा करने वालों से
अगर तूफाँ की ज़द में आ गया साहिल तो क्या होगा

खुद उस की जिंदगी अब उस से बरहम होती जाती है
उन्हें होगा भी पास-ए-खातिर-ए-‘काबिल’ तो क्या होगा

'क़ाबिल' अजमेरी

जीवन दैनंदिन / कुमार अनुपम

बीज को मिले अगर
करुणा-भर जल
नेह-भर खनिज
वात्सल्य-भर धरती और आकाश
तो फूटती ही है एक रोज शाख

पत्ती आसानी से हरी होती रहती है
फल रस से भरपूर होकर टपकते रहते हैं

किंतु जीवन
प्रकृतिप्रद हो तो हो
प्रकृतिवत नहीं होता कतई

बीज
पत्ती
फूल
फल
बनने के लिए जीवन
यंत्रणा की लंबी झेल से जूझता
गुजरता है एक पूरी की पूरी उम्र

रोज़

कुमार अनुपम

आधी रात को इंसाफ़ का रिवाज़ नहीं / अविनाश

किसी भी वक्त में
उस एक आदमी के ख़‍िलाफ कुछ भी नहीं कहा जा सकता
जो सबके बारे में कुछ भी कहने को आज़ाद है
और आज़ाद भारत उसके लफ़्ज़ों का इस्तिक़बाल करने को इतना मज़बूर
कि एक देश देश नहीं
बूढ़ी-बेकार-बदबूदार हड्डियां लगे

मुझे उस औरत से हमदर्दी है
जिसका जवान बेटा बंदूकों से सजी सेना वाले देश में
बेक़सूर मारा गया
दंगे में नहीं, दिल्ली की बमबारी में
और शातिर सरकार ने मुआवज़े की मुनादी की
लेकिन वो औरत उसकी हक़दार नहीं हो सकी
क्योंकि उससे और उसके पति से उसके जवान बेटे का डीएनए अलग था
मेरी हमदर्दी मुआवज़े के ख़ाक हो जाने के कारण नहीं है
है, तो इसलिए कि जवान बेटे की लाश
सरकारी ख़ज़ाने में सड़ती रही
और आवारा जला दी गयी
लेकिन आख़‍िर तक नहीं माना गया कि
एक जवान बेटा अपनी उसी मां की औलाद है
जिसकी गोद में वह बचपन से बेतक़ल्लुफ़ था

वह आदमी भी खामोश रहा
और उसकी खामोशी कई मांओं से उनके बेटे छीनती रही
वह आदमी एक नकली इंसाफ का नाटक रचता है
और जनता की जागीर सरकारों पर फिकरे कसता है
उस आदमी को चेहरे की निर्दोष चमक से ज़्यादा
ख़रीदे गये सबूतों पर यक़ीन है
उसे तो इतना भी नहीं पता
कि आंखों का पानी सदियों से नमकीन है
ये मुहावरा अगर पुराना नहीं पड़ चुका
और भाषा में अब भी असरदार है
तो सचमुच उस आदमी की थाली में छेद ही छेद हैं
मकान-दुकान की अफरात षान के उसके बरामदे में
तारीख़ें हैं, गवाह हैं, रज़िस्टर हैं, रहस्य हैं, भेद हैं

उस आदमी की औकात के आगे हमारा होना किस्सा है
नदी का बहना किस्सा है
चांद रातों की रोशनी किस्सा है
मज़दूर की मेहनत और उसके घर का बुझा हुआ चूल्हा किस्सा है
हक़ीकत सब उसकी मुट्ठी में क़ैद है
जाहिर है, क्योंकि इंसाफ की नज़र
दस से पांच के उसके सरकारी वक़्त के लिए मुस्तैद है

मेरी नन्हीं बेटी को दरिंदों ने नोच लिया है
वह दौड़ती हुई मेरे पास आकर मुझसे भी डरी हुई है
सरकार के थाने उसे लालची नज़रों से देख रहे हैं
रात के बारह बजे अंधेरे उसे नोच रहे हैं
भोर तक उसके दिल की आग... नफरत... वह खुद दफ्न हो जाएगी
और इस वक़्त इंसाफ का वह मालिक गहरी नींद में है
उसे जगाया नहीं जा सकता

आधी रात को इंसाफ का रिवाज़ नहीं है!

अविनाश

ऐ री सखी मोरे पिया घर आए / अमीर खुसरो

ऐ री सखी मोरे पिया घर आए
भाग लगे इस आँगन को
बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के, चरन लगायो निर्धन को।
मैं तो खड़ी थी आस लगाए, मेंहदी कजरा माँग सजाए।
देख सूरतिया अपने पिया की, हार गई मैं तन मन को।
जिसका पिया संग बीते सावन, उस दुल्हन की रैन सुहागन।
जिस सावन में पिया घर नाहि, आग लगे उस सावन को।
अपने पिया को मैं किस विध पाऊँ, लाज की मारी मैं तो डूबी डूबी जाऊँ
तुम ही जतन करो ऐ री सखी री, मै मन भाऊँ साजन को।

अमीर खुसरो

भेद अभेद ही रह जाये / अनुपमा त्रिपाठी

विस्मृत नहीं होती छवि
पुनः प्रकाशवान रवि
एक स्मृति है
सुख की अनुभूति है ....!!
स्वप्न की पृष्ठभूमि में
प्रखर हुआ जीवन ...!!
कनक प्रभात उदय हुई
कंचन मन आरोचन .........!!

अतीत एक आशातीत स्वप्न सा प्रतीत होता है

पीत कमल सा खिलता
निसर्ग की रग-रग में रचा बसा
वो शाश्वत प्रेम का सत्य
उत्स संजात(उत्पन्न) करता
अंतस भाव सृजित करता
प्रभाव तरंगित करता है...!!

तब शब्दों में
प्रकृति की प्रेम पातियाँ झर झर झरें
मन ले उड़ान उड़े
जब स्वप्न कमल
प्रभास से पंखुड़ी-पंखुड़ी खिलें...!!

स्वप्न में खोयी सी
किस विध समझूँ
कौन समझाये
एक हिस्सा जीवन का
एक किस्सा मेरे मन का
स्वप्न जीवन है या
जीवन ही स्वप्न है
कौन बतलाए...?
भेद अभेद ही रह जाये ...!!

अनुपमा त्रिपाठी

Thursday, December 25, 2014

ऐसा ही होता है / केशव तिवारी

पहले वे सिंह-सा दहाड़ते थे
बिगड़ैल साण्ड-सा फुफकारते थे
उन्हें भ्रम था उन्हीं के दम पर है
देश और उसका स्वाभिमान ।

अब वे सियार सा हुहुवा रहे हैं
बगलें झाँक रहे हैं ।

ऐसा ही होता है जब
कीचड़ भरे खेत में
फँसता है गरियार बैल, तब
जुआ छोड़ बैठ जाता है वहीं
फिर कुसिया से खोदने पर भी
उठता नहीं ।

केशव तिवारी

हम को गुमाँ था परियों जैसी शहजादी होगी / आलम खुर्शीद

हम को गुमाँ था परियों जैसी शहजादी होगी
किस को ख़बर थी वह भी महलों की बांदी होगी
 
काश! मुअब्बिर बतला देता पहले ही ताबीर
खुशहाली के ख़्वाब में इतनी बर्बादी होगी

सच लिक्खा था एक मुबस्सिर ने बरसों पहले
सच्चाई बातिल के दर पर फर्यादी होगी

इस ने तो सरतान की सूरत जाल बिछाए हैं
खाम ख्याली थी ये नफ़रत मीयादी होगी

इक झोंके से हिल जाती है क्यों घर की बुनियाद
इस की जड़ में चूक यक़ीनन बुनियादी होगी

इतने सारे लोग कहाँ ग़ायब हो जाते हैं
धरती के नीचे भी शायद आबादी होगी

आलम खुर्शीद

कहा करौं वह मूरति जिय ते न टरई / कुम्भनदास

कहा करौं वह मूरति जिय ते न टरई।

सुंदर नंद कुँवर के बिछुरे, निस दिन नींद न परई॥

बहु विधि मिलन प्रान प्यारे की, एक निमिष न बिसरई।

वे गुन समुझि समुझि चित नैननि नीर निरंतर ढरई॥

कछु न सुहाय तलाबेली मनु, बिरह अनल तन जरई।

'कुंभनदास लाल गिरधन बिनु, समाधान को करई।

कुम्भनदास

प्लेटफार्म पर / कुमार अनुपम

एक एक कर हमारी यात्रा के शुभेच्छु
खत्म होते अपने अपने प्लेटफार्म टिकट
के समय के साथ
लौट रहे थे
और गाड़ियाँ प्रेमिकाओं की तरह लेट थीं
 
प्रतीक्षा
मन में लू की तरह
भ्रम रट रही थी
 
एक आस्था थी
जो भीतर से हमारे
छलछला रही थी
 
बेकरार कर रही थी गर्मी
और भला खरीद-खरीद कर कोई
कितना पी सकता है पानी
 
बुकस्टॉल तो जैसे
बेड़िनों की अदा थे जिन पर
पिचके गालोंवाले कुछ लोग
फिदा थे
 
एक कुतिया लेटी थी अपनी आँखों को
अपने पंजों से ढके
जो धूप से
बचाव की एक ठीकठाक कोशिश थी
किंतु अपनाने का जिसे
अर्थ था
माँ का अचार ढोकना गँवाना जो होने के बावजूद सामान में
फिसला जा रहा था
 
यद्यपि
समेट कर सब कुछ एक दो बार
मूँदीं आँखें
और कानों से इंतजार किया
जिसे भंग किया बार बार
दूसरी गाड़ियों की आवाजों ने
 
आगे पीछे अपने अपने समय से
आ रही थीं गाड़ियाँ जा रही थीं
 
एक गाड़ी थी हमारी ही
जिसे जरूरी यात्रा से हमारी
जैसे मतलब ही नहीं था
जरा भी
चिंता ही नहीं थी
हमारे समय की
 
सबसे कठिन है इस जहान में किसी की प्रतीक्षा करना
 
हमारी प्रतीक्षा
हमारा गंतव्य कर रहा होगा।

कुमार अनुपम

एक शहर को छोड़ते हुए-2 / उदय प्रकाश

ताप्ती, एक बात है कि
एक बार मैं जहाज़ में बैठकर
अटलांटिक तक जाना चाहता था ।

इस तरह कि हवा उलटी हो
बिलकुल ख़िलाफ़
हवा भी नहीं बल्कि तूफ़ान या अंधड़
जिसमें शहतीरें टूट जाती हैं,
किवाड़ डैनों की तरह फड़फड़ाने लगते हैं,
दीवारें ढह जाती हैं और जंगल मैदान हो जाते हैं ।

मैं जाना चाहता था दरअसल
अटलांटिक के भी पार, उत्तरी ध्रुव तक,
जहाँ सफ़ेद भालू होते हैं
और रात सिक्कों जैसी चमकती हैं ।

और वहाँ किसी ऊँचे आइसबर्ग पर खड़ा होकर
मैं चिल्लाना चाहता था
कि आ ही गया हूँ आख़िरकार, मैं ताप्ती
उस सबके पार, जो मगरमच्छों की शातिर, मक़्क़ार
और भयानक दुनिया है और मेरे दिल में
भरा हुआ है बच्चों का-सा प्यार
तुम्हारे वास्ते ।

लेकिन इसका क्या किया जाए
कि मौसम ठीक नहीं था
और जहाज़ भी नहीं था
और सच बात तो ये है, ताप्ती
कि मैंने अभी तक समुद्र ही नहीं देखा !

और ताप्ती ...?
यह सिर्फ़ उस नदी का नाम है
जिसे स्कूल में मैंने बचपन की किताबों में पढ़ा था ।

उदय प्रकाश

तू मेरे सामने मैं तेरे सामने / आनंद बख़्शी

 
तू मेरे सामने मैं तेरे सामने
तुझको देखूँ कि प्यार करूँ
ये कैसे हो गया, तू मेरी हो गयी
कैसे मैं ऐतबार करूँ

टूट गई टूट के मैं चूर हो गयी
तेरी ज़िद से मज़बूर हो गयी
तेरा जादू चल गया ओ जादूगर

तेरी जुल्फ़ों से खेलूंगा मैं
तुझको बाहों मैं ले लूंगा मैं
दिल तो देते हैं आशिक़ सभी
जान भी तुझको दे दूंगा मैं

एक बार नहीं सौ बार कर ले,
जी भर के तू मुझे प्यार करले
तेरा जादू चल गया ओ जादूगर

इस कहानी के सौ साल हैं
इस कहानी के सौ साल हैं
ये तेरे प्यार के चार पल
ज़िन्दगानी के सौ साल हैं

आनंद बख़्शी

सँवारा होता / अभिज्ञात

कभी बिखरा के सँवारा तो करो
मुझपे एहसान गवारा तो करो

जिसकी सीढ़ी से कभी गिर के मरूँ
ऐसी मंज़िल का इशारा तो करो

मैं कहाँ डूब गया ये छोड़ो
तुम बहरहाल किनारा तो करो

हमको दिल से नही कोई मतलब
तुम ज़रा हँस के उजाला तो करो

अभिज्ञात

छोड़ो अब उस चराग़ का चर्चा बहुत हुआ / अहमद महफूज़

छोड़ो अब उस चराग़ का चर्चा बहुत हुआ
अपना तो सब के हाथों ख़सारा बहुत हुआ

क्या बे-सबब किसी से कहीं ऊबते हैं लोग
बावर करो के ज़िक्र तुम्हारा बहुत हुआ

बैठे रहे के तेज़ बहुत थी हवा-ए-शौक़
पस्त-ए-हवस का गरचे इरादा बहुत हुआ

आख़िर को उठ गए थे जो इक बात कह के हम
सुनते हैं फिर उसी का इआदा बहुत हुआ

मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने
सोचा तो उस ख़याल से सदमा बहुत हुआ

अच्छा तो अब सफ़र हो किसी और सम्त में
ये रोज़ ओ शब का जागना सोना बहुत हुआ

अहमद महफूज़

यह समय झरता हुआ / ओम प्रभाकर

उफ़, यह समय

झरता हुआ।


कल के बेडौल हाथों
हुए ख़ुद से त्रस्त।


कहीं कोई है

कि हममें कँपकँपी भरता हुआ।


बनते हुए ही टूटते हैं हम
पठारी नदी के तट से।
हम विवश हैं फोड़ने को
माथ अपना निजी चौखट से।


एक कोई है

हमें हर क्षण ग़लत करता हुआ।
ओम प्रभाकर

वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना / 'अज़हर' इनायती

वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना
उस को ख़त लिखना तो मेरा भी हवाला देना.

अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास
कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना.

इस क़यामत की जब उस शख़्स को आँखें दी हैं
ऐ ख़ुदा ख़्वाब भी देना तो सुनहरा देना.

अपनी तारीफ़ तो महबूब की कमज़ोरी है
अब के मिलना तो उसे एक क़सीदा देना.

है यही रस्म बड़े शहरों में वक़्त-ए-रुख़्सत
हाथ काफ़ी है हवा में यहाँ लहरा देना.

इन को क्या क़िले के अंदर की फ़ज़ाओं का पता
ये निगह-बान हैं इन को तो है पहरा देना.

पत्ते पत्ते पे नई रुत के ये लिख दें 'अज़हर'
धूप में जलते हुए जिस्मों को साया देना.

'अज़हर' इनायती

हक दो / केदारनाथ सिंह

फूल को हक दो, वह हवा को प्यार करे,
ओस, धूप, रंगों से जितना भर सके, भरे,
सिहरे, कांपे, उभरे,
और कभी किसी एक अंखुए की आहट पर
पंखुडी-पंखुडी सारी आयु नाप कर दे दे-
किसी एक अनदेखे-अनजाने क्षण को
नए फूलों के लिए!
गंध को हक दो वह उडे, बहे, घिरे, झरे, मिट जाए,
नई गंध के लिए!
बादल को हक दो- वह हर नन्हे पौधे को छांह दे, दुलारे,
फिर रेशे-रेशे में हल्की सुरधनु की पत्तियां लगा दे,
फिर कहीं भी, कहीं भी, गिरे, बरसे, घहरे, टूटे-
चुक जाए-
नए बादल के लिए!
डगर को हक दो- वह, कहीं भी, कहीं भी, किसी
वन, पर्वत, खेत, गली-गांव-चौहटे जाकर-
सौंप दे थकन अपनी,
बांहे अपनी-
नई डगर के लिए!
लहर को हक दो- वह कभी संग पुरवा के,
कभी साथ पछुवा के-
इस तट पर भी आए- उस तट पर भी जाए,
और किसी रेती पर सिर रख सो जाए
नई लहर के लिए!
व्यथा को हक दो- वह भी अपने दो नन्हे
कटे हुए डैनों पर,
आने वाले पावन भोर की किरन पहली
झेल कर बिखर जाए,
झर जाए-
नई व्यथा के लिए!
माटी को हक दो- वह भीजे, सरसे, फूटे, अंखुआए,
इन मेडों से लेकर उन मेडों तक छाए,
और कभी न हारे,
(यदि हारे)
तब भी उसके माथे पर हिले,
और हिले,
और उठती ही जाए-
यह दूब की पताका-
नए मानव के लिए!

केदारनाथ सिंह

चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ / अंजुम सलीमी

चला हवस के जहानों की सैर करता हुआ
मैं ख़ाली हाथ ख़ज़ानों की सैर करता हुआ

पुकारता है कोई डूबता हुआ साया
लरज़ते आईना-ख़ानों की सैर करता हुआ

बहुत उदास लगा आज ज़र्द-रू महताब
गली के बंद मकानों की सैर करता हुआ

मैं ख़ुद को अपनी हथेली पे ले के फिरता रहा
ख़तर के सुर्ख़ निशानों की सैर करता हुआ

कलाम कैसा चका-चौंद हो गया मैं तो
क़दीम लहजों ज़बानों की सैर करता हुआ

ज़्यादा दूर नहीं हूँ तेरे ज़माने से
मैं आ मिलूँगा ज़मानों की सैर करता हुआ

अंजुम सलीमी

हर किसी का अपना हो अंतरिक्ष / अनूप सेठी

एक अंतरिक्ष है
सब उसमें हैं

बना लें अगर हम भी अपना एक अंतरिक्ष
सब हममें हो जाएं
शुरू हों समय से पहले
फैल जाएं समय के परे

नीली स्फटिक पृथ्वी हों हम
अग्निपिंड सूर्य हो एक
झूम झूम घूमें अनवरत
टिकें रहें शून्य में भी

एक चांद हो रातों में उजास भरने वाला
बलैंया लेकर घूमे कलाएं दरसाता
किंवदंतियों सा दिखा करे छिपा करे
तयशुदा दूरी हो पर हमारा हो
इस भरोसे नींद आए

अंतरिक्ष होगा पूरा
अनगिनत जब तारे गढ़ेंगे हम
दिपदिप अंधकार में ढूंढा करेंगे
कौन है जो झिलमिलाता है
कुछ कहता है बुलाता है

किसी के शायद सितारे हो जाएं हम भी

अनगिनत लोगों के साथ
रहते हैं हम बिसर जाते हैं

जब बनाएंगे अंतरिक्ष
कोई बिसरेगा न बिछड़ेगा
अनंत की छाती पर टंकेगा
टिमटिमाएगा
इतने पास होगा हमारे

हम इतने प्यारे हो जाएंगे
कोई सितारा जगाएगा
कोई सुलाएगा
ब्रह्मांड में रहेंगे हम अनंत

(1989)

अनूप सेठी

अनाज पछोरती औरत / उर्मिला शुक्ल


सूप से अनाज पछोरती औरत
पछोर रही थी जीवन
फटकन के साथ
अलग रही थी अपने सुख और दुःख
पछोरते पछोरते
खाली हो गया था सूप
अनाज के चंद दाने ही बचे थे सूप में
वह बीन रहे थी उन्हें
कंकर पत्थर को
बिखेर बिखेर कर
ढूढ़ रहे थी दाने
फिर आँखों में छाती धुंध
में खो गया सब कुछ
सब कुछ हो गया गड्ड मड्ड
कनकर, पत्थर, दाने
और सूप भी
और वह जोर जोर से फाटक रही थी
खाली सूप
कंकर, पत्थर और दाने
कुछ भी नही है वहां
फिर भी पछोर रही है वह
खाली सूप

उर्मिला शुक्ल

ख़ुद हिजाबों सा ख़ुद जमाल सा था / 'अदा' ज़ाफ़री

ख़ुद हिजाबों सा ख़ुद जमाल सा था
दिल का आलम भी बे-मिसाल सा था

अक्स मेरा भी आइनों में नहीं
वो भी कैफ़ियत-ए-ख़याल सा था

दश्त में सामने था ख़ेमा-ए-गुल
दूरियों में अजब कमाल सा था

बे-सबब तो नहीं था आँखों में
एक मौसम के ला-ज़वाल सा था

ख़ौफ़ अँधेरों का डर उजालों से
सानेहा था तो हस्ब-ए-हाल सा था

क्या क़यामत है हुज्ला-ए-जाँ में
उस के होते हुए मलाल सा था

जिस की जानिब 'अदा' नज़र न उठी
हाल उस का भी मेरे हाल सा था

'अदा' ज़ाफ़री

ज़माने को बदलना / कुमार अनिल

पास कभी तो आकर देख
मुझको आँख उठाकर देख

याद नहीं करता, मत कर
लेकिन मुझे भुलाकर देख

सर के बल आऊँगा मै
मुझको कभी बुलाकर देख

अब तक सिर्फ गिराया है,
चल अब मुझे उठा कर देख

इन पथराई आँखों में
सपने नए सजा कर देख

हार हवा से मान नहीं
दीपक नया जला कर देख

दिल की बंजर धरती पर
कोई फूल खिलाकर देख

तेरा है अस्तित्व अलग
खुद को जरा बता कर देख

कुमार अनिल

Wednesday, December 24, 2014

भले ही मुल्क के / कमलेश भट्ट 'कमल'

भले ही मुल्क के हालात में तब्दीलियाँ कम हों
किसी सूरत गरीबों की मगर अब सिसकियाँ कम हों।

तरक्की ठीक है इसका ये मतलब तो नहीं लेकिन
धुआँ हो, चिमनियाँ हों, फूल कम हों, तितलियाँ कम हों।

फिसलते ही फिसलते आ गए नाज़ुक मुहाने तक
ज़रूरी है कि अब आगे से हमसे गल्तियाँ कम हों।

यही जो बेटियाँ हैं ये ही आख़िर कल की माँए हैं
मिलें मुश्किल से कल माँए न इतनी बेटियाँ कम हों।

दिलों को भी तो अपना काम करने का मिले मौक़ा
दिमागों ने जो पैदा की है शायद दूरियाँ कम हों।

अगर सचमुच तू दाता है कभी ऐसा भी कर ईश्वर
तेरी खैरात ज्यादा हो हमारी झोलियाँ कम हों।

कमलेश भट्ट 'कमल'

आँधरे को प्रतिबिम्ब कहा बहिरे को कहा सुर राग की तान / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

आँधरे को प्रतिबिम्ब कहा बहिरे को कहा सुर राग की तानै ।
आदी को स्वाद कहा कपि को पर नीच कहा उपकारहि मानै ।
भेड़ कहा लै करै बुकवा हरवाह जवाहिर का पहिचानै ।
जानै कहा हिंञरा रति की गति आखर की गति काखर जानै ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

अज्ञात कवि (रीतिकाल)

वो मेरे नाले का शोर ही था शब-ए-सियह की निहायतों में / अतीक उल्लाह

वो मेरे नाले का शोर ही था शब-ए-सियह की निहायतों में
मैं एक ज़र्रा इनायतों पर मैं एक गर्दिश कसाफ़तों में

गिरफ़्त और उस की कर रहा हूँ जो आब है इन बसारतों की
कमंद और उस पे फेंकता हूँ जो तह-ए-नशीं है समाअतों में

मिरे लिए शहर-ए-कज में रक्खा ही क्या है जो अपने ग़म गँवाऊँ
वो एक दामाँ बहुत है मुझ को सुकूत-अफ़्ज़ा फ़राग़तों में

मैं एक शब कितनी रातें जागा वो माह बीते कि साल गुज़रे
पहाड़ सा वक़्त काटता हूँ शुमार करता हूँ साअतों में

तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे
कहीं कहीं जो चमक रहे हैं हुरूफ़ मेरी इबारतों में

वो बोझ सर पर उठा रखा है कि जिस्म ओ जाँ तक हैं चूर जिन से
पचास बरसों की ज़िल्लतें जो हमें मिली थीं विरासतों में

अतीक उल्लाह

जो ख़ुद उदास हो, वो क्या ख़ुशी लुटाएगा / कृष्ण कुमार ‘नाज़’

जो ख़ुद उदास हो, वो क्या ख़ुशी लुटाएगा
बुझे दिये से दिया किस तरह जलाएगा
 
कमान ख़ुश है कि तीर उसका कामयाब रहा
मलाल भी है कि अब लौटकर न आएगा
 
वो बंद कमरे के गमले का फूल है यारो
वो मौसमों का भला हाल क्या बताएगा
 
मैं जानता हूँ, तेरे बाद मेरी आँखों में
बहुत दिनों तेरा अहसास झिलमिलाएगा
 
तुम उसको अपना समझ तो रहे हो ‘नाज़’ मगर
भरम, भरम है, किसी रोज़ टूट जाएगा

कृष्ण कुमार ‘नाज़’

अजनबी अपना ही साया हो गया है / कविता किरण

अजनबी अपना ही साया हो गया है
खून अपना ही पराया हो गया है

मांगता है फूल डाली से हिसाब
मुझपे क्या तेरा बकाया हो गया है

बीज बरगद में हुआ तब्दील तो
सेर भी बढ़कर सवाया हो गया है

बूँद ने सागर को शर्मिंदा किया
फिर धरा का सृजन जाया हो गया है

बात घर की घर में थी अब तक 'किरण'
राज़ अब जग पर नुमायाँ हो गया है

कविता "किरण"

कुछ छोटे सपनो के बदले / कुमार विश्वास

कुछ छोटे सपनो के बदले,
बड़ी नींद का सौदा करने,
निकल पडे हैं पांव अभागे,जाने कौन डगर ठहरेंगे !
वही प्यास के अनगढ़ मोती,
वही धूप की सुर्ख कहानी,
वही आंख में घुटकर मरती,
आंसू की खुद्दार जवानी,
हर मोहरे की मूक विवशता,चौसर के खाने क्या जाने
हार जीत तय करती है वे, आज कौन से घर ठहरेंगे
निकल पडे हैं पांव अभागे,जाने कौन डगर ठहरेंगे !

कुछ पलकों में बंद चांदनी,
कुछ होठों में कैद तराने,
मंजिल के गुमनाम भरोसे,
सपनो के लाचार बहाने,
जिनकी जिद के आगे सूरज, मोरपंख से छाया मांगे,
उन के भी दुर्दम्य इरादे, वीणा के स्वर पर ठहरेंगे
निकल पडे हैं पांव अभागे,जाने कौन डगर ठहरेंगे

कुमार विश्वास

रुखसाना का घर-6 / अनिता भारती

दंगे सिर्फ घर-बार ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ काम-धंधा ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ प्यार-स्नेह ही नही तोड़ते
दंगे सिर्फ जान-असबाब ही नही छीनते
दंगों की धार पर चढ़ती है औरतों-बच्चियों की अस्मिताएं
अगर ऐसा ना होता तो
बताओं क्यों
वे निरीह असहाय मादा के सामने
पूरे नंगे हो इशारे से दिखाते है अपना ऐठा हुआ लिंग

अनिता भारती

तू तिश्नगी की अज़िय्यत कभी फ़ुरात से पूछ / ख़ालिद मलिक ‘साहिल’

तू तिश्नगी की अज़िय्यत कभी फ़ुरात से पूछ
अँधेरी रात की हसरत अँधेरी रात से पूछ

गुज़र रही है जो दिल पर वही हक़ीक़त है
ग़म-ए-जहाँ का फ़साना ग़म-ए-हयात से पूछ

मैं अपने आप में बैठा हूँ बे-ख़बर तो नहीं
नहीं है कोई तअल्लुक़ तो अपनी ज़ात से पूछ

दुखी है शहर के लोगों से बद-मिज़ाज बहुत
जो पूछना है मोहब्बत से एहतियात से पूछ

तू अपनी ज़ात के अंदर भी झाँक ले ‘साहिल’
ज़मीं को भेद किसी रोज़ काएनात से पूछ

ख़ालिद मलिक ‘साहिल’

मैं इसलिए लिख रहा हूं / अच्युतानंद मिश्र


मैं इसलिए लिख रहा हूं

मैं इसलिए लिख रहा हूं
कि मेरे हाथ काट दिए जाएं
मैं इसलिए लिख रहा हूं
कि मेरे हाथ
तुम्हारे हाथों से मिलकर
उन हाथों को रोकें
जो इन्हें काटना चाहते हैं.

अच्युतानंद मिश्र

धमकियाँ हैं / अशोक अंजुम

धमकियाँ हैं-सच न कहना बोटियाँ कट जाएँगी।।
जो उठाओगे कभी तो उंगलियाँ कट जाएँगी।।

आरियों को दोस्तों दावत न दो सँभलो ज़रा
वरना आँगन के ये बरगद इमलियाँ कट जाएगी।

कुछ काम कर दस की उमर है बचपना अब छोड़ दे
तेरे हिस्से की नहीं तो रोटियाँ कट जाएँगी।

दौड़ता है किस तरफ़ सिर पर रखे रंगीनियाँ
ज़िंदगी के पाँव की यों एड़ियाँ कट जाएँगी।

माँ ठहर सकता नहीं अब एक पल भी गाँव में
तेरी बीमारी में यों ही छुट्टियाँ कट जाएँगी।

कुर्सियाँ बनती हैं इनसे चाहे तुम कुछ भी करो
देख लेना क़ातिलों की बेड़ियाँ कट जाएँगी।

अशोक अंजुम

जवाब-ए-शिकवा / इक़बाल

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है ।
पर नहीं, ताकत-ए-परवाज़ मगर रखती है ।
क़दसी अलासल है, रफ़ात पे नज़र रखती है ।
ख़ाक से से उठती है गर्दू पे गुज़र रखती है ।

इश्क था फ़ितनागर व सरकश व चालाक मेरा ।
आसमान चीर गया नाला-ए-बेबाक मेरा ।

पीर ए गरदू ने कहा सुन के, कहीं है कोई
बोले सयादे, रस अर्श बर ईँ है कोई ।
चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं [1] है कोई ।
कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई ।

कुछ जो समझा मेरे शकू-ए-कू तो रिज़्वान समझा ।
मुझे जन्नत से निकाला हुआ इंसान समझा ।

थी फ़रिश्तों को भी ये हैरत कि ये आवाज़ क्या है?
अर्श[2] डालों पे भी खिलता नहीं ये राज़ क्या है?

तासरे-अर्श भी इंसान की तगूताज़ है क्या ?
आ गई आग की चुटकी को भी परवाज है क्या ?

इस क़दर शोख के अल्लाह से भी बरहम है ।
था जो मस्जूद मलाएक ये वही आदम है
आलिम ए गैर है सामां ए रूजे कम है ।
हाँ मगर अजीज़ के असरार से मरहम है ।

एश्क ए बेताब से लबरेज़ है पैमाना तेरा
किस क़दर शोख जबां है दीवाना तेरा

हम सुखन कर दिया बंदों

राह दिखलाएँ किसे रहरव-ए-मंज़िल ही नहीं
जिससे तामीर हो आदम की ये वो दिल ही नहीं

ढूँञने वालों को दुनिया नई देते है
उम्मती

बुत शिकन उठ गए, बाक़ी जो रहे बुतगर है
ङरम ए काबा नया, बुत नए तुम भी नए

वो भी दिन थे

जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था

किस क़दर तुम पे
हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारे

सफ़ा-ए-दहर



थे भावा व तुम्हारे ही
हाथ पर हाथ धरे
क्या कहा दहर-ए-मुसलमां
शिकवा अगर करे

तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं
एक ही सब का नबी, दीन भी दीवान भी एक
कुछ बड़ी बात थी होते मुसलमान भी एक

किसकी आँखों में समाया है दयार-ए-अगियार

मसादि में
रहमतें रोजा जो करते है तो ग़रीब
नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब

पुख्ता खयाली न रहीं
शोला
रूह-ए-बिलाली न रहीं

मस्जिदए कि नवाजी न रहे
सहिब-ए-अल्ताफ-ए हिजाज़ी न रहे ।

अल्लामा इक़बाल

आचरण की महिमा / कबीर

चाल बकुल की चलत है, बहुरि कहावै हंस |
ते मुक्ता कैसे चुगे, पड़े काल के फंस ||


जो बगुले के आचरण में चलकर, पुनः हंस कहलाते हैं वे ज्ञान - मोती कैसे चुगेगे ? वे तो कल्पना काल में पड़े हैं |


बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल |
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल ||


सिंह का वेष पहनकर, जो भेड़ की चाल चलता तथा सियार की बोली बोलता है, उसे कुत्ता जरूर फाड़ खायेगा |


जौ मानुष ग्रह धर्म युत, राखै शील विचार |
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार ||


जो ग्रहस्थ - मनुष्य गृहस्थी धर्म - युक्त रहता, शील विचार रखता, गुरुमुख वाणियों का विवेक करता, साधु का संग करता और मन, वचन, कर्म से सेवा करता है उसी को जीवन में लाभ मिलता है |


शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव |
क्या रमता क्या बैठता, क्या ग्रह कांदला छाँव ||


निर्णय शब्द का विचार करे, ज्ञान मार्ग में पांव रखकर सत्पथ में चले, फिर चाहे रमता रहे, चाहे बैठा रहे, चाहे आश्रम में रहे, चाहे गिरि - कन्दरा में रहे और चाहे पेड की छाया में रहे - उसका कल्याण है |


गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दूख |
कहैं कबीर ता दुःख पर वारों, कोटिक सूख ||


विवेक - वैराग्य - सम्पन्न सतगुरु के समुख रहकर जो उनकी कसौटी और सेवा करने तथा आज्ञा - पालन करने का कष्ट सहता है, उस कष्ट पर करोडों सुख न्योछावर हैं |


कवि तो कोटि कोटि हैं, सिर के मूड़े कोट |
मन के मूड़े देखि करि, ता संग लिजै ओट ||


करोडों - करोडों हैं कविता करने वाले, और करोडों है सिर मुड़ाकर घूमने वाले वेषधारी, परन्तु ऐ जिज्ञासु! जिसने अपने मन को मूंड लिया हो, ऐसा विवेकी सतगुरु देखकर तू उसकी शरण ले |


बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम |
मद माया और इस्तरी, नहि सन्त के काम ||


बोली - ठोली, मस्खरी, हँसी, खेल, मद, माया एवं स्त्री संगत - ये संतों को त्यागने योग्य हैं |


भेष देख मत भूलये, बुझि लीजिये ज्ञान |
बिना कसौटी होत नहिं, कंचन की पहिचान ||


केवल उत्तम साधु वेष देखकर मत भूल जाओ, उनसे ज्ञान की बातें पूछो! बिना कसौटी के सोने की पहचान नहीं होती |


बैरागी बिरकात भला, गिरही चित्त उदार |
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताके वार न पार ||


साधु में विरक्तता और ग्रस्थ में उदार्तापूर्वक सेवा उत्तम है | यदि दोनों अपने - अपने गुणों से चूक गये, तो वे छुछे रह जाते हैं, फिर दोनों का उद्धार नहीं होता |


घर में रहै तो भक्ति करू, नातरू करू बैराग |
बैरागी बन्धन करै, ताका बड़ा अभागा ||


साधु घर में रहे तो गुरु की भक्ति करनी चहिये, अन्येथा घर त्याग कर वेराग्ये करना चहिये | यदि विरक्त पुनः बंधनों का काम करे, तो उसका महान सुर्भाग्य है |


धारा तो दोनों भली, विरही के बैराग |
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ||


धारा तो दोनों अच्छी हैं, क्या ग्रास्थी क्या वैराग्याश्रम! ग्रस्थ सन्त को गुरु की सेवकाई करनी चहिये और विरक्त को वैराग्यनिष्ट होना चहिये |

कबीर

ज़ख्म ऐसा जिसे खाने को मचल जाओगे / कविता किरण

ज़ख्म ऐसा जिसे खाने को मचल जाओगे
इश्क की राहगुज़र पे न संभल पाओगे

मैं अँधेरा सही सूरज को है देखा बरसों
मेरी आँखों में अगर झांकोगे जल जाओगे

मैंने माना कि हो पहुंचे हुए फनकार मगर
एक दिन मेरी किताबों से ग़ज़ल गाओगे

इतना कमसिन है मेरे नगमों का ये ताजमहल
तुम भी देखोगे तो ऐ दोस्त! मचल जाओगे

ऐ 'किरण' चाँद से कह दो कि न इतरो इतना
रात-भर चमकोगे कल सुबह तो ढल जाओगे

कविता "किरण"

सकी मुख सफ़हे पर तेरे लिखिया राक़िम मलक मिसरा / क़ुली 'क़ुतुब' शाह

सकी मुख सफ़हे पर तेरे लिखिया राक़िम मलक मिसरा
ख़फी ख़त सूँ लिखिया नाज़ुक तेरे दोनों पलक मिसरा

क़लम ले कर जली लिखिया जो कुछ भी ना सकें लिखने
लिखिया है वो कधिन मुख तेरे सफहे पर अलक मिसरा

सू लिख लिख कर परेशाँ हो क़लम लट आप कहते हैं
मुक़ाबिल उस के होसे न लिखेंगे गर दो लक मिसरा

बज़ाँ कर देख मुख धुन का दवानी हो बहाने सूँ
किए सब ख़ुश-नवेसाँ सट क़लम लिख नईं न सक मिसरा

क़लम मुखड़े सूँ नासिक ले लीखे है लब का सुर्ख़ी सूँ
जो कुई भी देख कहते हैं लिखिया है कया ख़ुबक मिसरा

सकी के कुच पे नाज़ुक ख़त न बूझे कोई किने लिखिया
‘कुतुब’ कूँ पूछते तो यूँ के लिखिया है मेरा नक मिसरा

क़ुली 'क़ुतुब' शाह