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Saturday, December 27, 2014

कब तक? / अवनीश सिंह चौहान

दाँव लगा
कपटी शकुनी से
हार वरूँ मैं कब तक ?

कहो, तात-
विपरीत तटों का
सेतु बनूँ मैं कब तक ?
इनका-उनका
बोझा-बस्ता
पीठ धरूँ मैं कब तक ?

बड़े-बड़े
ज़ालिम पिंडों की
चोट सहूँ मैं कब तक ?

पाँव फँसाए
गहरे पानी
खड़ा रहूँ मैं कब तक ?
नीली होकर
उधड़ी चमड़ी
धार गहूँ मैं कब तक ?

कोई तो
बतलाए आकर
यहाँ रहूँ मैं कब तक ?

रोआँ-रोआँ
हाड़ कँपाती
शीत सहूँ मैं कब तक ?
बिजली, ओलों,
बारिश वाली
रात सहूँ मैं कब तक ?

बहुत हुआ,
अब और न होगा
धीर धरूँ मैं कब तक ?

अवनीश सिंह चौहान

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