दाँव लगा
कपटी शकुनी से
हार वरूँ मैं कब तक ?
कहो, तात-
विपरीत तटों का
सेतु बनूँ मैं कब तक ?
इनका-उनका
बोझा-बस्ता
पीठ धरूँ मैं कब तक ?
बड़े-बड़े
ज़ालिम पिंडों की
चोट सहूँ मैं कब तक ?
पाँव फँसाए
गहरे पानी
खड़ा रहूँ मैं कब तक ?
नीली होकर
उधड़ी चमड़ी
धार गहूँ मैं कब तक ?
कोई तो
बतलाए आकर
यहाँ रहूँ मैं कब तक ?
रोआँ-रोआँ
हाड़ कँपाती
शीत सहूँ मैं कब तक ?
बिजली, ओलों,
बारिश वाली
रात सहूँ मैं कब तक ?
बहुत हुआ,
अब और न होगा
धीर धरूँ मैं कब तक ?
Saturday, December 27, 2014
कब तक? / अवनीश सिंह चौहान
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