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Sunday, December 28, 2014

फोकिस में औदिपौस / अज्ञेय

राही, चौराहों पर बचना!
राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी
जिस की जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी
पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में

अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं:
उन की ललकारों से आदिम रुद्र-भाव जग जाते हैं,
कभी पुरानी सन्धि-वाणियाँ
और पुराने मानस की धुँधली घाटी की अन्ध गुफा को

एकाएक गुँजा जाती हैं;
काली आदिम सत्ताएँ नागिन-सी
कुचले सीस उठाती हैं-
राही शापों की गुंजलक में बँध जाता है:

फिर जिस पाप-कर्म से वह आजीवन भागा था,
वह एकाएक अनिच्छुक हाथों से सध जाता है।
राही, चौराहों से बचना!
वहाँ ठूँठ पेड़ों की ओट

घात बैठ रहती हैं जीर्ण रूढ़ियाँ
हवा में मँडराते संचित अनिष्ट, उन्माद, भ्रान्तियाँ-
जो सब, जो सब
राही के पद-रव से ही बल पा,

सहसा कस आती हैं
बिछे, तने, झूले फन्दों-सी बेपनाह!
राही, चौराहों पर बचना।

अज्ञेय

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