गटक रहे हैं
लोग यहाँ पर
विज्ञापन की गोली
एक मिनट में
दिख जाती है
दुनिया कितनी गोल
तय होता है
कहाँ -कहाँ कब
किसका कितना मोल
जाने कितने
करतब करती
विज्ञापन की टोली
चाहे या
ना चाहे कोई
मन में चाह जगाती
और रास्ता
मोड़-माड़ कर
घर अपने ले जाती
विज्ञापन की
अदा निराली-
बन जाती हमजोली
ज्ञानी अपना
ज्ञान भूलकर
मूरख बन ही जाता
मूरख तो
मूरख ही ठहरा
कहाँ कभी बच पता
सबके काँधे
धरी हुई है
विज्ञापन की डोली
Friday, December 26, 2014
विज्ञापन / अवनीश सिंह चौहान
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