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Monday, September 30, 2013

घर-2 / अरुण देव

मिट्टी ने कहा जल से थोड़ी देर के लिए बस जाओ मेरी देह में
फिर दोनों निर्वस्त्र खड़े हो गए सूरज के सामने
कि पता ही नहीं चलता था कि पानी ने कहाँ-कहाँ गढ़ा है उसे
कि पानी के आकार में ख़ुद वह ढल गया है कि
पानी ने उसके अन्दर तान लिया है अपना होना
कि तयशुदा आकार में दोनों कैसे एक साथ ढल गए होंगे
सूरज तपता रहा उनके बीच
पकती रही ईंट

अरुण देव

कहानियाँ भी गईं, क़िस्सा ख़्वानियाँ भी गईं / किश्वर नाहिद

कहानियाँ भी गईं क़िस्सा_ख़्वानियाँ भी गईं
वफ़ा के बाब की सब बेज़ुबानियाँ भी गईं

वो बेज़ियाबी-ए-गम की सबिल भी न रही
लूटा यूँ दिल की सभी बे-सबातियाँ भी गईं

हवा चली तो हरे पत्ते सूख कर टूटे
वो सुबह आई तो हैरां नूमानियाँ भी गईं

वे मेरा चेहरा मुझे आईने में अपना लगे
उसी तलब में बदन की निशानियाँ भी गईं

पलट-पलट के तुम्हें देखा पर मिले भी नहीं
वो अहद-ए-ज़ब्त भी टूटा, शिताबियाँ भी गईं

मुझे तो आँख झपकना भी था गराँ लेकिन
दिल-ओ-नज़र की तसव्वुर_शीआरियाँ भी गईं

किश्वर नाहिद

भक्त इच्छा पूरन श्री यमुने जु करता / कुम्भनदास

भक्त इच्छा पूरन श्री यमुने जु करता ।
बिना मांगे हु देत कहां लौ कहों हेत, जैसे काहु को कोऊ होय धरता ॥१॥
श्री यमुना पुलिन रास, ब्रज बधू लिये पास, मन्द मन्द हास कर मन जू हरता ।
कुम्भन दास लाल गिरिधरन मुख निरखत, यही जिय लेखत श्री यमुने जु भरता ॥२॥

कुम्भनदास

एक माहिया / अजन्ता देव

ये अब्र पुराने हैं
बरसेंगे यहीं आकर
मेरा घर जाने हैं

अजन्ता देव

चक्रान्त शिला – 4 / अज्ञेय

किरण जब मुझ पर झरी मैं ने कहा

मैं वज्र कठोर हूँ-पत्थर सनातन।
किरण बोली: भला? ऐसा!
तुम्हीं को तो खोजती थी मैं


तुम्हीं से मन्दिर गढ़ूँगी

तुम्हारे अन्तःकरण से
तेज की प्रतिमा उकेरूँगी।
स्तब्ध मुझ को किरण ने
अनुराग से दुलरा लिया।
अज्ञेय

कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी, सो मैंने जीवन वार दिया / उबैदुल्लाह 'अलीम'

कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी, सो मैंने जीवन वार दिया
मैं कैसा ज़िंदा आदमी था, एक शख्स ने मुझको मार दिया

एक सब्ज़ शाख गुलाब की था, एक दुनिया अपने ख़्वाब की था
वो एक बहार जो आई नहीं उसके लिए सब कुछ वार दिया

ये सजा सजाया घर साथी, मेरी ज़ात नहीं मेरा हाल नहीं
ए काश तुम कभी जान सको, जो इस सुख ने आज़ार दिया

मैं खुली हुई सच्चाई, मुझे जानने वाले जानते हैं
मैंने किन लोगों से नफरत की और किन लोगों को प्यार दिया

वो इश्क़ बोहत मुश्किल था, मगर आसान न था यूं जीना भी
उस इश्क़ ने ज़िंदा रहने का मुझे ज़र्फ दिया, पिन्दार दिया

मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूट कर देखता हूँ
उन लोगों पर जिन लोगों ने मेरी लोगों को आज़ार दिया

मेरे बच्चों को अल्लाह रखे, इन ताज़ा हवा के झोकों ने
मैं खुश्क पेड खिज़ां का था, मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया

उबैदुल्लाह 'अलीम'