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Friday, February 28, 2014

कामना / अशोक चक्रधर

सुदूर कामना
सारी ऊर्जाएं
सारी क्षमताएं खोने पर,
यानि कि
बहुत बहुत
बहुत बूढ़ा होने पर,
एक दिन चाहूंगा
कि तू मर जाए।
(इसलिए नहीं बताया
कि तू डर जाए।)

हां उस दिन
अपने हाथों से
तेरा संस्कार करुंगा,
उसके ठीक एक महीने बाद
मैं मरूंगा।
उस दिन मैं
तुझ मरी हुई का
सौंदर्य देखूंगा,
तेरे स्थाई मौन से सुनूंगा।

क़रीब,
और क़रीब जाते हुए
पहले मस्तक
और अंतिम तौर पर
चरण चूमूंगा।
अपनी बुढ़िया की
झुर्रियों के साथ-साथ
उसकी एक-एक ख़ूबी गिनूंगा
उंगलियों से।
झुर्रियों से ज़्यादा
ख़ूबियां होंगी
और फिर गिनते-गिनते
गिनते-गिनते
उंगलियां कांपने लगेंगी
अंगूठा थक जाएगा।

फिर मन-मन में गिनूंगा
पूरे महीने गिनता रहूंगा
बहुत कम सोउंगा,
और छिपकर नहीं
अपने बेटे-बेटी
पोते-पोतियों के सामने
आंसुओं से रोऊंगा।

एक महीना
हालांकि ज़्यादा है
पर मरना चाहूंगा
एक महीने ही बाद,
और उस दौरान
ताज़ा करूंगा
तेरी एक-एक याद।

आस्तिक हो जाऊंगा
एक महीने के लिए
बस तेरा नाम जपूंगा
और ढोऊंगा
फालतू जीवन का साक्षात् बोझ
हर पल तीसों रोज़।

इन तीस दिनों में
काग़ज़ नहीं छूउंगा
क़लम नहीं छूउंगा
अख़बार नहीं पढूंगा
संगीत नहीं सुनूंगा
बस अपने भीतर
तुझी को गुंजाउंगा
और तीसवीं रात के
गहन सन्नाटे में
खटाक से मर जाउंगा।

अशोक चक्रधर

शे’र-ओ-सुखन / कलीम आजिज़

1.
वह शेर था जिसे कभी लाल किले के मुशायरे में आजिज़ साहब के मुँह से सुनकर इन्दिरा गांधी बिदक गई थीं!

दिन एक सितम एक सितम रात करो हो,
क्या दोस्त हो दुश्मन को भी तुम मात करो हो।
दामन पे कोई छींट, न खंजर पे कोई दाग़,
तुम क़त्ल करो हो, के करामात करो हो।

2.
सुलगना और शै है जल के मर जाने से क्या होगा
जो हमसे हो रहा है काम परवाने से क्या होगा।

3.
बहुत दुश्वार समझाना है ग़म का समझ लेने में दुश्वारी नहीं है।
वो आएं क़त्ल को जिस रोज़ चाहें यहाँ किस रोज़ तैयारी नहीं है।

4.
मरकर भी दिखा देंगे तेरे चाहनेवाले
मरना कोई जीने से बड़ा काम नही है।

5.
मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे
तहज़ीब सलीक़े की इन्सान क़रीने के।

6.
ये पुकार सारे चमन में थी, वो सेहर-हुई, वो सेहर हुई
मेरे आशियाँ से धुआँ उठा तो मुझे भी इसकी ख़बर हुई।

कलीम आजिज़

कहीं भी रह लेना उर्फ एक सूफी लघु कथा / अजेय

कहीं भी रह लेना उर्फ एक लम्बी लघुकथा

चुप्पा आदमी

उस चुप्पे आदमी को ध्यान से देखो
जब उकड़ूँ हो कर बीड़ी चूसता है
तब उस की आँखें पैंतालीस डिग्री के कोण पर
सड़क को घूरती हैं

यह उस के रहने की जगह है
और यही उस के रहने का तरीक़ा

जगमगाती दुकान के सामने की यह जगह उस का गाँव है
और बीड़ी चूसते हुए
अपने पाँव तले की ज़मीन को ताकना
उस की संस्कृति
वह चुप्पा आदमी वहाँ इस लिए है
कि जो कुछ भी वह पीछे छोड़ आया है
उस मे जन्नत जैसा कुछ भी नही था

उस आदमी के इस तरह से ज़मीन को ताकने मे
कोई मलाल नहीं है
उस के इस तरह से बीड़ी चूसने मे भी
कोई पछतावा नही है

न तो उस की मुचड़ी हुई थैली मे
पिछले कल की कोई खुरचन है
न ही बगल मे पड़े अधखुले छाते मे
बीती दुपहर की चुभती किरचें हैं
आज रात की पाव भर ताज़ा सब्ज़ी है वहाँ
और कुछ हरी मिरचें है
और आज शाम की सम्भावित बूँदा बाँदी है

जल्द ही तुम्हे अन्दाज़ा हो जाएगा
कि उस के सिकुड़े हुए सीने मे एक लम्बी पुरानी हूक है
जिसे दबाने में वह अपनी सारी ताक़त लगाए रखता है




तेंदुआ

पर तुम यह मत पूछ् लेना
उसे बेचारा मान कर
कि वह वहाँ कैसे रह लेता है


उस चुप्पे आदमी से यह पूछना ऐसा ही है
जैसे किसी तेंदुए से यह पूछना
कि वह कहीं भी कैसे रह लेता है

मत पूछना कि
उसे वहाँ जाने की
और उस तरह से रहने की क्या ज़रूरत है

क्यों कि कुछ लोग
आदतन कुछ खास जगहों पर रहते हैं
 
और कुछ दूसरे
आदतन ही , कहीं भी रह लेते हैं

चाहो तो किसी भी मस्त तेंदुए से पूछ कर देख लेना तुम
कि क्या उस के अतीत मे कोई छूटा हुआ बहिश्त है ?
कि क्या उस के भविष्य मे कोई खुशबूदार हवा है ?
वह हँसेगा
और कहेगा कि उस के चिपके हुए पेट में एक बहुत पुरानी भूख है
और उस की माँस पेशियाँ
उस भूख को दबोचने के लिए फडकती रहतीं हैं
उस के बाद वह तेंदुआ चैन की नींद सो जाएगा
चाहे किसी जंगली पेड़ की डाल हो
या शहर का ही कोई अँधेरा कोना
जहाँ कोई बिरला ही आता जाता है
जहाँ जाने से हर चुप्पा आदमी कतराता है
कि उस के अन्दर का चुप
उस बियावान के सामने हेठा न लगने लगे



जंगल का राजा

जैसा कि हम सब ने सुन रखा है
तुम ने भी सुना होगा कि उस बियाबान पर
एक शेर की नज़र गड़ी रहती है
वहाँ एक शेर दम साधे खड़ा रहता है
 
वह बियाबान उस शेर की चुनी हुई जगह होती है
क्यों कि एक शेर चाहते हुए भी
कहीं भी रह लेने की छूट नहीं ले सकता
क्यों कि शेर बने रहने के लिए
ज़रूरी है कि वह सब को नज़र में रक्खे
पर खुद किसी को नज़र न आए
और इस तरह बेहिसाब गणनाएं करनी होती हैं उसे
अपने रहने की जगह तय करने में
और इस तरह बे हिसाब ऊर्जा लग जाती है
एक शेर को शेर बने रहने में

शेर बने रहना
यानि आँखों में हर पल खून उतारे रखना
शेर बने रहना
यानि कंधों की पेशियों को
पेड़ की जड़ों की तरह जकड़े रखना
शेर बने रहना
यानि गरदन की नसों को
पुल के तारों की तरह ताने रखना

क्यों कि शेर बने रहना
यानि ज़रूरत से ज़्यादा जगह घेरे रखना
और लगातार अपनी चीज़ों पर नज़र गड़ाए रखना
और लगातार अपने बियाबानो की सीमाएं फैलाना
शेर बने रहना यानि शेर ही बने रहना
जो कि राजा होता है जंगल का
या कहीं का भी ; जहाँ रहना उसे पसन्द है......

ऐसे में कहाँ वह हमेशा एक शेर बने रह पाता होगा ?
जब जब कोई पुराना शेर चुकने लगता होगा
तब तब कोई नया शेर उगने लगता होगा




इस कहानी का अंत कैसा हो ?

तो किस्सा कोताह यह कि
उस खर्च होते हुए शेर की आँखों के सामने
अचानक एक रूमानी शाम आ गई है
गुनगुनी बारिशों वाली !

और वह तेंदुआ उस चुप्पा आदमी के हाथ मे हाथ डाले
उन बियाबानों मे टहल रहा है
और चट्टियाँ मारते हुए दोनो चहकने लग जाते हैं
कहीं भी रह लेने की
अपनी इस नायाब फितरत पर इतराते हुए !

जंगल का राजा यह सब देख कर हो सकता है
जल भुन कर गुर्राने लग जाए
नज़री चश्मे की मोटी लेंस पर जम जाती धुन्ध को
बार बार रगड़ते हुए मोटी मोटी गालियाँ बकने लगे

कि मेरे शेर होते हुए भी
मादर चो ....... इन मूरख चिरकुट जीवों को यह अद्भुत शाम
मुफ्त मे ही मिल गई
और ज़रा देर बाद चुप भी हो जाए
यह जान कर कि
ऐसी शामें चुप्पा आदमियों और तेंदुओं की ही होती हैं
जिन्हो ने कभी शेर बनना नहीं चाहा
और यह जान कर तिलमिला उठे कि
जिन्हे शेर बनना ही पसन्द नहीं
उन का कोई शेर उखाड़ भी क्या सकता है ?

ऐसा होते होते
हो सकता है एक दिन अचानक
किसी शेर को यह खयाल भी आ जाय
कि इतने दिन वह खुद नाहक़ एक शेर बना रहा !!


कुल्लू , फरवरी 14, 2012.--~~~~

अजेय

स्त्री / इला प्रसाद

कच्चे भुट्टे के दानों सी बिखरी
तुम्हारी वह उजली हँसी
लोगों की याद का हिस्सा बन चुकी है
अपनी खुशबू के साथ।

वक्त ने चाहे
तुम्हारे होंठ सिल दिए हों
तुम्हारी हँसी के हस्ताक्षर अब भी
जिन्दगी की किताब के
पिछले पन्नों में बन्द हैं।

अगले पन्नों पर
"खामोशी" लिखते हुए
चाहे फ़िलहाल
तुम्हें पीछे देखने की इजाजत न हो
समय का सूरज
जरूर लौटा लायेगा
तुम्हारे हिस्से की धूप
एक - न - एक दिन।

 शायद तब,जब सुलगती उंगलियों से
तुम आखिरी पन्नों पर
आग उगल रही होगी
क्योंकि आग , खामोशी, धूप और खिलखिलाहट
औरत की जिन्दगी का सारा जोड़- घटाव है
जिसका उत्तर कभी भी शून्य नहीं आता!

इला प्रसाद

नदी और पुल / अरुण चन्द्र रॉय

1.
नदी
और पुल
के बीच है
अनोखा रिश्ता,
पुल खड़ा करता रहेगा
इन्तज़ार
नदी
यूँ ही बहती रहेगी
अनवरत

2.
नदी
लगातार मारती रहेगी
हिलोर
पुल
यो ही शांत रहेगा खड़ा
शाश्वत
क्योंकि उसे पता है
दोनों का प्रारब्ध

3.
पुल की ओर से
नदी लगती है
बहुत ख़ूबसूरत
नदी की ओर से
पुल लगता है
असंभव
जबकि
पुल की जड़े
कायम होती है नदी में,
नदी समझ नहीं पाती कभी

अरुण चन्द्र रॉय

साईं सुआ प्रवीन गति / गिरिधर

साईं सुआ प्रवीन गति वाणी वदन विचित्त
रूपवंत गुण आगरो राम नाम सों चित्त

राम नाम सों चित्त और देवन अनुरागयो
जहां जहां तुव गयो तहां तहां नीको लागयो

कह गिरिधर कविराय सुआ चूकयो चतुराई
वृथा कियो विश्वास सेय सेमर को साईं

गिरिधर

धन्यवाद चीटियो धन्यवाद / अभिज्ञात

कई दिनों बाद यकायक मुझे पता चला
मेरे लिखे पर बहुत बड़ी दावेदारी उन चीटियों की है
जो आराम से रह रही थीं मेरे कम्प्यूटर के की-बोर्ड में
और मैं नज़र गड़ाए रहता था उनकी कारगुज़ारियों से बेपरवाह
कम्प्यूटर के स्क्रीन पर
जबकि में लिख रहा था दुनिया जहान पर
इस तरह जैसे कि मैं अकेला और केवल मैं ही सोच
रहा था तमाम गंभीर मसलों पर
और जैसे कि मेरा सोचना ही हल कर देगा मसलों को
और उन्हें लिख देना कोई बहुत बड़ी कारर्वाई हो अमल से मिलती-जुलती या फिर उससे भी अहम
सहसा मुझे दिख गयी चींटी
और फिर मैंने उत्स जानना चाहा
आखिर कहाँ से आ गयी चींटी कम्प्यूटर के स्क्रीन पर
कहीं तो होगा उनका कुनबा
मैंने अनुभव से जाना है
कभी अकेली नहीं होती चींटी
आदमी के अकेलेपन को मुँह चिढ़ाती हुई
चींटी का चेहरा हमारे पूर्वजों से कितना मेल खाता है आज भी

मैंने खोज डाला टेबिल जिस पर था कम्प्यूटर नहीं मिली वैसी ही कोई दूसरी चींटी
जैसी एक थी
हाँ वैसी ही
न जाने क्यों मुझे हर चींटी एक जैसी ही लगती है
सौ चीटियां में हर एक लगती है एकदम दूसरे जैसी
जैसे पेड़ की एक पत्ती का चेहरा मिलता है दूसरे से
आदमी का भी मिलता होगा कभी
फिलहाल तो नहीं
और खोज के उपक्रम में नज़र गयी की-बोर्ड पर
ब्लैक की-बोर्ड पर लाल-लाल छोटी चींटियाँ
न जाने कब से बना रखा था उन्होंने की-बोर्ड को अपना ठिकाना
मैंने बहुत सोचा आखि़र क्या कर रही थीं वे की-बोर्ड में
जबकि बाहर बेहद गर्मी पड़ रही थी क्या उन्हें यहाँ मिल रही थीं ठंडक
जो कम्प्यूटर में टाइप होते हुए अक्षरों से पहुँच रही थी उन तक
क्या उन्हें भली लग रही थी वह थरथराहट और वह लय और ताल
जो आदमी को आदमी से जोड़ने वाले शब्दों के ढाले जाने के उपक्रम में पैदा होती है
क्या उन्हें भली लग रहा थी उन उंगलियों की बेचैनी जो
शब्द में जान पैदा करने की कोशिश में उठती हैं
या वे लिख रही थी संवेदना के इतिहास में अपना योगदान
मेरे की-बोर्ड से मेरे शब्दों की फाँक में
या फिर मैंने नहीं स्वयं उन्होंने लिखवाई हो वह तमाम इबारतें
जिनके बारे में मैं सोच रहा था निकल रही हैं मेरे मन के किसी तहखाने से
क्या आदमी के काम में चीटिंयों ने हाथ बँटाने की ठान ली थी
मेरे हाथ, मेरी उंगलियों और पूरी मनुष्य जाति की ओर से
धन्यवाद! चीटियो धन्यवाद!!

अभिज्ञात

अगर हम अपने दिल को / कुँअर बेचैन

अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते

ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नहीं पाती
मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते

अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते
अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते

हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला
ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते

हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते

'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते
अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते

कुँअर बेचैन

जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है / 'ऐश' देलहवी

जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है वो ख़ुद काम भी है
बज़्म अग़्यार से ख़ाली भी है और शाम भी है

ज़ुल्फ़ के नीचे ख़त-ए-सब्ज़ तो देखा ही न था
ऐ लो एक और नया दाम तह-ए-दाम भी है

चारा-गर जाने दे तकलीफ़-ए-मदवा है अबस
मर्ज़-ए-इश्क़ से होता कहीं आराम भी है

हो गया आज शब-ए-हिज्र में ये क़ौल ग़लत
था जो मशहूर के आग़ाज़ को अंजाम भी है

काम-ए-जानाँ मेरा लब-ए-यार के बोसे से सिवा
ख़ूगर-ए-चाशनी-ए-लज़्ज़त-ए-दुश्नाम भी है

शैख़ जी आप ही इंसाफ़ से फ़रमाएँ भला
और आलम में कोई ऐसा भी बद-नाम भी है

ज़ुल्फ़ ओ रुख़ दैर ओ हरम शाम ओ सहर 'ऐश' इन में
ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र भी है जलवा-ए-इस्लाम भी है

'ऐश' देलहवी

पौधे की किलकारियाँ / अर्चना भैंसारे

सारी रात पिछवाड़े की
ज़मीन कराहती रही
लेती रही करवटें

उसकी चिन्ता में
सोया नहीं घर
होता रहा अंदर-बाहर

और अगले ही दिन
पहले-पहल सूरज की किरणें
दौड़ पड़ी चिड़ियों के सहगान में
जच्चा गातीं

उसकी गोद में मचलते
पौधे की किलकारियाँ सुन...!

अर्चना भैंसारे

आज भी / अश्वघोष

वक़्त ने बदली है सिर्फ़ तन की पोशाक
मन की ख़बरें तो आज भी छप रही हैं
                   पुरानी मशीन पर

आज भी मंदिरों में ही जा रहे हैं फूल
आज भी उंगलियों को बींध रहे हैं शूल
आज भी सड़कों पर जूते चटका रहा है भविष्य

आज भी खिड़कियों से दूर है रोशनी
आज भी पराजित है सत्य
आज भी प्यासी है उत्कंठा

आज भी दीवारों को दहला रही है छत
आज भी सीटियाँ मार रही है हवा
आज भी ज़िन्दगी पर नहीं है भरोसा।

अश्वघोष

अब आदमी का इक नया / अनन्त आलोक

अब आदमी का इक नया प्रकार हो गया,
आदमी का आदमी शिकार हो गया,
जरुरत नहीं आखेट को अब कानन गमन की,
शहर में ही गोश्त का बाजार हो गया |

अनन्त आलोक

बिहार आन्दोलन का गीत / कांतिमोहन 'सोज़'

कोई गुल खिलनेवाला है कुहुक रही कोयलिया
कोयल कुहुक रही रे कोयल कुहुक रही I

कारतूस से भरे-भरे दिल जेब-जेब है ख़ाली
खप्पर लेकर नाच रही है सड़क-सड़क पर काली
तूफ़ान मचलने वाला है कुहुक रही कोयलिया I
कोई गुल खिलनेवाला है कुहुक रही कोयलिया
कोयल कुहुक रही रे कोयल कुहुक रही ।।

काँप रहे हैं पीले पत्ते लाल हुई तरुणाई
शाख-शाख पर शोले लहकें दहक रही अमराई
तूफ़ान मचलनेवाला है कुहुक रही कोयलिया I
कोई गुल खिलनेवाला है कुहुक रही कोयलिया
कोयल कुहुक रही रे कोयल कुहुक रही ।।

सहम उठी ज़ालिम की लाठी सिहर गई है गोली
सर से कफ़न बाँधकर निकली मस्तानों की टोली
तूफ़ान मचलनेवाला है कुहुक रही कोयलिया I
कोई गुल खिलनेवाला है कुहुक रही कोयलिया
कोयल कुहुक रही रे कोयल कुहुक रही ।।


रचनाकाल : नवम्बर 1974

कांतिमोहन 'सोज़'

रिश्तों का व्याकरण / अमित

अनुकरण की
होड़ में अन्तःकरण चिकना घड़ा है
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।
 
दब गया है
कैरियर के बोझ से मासूम बचपन
अर्थ-वैभव हो गया है सफलता का सहज मापन
सफलता के
शीर्ष पर जिसके पदों का हुआ वन्दन
देखिये किस-किस की गर्दन को
दबा कर वो खड़ा है।
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

सीरियल के
नाटकों में समय अनुबंधित हुआ है
परिजनो से वार्ता-परिहास क्रम
खंडित हुआ है
है कुटिल
तलवार अंतर्जाल का माया जगत भी
प्रगति है यह या कि फिर विध्वंस
का खतरा बड़ा है।
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

नग्नता
नवसंस्कृति की भूमि में पहला चरण है
व्यक्तिगत स्वच्छ्न्दता ही प्रगतिधर्मी
आचरण है
नई संस्कृति के नये
अवदान भी दिखने लगे अब
आदमी अपनी हवस की दलदलों
में जा गड़ा है
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

Thursday, February 27, 2014

सिर्फ़ / अनिरुद्ध नीरव

पात झरे हैं सिर्फ़
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी।

अभी न कहना ठूँठ
टहनियों की उंगली नम है।
हर बहार को
खींच-खींच कर
                लाने का दम है।
रंग मरे है सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी।

अभी लचीली डाल
डालियों में अँखुए उभरे
अभी सुकोमल छाल
छाल की गंधिल गोंद ढुरे।

अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी।

ये नंगापन
सिर्फ़ समय का
कर्ज़ चुकाना है

फिर तो
वस्त्र नए सिलवाने
               इत्र लगाना है।
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी।

अनिरुद्ध नीरव

नव रसमय मूरति सदा / आलम

नव रसमय मूरति सदा, जिन बरने नंदलाल।
'आलम आलम बस कियो, दै निज कविता जाल॥

प्रेम रंग पगे, जगमगे जागे जामिनि के,
जोबन की जोति जागि, जोर उमगत हैं।
मदन के माते, मतवारे ऐसे घूमत हैं,
झूमत हैं झूकि-झूकि, झ्रपि उघरत हैं॥

'आलम सो नवल, निकाई इन नैंनन की,
पाँखुरी पदुम पै, भँवर थिरकत हैं।
चाहत हैं उडिबे को, देखत मयंक मुख,
जानत हैं रैनि, ताते ताहि मैं रहत हैं॥

निधरक भई, अनुगवति है नंद घर,
और ठौर कँ, टोहे न अहटाति है।
पौरि पाखे पिछवारे, कौरे-कौरे लागी रहै,
ऑंगन देहली, याहि बीच मँडराति है॥

हरि-रस-राती, 'सेख नैकँ न होइ हाती,
प्रेम मद-माती, न गनति दिन-राति है।
जब-जब आवति है, तब कछू भूलि जाति,
भूल्यो लेन आवति है और भूलि जाति है॥

कैधौं मोर सोर तजि, गये री अनत भाजि,
कैधौं उत दादुर, न बोलत हैं ए दई।
कैधौं पिक चातक, महीप का मारि डारे,
कैधौं बकपाँति, उत अंतगत ह्वै गई॥

'आलम कहै हो आली, अजँ न आये प्यारे,
कैधौं उत रीति बिपरीत बिधि नै ठई।
मदन महीप की, दोहाई फिरिबे तें रही,
जूझि गये मेघ कैधौं दामिनी सती भई॥

चंद को चकोर देखै, निसि दिन को न लेखै,
चंद बिन दिन छबि लागत ऍंध्यारी है।
'आलम कहत आली, अलि फूल हेत चलै,
काँटे सी कटीली बेलि ऐसी प्रीति प्यारी है॥

कारो कान्ह कहत गँवारी ऐसी लागति है,
मोहि वाकी स्यामताई लागत उज्यारी है।
मन की अटक तहाँ, रूप को बिचार कहाँ,
रीझिबे को पैंडो तहाँ बूझ कछू न्यारी है॥

सौरभ सकेलि मेलि केलि ही की बेलि कीन्हीं,
सोभा की सहेली सु अकेली करतार की।
जित ढरकैहौ कान्ह, तितही ढरकि जाय,
साँचे ही सुढारी सब अंगनि सुढार की॥

तपनि हरति 'कवि आलम परस सीरो,
अति ही रसिक रीति जानै रस-चार की।
ससिँ को रसु सानि सोने को सरूप लैके,
अति ही सरस सों सँवारी घनसार की।
सुधा को समुद्र तामें, तुरे है नक्षत्र कैधों,
कुंद की कली की पाँति बीन बीन धरी है।
'आलम कहत ऐन, दामिनी के बीज बये,
बारिज के मध्य मानो मोतिन की लरी है॥

स्वाति ही के बुंद बिम्ब विद्रुम में बास लीन्हों,
ताकी छबि देख मति मोहन की हरी है।
तेरे हँसे दसन की, ऐसी छवि राजति है,
हीरन की खानि मानों, ससी माँहिं करी है॥

कछु न सुहात पै उदास परबस बास,
जाके बस जै तासों जीतहँ पै हारिये॥

'आलम कहै हो हम, दुह विध थकीं कान्ह,
अनदेखैं दुख देखैं धीरज न धारिये॥

कछु लै कहोगे कै, अबोले ही रहोगे लाल,
मन के मरोरे की मन ही मैं मारिये।
मोह सों चितैबो कीजै, चितँ की चाहि कै,
जु मोहनी चितौनी प्यारे मो तन निवारिये॥

जा थल कीन्हें बिहार अनेकन, ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं।
जा रसना सों करी बहु बातन, ता रसना सो चरित्र गुन्यो करैं॥
'आलम जौन से कुंजन में करी केलि, तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।
नैंनन में जो सदा रहते, तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करैं॥

आलम

गांव, इन दिनों / ओम नागर

गांव इन दिनों
दस बीघा लहुसन को जिंदा रखने के लिए
हजार फीट गहरे खुदवा रहा है ट्यूवैल
निचोड़ लेना चाहता है
धरती के पेंदे में बचा रह गया
शेष अमृत
क्योंकि मनुष्य के बचे रहने के लिए
जरूरी हो गया है
फसलों का बचे रहना।

फसल जिसे बमुश्किल
पहुंचाया जा रहा है रसायनिक खाद के बूते
घुटनों तक
धरती भी भूलती जा रही है शनैः-शनैः
असल तासीर
और हमने भी बिसरा दिया है
गोबर-कूड़ा-करकट का समुच्चय।


गांव, इन दिनों
किसी न किसी बैंक की क्रेडिट पर है
बैंक में खातों के साथ
चस्पा कर दी गई है खेतों की नकलें
बहुत आसान हो गया है अब
गिरवी होना।

शायद, इसलिये गांव इन दिनों
ओढ़े बैठा है मरघट सी खामोशी
और जिंदगी से थक चुके किसान की गर्म राख
हवा के झौंके के साथ
उड़ी जा रही है
राजधानी की ओर.....।

ओम नागर

हम और सड़कें / केदारनाथ अग्रवाल

सूर्यास्त मे समा गयीं
        सूर्योदय की सड़कें,
जिन पर चलें हम
तमाम दिन सिर और सीना ताने,
महाकाश को भी वशवर्ती बनाने,
        भूमि का दायित्व
        उत्क्रांति से निभाने,
और हम
    अब रात मे समा गये,
स्वप्न की देख-रेख में
सुबह की खोयी सड़कों का
जी-जान से पता लगाने

केदारनाथ अग्रवाल

मकतबों में कहीं रानाई-ए-अफ़कार भी है / इक़बाल

मकतबों में कहीं रानाई-ए-अफ़कार भी है
ख़ानक़ाहों में कहीं लज़्ज़त-ए-असरार भी है

मंज़िल-ए-रह-रवाँ दूर भी दुश्वार भी है
कोई इस क़ाफ़िले में क़ाफ़िला-सालार भी है

बढ़ के ख़ैबर से है ये मारका-ए-दीन-ओ-वतन
इस ज़माने में कोई हैदर-ए-कर्रार भी है

इल्म की हद से परे बंदा-ए-मोमिन के लिए
लज़्ज़त-ए-शौक़ भी है नेमत-ए-दीदार भी है

पीर-ए-मै-ख़ाना ये कहता है के ऐवान-ए-फ़रंग
सुस्त-बुनियाद भी है आईना-दीवार भी है

अल्लामा इक़बाल

तेरी दोस्ती पै मेरा यकीं / अर्श मलसियानी

तेरी दोस्ती पै मेरा यकीं, मुझे याद है मेरे हमनशीं
मेरी दोस्ती पै तेरा ग़ुमाँ, तुझे याद हो कि न याद हो

वह जो शाख़े-गुल पै था आशियां जो था वज्ह-ए-नाज़िश-ए-गुलसिताँ
गिरी जिसपै बर्के-शरर-फ़िशाँ तुझे याद हो कि न याद हो

मेरे दिल के जज़्बए-गर्म में मेरे दिल के गोशए नर्म में
था तेरा मुक़ाम कहाँ-कहाँ तुझे याद हो कि न याद हो

अर्श मलसियानी

ग़ज़ल गा रहे हैं सवेरे-सवेरे / कांतिमोहन 'सोज़'

ग़ज़ल गए रहे हैं सवेरे-सवेरे I
वो याद आ रहे हैं सवेरे-सवेरे II

चलो उनपे शब का इजारा तो टूटा
ग़ज़ब ढा रहे हैं सवेरे-सवेरे I

गुलों की न पूछो वो शबनम की सहबा
पिए जा रहे हैं सवेरे-सवेरे I

उठाओ सबू हज़रते शेख देखो
इधर आ रहे हैं सवेरे-सवेरे I

मैं हैरां हूं पागल हुए हैं पखेरू
हंसे जा रहे हैं सवेरे-सवेरे I

ये बादल हैं या मेरी तौबा के दुश्मन
झुके जा रहे हैं सवेरे-सवेरे I

ख़तरनाक है सोज़ की ये ग़ज़ल भी
ये उलझा रहे हैं सवेरे-सवेरे II

कांतिमोहन 'सोज़'

विजय रथ / कर्णसिंह चौहान

घरघराता
भूतल को थर्राता
घोर मेघ गर्जन
तूफ़ानी अंधड़ से
जंगल कँपाता
इधर ही बढ़ा आ रहा वेगवान रथ ।

अश्वमेध के उन्मद घोड़ों की टापों से
ऊभ-चूभ हो रहा सागर
शब्दबेधी बाणों की बौछार
छा गया अंधकार
ढह रहे
सभ्यता के दुर्ग
डोल रही अट्टालिकाएँ ।
 
कौन रोकेगा इसे !
यह दलदल में धँसी सेना
बिल्कुल बेकार
प्रलयंकर बाढ़ से डर
डाल रही हथियार
यह मलबा कोई मोर्चा नहीं है ।

शहीद हो रहे ये सैनिक
केवल नमक का मूल्य चुका रहे हैं
योद्धा नहीं हैं ये ।
बोतेव की वीर भूमि में
कोई भी नहीं बचा
जो दे ललकार
करे सधा वार
आग से धधकता यह जंगल
राख का ढेर है
यह रथ बढ़ा आ रहा है ।

कहाँ गए हिटलर से
लोहा लेने वाले
वे छापामार दस्ते,
कहाँ गए पहाड़ों को
गुँजाने वाले
वे जननायक
कहाँ गए
स्पार्टकस के वंशज
क्रांति के हुँकार के कवि
कोई भी नहीं यहाँ ।

यहाँ तो
सज़दे में झुके है लोग
बदहवास भागते
सूरमा हैं
आलीशान दफ़्तर में
सभा करते
बूढ़े महारथी
महीने की रोटियाँ
बटोरता लश्कर है
पागल धुनों पर
थिरकते युवजन
इस घमंडी घोड़े को लगाम कौन दे !

कर्णसिंह चौहान

ग़म-ज़दा हैं मुबतला-ए-दर्द हैं ना-शाद हैं / अख़्तर अंसारी

ग़म-ज़दा हैं मुबतला-ए-दर्द हैं ना-शाद हैं
हम किसी अफ़साना-ए-ग़म-नाक के अफ़राद हैं

गर्दिश-ए-अफ़लाक के हाथों बहुत बर्बाद हैं
हम लब-ए-अय्याम पर इक दुख भारी फ़रियाद हैं

हाफ़िज़े पर इशरतों के नक़्श बाक़ी हैं अभी
तू ने जो सदमे सही ऐ दिल तुझे भी याद हैं

रात भर कहते हैं तारे दिल से रूदाद-ए-शबाब
इन को मेरी वो शबाब-अफ़रोज़ रातें याद हैं

'अख़्तर'-ए-ना-शाद की परछाईं से बचते रहे
जो ज़माने में शगुफ़्ता-ख़ातिर ओ दिल-ए-शाद हैं

अख़्तर अंसारी

बांछा / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

 
बरस बरस कर रुचिर रस हरे सरसता प्यास।
असरस चित को अति सरस करे सरस पद-न्यास।1।

भावुक जन के भाल पर हो भावुकता खौर।
अरसिक पाकर रसिकता बने रसिक सिरमौर।2।

मिले मधुर स्वर्गीय स्वर हों स्वर सकल रसाल।
व्यंजन में वर व्यंजना हो व्यंजित सब काल।3।

उक्ति अलौकिकता लहे मिले अलौकिक ओक।
करे समालोकित उसे अलंकार आलोक।4।

कलित भाव से बलित हो पा रुचि ललित नितान्त।
कान्त करे कवितावली कविता-कामिनि-कान्त।5।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रेख्‍ते में कविता / उदय प्रकाश

जैसे कोई हुनरमंद आज भी
घोड़े की नाल बनाता दिख जाता है
ऊंट की खाल की मशक में जैसे कोई भिश्‍ती
आज भी पिलाता है जामा मस्जिद और चांदनी चौक में
प्‍यासों को ठंडा पानी

जैसे अमरकंटक में अब भी बेचता है कोई साधू
मोतियाबिंद के लिए गुल बकावली का अर्क

शर्तिया मर्दानगी बेचता है
हिंदी अखबारों और सस्‍ती पत्रिकाओं में
अपनी मूंछ और पग्‍गड़ के
फोटो वाले विज्ञापन में हकीम बीरूमल आर्यप्रेमी

जैसे पहाड़गंज रेलवे स्‍टेशन के सामने
सड़क की पटरी पर
तोते की चोंच में फंसाकर बांचता है ज्‍योतिषी
किसी बदहवास राहगीर का भविष्‍य
और तुर्कमान गेट के पास गौतम बुद्ध मार्ग पर
ढाका या नेपाल के किसी गांव की लड़की
करती है मोलभाव रोगों, गर्द, नींद और भूख से भरी
अपनी देह का

जैसे कोई गड़रिया रेल की पटरियों पर बैठा
ठीक गोधूलि के समय
भेड़ों को उनके हाल पर छोड़ता हुआ
आज भी बजाता है डूबते सूरज की पृष्‍ठभूमि में
धरती का अंतिम अलगोझा

इत्तिला है मीर इस जमाने में
लिक्‍खे जाता है मेरे जैसा अब भी कोई-कोई
उसी रेख्‍ते में कविता

उदय प्रकाश

याद / अज्ञेय

याद : सिहरन : उड़ती सारसों की जोड़ी

याद : उमस : एकाएक घिरे बादल में

कौंध जगमगा गई।

सारसों की ओट बादल
बादलों में सारसों की जोड़ी ओझल,
याद की ओट याद की ओट याद।
केवल नभ की गहराई बढ़ गई थोड़ी।
कैसे कहूँ की किसकी याद आई?
चाहे तड़पा गई।

काबूकी प्रेक्षागृह में (सैन फ्रांसिस्को), 21 मार्च, 1969

अज्ञेय

कुछ भी नहीं करीने से / कुमार अनुपम

सुकवि की कविता की
हरी-भरी मनहर काई से
गिरता हूँ फिसल कर
वापस उसी जगह पर
अपने अनगढ़पन पर इतराती हुई
है जहाँ प्रकृति
एक आँकी-बाँकी नदी है
जहाँ कुछ भी नहीं करीने से
न पेड़ न पहाड़ न लाग न लोग

यह दुनिया
सुकवि की चिकनी मेज
की तरह समतल नहीं...।

कुमार अनुपम

एक शहर को छोड़ते हुए-6 / उदय प्रकाश

एक दिन हम अपना सारा सामान बांधेंगे
और रेलगाड़ी में बैठकर चल पड़ेंगे, ताप्ती !

एक नज़र तक हम नहीं डालेंगे
ऐसी जगह, जहाँ
इतने दिनों रहते हुए भी हम रह नहीं पाए ।

जहाँ दिन-रात हम हड्डियाँ गलाते रहे अपनी और
लोगों के पीछे किसी द्रव की खोज में
हँसते रहे ।

हम चाहेंगे ताप्ती कि
इस जगह को भूलते हुए हमें ख़ूब हँसी आए
और अपनी बातचीत में
हँसते हुए हम इस जगह का अपमान करें
सोचें कि एक दिन ऐसा हो
कि सारी दुनिया में ऐसी जगहें कहीं न हों ।

फिर ताप्ती, खिड़की होगी
और पेड़ दौड़ेंगे चक्कर में
और कोई बछड़ा मटर के खेतों के पार उतरेगा ।

एक के बाद एक गाँव और शहर
पार करते चले जाएँगे हम अपने सफ़र में
रेलगाड़ी की खिड़की के बाहर
दुनिया घूमती ही रहेगी
मिटटी के कत्थई घरों से भरी
हरी दुनिया ।

फिर मैं कहूँगा
हमने अच्छा किया, बहुत अच्छा किया
कि हमने उन्हें छोड़ा
जो छोड़े ही हुए थे हमें और हमारे जैसे बेइंतहा लोगों को
शुरू से ही अपनी संकरी दुनिया के लिए ।

हम ऐसे चंद चालू संबंधों की
परछाईं तक को कर देंगे नष्ट
अपनी स्मृति से ।

और चल पड़ेंगे अपना सारा सामान समेटकर
एक के बाद एक गाँव और शहर
और जीवन और अनुभव पार करेंगे ।

लेकिन हम आख़िर में ठहरेंगे
कहाँ, ताप्ती ?

उदय प्रकाश

बेवफाई जो तुमने की तो कोई बात नहीं / आशीष जोग


बेवफाई जो तुमने की तो कोई बात नहीं,
इसमें नज़रें चुराने की तो कोई बात नहीं |

दिल ही टूटा है अभी मैं तो नहीं टूटा हूँ,
इतना मातम मनाने की तो कोई बात नहीं |

बात ये तेरे मेरे बीच में ही रहने दो,
ग़ैर को ये बताने की तो कोई बात नहीं |

कितनी कोशिश करो दिल की ख़लिश नहीं जाती,
इतना भी मुस्कुराने की तो कोई बात नहीं |

हमने माना कि अभी वक़्त बुरा है अपना,
फिर भी मायूस होने की तो कोई बात नहीं |

दिल से बेबस हूँ दिल ये बस में नहीं है मेरे,
मुझ पे तोहमत लगाने की तो कोई बात नहीं |

तेरी इस बेरुख़ी से हो गयी है यारी अब,
इसमें हैरत जताने की तो कोई बात नहीं |

आशीष जोग

उल्फ़त का फिर मन है बाबा / 'अना' क़ासमी

उल्फ़त का फिर मन है बाबा
फिर से पागलपन है बाबा

सब के बस की बात नहीं है
जीना भी इक फ़न है बाबा

उससे जब से आंख लड़ी है
आँखों के धड़कन है बाबा

अपने अंतरमन में झाँको
सबमें इक दरपन है बाबा

हम दोनों की ज़ात अलग है
ये भी इक अड़चन है बाबा

पूरा भारत यूं लगता है
अपना घर-आँगन है बाबा

जग में तेरा-मेरा क्या है
उसका ही सब धन है बाबा

'अना' क़ासमी

Wednesday, February 26, 2014

लगा रक्खी है उसने भीड़ मज़हब की, सियासत की / कृष्ण कुमार ‘नाज़’

लगा रक्खी है उसने भीड़ मज़हब की, सियासत की
मदारी है, भला समझेगा क्या क़ीमत मुहब्बत की
 
महल तो सबने देखा, नींव का पत्थर नहीं देखा
टिकी है ज़िंदगी जिस पर भरी-पूरी इमारत की
 
अजब इंसाफ़ है, मजबूर को मग़रूर कहते हो
चढ़ा रक्खी हैं तुमने ऐनकें आँखों पे नफ़रत की
 
हम अपनी आस्तीनों से ही आँखें पोंछ लेते हैं
हमारे आँसुओं ने कब किसी दामन की चाहत की

हमारे साथ हैं महकी हुई यादों के कुछ लश्कर
वो कुछ लमहे इबादत के, वो कुछ घड़ियाँ मुहब्बत की

वो चेहरे से ही मेरे दिल की हालत भाँप लेता है
ज़रूरत ही नहीं पड़ती कभी शिकवा-शिकायत की

डरी सहमी हुई सच्चाइयों के ज़र्द चेहरों पर
गवाही है सियासत की, इबारत है अदालत की

हैं अब तक याद हमको ‘नाज़’ वो बीती हुई घड़ियाँ
कभी तुमने शरारत की, कभी हमने शरारत की

कृष्ण कुमार ‘नाज़’

जब कभी / अर्चना भैंसारे

और जब कभी
मैली हो जाती रुह

तब याद आती
तुम्हारे मन में बहते
मीठे झरने की

कि जिसमें डूबकर
साफ़ करती हूँ आत्मा अपनी।

अर्चना भैंसारे

तुम्हारा ख़याल ज़हन में / उमेश पंत

तुम्हारा ख़याल
गर्मियों में सूखते गले को
तर करते ठंडे पानी-सा
उतर आया ज़हन में ।
और लगा
जैसे गर्म रेत के बीच
बर्फ़ की सीली की परत
ज़मीन पर उग आई हो ।


सपने,
गीली माटी जैसे
धूप में चटक जाती है
वैसे टूट रहे थे ज़र्रा-ज़र्रा
तुम्हारा ख़याल
जब गूँथने चला आया मिट्टी को
सपने महल बनकर छूने लगे आसमान ।

तुम उगी
कनेर से सूखे मेरे ख़यालों के बीच
और एक सूरजमुखी
हवा को सूँघने लायक बनाता
खिलने लगा ख़यालों में ।

पर ख़याल-ख़याल होते हैं ।
तुम जैसे थी ही नहीं
न ही पानी, न मिट्टी, न महक ।
गला सूखता-सा रहा ।
धूप में चटकती रही मिटटी ।
कनेर सिकुड़ते रहे
जलाती रेत के दरमियान ।
और ख़याल...?

औंधे मुँह लेटा मैं
आँसुओं से बतियाता हूँ
और बूँद-दर-बूँद
समझाते हैं आँसू
के संभाल के रखना
जेबों में भरे ख़ूबसूरत ख़याल
घूमते हैं यहाँ जेबकतरे ।

उमेश पंत

नन्दा देवी-1 / अज्ञेय

 ऊपर तुम, नन्दा!
नीचे तरु-रेखा से
मिलती हरियाली पर
बिखरे रेवड को
दुलार से टेरती-सी
गड़रिये की बाँसुरी की तान :
और भी नीचे
कट गिरे वन की चिरी पट्टियों के बीच से
नये खनि-यन्त्र की
भट्ठी से उठे धुएँ का फन्दा।
नदी की घरेती-सी वत्सल कुहनी के मोड़ में
सिहरते-लहरते शिशु धान।
चलता ही जाता है यह
अन्तहीन, अन-सुलझ
गोरख-धन्धा!
दूर, ऊपर तुम, नन्दा!

बिनसर, सितम्बर, 1972

अज्ञेय

दिल चुराना ये काम है तेरा / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

दिल चुराना ये काम है तेरा
ले गया है तो नाम है तेरा

है कयामत बपा के जलवे में
क़ामत-ए-ख़ुश-ख़िराम है तेरा

जिस ने आलम किया है ज़ेर-ओ-ज़बर
ये ख़त-ए-मुश्क-फ़ाम है तेरा

दीद करने का चाहिएँ आँखें
हर तरफ़ जलवा आम है तेरा

किस का ये ख़ूँ किए तू आता है
दामन अफ़शाँ तमाम है तेरा

हो न हो तू हमारी मजलिस में
तजि़्करा सुब्ह ओ शाम है तेरा

तेग़-ए-अबरो हमे भी दे इक ज़ख़्म
सर पे आलम के दाम है तेरा

तू जो कहता है ‘मुसहफ़ी’ इधर आ
‘मुसहफ़ी क्या गुलाम है तेरा

ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के / 'ऐश' देलहवी

क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के
ताने सहने पड़े हमें सब के

भूलना मत बुतों की यारी पर
हैं ये बद-केश अपने मतलब के

क़ैस ओ फ़रहाद चल बसे अफ़सोस
थे वो कम-बख़्त अपने मशरब के

शैख़ियाँ शैख़ जी की देंगे दिखा
मिल गए वो अगर कहीं अब के

याद रखना कभी न बचिएगा
मिल गए आप वक़्त गर शब के

उस में ख़ुश होवें आप या ना-ख़ुश
यार तो हैं सुना उसी ढब के

यार बिन 'ऐश' मय-कशी तौबा
है ये अपने ख़िलाफ़ मज़हब के

'ऐश' देलहवी

गीतों के गॉंव / ओम निश्चल

मिला राह वो कि फ़रार का न पता चला / ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

मिला राह वो कि फ़रार का न पता चला
उड़ा संग से तो शरार का न पता चला

जो खिंचे खिंचे मुझे लग रहे थे यहाँ वहाँ
किसी एक ऐसे हिसार का न पता चला

रहा जाते जाते न देख सकने का ग़म हमें
वो ग़ुबार उठा कि सवार का न पता चला

रही हिज्र में जो इक इक पल की ख़बर मुझे
तो विसाल में शब-ए-तार का न पता चला

कई मौसमों से तलाश में है मिरी नज़र
किसी गुलसिताँ से बहार का न पता चला

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

मुहाने पर नदी और समुद्र-4 / अष्‍टभुजा शुक्‍ल

नदी की
सतह को
चीरती हैं नौकाएँ
अन्तस् में
तैरती हैं मछलियाँ

नदी के
धरातल में
कचोटते हैं ककरहे और घोंघे और सीपियाँ

समुद्र की
सतह पर
घूमते हैं नौसैनिक, मछुवारे और जलदस्यु
अन्तस् में
हहराती है बाडवाग्नि
ऊभ-चूभ करते हैं कछुए और डॉल्फिन और तिमिङ्गल
जबकि धरातल में
जमा रहते हैं रत्न

अष्‍टभुजा शुक्‍ल

साथ-साथ / ओम नागर

तुम निश्चय कर लेतीं
तो यूं निरूद्देश्य न होता जीवन।

ठंूठ के माथे पर फूट आती दो कोंपलें
हथेली की रेखाओं से
निराली नहीं होती
भाग्य की कहानी।

तुम विचार लेतीं तो
यूं न धसकती चौमासे में भीत
घर-आंगनों के मांडणों पे
नहीं फिरता पानी
पिछली दीवारों पर चित्रित मोरनी
नहीं निगलती हीरों का हार।

जो दो पग रख लेती तुम साथ-साथ
तो इतनी जल्दी नहीं टूटती
सांसों की सरगम
सुलझाता झाड़ में उलझी लूगड़ी
भले ही
कांटों से भर जाते मेरे हाथ।

ओम नागर

शाएरी मैंने ईजाद की / अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

काग़ज़ मराकशियों ने ईजाद किया
हुरूफ़ फ़ोनिशियोन ने
शाएरी मैंने ईजाद की

क़ब्र खोदने वाले ने तंदूर ईजाद की
तंदूर पर क़ब्ज़ा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनाई
रोटी लेने वालों ने क़तार ईजाद की
और मिल कर गाना सीखा

रोटी की क़तार में जब चियुटियाँ भी आ कर खड़ी हो गईं
तो फ़ाक़ा ईजाद हो गया

शहतूत बेचने वाले ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शाएरी ने रेशम से लड़कियों के लिए लिबास बनाया
रेशम में मल्बूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने महल-सरा ईजाद की
जहाँ जा कर उन्होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया
फ़ासले ने घोड़े के चार पाँव ईजाद किए
तेज़ रफ़्तारी ने रथ बनाया

और जब शिकस्त ईजाद हुई
तो मुझे तेज़ रफ़्तार रथ के आगे लिटा दिया गया

मगर उस वक़्त तक शाएरी को ईजाद कर चुकी थी

मोहब्बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने ख़ेमा और कश्तियाँ बनाईं
और दूर-दराज़ के मक़ामात तय किए

ख़्वाजा-सरा ने मछली पकड़ने का काँटा ईजाद किया
और सोए हुए दिल में चुभो कर भाग गया

दिल में चुभे हुए काँटे की डोर थामने के लिए
नीलामी ईजाद हुई

और
जब्र ने आख़िरी बोली ईजाद की
मैं ने सारी शाएरी बेच कर आग ख़रीदी
और जब्र का हाथ जला दिया

अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

बहुत हैं मेरे प्रेमी / अम्बर रंजना पाण्डेय

मैं तो भ्रष्ट होने के लिए ही
बनी हूँ
बहुत हैं मेरे प्रेमी
पाँव पड़ता हैं मेरा नित्य
                        ऊँचा-नीचा

मुझसे सती होने की आस
मत रखना, कवि

मैं तो अशुद्ध हूँ
घाट-घाट का जल
भाँत-भाँत की शैया
भिन्न-भिन्न भतोर का भात
सब भोग कर
आई हूँ तुम्हारे निकट

प्रौढ़ा हूँ, विदग्धा हूँ
जल चुकी हूँ
यज्ञ में, चिता में, चूल्हे में

कनपटियों की सिरायों में
टनटनाती रहीं सबके, दृष्टि में
रही अदृश्य होकर, जिह्वा पर
मैं धरती हूँ कलेवर
उदर में क्षुधा, अन्न में तोष
निद्रा में भी
स्वप्न खींच लाया मुझे
और ले लिया मेरे कंठ का चुम्बन

फिर कहती हूँ, सुनो
ध्यान धरकर

मैं किसी एक की होकर नहीं रहती
न रह सकती हूँ एक जगह
न एक जैसी रहती हूँ

नित्य नूतन रूप धरती हूँ
मैं इच्छावती
वर्ष के सब दिन हूँ रजस्वला
मैं अस्वच्छ हूँ टहकता हैं मेरा
रोम-रोम स्वेद से
इसलिए मैं लक्ष्मी नहीं हूँ
न उसकी ज्येष्ठ भगिनी

मैं भाषा हूँ, कवि
मुझे रहने दो यों ही
भूमि पर गिरी, धूल-मैल
से भरी

जड़ता में ढूँढ़ोगे तो मिलेगा
सतीत्व, जीवन तो स्खलन
हैं, कवि

जल गिरता हैं
वीर्य गिरता हैं
वैसे मैं भी गिरती हूँ
मुझे सँभालने का यत्न न करो
मैं भाषा हूँ
मैं भ्रष्ट होना चाहती हूँ ।

अम्बर रंजना पाण्डेय

गुडिय़ा (5) / उर्मिला शुक्ल


उसने कब चाहा कि
बन जो गुडिय़ा
और रचे गुडिय़ो का संसार
मन करता है द्रोह
मगर इंसान नहीं
मात्र कठपुतली है
जोर से बंधा जीवन उसका
और बंधन ही जीवन का सार।

उर्मिला शुक्ल

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें / अखिलेश तिवारी

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें
भीड़ में उगती हुई तन्हाइयों का क्या करें

हुक्मरानी हर तरफ बौनों की, उनका ही हजूम
हम ये अपने कद की इन ऊचाइयों का क्या करें

नाज़ तैराकी पे अपनी कम न था हमको मगर
नरगिसी आँखों की उन गहराइयों का क्या करें

अखिलेश तिवारी

किसी सूरत भी नींद आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ / अनवर मिर्जापुरी

किसी सूरत भी नींद आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ
कोई शय दिल को बहलाती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

अकेला पा के मुझ को याद उन की आ तो जाती जै
मगर फिर लौट कर जाती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

जो ख़्वाबों में मेरे आ कर तसल्ली मुझ को देती थी
वो-सूरत अब नज़र आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

तुम्हीं तो हो शब-ए-ग़म में जो मेरा साथ देते हो
सितारों तुम को नींद आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

जिसे अपना समझना था वो आँख अब अपनी दुश्मन है
कि ये रोने से बाज़ आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

तेरी तस्वीर जो टूटे हुए दिल का सहारा थी
नज़र वो साफ़ अब आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

घटा जो दिल से उठती है मिज़ा तक तो आ जाती है
मगर आँख उस को बरसाती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

सितारे ये ख़बर लाए की अब वो भी परीशाँ हैं
सुना है उन को नींद आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

अनवर मिर्जापुरी

रिश्ते-1 / कविता वाचक्नवी

रूठें कैसे नहीं बचे अब
मान मनोव्वल के रिश्ते
अलगे-से चुपचाप चल रहे
ये पल दो पल के रिश्ते

कभी गाँठ से बंध जाते हैं
कभी गाँठ बन जाते हैं
कब छाया कब चीरहरण, हो
जाते आँचल के रिश्ते

आते हैं सूरज बन, सूने
में चह-चह भर जाते हैं
आँज अँधेरा भरते आँखें
छल-छल ये छल के रिश्ते

कच्चे धागों के बंधन तो
जनम-जनम पक्के निकले
बड़ी रीतियाँ जुगत रचाईं
टूटे साँकल के रिश्ते

एक सफेदी की चादर ने
सारे रंगों को निगला
आज अमंगल और अपशकुन
कल के मंगल के रिश्ते

कविता वाचक्नवी

छिन्दवाड़ा-5 / अनिल करमेले

तेरा कितना एहतरा है साकी / अबू आरिफ़

तेरा कितना एहतरा है साकी
तेरे बिन पीना हराम है साकी

न चल सुए-मयखाना अभी
अभी तो वक्त-ए-शाम है साकी

देख इक नज़र इधर को भी
किससे हमकलाम है साकी

तू ख़फा होये तो ख़फा हो जा
दिल में तेरा ही मुकाम है साकी

होश आये तो बात कुछ होवे
अभी तेरा ही नाम है साकी

चाहे आरिफ़ हो या कि ज़ाहिद हो
हर इक लब पे तेरा नाम है साकी

अबू आरिफ़

नदी / इला प्रसाद

तुम तो ख़ुद ही हो नदी;
शांत समभाव से बहती हुई
कहीं शब्द नहीं कोई
केवल गति, केवल गति

इला प्रसाद

मोहब्बत / अनुलता राज नायर

1.

स्नेह की मृगतृष्णा
मिटती नहीं...
रिश्तों का मायाजाल
कभी सुलझता नहीं.
तो मत रखो कोई रिश्ता मुझसे
मत बुलाओ मुझे किसी नाम से...
प्रेम का होना ही काफी नहीं है क्या ??

2.

सबसे है राब्ता
मगर तुम कहाँ हो..
मेरी भटकती हुई निगाह को
कोई ठौर तो मिले...

3.

वहम
शंकाएं
तर्क-वितर्क
गलतफहमियाँ
सहमे एहसास...
लगता है मोहब्बत को रिश्ते का नाम मिल गया.

4.

ऐसा नहीं कि
जन्म नहीं लेती
इच्छाएँ अब मन में
बस उन्हें मार डालना सीख लिया है..
शुक्रिया तुम्हारा.

5.

न मोहब्बत
न नफरत
न सुकून
न दर्द...
कमबख्त कोई एहसास तो हो
एक नज़्म के लिखे जाने के लिए..

6.

सर्दियाँ शुरू हुईं
धूप का एक टुकड़ा
उसने मेरे क़दमों पर
रख दिया...
आसान हो गयी जिंदगी.

7.

न पलकें भीगीं
न लब थरथराये
न तुम कुछ बोले
न हमने सुना कुछ अनकहा सा...
मोहब्बत करने वाले क्या यूँ जुदा होते हैं?

8.

तेरा इश्क
साया था पीपल का
बस ज़रा से झोंके से
फडफडा गए पत्ते सारे...

9.

जब से दिल
मोहब्बत से खाली हुआ
सुकून ने घर कर लिया...

अनुलता राज नायर

Tuesday, February 25, 2014

इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया / 'असअद' भोपाली

इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया
ख़ुद-ब-ख़ुद घबरा के क़दमों में ज़माना आ गया

जब ख़याल-ए-यार दिल में वालेहाना आ गया
लौट कर गुज़रा हुआ काफ़िर ज़माना आ गया

ख़ुश्क आँखें फीकी फीकी सी हँसी नज़रों में यास
कोई देखे अब मुझे आँसू बहाना आ गया

ग़ुँचा ओ गुल माह ओ अंजुम सब के सब बेकार थे
आप क्या आए के फिर मौसम सुहाना आ गया

मैं भी देखूँ अब तेरा ज़ौक़-ए-जुनून-ए-बंदगी
ले जबीन-ए-शौक़ उन का आस्ताना आ गया

हुस्न-ए-काफ़िर हो गया आमादा-ए-तर्क-ए-जफ़ा
फिर 'असद' मेरी तबाही का ज़माना आ गया

'असअद' भोपाली

क्यूँ फिर दिले-मफ़लूज में हरकत-सी हुई है / कांतिमोहन 'सोज़'

क्यूँ फिर दिले-मफ़लूज में हरकत-सी हुई है I
क्या अबके मसीहा ने मेरी बाँह गही है II

बुनियाद नशेमन की उसे कैसे बना लूँ,
एहसास की वो शाख़ अभी काँप रही है I

अल्फ़ाज़ के पकड़ाई में आए कि न आए
फूलों की वो टहनी जो मुझे छेड़ गई है I

सोचा है कि मालिन से कभी कहके तो देखूँ
जो फूल नहीं हैं उन्हें क्यूँ तोड़ रही है I

क्यों ज़र्द नज़र आए मुझे जेठ का सूरज
क्या सोज़ के आँगन पे कोई शाम झुकी है II

कांतिमोहन 'सोज़'

जो रंजिशें थी जो दिल में गुबार था ना गया / फ़राज़

जो रंजिशें थी जो दिल में गुबार था ना गया,
कि अब की बार गले मिल के भी गिला ना गया,

अब उस के वादा-ए-फ़र्दान को भी तरसते हैं,
कल उसकी बात पे क्यूँ ऐतबार आ ना गया,

अब उसके हिज्र में रोऐं या वस्ल में खुश हों,
वो दोस्त हो भी तो समझो कि दोस्ताना गया,

निगाहे-यार का क्या है हुई हुई ना हुई,
ये दिल का दर्द है प्यारे गया गया ना गया,

सभी को जान थी प्यारी सभी थे लब-बस्ता,
बस इक ‘फ़राज़’ था ज़ालिम से चुप रहा ना गया,

अहमद फ़राज़

अंतर / इला प्रसाद

मैंने पलाश की एक डाली हिलाई
और झर गया मेरी गोदी में
अथाह सौंदर्य!
तुम मर मिटे
पुरुष हो!
मैं चुपचाप निखरती रही
सुगंध तलाशती रही
स्त्री हूँ न!

इला प्रसाद

धूप है रंग है या सदा है / क़तील

धूप है ,रंग है या सदा है
रात की बन्द मुट्ठी में क्या है

छुप गया जबसे वो फूल-चेहरा
शहर का शहर मुरझा गया है

किसने दी ये दरे-दिल पे दस्तक
ख़ुद-ब-ख़ुद घर मेरा बज रहा है

पूछता है वो अपने बदन से
चाँद खिड़की से क्यों झाँकता है

क्यों बुरा मैं कहूँ दूसरों को
वो तो मुझको भी अच्छा लगा है

क़हत[1] बस्ती में है नग़मगी[2] का
मोर जंगल में झनकारता है

वो जो गुमसुम-सा इक शख़्स है ना
आस के कर्ब[3] में मुब्तिला[4] है

आशिक़ी पर लगी जब से क़दग़न[5]
दर्द का इर्तिक़ा[6] रुक गया है

दिन चढ़े धूप में सोने वाला
हो न हो रात-भर जागता है

इस क़दर ख़ुश हूँ मैं उससे मिलकर
आज रोने को जी चाहता है

मेरे चारों तरफ़ मसअलों[7]का
एक जंगल-सा फैला हुआ है

दब के बेरंग जुमलों[8] के नीचे
हर्फ़[9] का बाँकपन मर गया है

बेसबब उससे मैं लड़ रहा हूँ
ये मुहब्बत नहीं है तो क्या है

गुनगुनाया ‘क़तील’ उसको मैंने
उसमें अब भी ग़ज़ल का मज़ा है

शब्दार्थ:
  1. अकाल
  2. संगीत
  3. दु:ख
  4. ग्रस्त
  5. प्रतिबंध
  6. प्रगति
  7. समस्याओं
  8. वाक्यों
  9. शब्द

क़तील शिफ़ाई

हिन्दी भाषा / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

 
पड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा।
हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा।
बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती।
कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती।
आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नामही।
इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही।1।

जिसने जग में जन्म दिया औ पोसा, पाला।
जिसने यक यक लहू बूँद में जीवन डाला।
उस माता के शुचि मुख से जो भाषा सीखी।
उसके उर से लग जिसकी मधुराई चीखी।
जिसके तुतला कर कथन से सुधाधार घर में बही।
क्या उस भाषा का मोह कुछ हम लोगों को है नहीं।2।

दो सूबों के भिन्न भिन्न बोली वाले जन।
जब करते हैं खिन्न बने, मुख भर अवलोकन।
जो भाषा उस समय काम उनके है आती।
जो समस्त भारत भू में है समझी जाती।
उस अति सरला उपयोगिनी हिन्दी भाषा के लिए।
हम में कितने हैं जिन्होंने तन मन धान अर्पण किए।3।

गुरु गोरख ने योग साधाकर जिसे जगाया।
औ कबीर ने जिसमें अनहद नाद सुनाया।
प्रेम रंग में रँगी भक्ति के रस में सानी।
जिस में है श्रीगुरु नानक की पावन बानी।
हैं जिस भाषा से ज्ञान मय आदि ग्रंथसाहब भरे।
क्या उचित नहीं है जो उसे निज सर आँखों पर धारे।4।

करामात जिसमें है चंद-कला दिखलाती।
जिसमें है मैथिल-कोकिल-काकली सुनाती।
सूरदास ने जिसे सुधामय कर सरसाया।
तुलसी ने जिसमें सुर-पादप फलद लगाया।
जिसमें जग पावन पूत तम रामचरित मानस बना।
क्या परम प्रेम से चाहिए उसे न प्रति दिन पूजना।5।

बहुत बड़ा, अति दिव्य, अलौकिक, परम मनोहर।
दशम ग्रंथ साहब समान बर ग्रंथ बिरच कर।
श्रीकलँगीधार ने जिसमें निज कला दिखाई।
जिसमें अपनी जगत चकित कर ज्योति जगाई।
वह हिन्दी भाषा दिव्यता-खनि अमूल्य मणियों भरी।
क्या हो नहिं सकती है सकल भाषाओं की सिर-धारी।6।

अति अनुपम, अति दिव्य, कान्त रत्नों की माला।
कवि केशव ने कलित-कण्ठ में जिसके डाला।
पुलक चढ़ाये कुसुम बड़े कमनीय मनोहर।
देव बिहारी ने जिसके युग कमल पगों पर।
आँख खुले पर वह भला लगेगी न प्यारी किसे।
जगमगा रही है जो किसी भारतेन्दु की ज्योति से।7।

वैष्णव कवि-कुल-मुख-प्रसूत आमोद-विधाता।
जिसमें है अति सरस स्वर्ग-संगीत सुनाता।
भरा देशहित से था जिसके कर का तूँबा।
गिरी जाति के नयन-सलिल में था जो डूबा।
वह दयानन्द नव-युग जनक जिसका उन्नायक रहा।
उस भाषा का गौरव कभी क्या जा सकता है कहा!।8।

महाराज रघुराज राज-विभवों में रहते।
थे जिसके अनुराग-तरंगों ही में बहते।
राजविभव पर लात मार हो परम उदासी।
थे जिसके नागरी दास एकान्त उपासी।
वह हिन्दी भाषा बहु नृपति-वृन्द-पूजिता बंदिता।
कर सकती है उन्नत किये वसुधा को आनंदिता।9।

वे भी हैं, है जिन्हें मोह, हैं तन मन अर्पक।
हैं सर आँखों पर रखने वाले, हैं पूजक।
हैं बरता बादी, गौरव-विद, उन्नति कारी।
वे भी हैं जिनको हिन्दी लगती है प्यारी।
पर कितने हैं, वे हैं कहाँ जिनको जी से है लगी।
हिन्दू-जनता नहिं आज भी हिन्दी के रंग में रँगी।10।

एक बार नहिं बीस बार हमने हैं जोड़े।
पहले तो हिन्दू पढ़ने वाले हैं थोड़े।
पढ़ने वालों में हैं कितने उर्दू-सेवी।
कितनों की हैं परम फलद अंग्रेजी देवी।
कहते रुक जाता कंठ है नहिं बोला जाता यहाँ।
निज आँख उठाकर देखिए हिन्दी-प्रेमी हैं कहाँ?।11।

अपनी आँखें बन्द नहीं मैंने कर ली हैं।
वे कन्दीलें लखीं जो तिमिर बीच बली हैं।
है हिन्दी-आलोक पड़ा पंजाब-धारा पर।
उससे उज्ज्वल हुआ राज्य इन्दौर, ग्वालिअर।
आलोकित उससे हो चली राज-स्थान-बसुंधरा।
उसका बिहार में देखता हूँ फहराता फरहरा।12।

मध्य-हिन्द में भी है हिन्दी पूजी जाती।
उसकी है बुन्देलखण्ड में प्रभा दिखाती।
वे माई के लाल नहीं मुझ को भूले हैं।
सूखे सर में जो सरोज के से फूले हैं।
कितनी ही आँखें हैं लगी जिन पर आकुलता-सहित।
है जिनके सौरभ रुचिर से सब हिन्दी-जग सौरभित।13।

है हिन्दी साहित्य समुन्नत होता जाता।
है उसका नूतन विभाग ही सुफल फलाता।
निकल नवल सम्वाद-पत्र चित हैं उमगाते।
नव नव मासिक मेगजीन हैं मुग्ध बनाते।
कुछ जगह न्याय-प्रियतादि भी खुलकर हिन्दी हित लड़ीं।
कुछ अन्य प्रान्त के सुजन की आँखें भी उस पर पड़ीं।14।

किन्तु कहूँगा अब तक काम हुआ है जितना।
वह है किसी सरोवर के कुछ बूँदों इतना।
जो शाला, कल्पना-नयन सामने खड़ी है।
अब तक तो उसकी केवल नींव ही पड़ी है।
अब तक उसका कलका कढ़ा लघुतम अंकुर ही पला।
हम हैं बिलोकना चाहते जिस तरु को फूला फला।15।

बहुत बड़ा पंजाब औ यहाँ का हिन्दू-दल।
है पकड़े चल रहा आज भी उरदू-आँचल।
गति, मति उसकी वही जीवनाधार वही है।
उसके उर-तंत्री का धवनि मय तार वही है।
वह रीझ रीझ उसके बदन की है कान्ति विलोकता।
फूटी आँखों से भी नहीं हिन्दी को अवलोकता।16।

मुख से है जातीयता मधुर राग सुनाता।
पर वह है सोहराव और रुस्तम गुण गाता।
उमग उमग है देश-प्रेम की बातें करता।
पर पारस के गुल बुलबुल का है दम भरता।
हम कैसे कहें उसे नहीं हिन्दू-हित की लौ लगी।
पर विजातीयता-रंग में है उसकी निजता रँगी।17।

भाषा द्वारा ही विचार हैं उर में आते।
वे ही हैं नव नव भावों की नींव जमाते।
जिस भाषा में विजातीय भाव ही भरे हैं।
उसमें फँस जातीय भाव कब रहे हरे हैं।
है विजातीय भाव ही का हरा भरा पादप जहाँ।
जातीय भाव अंकुरित हो कैसे उलहेगा वहाँ।18।

इन सूबों में ऐसे हिन्दू भी अवलोके।
जिनकी रुचि प्रतिकूल नहीं रुकती है रोके।
वे होमर, इलियड का पद्य-समूह पढ़ेंगे।
टेनिसन की कविता कहने में उमग बढ़ेंगे।
पर जिसमें धाराएँ विमल हिन्दू-जीवन की बहीं।
वह कविता तुलसी सूर की मुख पर आतीं तक नहीं।19।

मैं पर-भाषा पढ़ने का हूँ नहीं विरोधी।
चाहिए हो मति निज भाषा भावुकता शोधी।
जहाँ बिलसती हो निज भाषा-रुचि हरियाली।
वही खिलेगी पर-भाषा-प्रियता कुछ लाली।
जातीय भाव बहु सुमन-मय है वर उर उपवन वही।
हों विजातीय कुछ भाव के जिसमें कतिपय कुसुम ही।20।

है उरके जातीय भाव को वही जगाती।
निज गौरव-ममता-अंकुर है वही उगाती।
नस नस में है नई जीवनी शक्ति उभरती।
उस से ही है लहू बूँद में बिजली भरती।
कुम्हलाती उन्नति-लता को सींच सींच है पालती।
है जीव जाति निर्जीव में निज भाषा ही डालती।21।

उस में ही है जड़ी जाति-रोगों की मिलती।
उस से ही है रुचिर चाँदनी तम में खिलती।
उस में ही है विपुल पूर्वतन-बुधा-जन-संचित।
रत्न-राजि कमनीय जाति-गत-भावों अंकित।
कब निज पद पाता है मनुज निजता पहचाने बिना।
नहिं जाती जड़ता जाति की निज भाषा जाने बिना।22।

गाकर जिनका चरित जाति है जीवन पाती।
है जिनका इतिहास जाति की प्यारी थाती।
जिनका पूत प्रसंग जाति-हित का है पाता।
जिनका बर गुण बीरतादि है गौरव-दाता।
उनकी सुमूर्ति महिमामयी बंदनीय विरदावली।
निज भाषा ही के अंक में अंकित आती है चली।23।

उस निज भाषा परम फलद की ममता तज कर।
रह सकती है कौन जाति जीती धरती पर।
देखी गयी न जाति-लता वह पुलकित किंचित।
जो निज-भाषा-प्रेम-सलिल से हुई न सिंचित।
कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा।
जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा।24।

हे प्रभु अपना प्रकृत रूप सब ही पहचाने।
निज गौरव जातीय भाव को सब सनमाने।
तम में डूबा उर भी आभा न्यारी पावे।
खुलें बन्द आँखें औ भूला पथ पर आवे।
निज भाषा के अनुराग की बीणा घर घर में बजे।
जीवन कामुक जन सब तजे पर न कभी निजता तजे।25।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रात पाली / कुमार सुरेश

हर ओर क्षितिज कि सड़क
गाढ़े कोलतार से ढँक जाती है
चलना दुश्वार हो जाता है
सारे मतभेद अस्तित्व खो देते हैं
दिमाग गहरे नशे में डूब जाते हैं
तब आनेवाली सुबह कि सजावट के लिए
मैं काली रात में घर से निकलता हूँ

इन घंटों में मन में अजीब सा
चैन फैल जाता है
संसार अपनी सीमाएं सिकोड़ लेता है
और जितनी छोटी सीमाएं होती हैं
उतना ही गहरा सुकून
इसलिए काम के अलावा कोई धुन
परेशान नहीं कर पाती

सुबह के तीन और चार के बीच
नींद सहनशक्ति को चुनौती देती है
तब सड़कों का गोरखा चौकीदार भी
हार मान जाता है
लेकिन मैं हार नहीं मानता
खेलता हूँ पूरा दांव

अलसुबह सूरज नई सुबह लिए
घर लौटता है
मैं घर लौटता हूँ
बदन में शाम लिए
मेरी चेतना पर अँधेरा घिर आता है
सूरज कि रोशनी से सराबोर कोलाहल के बीच
जब मैं सो जाता हूँ
अक्सर रात कि सुहानी नींदों का ख्वाब
देखता हूँ।

कुमार सुरेश

डायरी के भीतर-1 / किरण अग्रवाल

डायरी के भीतर सन्नाटा है
मेरे वन-बी०एच० अपार्टमेंट के भीतर भी सन्नाटा है
बिजली चली जाती है बार-बार
ड्रॉप हो जाता है इन्टरनेट-कनेक्शन

बाहर निकलती हूँ तो
सीमेंट के दैत्याकार वृक्ष खड़े हैं लाइन की लाइन
तारकोल की गली के दोनों ओर
जिन पर फले हुए हैं असंख्य और असंख्य लोग
और लोग और लोग

सिर ऊपर उठाती हूँ नाक की सिधाई में
तो आसमान की चौड़ी-पट्टी दिखाई देती है
बिना डाई लगी चौड़ी माँग की तरह
सामने उस पर टँके से प्रतीत होते हैं
पंख फड़फड़ाते दो पक्षी

लगता है जैसे मैं मैट्रिक्स में हूँ
या फिर लैपटॉप पर खेल रही हूँ
ठाँय-ठाँय का कोई खेल

अभी शूट करने की आवाज़ आएगी
डायरी के भीतर से उभरेगी एक चीत्कार
कहीं अतीत में इनैक्ट हो रहा होगा
क्रौंच-वध और वध एलबेट्रौस का
और दोनों पक्षी धम्म से नीचे गिर पड़ेंगे

किरण अग्रवाल

यही मंज़र थे अन-जाने से पहले / अम्बरीन सलाहुद्दीन

यही मंज़र थे अन-जाने से पहले
तुम्हारे शहर में आने से पहले

ज़मीं की धड़कनें पहचान लेना
कोई दीवार बनवाने से पहले

पलट कर क्यूँ मुझे सब देखते हैं
तुम्हारा ज़िक्र फ़रमाने से पहले

न जाने कितनी आँखें मुंतज़िर थीं
सितारे बाम पर आने से पहले

दरीचे बंद हो जाते हैं कितने
यहाँ मंज़र बदल जाने से पहले

अम्बरीन सलाहुद्दीन

धूप / अभिज्ञात

नंगे पाँव चल के मैं आया था धूप में
तू था, किसी दरख्त का साया था धूप में

कुछ अपनी भी आदत सी हो गयी थी दर्द की
कुछ हौसला भी उसने बढा़या था धूप में

सबके लिये दुआएं उसने मांगी दवा की
मुझको ही मसीहा ने बुलाया था धूप में

अपनी तो सारी उम्र ही इसमें निकल गई
मत कर हिसाब खोया क्या पाया था धूप में

गैरों ने क्या किया था ये याद क्या करें
खुद अपना भी तो साया पराया था धूप में

अभिज्ञात

दो नावों की सवारी / अल्हड़ बीकानेरी

कविता के साथ चली चाकरी चालीस साल
आखर मिटाए कब मिटे हैं ललाट के
रहा मैं दो नावों पे सवार-लीला राम की थी
राम ही लगाएंगे किनारे किसी घाट के
शारदा को नमन कबीरा को प्रणाम किया
छुए न चरण किसी चारण या भाट के
तोड़ गई ‘ग़ालिब’ को तीन महीनों की क़ैद
ताड़-सा तना हूँ दो-दो उम्र क़ैद काट के

अल्हड़ बीकानेरी

मेरे गाँव के स्कूल के बच्चें / ओम नागर

मेरे गाँव के स्कूल के बच्चें नहीं सीख पाते
पहली, दूसरी, तीसरी कक्षा तक भी
बारहखड़ी, दस तक पहाड़ा
जीभ से स्लेट चाटकर मिटाते रहते है दिनभर
‘अ’ से ‘ज्ञ’ तक के तमाम अक्षर ।

मेरे गाँव के स्कूल के बच्चें
अच्छी तरह से बता सकते है
बनिये की दुकान पर मिलने वाले
जर्दे के पाउच या सिगरेट के पैकेट
का मूल्य/खरीदने जाना जो पड़ता है
माड़साब की तलब की वास्तें
बच्चें तो बच्चें होते है
उन्हें नहीं पता होता
किस मुश्किल से पक पाता है घर में रोटी-साग
या क्यँू खरिदती है माँ
कभी-कभी अनाज के बदले
अच्छे से करेलें, आलू, गोभी, खरबूजा ।
मगर कई बार डर जातें है/
किसी माड़साब की आँखो में तैरती वहशत से ।

मेरे गाँव के स्कूल के बच्चें
अधिकतर ले लेते है
कार्य दिवस होते हुए भी
बेबात छुट्टियों का आनन्द
ऐसे मे, जल्दी घर पहुँचे बच्चो से
नही पूछता कोई कि क्यों लौटा है वह
समय से पूर्व
समझ जाते होगें शायद सभी अपने आप
कि आज फिर से हाजिरी मार कर गायब है
चारों के चारांे माड़साब ।

मेरे गाँव के स्कूल के बच्चें
नहीं भूलते, स्कूल जाते समय
साथ ले जाना टाट से बना आसन
उसी पर बैठकर पढ़ना है उन्हें
दिन हवा हुए! जब पढ़ा करते थे कहीं
सुदामा और कृष्ण एक साथ
अब महलो के वारिस बैठें होगें
किसी शहरी कान्वेन्ट की कक्षा में
तो सोचिये ! फिर
तीन मुट्ठी चावल पर राज
कौन द्वारकाधीश देगा ?

ओम नागर

प्रेतबाधा / अनूप सेठी

बड़ी तकलीफ में हूं
आंत मुंह को आती है जी
रह-रह कर ठाकुर पतियाता हूं
समझ कुछ नहीं पाता हूं
किस राह आता किस राह जाता हूं

गली में निकलता हूं
होठों में मनमोहन मिमियाता है

नुक्क्ड़ पर पहुंच पान मुंह में डाला नहीं
येचुरी करात भट्टाचार्य एक साथ भाषण दे जाता है

उठापटक करवाता मेरे भीतर नंबूदरीपाद डांगे पर
यहां तो पिछला सब धुल-पुंछ जाता है

बाजार की तरफ बढ़ता हूं
ईराक अफगानिस्तान पाकिस्तान हो के
कश्मीर पहुंचा देता है बुश का बाप और बच्चा

बराक ओबामा गांधी की अंगुली थामे
नोबल के ठीहे से
माथे पर कबूतर का ठप्पा लगवा लाता है

नदी पोखर की ओर निकलना चाहता हूं
कोपनहेगेन-क्योटो बंजर-बीहड़ गंद-फंद कचरा-पचरा
पैरों से लिथड़ा जाता

मुझमें ओसामा गुर्राता है
बिल गेट्स मुस्काता मर्डक कथा सुनाता
अंबानी नोट दिखाता है
अमर सिंह खींस निपोरे नेहरूजी बेहोशी में
मुक्तिबोध हड्डी से गड़ते
मार्क्स दाढ़ी खुजलाते टालस्टाय की भवों के बीच
अरे! अरे!! ये बापू आसाराम कहां घुसे आते

छिन्न-भिन्न उद्विग्न-खिन्न
तुड़ाकर पगहा पदयात्रा जगयात्रा पर जाना चाहूं
रथ लेकर अडवाणी आ डटते
रामलला को गांधी की धोती देनी थी
उमा भारती सोठी (छड़ी) ले भागी

जागूं भागूं जितना चाहे
वक्त के भंजित चेहरे
चिपके-दुबके लपके-लटके अंदर-बाहर
बौड़म मुहरे जैसा कभी इस खाने कभी उस खाने में
भौंचक-औचक घिरा हुआ पाता हूं
अपनी ही जमीन से खुद को हजार बार गिरा हुआ पाता हूं

जेब में तस्वीरें थीं नरेंद्रनाथ भगत सिंह की
पता नहीं कहां से राम लखन सीता माता
हनुमान चालीसा गाने लग जाते हैं

गिरीश कर्नाड कान में फुसफुस करते
मंच पर गुंजाएमान हो उठता है
खंडित प्रतिमा भंजित प्रतिमा
प्रतिमा बेदी लेकिन किन्नर कैलास गई थी
यह ओशो का चोगा पहने
गांधी जी दोपहर में कहां को निकले हैं

झर गए सूखे पत्तों जैसे
किसने कहा मेरे पंख उगे थे

बड़ी तकलीफ में हूं साहब
आंत मुंह को आती है
कबूतर ने अंडे दे दिए हैं
बीठ के बीच बैठा हूं
करो कुछ करो
मुझ नागरिक की प्रेतबाधा हरो!!

अनूप सेठी

छिन्दवाड़ा-6 / अनिल करमेले

मुंबई इलाहाबाद जयपुर हैदराबाद कलकत्ता में
कितनी बार पूछा लोगों ने - कहाँ है छिन्दवाड़ा ?

और फिर ख़ुद ही कहते-
अच्छा वही न जहाँ से पार्लियामेंट में....

और मैं हर बार डूबता शर्म से
लोग कहते नहीं अघाते क्या से क्या हो गया शहर

हाँ सचमुच क्या से क्या हो गया यह शहर !
गोंडवाना के सिपहसालारों

क्या पहचान बनी है इस छिन्दवाड़ा की।

अनिल करमेले

सब जैसा का तैसा / कैलाश गौतम

कुछ भी बदला नहीं फलाने !
सब जैसा का तैसा है
सब कुछ पूछो, यह मत पूछो
आम आदमी कैसा है ?

क्या सचिवालय क्या न्यायालय
सबका वही रवैया है
बाबू बड़ा न भैय्या प्यारे
सबसे बड़ा रुपैया है
पब्लिक जैसे हरी फ़सल है
शासन भूखा भैंसा है ।

मंत्री के पी. ए. का नक्शा
मंत्री से भी हाई है
बिना कमीशन काम न होता
उसकी यही कमाई है
रुक जाता है, कहकर फ़ौरन
`देखो भाई ऐसा है' ।

मन माफ़िक सुविधाएँ पाते
हैं अपराधी जेलों में
काग़ज़ पर जेलों में रहते
खेल दिखाते मेलों में
जैसे रोज़ चढ़ावा चढ़ता
इन पर चढ़ता पैसा है ।

कैलाश गौतम

हाथ-2 / ओम पुरोहित ‘कागद’

मेरे हाथ
मेरे कंधों पर थे
फिर भी
लोगों ने
मेरे हाथ ढूँढ़े
क्राँतियों में
भ्राँतियों में
यानी
तमाम अपघटितों में
बेबाक गवाहियाँ
निर्लज्ज पुष्टियों में थी
जबकि मैं
असहाय मौन
दूर खड़ा
दोनों हाथ
मलता रहा ।

ओम पुरोहित ‘कागद’

गिरा तो गिर के सर-ए-ख़ाक-ए-इब्तिज़ाल आया / अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

गिरा तो गिर के सर-ए-ख़ाक-ए-इब्तिज़ाल आया
मैं तेग़-ए-तेज़ था लेकिन मुझे ज़वाल आया

अजब हुआ कि सितारा-शनास से मिल कर
शिकस्त-ए-अंजुम-ए-नौ-ख़ेज़ का ख़याल आया

मैं ख़ाक-ए-सर्द पे सोया तो मेरे पहलू में
फिर एक ख़्वाब-ए-शिकस्त आइना-मिसाल आया

कमान-ए-शाख़ से गुल किस हदफ़ को जाते हैं
नशेब-ए-ख़ाक में जा कर मुझे ख़याल आया

कोई नहीं था मगर साहिल-ए-तमन्ना पर
हवा-ए-शाम में जब रंग-ए-इंदिमाल आया

यही है वस्ल दिल-ए-कम-मुआमला के लिए
कि आइने में वो ख़ुर्शीद-ए-खद्द-ओ-ख़ाल आया

अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

परदे के पीछे शायद कोई आंख हो / आर. चेतनक्रांति

उससे कहा गया कि सबसे पहले तुम्हें खुद को बचाना है उसके बाद दुनिया को
अगर समय रहा तो , पूरी ट्रेनिंग का सार बस यही था
कि जब जरुरत हो प्रेम दिखाना मुकर जाना अगर कोई याद दिलाये
कि तुम अपनेपन से मुस्कराये थे जब बेचने आये थे
मॉल बिकने के बाद तुम सिर्फ कम्पनी के हो कम्पनी के मॉल की तरह
और इसी तरह तुम्हें दिखना है, इसे जीवन शैली समझो
यह सिर्फ ड्यूटी कि बात नहीं है

और फिर हम उन्हें देखते हैं , नये बाजारों में
टीवी के परदों पर सड़कों के सिरहानों पर सजे चमकपटों पर
मूर्तियों सी शांत सुसज्जित लड़कियां
जिनकी त्वचा उनसे बेगानी कर दी गई
मुँह खोलने से पहले जो
हथेलिओं से थामतीं हैं कृत्रिम रासायनिक सौंदर्य को
जो दरअसल सम्पत्ति है पे मास्टर की
बुतों कि तरह ठस खड़े जोधा लड़के
जिनके बदन की मचलियाँ बींध दी गयीं हैं भव्य आतंक से
और जो हंसने से पहले जाने किससे इजाजत मांगते हैं
शायद दीवार में कोई आंख हो
शायद परदे के पीछे कोई डोरियां फंसाये बैठा हो ...

आर. चेतनक्रांति

ये आँसू बे-सबब जारी नहीं है / कलीम आजिज़

ये आँसू बे-सबब जारी नहीं है
मुझे रोने की बीमारी नहीं है

न पूछो ज़ख्म-हा-ए-दिल का आलम
चमन में ऐसी गुल-कारी नहीं है

बहुत दुश्वार समझाना है गम का
समझ लेने में दुश्वारी नहीं है

गज़ल ही गुनगुनाने दो मुझ को
मिज़ाज-ए-तल्ख-गुफ्तारी नहीं है

चमन में क्यूँ चलूँ काँटों से बच कर
ये आईन-ए-वफादारी नहीं है

वो आएँ कत्ल को जिस रोज चाहें
यहाँ किस रोज़ तैयारी नहीं है

कलीम आजिज़

किसी का गुमशुदा समान हूँ / गणेश पाण्डेय

कहाँ हो तुम
न जाने कब से
खुला है यह द्वार तुम्हारे लिए
मिश्री की डली
एक गिलास शीतल जल
और एक कप गर्म चाय
खास तुम्हारे लिए

मेरी थाली का पहला कौर
मेरी आँखों की पहली नींद
और पहला स्वप्न तुम्हारे लिए
कोई तीस बरस से
सब जस का तस
तुम्हारे लिए

गुलमोहर के ये लाल फूल
खिलते हैं तुम्हारे लिए
मेरी खिड़की के सामने
झूमता है
अमलतास के पीले फूलों का
गुच्छा
खास तुम्हारे लिए

मेरे कमरे की छत पर
छाती है काली घटा
और बरसता है मेघ तुम्हारे लिए
निकलता है दिन
और होती है रात तुम्हारे लिए
उगता है चांद
और बहती है ठंडी-ठडी पुरवाई
तुम्हारे लिए

किसी की शादी हो
चाहे कोई संगीत संध्या
दिन और मौसम कोई भी
अपने में लीन स्त्रियों
और इत्र की ख़ुशबुओं के बीच
तुम्हें ढ़ूँढ़-ढूँढ कर
लौटता हूँ थक-हार कर
नित्य

बाहर का उजाला हो
चाहे भीतर का अँधेरा
जर्जर किवाड़ पर हर दस्तक
हर आहट पर दौड़ पड़ता हूँ
फ़ोन की हर घंटी पर भागता हूँ
तुम्हारे लिए

जैसे मैं बना ही हूँ तुम्हारे लिए
कहाँ हो तुम
अपने इस पुराने और बेमरम्मत
सामान को छोड़कर
इस उम्र में
और इस मोड़ पर
अब और क्या हो सकता है भला
इस टूटे-फूटे जीवन में
इसके सिवा कि मैं किसी का
एक गुमशुदा सामान हूँ ।

गणेश पाण्डेय

अर्थशाला / भूमिका / केशव कल्पान्त

इच्छाएँ अनन्त है साथी,
लेकिन साधन तो हैं सीमित।
साधन की तुलना में रहती,
है आवश्यकताएँ असीमित।

जीवन क्रम में कदम-कदम पर,
‘निर्णय’ के अवसर आते हैं।
‘मापदण्ड रौबिन्स’ इसी से,
अर्थ क्रिया का पफल पाते हैं।

केशव कल्पान्त

Monday, February 24, 2014

जीवन-सार / अनिता ललित

प्रेम की बेड़ियाँ...
फूलों का हार,
विरह के अश्रु...
गंगा की धार ,
समझे जो वेदना... प्रिय के मन की
योग यही जीवन का... है यही सार!

अनिता ललित

मुझे भी दीजिए अख़बार / अकबर इलाहाबादी

मुझे भी दीजिए अख़बार का वरक़ कोई
मगर वह जिसमें दवाओं का इश्तेहार न हो

जो हैं शुमार में कौड़ी के तीन हैं इस वक़्त
यही है ख़ूब, किसी में मेरा शुमार न हो

गिला यह जब्र क्यों कर रहे हो ऐ ’अकबर’
सुकूत ही है मुनासिब जब अख़्तियार न हो

अकबर इलाहाबादी

गिर पड़ा तू आख़िरी ज़ीने का छू कर किस लिए / अफ़ज़ल मिनहास

गिर पड़ा तू आख़िरी ज़ीने का छू कर किस लिए
आ गया फिर आसमानों से ज़मीं पर किस लिए

आईना-ख़ानों में छुप कर रहने वाले और हैं
तुम ने हाथों में उठा रक्खे हैं पत्थर किस लिए

मैं ने अपनी हर मसर्रत दूसरों को बख़्श दी
फिर ये हंगामा बपा है घर से बाहर किस लिए

अक्स पड़ते ही मुसव्विर का क़लम थर्रा गया
नक़्श इक आब-ए-रवाँ पर है उजागर किस लिए

एक ही फ़नकार के शहकार हैं दुनिया के लोग
कोई बरतर किस लिए है कोई कम-तर किस लिए

ख़ुशबुओं को मौसमों का ज़हर पीना है अभी
अपनी साँसें कर रहे हो यूँ मोअŸार किस लिए

इतनी अहमियत के क़ाबिल तो न था मिट्टी का घर
एक नुक़्ते में सिमट आया समुंदर किस लिए

पूछता हूँ सब से अफ़ज़ल कोई बतलाता नहीं
बेबसी की मौत मरते हैं सुख़न-वर किस लिए

अफ़ज़ल मिनहास

मरूं तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊं / अहमद नदीम क़ासमी

मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ|
नदीम! काश यही एक काम कर जाऊँ|

ये दश्त-ए-तर्क-ए-मुहब्बत ये तेरे क़ुर्ब की प्यास,
जो इज़ाँ हो तो तेरी याद से गुज़र जाऊँ|

मेरा वजूद मेरी रूह को पुकारता है,
तेरी तरफ़ भी चलूं तो ठहर ठहर जाऊँ|

तेरे जमाल का परतो है सब हसीनों पर
कहाँ कहाँ तुझे ढूंढूँ किधर किधर जाऊँ|

मैं ज़िन्दा था कि तेरा इन्तज़ार ख़त्म न हो,
जो तू मिला है तो अब सोचता हूँ मर जाऊँ|

ये सोचता हूं कि मैं बुत-परस्त क्यूँ न हुआ,
तुझे क़रीब जो पाऊँ तो ख़ुद से डर जाऊँ|

किसी चमन में बस इस ख़ौफ़ से गुज़र न हुआ,
किसी कली पे न भूले से पाँव धर जाऊँ|

ये जी में आती है, तख़्लीक़-ए-फ़न के लम्हों में,
कि ख़ून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊँ|

अहमद नदीम क़ासमी

फूटती हैं कोपलें / अभिज्ञात

बार-बार
अपनी इबारतें बदलते-बदलते
मेरा मत
इतना घिस चुका है
कि
अंतिम खड़ा है
पहले के ही विरुद्ध।
हर चीज़ की शिनाख़्त ऐसे ही खोती है।

मेरी
शुबहाग्रस्त ईमानदार अभिव्यक्ति
अपनी क्रमिक आत्महत्या के बाद
एक ठूँठ है
जिस पर
अतिरिक्त अन्न खाकर
की हुए पक्षी की बीट से
फूटती हैं कोपलें।

अभिज्ञात

रिश्तों का उपवन इतना वीरान नहीं देखा / ओमप्रकाश यती

रिश्तों का उपवन इतना वीरान नहीं देखा।
हमने घर के बूढ़ों का अपमान नहीं देखा।
 
जिनकी बुनियादें ही धन्धों पर आधारित हैं
ऐसे रिश्तों को चढ़ते परवान नहीं देखा।

कोई तुम्हारा कान चुराकर भाग रहा, सुनकर
उसके पीछे भागे ,अपना कान नहीं देखा

दो पल को भी बैरागी कैसे हो पाएगा
उसका मन, जिसने जाकर शमशान नहीं देखा।

दिल से दिल के तार मिलाकर जब यारी कर ली
हमने उसके बाद नफ़ा–नुक़सान नहीं देखा।

ओमप्रकाश यती

मैं नहीं वह दीवार / कुमार विजय गुप्त

मैं नहीं वह दीवार
जो फूटती आग लावे की तरह
और आंगन के बीचोंबीच बन उठती
दो मृतात्माओं की एक कब्र

मैं नहीं वह दीवार
जिसके एकाध ईंच ईधर या उधर से
टूट जाये दो दिलों के बीच का तार

मैं नहीं वह दीवार
जिसके एक तरफ खुफिया कान
और दूसरे तरफ चुगलखोर मुंह

मैं नहीं शून्य की दीवार
मैं नहीं शीशे की दीवार
मैं नहीं काठ की दीवार
मैं नहीं लोहे की दीवार
न ही सोने चॉंदी की दीवार मैं

मैं वह दीवार हॅूं
जो उगती है धरती के सीने से
आशा आस्था की ईंटों से बनी
स्नेह सौहार्द्र के गारे से जुड़ी
साहुल लेवल के अनुशासन में बंधी
जेा उठती है हाथ की तरह
और थाम लेती आकाश छत

बर्लिन की ढाह दी गयी दीवार मैं नहीं
मैं हो सकती हूँ चीन की दीवार
जिसपे दौड़ती कोई सड़क सरपट
जिसमें आसन जमाये कोई चौकस चौकीदार

मैं वह दीवार हॅू
जिसमें ऑंख जैसी खिड़की है
दिल जैसा दरवाजा
और है दिमाग जैसा रोशनदान

देखना, एक रोज
मेरी जीर्ण-शीर्ण देह से उग ही आयोगा
कोई नीम..... कोई पीपल.... कोई वरगद !

कुमार विजय गुप्त

रोने की जगह मुस्करा रही थी वह लड़की... / अशोक कुमार पाण्डेय

वह मुस्कराती थी
बस मुस्कराए जाती थी लगातार
और उसके होठ मेरी उँगलियों की तरह लगते थे
उसके पास बहुत सीमित शब्द थे जिन्हें वह बहुत संभाल कर खर्च करती थी
हम दोनों के बीच एक काउंटर था जो हम दोनों से अधिक ख़ूबसूरत था
वह बार-बार उन शब्दों को अलग-अलग क्रमों में दोहरा रही थी
जिनसे ठीक विपरीत थी उसकी मुसकराहट
उस वक़्त मैं भी मुस्कुराना चाहता था लेकिन उसकी मुस्कराहट का आतंक तारी था मुझ पर.

कोई था उसकी मुसकराहट की आड में
हम दोनों ने नहीं देखा था उसे
वह पक्ष में थी जिसके और मैं विपक्ष में
एक पुराने बिल और वारंटी कार्ड के हथियार से मैं हमला करना चाहता था
और उसकी मुसकराहट कह रही थी कि बेहद कमजोर हैं तुम्हारे हथियार
मेरे हथियारों की कमजोरी में उस अदृश्य आदमी की ताकत छुपी हुई थी

कहीं नहीं था वह आदमी उस पूरे दृश्य में
हम ठीक से उसका नाम भी नहीं जानते थे
हम जिसे जानते थे वह नहीं था वह आदमी
पता नहीं उसके दो हाथ और दो पैर थे भी या नहीं
पता नहीं उसका कोई नाम था भी या नहीं
जो चिपका था उस दफ्तर के हर कोने में वह नाम नहीं हो सकता था किसी इंसान का

वह जो कहीं नहीं था और हर कहीं था
मुझे उससे पूछने थे कितने सारे सवाल
मैं मोहल्ले के दुकानदार की तरह उस पर गला फाड़ कर चिल्लाना चाहता था
मैं चाहता था उसके मुंह पर दे मारूं उसका सामान और कहूँ ‘पैसे वापस कर मेरे’
मैं चाहता था वह झुके थोड़ा मेरे रिश्तों के लिहाज में
फिर भले न वापस करे पैसे पर थोड़ा शर्मिन्दा होने का नाटक करे
एक चाय ही मंगा ले कम शक्कर की
हाल ही पूछ ले पिता जी का
दो चार गालियाँ ही दे ले आढत वाले को...

लेकिन वहाँ उस काउंटर पर बस एक ठन्डे पानी का गिलास था
और उससे भी ठंढी उस लड़की की मुसकराहट
जिससे खीझा चाहे जितना जाए रीझा नहीं जा सकता बिलकुल भी
जिससे लड़ते हुए कुछ नहीं हासिल किया जा सकता सिवा थोड़ी और उदास मुसकराहट के
मुझे हर क्षण लगता था कि बस अब रो देगी वह
लेकिन हर अगले जवाब के बाद और चौडी हो जाती उसकी मुसकराहट

क्या कोई जादू था उस काउंटर के पीछे कि बार-बार पैरों की टेक बदलती भी मुस्करा लेती थी वह
या फिर जादू उस नाम में जो किसी इंसान का हो ही नहीं सकता था
कि धोखा खाने के बावजूद जग रही थी मुझमें मुस्कराने की अदम्य इच्छा
क्या जादू था उस माहौल में कि चीखने की जगह सोच रहा था मैं
और रोने की जगह मुस्करा रही थी वह लड़की....

क्या ऐसे ही मुस्कराती होगी वह जब देर से लौटने पर डांटते होंगे पिता?
प्रेमी की प्रतीक्षा में क्या ऐसे ही बदलती होगी पैरों की टेक?
क्या ऐसे ही बरतती होगी नपे-तुले शब्द दोस्तों के बीच भी?
क्या वह कभी नहीं लडी होगी मोहल्ले के दुकानदार से?

मान लीजिए मिल जाए किसी दिन किसी भीडभाड वाली बस में
या कि किसी शादी-ब्याह में बाराती हूँ मैं और वह दिख जाय घराती की तरह
या फिर किसी चाट की दूकान पर भकोसते हुए गोलगप्पे टकरा जाएँ नज़रें...
तब?
तब भी मुस्कराएगी क्या वह इसी तरह?

अशोक कुमार पाण्डेय

पटाक्षेप / अनुलता राज नायर

कैसा मधुर स्वर था,
जब तुमने हौले से
किया था वादा
मुझसे मिलने का
मानों बज उठें हों,विश्वास के कई जलतरंग एक साथ....
मानों झील में खिला कोई सफ़ेद झक कमल!
आकाश सिंदूरी हो चमक उठा द्विगुणित आभा से
नाच उठा इन्द्रधनुषी रंगों वाला मोर, परों को फैलाये..
मानों कोई किसान लहलहाती फसल के बीच गा रहा हो कोई गीत
कैसा सुवासित वातावरण था...
फिर सुबह से सांझ और अब रात होने आई...
कहाँ हो तुम???
देखो दृश्य परिवर्तन होने लगा मेरे जीवन के रंगमंच का...

जलतरंग टूट के बिखरे...अश्रुओं संग बहा संगीत
कमल ने पंखुडियाँ समेट लीं...
पंछी घरों को लौट गए,
आसमां में यकायक बादल घुमड़ आये
रात स्याह हो चली...
किसान की फसल पर मानों पाला पड़ गया!
ये घुटन सी क्यूँ है???
कितना बदल गया सब
तेरे होने और ना होने के दरमियाँ...

शायद पटाक्षेप हुआ किसी नाटक का!!

अनुलता राज नायर

ऐ अहल-ए-वफ़ा दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते / इक़बाल अज़ीम

ऐ अहल-ए-वफ़ा दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
सोए हुए ज़ख़्मों को जगा क्यूँ नहीं देते

इस जश्न-ए-चराग़ाँ से तो बेहतर थे अँधेरे
इन झूटे चराग़ों को बुझा क्यूँ नहीं देते

जिस में न कोई रंग न आहंग न ख़ुश-बू
तुम ऐसे गुलिस्ताँ को जला क्यूँ नहीं देते

दीवार का ये उज़्र सुना जाएगा कब तक
दीवार अगर है तो गिरा क्यूँ नहीं देते

चेहरों पे जो डाले हुए बैठे हैं नक़ाबें
उन लोगों को महफ़िल से उठा क्यूँ नहीं देते

तौबा का यही वक़्त है क्या सोच रहे हो
सजदे में जबीनों को झुका क्यूँ नहीं देते

ये झूटे ख़ुदा मिल के डुबो देंगे सफ़ीना
तुम हादी-ए-बर-हक़ को सदा क्यूँ नहीं देते

इक़बाल अज़ीम

हुजूम-ए-गिरिया / अली अकबर नातिक़

हमें भी रो ले हुजूम-ए-गिर्या कि फिर न आएँगे ग़म के मौसम
हमें भी रो ले कि हम वही हैं
जो आफ़्ताबों की बस्तियों से सुराग़ लाए थे उन सवेरों का जिन को शबनम के पहले क़तरों ने ग़ुस्ल बख़्शा
सफ़ेद रंगों से नूर-ए-मअ’नी निकाल लेते थे और चाँदी उजालते थे
शफ़क़ पे ठहरे सुनहरे बादल से ज़र्द सोने को ढालते थे
ख़ुनुक हवाओं में ख़ुशबुओं को मिला के उन को उड़ाने वाले
सबा की परतों पे शेर लिख कर अदम की शक्लें बनाने वाले
दिमाग़ रखते थे लफ़्ज़-टो-मअ’नी का और दस्त-ए-हुनर के मालिक
वक़ार-ए-नूर-ए-चराग़ हम थे
हमें भी रो ले हुजूम-ए-गिर्या
हमें भी रो ले कि हम वही हैं
जो तेज़ आँधी में साफ़ चेहरों को देख लेते थे और साँसों को भाँपते थे
फ़लक-नशीनों से गुफ़्तुगूएँ थीं और परियों से खेलते थे
करीम लोगों की सोहबतों में कुशादा कू-ए-सख़ा को देखा
कभी न रोका था हम को सूरज के चोबदारों ने क़स्र-ए-बैज़ा के दाख़िले से
वही तो हम हैं
वही तो हम हैं जो लुट चुके हैं हफ़ीज राहों पे लुटने वाले
उसी फ़लक की सियह-ज़मीं पर जहाँ ले लर्ज़ां हैं शोर-ए-नाला से आदिलों की सुनहरी कड़ियाँ
हमें भी रो ले हुजूम-ए-गिर्या
हमें भी रो ले कि इन दिनों में हमारी पुश्तों पे बार होता है ज़ख़्म-ए-ताज़ा के सुर्ख़ फूलों का और गर्दन में सर्द आहन की कोहना लड़ियाँ
हमारी ज़िद में सफ़ेद नाख़ुन क़लम बनाने में दस्त-ए-क़ातिल का साथ देते हैं और नेज़े उछालते हैं
हवा की लहरों ने रेग-ए-सहरा की तेज़ धारों से रिश्ते जोड़े
शरीर हाथों से कंकरों की सियाह-बारिश के राब्ते हैं
हमारी ज़िद में ही मुल्कों मुल्कों के शहरयारों ने अहद बाँधे
सही कि हम को धुएँ से बाँधें और अब धुएँ से बंध हुए हैं
सो हम पे रोने के नौहा करने के दिन यहीं हैं हुजूम-ए-गिर्या
कि मुस्तैद हैं हमारे मातम को गहरे सायों की सर्द शामें
ख़िजाँ-रसीदा तवील शामें
हमें भी रो ले हुजूम-ए-गिर्या कि फिर न आएँगें ग़म के मौसम

अली अकबर नातिक़

मेरी भाषा के लोग / केदारनाथ सिंह

मेरी भाषा के लोग
मेरी सड़क के लोग हैं
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग

पिछली रात मैंने एक सपना देखा
कि दुनिया के सारे लोग
एक बस में बैठे हैं
और हिन्दी बोल रहे हैं
फिर वह पीली-सी बस
हवा में गायब हो गई
और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिन्दी
जो अन्तिम सिक्के की तरह
हमेशा बच जाती है मेरे पास
हर मुश्किल में

कहती वह कुछ नहीं
पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ
कि उसकी खाल पर चोटों के
कितने निशान हैं
कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण
पर इन सबके बीच
असंख्य होठों पर
एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह !

तुम झाँक आओ सारे सरकारी कार्यालय
पूछ लो मेज़ से
दीवारों से पूछ लो
छान डालो फ़ाइलों के ऊँचे-ऊँचे
मनहूस पहाड़
कहीं मिलेगा ही नहीं
इसका एक भी अक्षर
और यह नहीं जानती इसके लिए
अगर ईश्वर को नहीं
तो फिर किसे धन्यवाद दे !

मेरा अनुरोध है —
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —
कि राज नहीं — भाषा
भाषा — भाषा — सिर्फ़ भाषा रहने दो
मेरी भाषा को ।

इसमें भरा है
पास-पड़ोस और दूर-दराज़ की
इतनी आवाजों का बूँद-बूँद अर्क
कि मैं जब भी इसे बोलता हूँ
तो कहीं गहरे
अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु
यहाँ तक कि एक पत्ती के
हिलने की आवाज़ भी
सब बोलता हूँ ज़रा-ज़रा
जब बोलता हूँ हिंदी
 

पर जब भी बोलता हूं
यह लगता है —
पूरे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी हूँ
एक तद्भव का दुख
तत्सम के पड़ोस में ।

केदारनाथ सिंह

मस्ती-ए-गाम भी थी ग़फ़लत-ए-अंजाम / ज़ैदी

मस्ती-ए-गाम भी थी ग़फ़लत-ए-अंजाम के साथ
दो घड़ी खेल लिए गर्दिश-ए-अय्याम के साथ

तिश्ना-लब रहने पे भी साख तो थी शान तो थी
वज़ा-ए-रिंदाना गई इक तलब-ए-जाम के साथ

जब से हँगाम-ए-सफ़र अश्कों के तारे चमके
तल्ख़ियाँ हो गईं वाबस्ता हर इक शाम के साथ

अब न वो शोरिश-ए-रफ़्तार न वो जोश-ए-जुनूँ
हम कहाँ फँस गए यारान-ए-सुबुक-गाम के साथ

उड़ चुकी हैं सितम-आराओं की नींदें अक्सर
आप सुनिए कभी अफ़साना ये आराम के साथ

इस में साक़ी का भी दर-पर्दा इशारा तो नहीं
आज कुछ रिंद भी थे वाइज़-ए-बद-नाम के साथ

ग़ैर की तरह मिले अहल-ए-हरम ऐ 'ज़ैदी'
मुझ को यक-गो न अक़ीदत जो थी अस्नाम के साथ

अली जव्वाद 'ज़ैदी'

बच्चा - 2 / उदय भान मिश्र

पूरा घर
फूलों से
भर गया है

शायद
कोई बच्चा
इधर से
हंसता
गुजरा है।

उदय भान मिश्र

आसमानों में भी दरवाज़ा लगा कर देखें / अता तुराब

आसमानों में भी दरवाज़ा लगा कर देखें
क़ामत-ए-हुस्न का अंदाज़ा लगा कर देखें

इश्क़ तो अपने लहू में ही सँवरता है सो हम
किस लिए रूख़ पे कोई ग़ाज़ा लगा कर देखें

ऐन मुमकिन है कि जोड़े से ज़ियादा महके
अपने कालर में गुल-ए-ताज़ा लगा कर देखें

बाज़-गश्त अपनी ही आवाज़ की इल्हाम न हो
वादी-ए-ज़ात में आवाज़ा लगा कर देखें

अता तुराब

हम-सफ़र गुम रास्ते ना-पैद घबराता / ज़ैदी

हम-सफ़र गुम रास्ते ना-पैद घबराता हूँ मैं
इक बयाबाँ दर बयाबाँ है जिधर जाता हूँ मैं

बज़्म-ए-फ़िक्र ओ होश हो या महफ़िल-ए-ऐश ओ नशात
हर जगह से चंद नश्तर चंद ग़म लाता हूँ मैं

आ गई ऐ ना-मुरादी वो भी मंज़िल आ गई
मुझ को क्या समझाएँगे वो उन को समझाता हूँ मैं

उन के लब पर है जो हलके से तबस्सुम की झलक
उस में अपने आँसुओं का सोज़ भी पाता हूँ मैं

शाम-ए-तंहाई बुझा दे झिलमिलाती शम्मा भी
उन अँधेरों में ही अक्सर रौशनी पाता हूँ मैं

हिम्मत-अफ़ज़ा है हर इक उफ़्ताद राह-ए-शौक़ की
ठोकरें खाता हूँ गिरता हूँ सँभल जाता हूँ मैं

उन के दामन तक ख़ुद अपना हाथ भी बढ़ता नहीं
अपना दामन हो तो हर काँटे से उलझाता हूँ मैं

शौक़-ए-मंज़िल हम-सफ़र है जज़्बा-ए-दिल राह-बर
मुझ पे ख़ुद भी खुल नहीं पाता किधर जाता हूँ मैं

अली जव्वाद 'ज़ैदी'

एक सपना / आशीष जोग


मूक शब्दों की हवाएँ, खोलती हैं द्वार अर्थों के निरंतर,
वर्जना की गर्जना से, काँप उठते जीर्ण प्रश्न औ' श्रांत उत्तर.

प्रतिध्वनि लौटे क्षितिज की चोट खाकर,
रुद्ध कंठों की विषमताएँ,
ढली सांचों में शब्दों की,
छुपी अर्थों के निलयों में हैं आकर.

सुरधनु से पंख खोले,
तिर रहे नैनों के पाख़ी,
खोज में आखेट की,
जो जा छुपा मदिरा के प्यालों में,
भरे जिनको निरंतर काल-साकी.

जीर्ण अवशेषों क़ी स्मृतियाँ,
जा बसी नैनों की पोरों में,
समझ कर चंद्र जिनको,
उठा है हर्ष का कलरव चकोरों में.

नैन चढ़ते चिर निमेषों की चिता पर,
'नेति-नेति' की प्रत्यंचाएँ,
उलझती दिग्भ्रमित शर की शिराओं में,
जिन्हे बैठे हैं शब्द संधान में,
मानस के धनुधर,
तर्क-धनुओं पर चढ़ा कर.
 
भावना की मुठ्ठियों में,
है भरा आवेग कितना,
रेत की घड़ियों के
प्यालों से फिसलती रेत जैसा,
धो रही सदियों से जिसको,
स्तभता की सिंधु-लहरें,
और एकाकी किनारे,
खोजते छिटके प्रवालों में
छुपा हो कौन जाने-
एक सपना !

आशीष जोग

माँ का दुःख / ऋतुराज

कितना प्रामाणिक था उसका दुःख
लड़की को दान में देते वक्त
जैसे वही उसकी अंतिम पूँजी हो

लड़की अभी सयानी नहीं थी
अभी इतनी भोली सरल थी
कि उसे सुख का आभास होता था
लेकिन दुःख बाँचना नहीं आता था
पाठिका थी वह धुँधले प्रकाश की
कुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की

माँ ने कहा पानी में झाँककर
अपने चेहरे में मत रीझना
आग रोटियाँ सेंकने के लिए है
जलने के लिए नहीं
वस्त्र और आभूषण शब्दिक भ्रमों की तरह
बंधन हैं स्त्री-जीवन के

माँ ने कहा लड़की होना
पर लड़की जैसी मत दिखाई देना।

ऋतुराज

Sunday, February 23, 2014

क़त्लग़ाह / अशोक भाटिया

फैला है चारों तरफ़
माँओं के जिगर के ख़ून का ख़ून
हरी–भरी क्यारियाँ वासंती
बनतीं मरुस्थल बियाबान
आँचल को कर लहूलुहान
बन रहा सारा हिन्दुस्तान
कन्या–भ्रूणों का क़ब्रिस्तान

अंधेरे में छिपे सितारों पर
पूँजीवाद की कटार
वार करती बार–बार
जो ले ली है यमराज के हाथों से
सभ्य पुरुष ने
जो बाहर से गौरव है
भीतर से कौरव
अपने किए पर
ख़ुर्दबीन लगाए बैठा है भयभीत

गर्भ
सबसे बड़ा वधस्थल है देश का
चारों तरफ़ फैली मौत की रुधिर-धार
स्नेह–रज्जु को काट
लहराती है ख़ूनी कटार
सभ्यता इतराती है
जननी को जन्म से पहले
मिटाने की तैयारी में

मिटाने की तैयारी में
सर्पिल हाथ
बालों में लहराते
औरत की लाचारी पर
भय की मोहर लगाते
निर्बाध व्यापार के लिए
विजय–दिवस मनाते
करते दिलासा का पाठ–
मै हूँ न!

घर–दर–घर
बन रहे आतंक के मुर्दाघर
जीवन के थोथे शोर के बीच
एक हत्याकांड हो रहा बार–बार
लगातार
इस–उस जगह
प्रेम का भार ढो रहा
ऐसे ही शोर के बीच
सरे जहान का दर्द और लावा
समेटती बोली एक अजन्मी बेटी
संसार का सब कुछ
समाया था तुम्हारे भीतर माँ
पहाड़ों की ऊँचाई
समुद्र की लहरें
फूलों की ख़ुशबू
दरख़्तों की हरियाली ।
अनहद था वह मल्हार
जो तुझे मुझे महका रहा था
पर किसने राग शंकरा लगा
तुझे बैरागी बनने को किया मज़बूर ?
मुझे तुमसे अलग करने का
गुनाह किसने किया ? क्यों किया ?

माँ, सच बताओ
तुम्हें ठेले की तरह ठेलकर
कौन लाया था अस्पताल में ?
मंदिरों में तुमने
कैसी प्रार्थनाएँ की थी ?
भगवान से तुमने
क्या माँगा था वरदान ?

सीता ने धरती माँ को पुकारा था
तो उसे मिला सहारा था
पर माँ तुझे मुझे क्यों.....
मुझसे तो मुर्गी अच्छी है
कटती है
पर जन्म तो लेती है
माँ तूने मुझे जन्म देती
तो मैं तेरी लोरी होती
तूने लोरियों को क्यों गिरा दिया माँ !

क्या तुम्हारा पति
करता है तुमसे सच्चा प्रेम
या उसका मति–भ्रम
चाहता है वारिस और गति

क्या तुम करवाचौथ का व्रत
इसलिए रखती हो
कि सात जनम का साथी
करता रहे ख़ून का ख़ून

कौन कहता है कि हम आज़ाद हैं
तुम्हें जन्म देने की आज़ादी नहीं
मुझे जन्म लेने की आज़ादी नहीं

पुरुष कैसा किसान है
जो फ़सल को मनपंसद न जान
पकने से पहले ही जलवा देता है
इतना बड़ा किसान है तो
बोने से पहले
बीज का पता क्यों नहीं लगा लेता ?

माँ !
सदियों से यहाँ
पल–पल अग्नि–परीक्षा होती
पल–पल होता चीर–हरण!
इन घूरों में दबी आग अब
जल्द धधकने वाली है ।
सीता नहीं करेगी प्रार्थना अब
धरती में समाने की ।

झूठी सभ्यता का
पानी उतारने का हौसला लेकर
तुम्हें उठना होगा !
आँचल में दूध और
आँखो में पानी की कहानी को
बदलना होगा....

अशोक भाटिया

कालिज स्टूडैंट / काका हाथरसी

फादर ने बनवा दिये तीन कोट¸ छै पैंट¸
लल्लू मेरा बन गया कालिज स्टूडैंट।
कालिज स्टूडैंट¸ हुए होस्टल में भरती¸
दिन भर बिस्कुट चरें¸ शाम को खायें इमरती।
कहें काका कविराय¸ बुद्धि पर डाली चादर¸
मौज कर रहे पुत्र¸ हडि्डयां घिसते फादर।

पढ़ना–लिखना व्यर्थ हैं¸ दिन भर खेलो खेल¸
होते रहु दो साल तक फस्र्ट इयर में फेल।
फस्र्ट इयर में फेल¸ जेब में कंघा डाला¸
साइकिल ले चल दिए¸ लगा कमरे का ताला।
कहें काका कविराय¸ गेटकीपर से लड़कर¸
मुफ़्त सिनेमा देख¸ कोच पर बैठ अकड़कर।

प्रोफ़ेसर या प्रिंसिपल बोलें जब प्रतिकूल¸
लाठी लेकर तोड़ दो मेज़ और स्टूल।
मेज़ और स्टूल¸ चलाओ ऐसी हाकी¸
शीशा और किवाड़ बचे नहिं एकउ बाकी।
कहें 'काका कवि' राय¸ भयंकर तुमको देता¸
बन सकते हो इसी तरह 'बिगड़े दिल नेता।'

काका हाथरसी

तुम्हारी उदासी के कितने शेड्स हैं विनायक सेन / कुमार मुकुल

जानता हूँ विनायक सेन
बीमार अंधकार और लौहदंडों के घेरे में
दम घुट रहा है तुम्हारा
दम घुट रहा है जनाकांक्षाओं का
पर देखो तो
तुम्हारी उदासी
भासित हो रही है कैसी
बज रही है कितने सुरों में
कितने शेड्स हैं इसके


यहाँ बाजू में घास पर बैठे हैं मंगलेश जी
चुप्पा हकबकाए से
आधा सिर हिलाते
कि नहीं
ठीक ऐसा नहीं है
कि जिगर फ़िगर अवाम की कीमत पर ली गयी
उधार की यह चमक
मुझे मंज़ूर नहीं
पास ही घुटनों के बल
झुकी हैं भाषा सिंह
विस्फारित ने्त्रों में बच्चों सा विस्मय भरे
अपने धैर्य को मृदु हास्य में बदलती
कुछ बतिया रही हैं रंजीत वर्मा से
पास ही उबयाए से
बैठे हैं मदन कश्यप, रामजी यादव
कि तमाशा खड़ा करना हमारा मकसद नहीं
दाएँ बाजू सामने चप्पल झोला रखे
बैठे हैं अजय प्रकाश
अपनी खिलंदडी मुस्कान के साथ
सरल हास्य में डूबी नजरों से ताकती प्रेमा को दिखलाते
कि वो तो रही नंदिता दास
वही 'फ़िराक' वाली नंदिता दास
दीप्ती नवल की खनकती निगाह को
यतीम कर दिए गए बच्चे के दर्द में डुबोकर
जड़ कर देने वाली नंदिता दास
उधर पीछे खड़े हैं अभिषेक
अपनी ही चर्बी के इंकिलाब से अलबलाए
कि भईवा... इ पानी है कि गर्म चाय

कितने शेड्स हैं तुम्हारी उदासी के
कि साहित्य अकादमी की धूमिल होती इस सांझ में
शामिल हो रहा है रंग
खिलते अमलतास का
कि बजती है एक अंतरराष्ट्रीय धुन
कि सब तुम्हारे ही लिए हैं मेरी कुटुबुटु
कि चलता है रेला लोकधुन का
और फुसफुसाते हैं लोग
कि यह राजस्थानी है कि गुजराती
कि भुनभुनाता है कोई
कि यहाँ इस प्रीत के बोल की जरूरत क्या है

जरूरत है साथी
कि प्रीत के बोलों पर
अभिषेक और ऐश्वर्या की ही इजारेदारी नहीं
कि वे अपनी भूरी कांउस आँखों पर भी
कजरारे-कजरारे गवा लें
और पूरा मुलुक ताकता रह जाए
मुलुर-मुलुर
कि इन बोलों पर फैज-नेरूदा-हिकमत
का भी अधिकार है
कि प्रीत के बोलों पर
उनका ही अधिकार है
जो अपनी धुन में चले चलते हैं
मौत से हमबिस्तर होने के लिए

हाँ
ये सब तुम्हारी उदासी के ही शेड्स हैं विनायक सेन
उदासी की ही धुन है यह
जिस पर नाच रहे हैं इतने सारे जन-गन
(कि-कवि-पत्रकार
सबको लग रहा है
कि यह उदासी है
कि वे हैं ।

कुमार मुकुल

पेड़ खड़े रहे / ओम पुरोहित ‘कागद’

धरती से थी
प्रीत अथाह
इसी लिए
पेड़ खड़े रहे ।


कितनी ही आईं
तेज आँधियाँ
टूटे-झुके नहीं
पेड़ अड़े रहे ।


खूब तपा सूरज
नहीं बरसा पानी
बाहर से सूखे
भीतर से हरे
पेड़ पड़े रहे !

ओम पुरोहित ‘कागद’

रिवायत की तख़्लीक़ / अख्तर पयामी

मेरे नग़मे तो रिवायत के पाबंद नहीं
तू ने शायद यही समझा था नदीम
तू ने समझा था की शबनम की ख़ुनुक-ताबी से
मैं तेरा रंग महल और सजा ही दूँगा
तू ने समझा था की पीपल के घने साए में
अपने कॉलेज के ही रूमान सुनाऊँगा तुझे
एक रंगीन सी तितली के परों के क़िस्से
कुछ सहर-कार निगाहों के बयाँ
कुछ जवाँ साल अदाओं के निशाँ
कुछ करूँगा लब-ओ-रूख़्सार की बातें तुझ से
तू ने शायद यही समझा था नदीम
तू ने क्यूँ नहीं समझा की मेरे अफ़्साने
तंज़ बन कर तेरी साँसों में उलझ जाएँगे
ज़िंदगी चाँद की ठंडक ही नहीं
ज़िंदगी गर मशिनों का धुआँ भी है नहीं
इस धुँए में मुझे ज़ंजीर नज़र आती है
मुझे को ख़ुद तेरी ही तस्वीर नज़र आती है
ग़ौर से देख ज़रा देख तो ले
तुझ को डर है तेरी तहज़ीब न जल जाए कहीं
मुझ को डर है ये रिवायात न जल जाए कहीं
फिर इक दिन उसी ख़ाकिस्तर से
इक नए अहद की तामीर तो हो जाएगी
एक इंसान नया उभरेगा
सुब्ह और शाम की मिलती हुई सरहद के क़रीब
अपने चेहरे पे शफ़क़-ज़ार की सुर्ख़ी ले कर
मेरे नग़मे तो रिवायात के पाबंद नहीं
मैं रिवायात की तख़्लीक़ किया करता हूँ

अख्तर पयामी

अरूणाकाश / अरुणा राय

जीवन के तमाम रंग
खिलते हैं अरूणाकाश
में
तितलियाँ उड़ती हैं
पक्षी अपनी चहचहाटों
से
गुँजाते हैं अरूणाकाश
तड़कर गिरने से पहले
बिजलियां कौंधती हैं
अरूणाकाश में
वहाँ संचित रहते हैं
सारे राग-विराग
दुखी आदमी ताकता है ऊपर
अरूणाकाश
ठहाके उसे ही गुँजाते
हैं
आँसुओं के साथ मिट्टी
में गिरता
जब भारी हो जाता है दुख
तब ऊपर उठती आह
समेट लेता है जिसे
अरूणाकाश।

अरुणा राय

बेशर्म / अनीता कपूर

कितना बेशर्म सा
नंगा सा
यह वक़्त
छूते ही फिसल जाता है
एक दिन और आगे
चला जाता है

अनीता कपूर

गुरु-महिमा / कबीर

गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥

व्याख्या: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे।


गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥

व्याख्या: व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना - जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म - मरण से पार होने के लिए साधना करता है |


गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥

व्याख्या: गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।


कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम - जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥


व्याख्या: कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं।


गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥

व्याख्या: गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।


गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥६॥

व्याख्या: गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं। त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान - दान गुरु ने दे दिया।


जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥७॥

व्याख्या: यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा।


गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥८॥

व्याख्या: गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य - सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |


गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥९॥

व्याख्या: जैसे बने वैसे गुरु - सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो। निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु - स्वामी पास ही हैं।


गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥१०॥

व्याख्या: गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु - मूरति की ओर ही देखते रहो।


गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥११॥

व्याख्या: गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो। उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा।


ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥१२॥

व्याख्या: ज्ञान, सन्त - समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य - स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास - ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।


सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥१३॥

व्याख्या: सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।


पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥१४॥

व्याख्या: ‍बड़े - बड़े विद्व।न शास्त्रों को पढ - गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।


कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥१५॥

व्याख्या: कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु - वचनरूपी दूध को पियो। इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।


सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥१६॥

व्याख्या: अपने मन - इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये। कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है।


तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥१७॥

व्याख्या: शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं। अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो।


अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥१८॥

व्याख्या: मात - पिता निर्बुधि - बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं। पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं।


करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥१९॥

व्याख्या: ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।


साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥२०॥

व्याख्या: साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है। जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्जवल हो। भाव - ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो।


राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥२१॥

व्याख्या: कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा| इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी - देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा|


सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥२२॥

व्याख्या: सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |


सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥२३॥

व्याख्या: सद् गुरु सत्ये - भाव का भेद बताने वाला है| वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है|


सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥२४॥

व्याख्या: सद् गुरु मिल गये - यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|


मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर।
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर॥२५॥

व्याख्या: यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया| अब देने को रहा ही क्या है|


जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा॥२६॥

व्याख्या: जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर - नर मुनि और देवता सब थक गये| ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो|


जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान॥२७॥

व्याख्या: दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है| उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो|


डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय।
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय॥२८॥

व्याख्या: कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं| मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी - धारा में ऐ मनुष्यों - तुम कहां पड़े सोते हो|


केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय॥२९॥

व्याख्या: कितने लोग शास्त्रों को पढ - गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे|


सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु।
मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु॥३०॥

व्याख्या: ऐ संतों - यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म - मरण से रहित हो जाओ|


यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत॥३१॥

व्याख्या: यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है|


जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द॥३२॥

व्याख्या: जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा| अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये|


जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥३३॥

व्याख्या: विवेकी गुरु से जान - बुझ - समझकर परमार्थ - पथ पर नहीं चला| अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन|

कबीर