Pages

Thursday, February 27, 2014

उल्फ़त का फिर मन है बाबा / 'अना' क़ासमी

उल्फ़त का फिर मन है बाबा
फिर से पागलपन है बाबा

सब के बस की बात नहीं है
जीना भी इक फ़न है बाबा

उससे जब से आंख लड़ी है
आँखों के धड़कन है बाबा

अपने अंतरमन में झाँको
सबमें इक दरपन है बाबा

हम दोनों की ज़ात अलग है
ये भी इक अड़चन है बाबा

पूरा भारत यूं लगता है
अपना घर-आँगन है बाबा

जग में तेरा-मेरा क्या है
उसका ही सब धन है बाबा

'अना' क़ासमी

0 comments :

Post a Comment