पात झरे हैं सिर्फ़
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी।
अभी न कहना ठूँठ
टहनियों की उंगली नम है।
हर बहार को
खींच-खींच कर
लाने का दम है।
रंग मरे है सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी।
अभी लचीली डाल
डालियों में अँखुए उभरे
अभी सुकोमल छाल
छाल की गंधिल गोंद ढुरे।
अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी।
ये नंगापन
सिर्फ़ समय का
कर्ज़ चुकाना है
फिर तो
वस्त्र नए सिलवाने
इत्र लगाना है।
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी।
Thursday, February 27, 2014
सिर्फ़ / अनिरुद्ध नीरव
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