धरती से थी
प्रीत अथाह
इसी लिए
पेड़ खड़े रहे ।
कितनी ही आईं
तेज आँधियाँ
टूटे-झुके नहीं
पेड़ अड़े रहे ।
खूब तपा सूरज
नहीं बरसा पानी
बाहर से सूखे
भीतर से हरे
पेड़ पड़े रहे !
धरती से थी
प्रीत अथाह
इसी लिए
पेड़ खड़े रहे ।
कितनी ही आईं
तेज आँधियाँ
टूटे-झुके नहीं
पेड़ अड़े रहे ।
खूब तपा सूरज
नहीं बरसा पानी
बाहर से सूखे
भीतर से हरे
पेड़ पड़े रहे !
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