सुकवि की कविता की
हरी-भरी मनहर काई से
गिरता हूँ फिसल कर
वापस उसी जगह पर
अपने अनगढ़पन पर इतराती हुई
है जहाँ प्रकृति
एक आँकी-बाँकी नदी है
जहाँ कुछ भी नहीं करीने से
न पेड़ न पहाड़ न लाग न लोग
यह दुनिया
सुकवि की चिकनी मेज
की तरह समतल नहीं...।
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