धूप है ,रंग है या सदा है
रात की बन्द मुट्ठी में क्या है
छुप गया जबसे वो फूल-चेहरा
शहर का शहर मुरझा गया है
किसने दी ये दरे-दिल पे दस्तक
ख़ुद-ब-ख़ुद घर मेरा बज रहा है
पूछता है वो अपने बदन से
चाँद खिड़की से क्यों झाँकता है
क्यों बुरा मैं कहूँ दूसरों को
वो तो मुझको भी अच्छा लगा है
क़हत[1] बस्ती में है नग़मगी[2] का
मोर जंगल में झनकारता है
वो जो गुमसुम-सा इक शख़्स है ना
आस के कर्ब[3] में मुब्तिला[4] है
आशिक़ी पर लगी जब से क़दग़न[5]
दर्द का इर्तिक़ा[6] रुक गया है
दिन चढ़े धूप में सोने वाला
हो न हो रात-भर जागता है
इस क़दर ख़ुश हूँ मैं उससे मिलकर
आज रोने को जी चाहता है
मेरे चारों तरफ़ मसअलों[7]का
एक जंगल-सा फैला हुआ है
दब के बेरंग जुमलों[8] के नीचे
हर्फ़[9] का बाँकपन मर गया है
बेसबब उससे मैं लड़ रहा हूँ
ये मुहब्बत नहीं है तो क्या है
गुनगुनाया ‘क़तील’ उसको मैंने
उसमें अब भी ग़ज़ल का मज़ा है
Tuesday, February 25, 2014
धूप है रंग है या सदा है / क़तील
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments :
Post a Comment