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Monday, February 24, 2014

पटाक्षेप / अनुलता राज नायर

कैसा मधुर स्वर था,
जब तुमने हौले से
किया था वादा
मुझसे मिलने का
मानों बज उठें हों,विश्वास के कई जलतरंग एक साथ....
मानों झील में खिला कोई सफ़ेद झक कमल!
आकाश सिंदूरी हो चमक उठा द्विगुणित आभा से
नाच उठा इन्द्रधनुषी रंगों वाला मोर, परों को फैलाये..
मानों कोई किसान लहलहाती फसल के बीच गा रहा हो कोई गीत
कैसा सुवासित वातावरण था...
फिर सुबह से सांझ और अब रात होने आई...
कहाँ हो तुम???
देखो दृश्य परिवर्तन होने लगा मेरे जीवन के रंगमंच का...

जलतरंग टूट के बिखरे...अश्रुओं संग बहा संगीत
कमल ने पंखुडियाँ समेट लीं...
पंछी घरों को लौट गए,
आसमां में यकायक बादल घुमड़ आये
रात स्याह हो चली...
किसान की फसल पर मानों पाला पड़ गया!
ये घुटन सी क्यूँ है???
कितना बदल गया सब
तेरे होने और ना होने के दरमियाँ...

शायद पटाक्षेप हुआ किसी नाटक का!!

अनुलता राज नायर

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