जीवन के तमाम रंग
खिलते हैं अरूणाकाश
में
तितलियाँ उड़ती हैं
पक्षी अपनी चहचहाटों
से
गुँजाते हैं अरूणाकाश
तड़कर गिरने से पहले
बिजलियां कौंधती हैं
अरूणाकाश में
वहाँ संचित रहते हैं
सारे राग-विराग
दुखी आदमी ताकता है ऊपर
अरूणाकाश
ठहाके उसे ही गुँजाते
हैं
आँसुओं के साथ मिट्टी
में गिरता
जब भारी हो जाता है दुख
तब ऊपर उठती आह
समेट लेता है जिसे
अरूणाकाश।
Sunday, February 23, 2014
अरूणाकाश / अरुणा राय
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