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Tuesday, December 31, 2013

तराशा उसने / अभिज्ञात

दे के मिलने का भरोसा उसने
मुझको छोड़ा न कहीं का उसने

दूरियाँ और बढ़ा दी गोया
फ़ासला रख के ज़रा-सा उसने

यों भी तीखा था हुस्न का तेवर
संगे दिल को भी तराशा उसने

मेरे किरदारे वफ़ा को लेकर
सबको दिखलाया तमाशा उसने

हमने दिल रक्खा था लुटा बैठे
हुस्न पाया है भला-सा उसने

खत तो भेजा है मुहब्बत में मगर
अपना भेजा नहीं पता उसने

मेरे आगे वो बोलता ही नहीं
तुझसे क्या क्या कहा बता उसने

अभिज्ञात

जाने हैं हम / कृष्ण शलभ

जाने हैं हम, तुम कैसे थे, क्या हो गए, बताना क्या
रस्मन आओ बोल-चाल लें, ऐसा भी घबराना क्या

तुम मुझसे पूछो हो, सब कुछ ठीक-ठाक है, बोलूँ क्या
क्या कुछ कितना टूट गया है, समझो हो, समझाना क्या

मिल जाएँ तो अपने दीखें, बिछड़ें तो बेगाने-से
हाथ मिला जो हाथ झटक लें, उनसे हाथ मिलाना क्या

मुद्दत हुई, किया था वादा आने का, पर नहीं आए
तुमने अपने जी की कर ली, छोड़ो भी शरमाना क्या

रिश्ता तो रिश्ता है, रिश्तेदारी दिल का सौदा है
दिल ही न माने तो फिर प्यारे, खाली आना-जाना क्या

उठो शलभ जी डेरा छोड़ो, क्यों मन भारी करते हो
अपनी साँस नहीं जब अपनी, फिर अपना-बेगाना क्या!

कृष्ण शलभ

हास्य-रस -दो / अकबर इलाहाबादी

 *
पाकर ख़िताब नाच का भी ज़ौक़ हो गया
‘सर’ हो गये, तो ‘बाल’ का भी शौक़ हो गया
 *
बोला चपरासी जो मैं पहुँचा ब-उम्मीदे-सलाम-
"फाँकिये ख़ाक़ आप भी साहब हवा खाने गये"
 *
ख़ुदा की राह में अब रेल चल गई ‘अकबर’!
जो जान देना हो अंजन से कट मरो इक दिन.
 *
क्या ग़नीमत नहीं ये आज़ादी
साँस लेते हैं बात करते हैं!
 *
तंग इस दुनिया से दिल दौरे-फ़लक़ में आ गया
जिस जगह मैंने बनाया घर, सड़क में आ गया

अकबर इलाहाबादी

Saturday, December 7, 2013

कविता का वह काल पुरुष / अमित

गरल पिया जीवन भर जिसने, अमृत का रखवाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला ।

जीवन के झंझावतों से निशिदिन लड़ा अकेले,
सह कर देखे दुख कोई, जो महाप्राण ने झेले,
नहीं दीनता दिखलाई, था ऐसा साहस वाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

स्वर में स्वाभिमान का गर्जन, वाणी सरस्वती का नर्तन,
नई भंगिमा, नव अभिव्यंजन, छन्द-रुप-रस का परिवर्तन,
मत की परम्परा को जिसने तोड़ा वह मतवाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

रची भूमि जो उसने, उस पर फैला कुनबा सारा,
किन्तु किसी ने देखा क्या उस भिक्षुक को दोबारा,
कहाँ तोड़ती सड़क किनारे पत्थर अब वह बाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

अवसादों के क्षण में भी वह जन से कभी विरक्‍त नहीं था,
अपनी छवि की रक्षा के हित आत्ममुग्ध, अनुरक्‍त नहीं था,
था फक्कड़, जिसकी झोली में लाल करोड़ों वाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

तुलसी और राम दोनो के मन का कुशल चितेरा,
स्मृति में सरोज की जिसने अपना दर्द उकेरा,
क्षुद्र कुकुरमुत्‍ते को भी, सम्मान दिलाने वाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

करुणा करो दलित जन पर, माँगा था प्रभु से किसने,
बादल राग सुना कर हमको, मुग्ध किया था जिसने,
भिक्षुक है उदास, रोती है शिला कूटती बाला।
कविता का वह काल पुरुष, था जिसका नाम निराला।

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया / इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
जिस मुसलमाँ ने उसे देखा वो काफ़र हो गया

दिल-बरों के नक़्श-ए-पा में है सदफ़ का सा असर
जो मेरा आँसू गिरा उस में सो गौहर हो गया

क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
बर्ग-ए-गुल की तरह हर नाख़ुन मुअत्तर हो गया

आँख से निकले पे आँसू का ख़ुदा हाफ़िज़ ‘यक़ीं’
घर से जो बाहर गया लड़का सो अबतर हो गया

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

मुझ में पैदा जो होसला न हुआ / आदिल रशीद

ग़ालिब की ज़मीन में आदिल रशीद की एक ग़ज़ल
मुझ में पैदा जो होसला न हुआ
बेसबब वो भी बेवफा न हुआ
लबकुशाई से यूँ भी डरता हूँ
वो मुखातिब हुआ ,हुआ न हुआ
इक नज़र उस ने जब भी देखा है
कोई उस वक्त आशना न हुआ
कोई वादा मैं यूँ नहीं करता
कोई वादा अगर वफ़ा न हुआ
उम्र भर जिसपे नाज़ हम करते
उम्र भर ऐसा फैसला न हुआ
उसने सब कुछ कहा था गुस्से में
यूँ भी उस से मुझे गिला न हुआ

आदिल रशीद

शेरों में घर स्यार ने, छाया क्या है फेर / गंगादास

शेरों में घर स्यार ने, छाया क्या है फेर ।
पराक्रम बिन नाम से, हो नहीं सकता शेर ।।

हो नहीं सकता शेर, कभी शेरों में बसकर ।
सिंह अकेले रहें फिरें स्यारों के लश्कर ।।

गंगादास पनचास[1] नहीं रमते बेरों में ।
मुर्दे करें तलास स्यार बसकर शेरों में ।।

गंगादास

आज उनसे पहली मुलाकात होगी / आनंद बख़्शी

 
आज उनसे पहली मुलाक़ात होगी,
फिर आमने सामने बात होगी
फिर होगा क्या, क्या पता क्या खबर
फिर होगा क्या, क्या पता क्या खबर

अनदेखा अन्जाना मुखड़ा कैसा होगा
ना जाने वो चाँद का टुकड़ा कैसा होगा
अनदेखा अन्जाना मुखड़ा कैसा होगा
ना जाने वो चाँद का टुकड़ा कैसा होगा
मिलते ही उनसे हाय दिल में,
एक बेक़रारी सी दिन रात होगी
फिर होगा क्या ....

बैठें होंगे रास्ते पे वो आँखें बिछाये
हर आहट पे सोचते होंगे, साजन आये
बैठें होंगे रास्ते पे वो आँखें बिछाये
हर आहट पे सोचते होंगे, साजन आये
क्या हाल होगा, वहाँ कुछ ना पूछो
दिल में उमंगों कि बरात होगी
फिर होगा क्या ....

खुलके होंगी तन्हाई में दिल की बातें
प्यासे तनमन पे होंगी रिम-झिम बरसातें
खुलके होंगी तन्हाई में दिल की बातें
प्यासे तनमन पे होंगी रिम-झिम बरसातें
ऐ मेरे दिल ये भी तो सोच ले तू
कोई सहेली अगर साथ होगी
फिर होगा क्या....

आनंद बख़्शी

किताबें मानता हूँ रट गया है / अभिनव अरुण

किताबें मानता हूँ रट गया है
वो बच्चा ज़िंदगी से कट गया है।

है दहशत मुद्दतों से हमपर तारी
तमाशे को दिखाकर नट गया है।

धुंधलके में चला बाज़ार को मैं
फटा एक नोट मेरा सट गया है।

चलन उपहार का बढ़ना है अच्छा
मगर जो स्नेह था वो घट गया है।

पुराने दौर का कुर्ता है मेरा
मेरा कद छोटा उसमे अट गया है।

राजनीति में सेवा सादगी का
फलसफा रास्ते से हट गया है।

पिलाकर अंग्रेज़ी भाषा की घुट्टी
हमारा हक वो हमसे जट गया है।

ये फल और फूल सारे कागज़ी हैं
जड़ें बरगद की दीमक चट गया है।

अभिनव अरुण

लब-ए-ख़ामोश से अफ्शा होगा / अहमद नदीम क़ासमी

लब-ए-ख़ामोश से अफ्शा होगा
राज़ हर रंग में रुस्वा होगा

दिल के सहरा में चली सर्द हवा
अबर् गुलज़ार पर बरसा होगा

तुम नहीं थे तो सर-ए-बाम-ए-ख़याल
याद का कोई सितारा होगा

किस तवक्क़ो पे किसी को देखें
कोई तुम से भी हसीं क्या होगा

ज़ीनत-ए-हल्क़ा-ए-आग़ोश बनो
दूर बैठोगे तो चर्चा होगा

ज़ुल्मत-ए-शब में भी शर्माते हो
दर्द चमकेगा तो फिर क्या होगा

जिस भी फ़नकार का शाहकार हो तुम
उस ने सदियों तुम्हें सोचा होगा

किस क़दर कबर् से चटकी है कली
शाख़ से गुल कोई टूटा होगा

उमर् भर रोए फ़क़त इस धुन में
रात भीगी तो उजाला होगा

सारी दुनिया हमें पहचानती है
कोई हम-स भी न तन्हा होगा

अहमद नदीम क़ासमी

दुनिया बनी तो हम्द-ओ-सना बन गई ग़ज़ल / गणेश बिहारी 'तर्ज़'

दुनिया बनी तो हम्द-ओ-सना बन गई ग़ज़ल
उतरा जो नूर, नूर-ए-ख़ुदा बन गई ग़ज़ल

गूँजा जो नाद ब्रह्म, बनी रक़्स-ए-महर-ओ-माह
ज़र्रे जो थरथराए, सदा बन गई ग़ज़ल

चमकी कहीं जो बर्क़ तो ऐहसास बन गई
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल

आँधी चली तो कहर के साँचे में ढल गई
बाद-ए-सबा चली तो नशा बन गई ग़ज़ल

हैवां बने तो भूख बनी, बेबसी बनी
इनसान बने तो जज़्ब-ए-वफ़ा बन गई ग़ज़ल

उठा जो दर्द-ए-इश्क़ तो अश्क़ों में ढल गई
बेचैनियाँ बढ़ीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल

ज़ाहिद ने पी तो जाम-ए-पना बन के रह गई
रिंदों ने पी तो जाम-ए-बक़ा बन गई ग़ज़ल

अर्ज़-ए-दकन में जान तो देहली में दिल बनी
और शहर लख़नऊ में हिना बन गई ग़ज़ल

दोहे, रुबाई, नज़्में सब ‘तर्ज़’ थे मगर
असनाफ़-ए-शायरी का ख़ुदा बन गई ग़ज़ल

गणेश बिहारी 'तर्ज़'

Friday, December 6, 2013

उन्हें सवाल ही लगता है / अज़ीज़ क़ैसी

उन्हें सवाल ही लगता है मेरा रोना भी ।
अजब सज़ा है जहाँ में ग़रीब होना भी ।

ये रात भी है ओढ़ना-बिछौना भी,
इस एक रात में है जागना भी सोना भी ।

अजीब शहर है कि घर भी रास्तों की तरह,
कैसा नसीब है रातों को छुप के रोना भी ।

खुले में सोएँगे मोतिया के फूलों से,
सजा लो ज़ुल्फ़ बसा लो ज़रा बिछौना भी ।

अज़ीज़ कैसी यह सौदागरों की बस्ती है,
गराँ है दिल से यहाँ काठ का खिलौना भी।

अज़ीज़ क़ैसी

मुझे वो कुंज-ए-तनहाई से आख़िर / ऐतबार साज़िद

मुझे वो कुंज-ए-तनहाई से आख़िर कब निकालेगा
अकेले-पन का ये एहसास मुझ को मार डालेगा

किसी को क्या पड़ी है मेरी ख़ातिर ख़ुद को ज़हमत दे
परेशाँ हैं सभी कैसे कोई मुझ को सँभालेगा

अभी तारीख़ नामी एक जादू-गर को आना है
जो ज़िंदा शहर और अज्साम को पत्थर में ढालेगा

बस अगले मोड़ पर मंजिल तेरी आने ही वाली है
मेरे ऐ हम-सफ़र तू कितना मेरा दुख बटा लेगा

शरीक-ए-रंज क्या करना उसे तकलीफ़ क्या देनी
के जितनी देर बैठेगा वही बातें निकालेगा

रिहा कर दे क़फ़स की क़ैद से घायल परिंदे को
किसी के दर्द को इस दिल में कितने साल पालेगा.

ऐतबार साज़िद

रुखसाना का घर-5 / अनिता भारती

ओ मुजफ्फर नगर की
लोहारिन वधु
जब तुम आग तपा रही थी भट्टी में
उस भट्टी में गढ़ रही थी औजार
हंसिया, दाव और बल्लम
तब क्या तुम जानती थी
कि ये सब एक दिन
तुम्हारे वजूद को खत्म करने के काम आयेगे
कुछ दिन पहले तुम खुश थी चहक रही थी
अम्मी आजकल हमारा काम धंधा जोरो पर है
भट्टी रात दिन जलती है
इस ईदी पर हम दोनों जरुर आयेगे
तुमसे मिलने और ईदी लेने
पर क्या तुम उस समय जानती थी
यह औजार किसानों के लिए नही
ये हथियार दंगों की फसल
काटने के लिए बनवाएं जा रहे है
कितनी भोली थी तुम्हारी
ये ईदी लेने की छोटी सी इच्छा

अनिता भारती

जहाँ में हाल मेरा / अकबर इलाहाबादी

जहाँ में हाल मेरा इस क़दर ज़बून हुआ
कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ

ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं
मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ

वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर
उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ

उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी
ज़रिया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ

निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर
हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ

अकबर इलाहाबादी

हाथ आकर लगा गया कोई / कैफ़ी आज़मी

 
हाथ आ कर गया, गया कोई ।
मेरा छप्पर उठा गया कोई ।

लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई ।

मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई ।

ऐसी मंहगाई है कि चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई ।

अब कुछ अरमाँ हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई ।

यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई ।

वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा-मोटा ख़ुदा गया कोई ।

मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई ।

कैफ़ी आज़मी

ये रेशमी जुल्फ़ें, ये शर्बती आँखें / आनंद बख़्शी

 
ये रेशमी ज़ुल्फ़ें, ये शरबती आँखें
इन्हें देख कर जी रहे हैं सभी
ये रेशमी ज़ुल्फ़ें, ये शरबती आँखें
इन्हें देख कर जी रहे हैं सभी

जो ये आँखे शरम से, झुक जाएंगी
सारी बातें यहीं बस, रुक जाएंगी
जो ये आँखे शरम से, झुक जाएंगी
सारी बातें यहीं बस, रुक जाएंगी
चुप रहना ये अफ़साना, कोई इनको ना बतलाना कि
इन्हें देख कर जी रहे हैं सभी
इन्हें देख कर जी रहे हैं सभी

ज़ुल्फ़ें मग़रूर इतनी, हो जाएंगी
दिल तो तड़पाएंगी, जी को तरसाएंगी
ज़ुल्फ़ें मग़रूर इतनी, हो जाएंगी
दिल तो तड़पाएंगी, जी को तरसाएंगी
ये कर देंगी दीवाना, कोई इनको ना बतलाना कि
इन्हें देख कर जी रहे हैं सभी
इन्हें देख कर जी रहे हैं सभी

आनंद बख़्शी

देह तो आख़िर / कृष्णमोहन झा

देह तो आखिर देह ही है

कौन नहीं जानता
पुरुष के शरीर की बनावट
कौन स्त्री-देह की संरचना से है अनभिज्ञ

लेकिन आजकल जितनी दूर तक नजर जाती है
एक प्रचंड आक्रमण की तरह
देह ही देह नजर आती है

कोई लय नहीं
कोई कोमलता नहीं
ह्रदय के सबसे प्राचीन तट पर
किसी पद-चिह्न को सँजो रखने की विकलता नहीं

देह से परे
किसी अज्ञात आलोक के स्पर्श के लिए
कोई सपना नहीं
ओस में भींगे फूल की तरह
प्रेम से भारी होकर
घास के आगे झुक जाने की कामना नहीं

रेस्त्राँ से लेकर
रूम तक जाने में जितना समय लगता है
अगर कह सकते हैं
तो उतना ही बचा है हमारे युग में
रोमांस

कृष्णमोहन झा

एक अजनबी, हसीना से, यूँ मुलाकात, हो गई / आनंद बख़्शी

 
एक अजनबी, हसीना से, यूँ मुलाकात, हो गई
फिर क्या हुआ, ये ना पूछो, कुछ ऐसी बात, हो गई
एक अजनबी ...

वो अचानक आ गई, यूँ नज़र के सामने
जैसे निकल आया घटा से चाँद
चेहरे पे ज़ुल्फ़ें, बिखरी हुई थीं
दिन में रात हो गई
एक अजनबी ...

जान-ए-मन जान-ए-जिगर, होता मैं शायर अगर
कहता ग़ज़ल तेरी अदाओं पर
मैं ने ये कहा तो, मुझसे ख़फ़ा वो
जान-ए-हयात हो गई
एक अजनबी ...

खूबसूरत बात ये, चार पल का साथ ये
सारी उमर मुझको रहेगा याद
मैं अकेला था मगर, बन गई वो हमसफ़र
वो मेरे साथ हो गई
एक अजनबी ...

आनंद बख़्शी

तुम्हारी पलकों का कँपना / अज्ञेय

तुम्हारी पलकों का कँपना ।
तनिक-सा चमक खुलना, फिर झँपना ।
तुम्हारी पलकों का कँपना ।

मानो दीखा तुम्हें किसी कली के
खिलने का सपना ।
तुम्हारी पलकों का कँपना ।

सपने की एक किरण मुझको दो ना,
है मेरा इष्ट तुम्हारे उस सपने का कण होना,
और सब समय पराया है
बस उतना क्षण अपना ।

तुम्हारी
पलकों का कँपना ।

अज्ञेय

मज़लूम का जलाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल / ओम प्रकाश नदीम

ग़ज़ल को नए तेवर देकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले ग़ज़लकार दुष्यन्त कुमार को उनकी जयन्ती के मौक़े पर बतौर खिराज-ए-अक़ीदत

मज़लूम का जलाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल ।
कमज़ोर की मजाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल ।

झुलसा दिए हैं जिसने दरख़्तों के साए भी,
उस धूप का ज़वाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल ।

जिनको जवाब देना है संसद के सामने,
उनके लिए सवाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल ।

इक परकटे परिन्द में उड़ने का हौसला,
पैदा किया, कमाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल ।

हिन्दी को बेमिसाल कोई माने या नहीं,
हिन्दी में बेमिसाल है दुष्यन्त की ग़ज़ल ।

ओम प्रकाश नदीम

घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता / ग़ालिब

घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-तामीर सो है

ग़ालिब

अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा / इक़बाल

अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
आब ओ गिल के खेल को अपना जहाँ समझा था मैं

बे-हिजाबी से तेरी टूटा निगाहों का तिलिस्म
इक रिदा-ए-नील-गूँ को आसमाँ समझा था मैं

कारवाँ थक कर फ़ज़ा के पेच-ओ-ख़म में रह गया
मेहर ओ माह ओ मुश्तरी को हम-इनाँ समझा था मैं

इश्क़ की इक जस्त ने तय कर दिया क़िस्सा तमाम
इस ज़मीन ओ आसमाँ को बेकराँ समझा था मैं

कह गईं राज़-ए-मोहब्बत पर्दा-दारी-हा-ए-शौक़
थी फ़ुग़ाँ वो भी जिसे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ समझा था मैं

थी किसी दरमांदा रह-रौ की सदा-ए-दर्दनाक
जिस को आवाज़-ए-रहिल-ए-कारवाँ समझा था मैं

अल्लामा इक़बाल

काँटा सा जो चुभा था / 'अदा' ज़ाफ़री

काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या
घुलता हुआ लहू में ये ख़ुर्शीद सा है क्या

पलकों के बीच सारे उजाले सिमट गए
साया न साथ दे ये वही मरहला है क्या

मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ
तुम मुझ से पूछते हो मेरा हौसला है क्या

साग़र हूँ और मौज के हर दाएरे में हूँ
साहिल पे कोई नक़्श-ए-क़दम खो गया है क्या

सौ सौ तरह लिखा तो सही हर्फ़-ए-आरज़ू
इक हर्फ़-ए-आरज़ू ही मेरी इंतिहा है क्या

इक ख़्वाब-ए-दिल-पज़ीर घनी छाँव की तरह
ये भी नहीं तो फिर मेरी ज़ंजीर-ए-पा है क्या

क्या फिर किसी ने क़र्ज़-ए-मुरव्वत अदा किया
क्यूँ आँख बे-सवाल है दिल फिर दुखा है क्या

'अदा' ज़ाफ़री

यमन / आस्तीक वाजपेयी

हवा की चाल को पहचानकर,
पूर्व की ओर उड़ती गोरैयों का झुण्ड
एक नया क्षितिज बना रहा है ।

कुछ धूल उड़ गई है
अब थमने के लिए
पत्ते थम गए हैं,
पेड़ हिलते हैं हौले-हौले
पहाड़ से निकलकर
रात आसमान को ख़ुद में समेट रही है ।

काले पानी में मछलियाँ
हिल रही हैं, सोते हुए खुली आँखों से
एक समय का बयाँ करती
हिल रही हैं हौले-हौले ।

बुढ़ापे को छिपाती आँखें
हँसती हैं ।
कौन सुनता है, कोई नहीं
कौन नहीं सुनता, कोई नहीं ।

सदियों पहले
अकबर के दरबार में बैठे
सभागण उठते हैं,
तानसेन के अभिवादन में
दरी बिछी, तानपुरे मिले
सूरज थम गया
संगीत की उस एकान्तिकता प्रतीछा में
जो हमारी एकान्तिकता को हरा देती है ।

सब मौन, सब शान्त, सब विचलित
तानपुरे के आगे बैठे बड़े उस्ताद
एक खाली कमरे में वीणा उठाते हैं
निषाद लगाते हैं ।
सभा जम गई है ।

आस्तीक वाजपेयी

प्रसिद्धी / अनीता अग्रवाल


प्रसिद्धी आती है
बताकर
प्रेम आता है
निःशब्द
कभी आँखें भाषा बनती है
कभी भाषा को
आँखें चकित करती है
अन्तस्तल के साथ

अनिता अग्रवाल

ज़िन्दगी जीने की कला / अलका सर्वत मिश्रा

ज़िन्दगी जीने की
कला सिखाना
भूल गए मुझे
मेरे बुजुर्ग।
मैंने देखा
लोगों ने बिछाए फूल
मेरी राहों में,
प्रफुल्लित थी मैं !
पहला क़दम रखते ही
फूलों के नीचे
दहकते शोले मिले ,
क़दम वापस खींचना
मेरे स्वाभिमान को गँवारा नहीं था
इस एक क़दम ने
खींच दी तस्वीर यथार्थ की
दे दी ऎसी शक्ति
मेरी आँखों में
जो अब देख लेती हैं
परदे के पीछे का सच
हर क़दम पर
लगता है
आ गया है चक्रव्यूह का साँतवा द्वार
जिसे नहीं सिखाया तोड़ना
मेरे बुजुर्गों ने मुझे
और हार जाऊँगी अब !
किन्तु
वाह रे स्वाभिमान
जो हिम्मत नहीं हारता
जो नहीं स्वीकारता
कि मैं चक्रव्यूह में फँसी
अभिमन्यु हूँ।
जिस पर वार करते हुए
सातों महारथी
भूल जाएँगे युद्ध का धर्म
एक बार पुनः
ललकारने लगता है
मेरे अन्दर का कृष्ण ,मुझे
कि उठो ,
युद्ध करो !और जीत लो !!
ज़िन्दगी का महाभारत .
पुनः आँखों में ज्वाला भरे
आगे बढ़ते क़दमों के साथ
सोचती हूँ मैं
कि ज़िन्दगी जीने की
कला सिखाना
भूल गए मुझे....

अलका सर्वत मिश्रा

कहा नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये / शहबाज़

कहाँ नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये
 समझ में लाल की अब तक हिना नहीं आई

 ख़जिल है आँखों से नर्गिस गुलाब गालों से
 वो कौन फूल है जिस को हया नहीं आई

 उमड़ रहा है पड़ा दिल में शौक़ ज़ुल्फ़ों का
 ये झूम झूम के काली घटा नहीं आई

 हो जिस से आगे वो बुत हम से हम-सुख़न वाइज़
 कहीं हदीस में ऐसी दुआ नहीं आई

 ज़बाँ पे उस की है हर दम मेरी बला आए
 बला भी आए तो समझो बला नहीं आई

 शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
 बुला बुला के थके हम क़ज़ा नहीं आई

 नज़र है यार की 'शहबाज़' कीमिया-तासीर
 पर अपने हिस्से में ये कीमिया नहीं आई

अब्दुल ग़फ़ूर 'शहबाज़'

Thursday, December 5, 2013

आ जाए न रात कश्तियों में / अय्यूब ख़ावर

आ जाए न रात कश्तियों में
फेंकूँ न चराग़ पानियों में

इक चादर-ए-ग़म बदने पे ले कर
दर-दर फिरता हूँ सर्दियों में

धागों की तरह उलझ गया है
इक शख़्स मेरी बुराइयों में

उस शख़्स से यूँ मिला हूँ जैसे
गिर जाए नदी समंदरों में

लोहार की भट्टी है ये दुनिया
बंदे हैं अज़ाब की रूतों में

अब उन के सिरे कहाँ मिलेंगे
टूटे हैं जो ख़्वाब ज़लज़लों में

मौसम पे ज़वाल आ रहा है
खिलते थे गुलाब खिड़कियों में

अंदर तो है राज रत-जगों का
बाहर की फ़ज़ा है आँधियों में

कोहरा सा भरा हुआ है ‘ख़ावर’
आँखों के उदास झोंपड़ों में

अय्यूब ख़ावर

शोषक भैया / अज्ञेय

डरो मत शोषक भैया : पी लो
मेरा रक्त ताज़ा है, मीठा है हृद्य है
पी लो शोषक भैया : डरो मत।

शायद तुम्हें पचे नहीं-- अपना मेदा तुम देखो, मेरा क्या दोष है।
मेरा रक्त मीठा तो है, पर पतला या हल्का भी हो
इसका ज़िम्मा तो मैं नहीं ले सकता, शोषक भैया?
जैसे कि सागर की लहर सुन्दर हो, यह तो ठीक,
पर यह आश्वासन तो नहीं दे सकती कि किनारे को लील नहीं लेगी

डरो मत शोषक भैय : मेरा रक्त ताज़ा है,
मेरी लहर भी ताज़ा और शक्तिशाली है।
ताज़ा, जैसी भट्ठी में ढलते गए इस्पात की धार,
शक्तिशाली, जैसे तिसूल : और पानीदार।
पी लो, शोषक भैया : डरो मत।

मुझ से क्या डरना?
वह मैं नहीं, वह तो तुम्हारा-मेरा सम्बन्ध है जो तुम्हारा काल है
शोषक भैया!

दिल्ली, 1953

अज्ञेय

हिन्दी मेरी भाषा / अविनाश

हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है

सब्‍जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
ये मैं क्या कह रहा हूँ
ऐसा तो मुसलमान कहते हैं

यहाँ तक कि गोश्‍त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हज़ारों-हज़ार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक़्त पर खाने से मना नहीं करता

हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
लखनऊ अभी दूर है
शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर

दोस्त कहते हैं
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है
पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं

मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूँ गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं

दोस्तों की किनाराक़शी मंज़ूर है
मंज़ूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें
मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है

‘वैष्‍णव जन तो तेणे कहिए जे
पीर परायी जाणी रे’

हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे

कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!

अविनाश

शिरकत / अजय कृष्ण

अब तक सन्ना रहा है तप्त आसमान
भटक रहा है आँधियों में झुलसता गिद्ध
थकता है दिन
पत्ते होते हैं सुर्ख़
शान्त पड़ते हैं वृक्ष
फिर भी काफ़ी गति है हवा में
दर्द से सिहर उठती हैं फुनगियाँ
जब पोरों में सूखता है आख़िरी कतरा

खखोरता है खुरपे पर
कोई बचा-खुचा सीमेंट
कान्हे पर लिए बन्दूक
खोजता है पानी एक जवान

और उधर
फिसलता है सूरज / उतरती है ज़मीन पर /
जले हुए जंगलों की राख

आज की तारीख़ में
इतनी सी शिरकत
करता है इतिहास

अजय कृष्ण

हाले दिल सुना नहीं सकता / अकबर इलाहाबादी

हाले दिल सुना नहीं सकता
लफ़्ज़ मानी को पा नहीं सकता

इश्क़ नाज़ुक मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता

होशे-आरिफ़ की है यही पहचान
कि ख़ुदी में समा नहीं सकता

पोंछ सकता है हमनशीं आँसू
दाग़े-दिल को मिटा नहीं सकता

मुझको हैरत है इस कदर उस पर
इल्म उसका घटा नहीं सकता

अकबर इलाहाबादी

उसका क्या वो दरिया था उसको बहना ही बहना था / ओम प्रकाश नदीम

उसका क्या वो दरिया था उसको बहना ही बहना था ।
लेकिन तुम तो पर्वत थे, तुमको तो साबित रहना था ।

कितनी जल्दी उसके चेहरे पर तब्दीली आई थी,
थोड़ी देर ही पहले उसने अपना रुतबा पहना था ।

उसके काँधों पर ही ज़िम्मेदारी थी तामीरी की,
उसको बुनियादी होने का ग़म सहना ही सहना था ।

दोनों थे बरअक्स मगर दोनों ही मेरे साहिल थे,
मुझको दोनों ही जानिब से हाथ मिला कर रहना था ।

घर से निकला था ये सोच के ये, ये कहना है उनसे,
लौटा तो कुछ याद न था क्या कह आया क्या कहना था ।

हम चलते या रुकते हर सूरत में धूप की चाँदी थी,
पेड़ बहुत थे रस्ते में लेकिन हर पेड़ बरहना था ।

मौक़ा देख के बात बदल देने की फ़ितरत फ़ैशन है,
अपनी बात पे क़ायम रहने का किरदार तो गहना था ।

ओम प्रकाश नदीम

तन्त्र की जन्म कुण्डली लिखते / ओम धीरज

थोड़े बहुत बूथ पर लेकिन
नहीं सड़क पर दिखते,
सन्नाटों के बीच ’तन्त्र’ की
जन्म कुण्डली लिखते

कलम कहीं पर रूक-रूक जाती
मनचाहा जब दीखे,
तारकोल से लिपे चेहरे
देख ईंकं भी चीखे,
सूर्य चन्द्र-से ग्रह गायब है,
राहु केतु ही मिलते

कथनी-करनी बीच खुदी है
कितनी गहरी खाई,
जिसे लाँघते काँप रही है
अपनी ही परछाई,
अब तो लाल-किताब छोड़कर
नयी संहिता रचते

चूहा छोटा जाल काटता
शेर मुक्त हो जाता,
व्यक्ति बड़ा है ग्रह गोचर से
यह अतीत बतलाता,
लोक तंत्र में एक वोट से
तख्त ताज भी गिरते

’मत चूक्यो चैहान’ कहा था,
कभी किसी इक कवि ने,
अंधकार से तभी लड़ा था
दीपक जैसे रवि ने,
’साइत नही सुतार’ देखिए
लोक-कथन यह कहते।

ओम धीरज

दुनिया जगर-मगर है कि मजदूर-दिवस है / ओमप्रकाश यती



दुनिया जगर-मगर है कि मज़दूर दिवस है
चर्चा इधर-उधर है कि मज़दूर दिवस है

मालिक तो फ़ायदे की क़वायद में लगे हैं
उन पर नहीं असर है कि मज़दूर दिवस है

ऐलान तो हुआ था कि घर इनको मिलेंगे
अब भी अगर-मगर है कि मज़दूर दिवस है

साधन नहीं है कोई भी, भरने हैं कई पेट
इक टोकरी है, सर है कि मज़दूर दिवस है

हाथों में फावड़े हैं ‘यती’ रोज़ की तरह
उनको कहाँ ख़बर है कि मज़दूर दिवस है

ओमप्रकाश यती

किसी के ख़्वाब को एहसास से बाँधा हुआ है / ख़ालिद कर्रार

किसी के ख़्वाब को एहसास से बाँधा हुआ है
बहुत पुख़्ता बहुत ही पास से बाँधा हुआ है

हमारे तख़्त को मशरूत कर रखा है उस ने
हमारे ताज को बन-बास से बाँधा हुआ है

सियाही उम्र भर मेरे तआकुब में रहेगी
के मैं ने जिस्म को क़िरतास से बाँधा हुआ है

मेरे इसबात की चाबी को अपने पास रख कर
मेरे इंकार को एहसास से बाँधा हुआ है

हमारे बाद इन आबादियों में ख़ैर कीजो
समंदर हम ने अपनी प्यास से बाँधा हुआ है

सजा रखी है उस ने अपनी ख़ातिर एक मसनद
मेरे आफ़ाक़ को अनफ़ास से बाँधा हुआ है

अजब पहरे मेरे अफ़कार पर रखे हैं ‘ख़ालिद’
अजब खटका मेरे एहसास से बाँधा हुआ है

ख़ालिद कर्रार

बादल / अनुज लुगुन

मेरे सर के ऊपर आसमान है
और मैं जहाँ खड़ा हूँ
वहाँ एक खेत की मेंड़ से
पानी के बहने की आवाज आ रही है
मैं जहाँ खड़ा हूँ
वहाँ मेरी जमीन है
मैं एक पहाड़ के सामने खड़ा हूँ
और उसके ऊपर मँडराते
बादलों को देख रहा हूँ
वाकई, यह बहुत खूबसूरत दृश्य है
और इस पर लिखी जा सकती है एक कविता
अपनी प्रियतमा के नाम
लेकिन बार-बार
खेत की मेंड़ से बहते पानी की आवाज
मेरा ध्यान खींच ले जाती है
मैं खेत को देखता हूँ
मेंड़ से बहते पानी को देखता हूँ
पहाड़ को देखता हूँ
और उसके ऊपर मँडराते बादलों को देखता हूँ
मुझे महसूस होता है कि
मेरे सर के ऊपर भी आसमान है
और उस पर बादल मँडरा रहे हैं
मैं जमीन को कस कर
अपने पैरों के नीचे पकड़ लेता हूँ
और भूल जाता हूँ
अपनी प्रियतमा को कविता लिखना
मैं इस वक्त
उस पहाड़ से प्यार कर रहा होता हूँ
जिसके सर पर बादल मँडरा रहे हैं।

अनुज लुगुन

अकेलापन / ऋतु पल्लवी

एक दिन जब बहुत अलसाने के बाद आँखे खोलीं,
खिड़की से झरते हल्के प्रकाश को बुझ जाते देखा
एक छोटे बच्चे से नन्हे सूरज को आते-जाते देखा
नीचे झाँककर देखा हँसते--खिलखिलाते,
लड़ते-झगड़ते पड़ोस के बच्चे
प्रातः के बोझ को ढोते पाँवों की भीड़
पर स्वर एक भी सुनाई नहीं पड़ा
या यूँ कहूँ कि सुन नहीं सका।

कमरे में बिखरी चीज़ों को समेटने में लग गया
चादर,पलंग,तस्वीरें,किताबें
सब अपनी-अपनी जगह ठीक करके, सुने हुए रिकॉर्ड को पुनः सुना
मन को न भटकने देने के लिए
रैक की एक-एक किताब को चुना
इस साथी के साथ कुछ समय बिताकर
पहली बार निस्संगता का भाव जगा
ध्यान रहे-- सबसे विश्वसनीय साथी ही,
साथ न होने का अहसास जगाते हैं।

दिन गुज़रता रहा और अपना अस्तित्व फैलाता रहा
पाखिओं के शोर में भी शाम नीरव लगी
मन जागकर कुछ खोजता था--
ढलती शाम में सुबह का नयापन!
आस तो कभी टूटती नहीं है
सब डूब जाता है तब भी नहीं।

मन में आशा थी उससे दूर जाने की
उस एकाकीपन के साम्राज्य से स्वयं को बचाने की
मैं निस्संग था ,पर एकाकी नहीं
मेरा अकेलापन मेरे साथ था !

दिन के हर उस क्षण में, जब मैं
प्रकृति में, लोगों में, किताबों में
अपनी,केवल अपनी इयत्ता खोजता था.
और उसने कहा--
तुम चाहकर भी मुझसे अलग नहीं हो सकते,
मत होओ -क्योंकि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप
केवल मैं ही पहचानता हूँ।

यहाँ सब भटकते हैं स्वयं को खोजने के लिए,
अपने अस्तित्व की अर्थवत्ता जानने के लिए,
और मैं तुम्हारी उसी अर्थवत्ता की पहचान हूँ।
संसार की भीड़ में तुम मुझे ही भूल जाते हो
इसलिए अपना प्रभाव जताने के लिए,
मुझे आना पड़ता है ,
मानव को उसके मूल तक ले जाना पड़ता है

...और अब मेरे आस-पास घर, बच्चे, किताबें
लोग, दिन, समय कुछ भी नहीं था
केवल दूर-दूर तक फैला अकेलापन था।

ऋतु पल्लवी

चिड़िया रानी, किधर चली / कन्हैयालाल मत्त

चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
किधर चली ।

मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
कुज-गली ।

चिड़िया रानी,
चिड़िया रानी,
पर निकले ।

मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
नीम के तले ।

चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
टी टुट-टुट ।

मुन्ने राजा
मुन्ने राजा
चाय-बिस्कुट ।

चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
टा-टा-टा ।

मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
सैर-सपाटा ।

कन्हैयालाल मत्त

Wednesday, December 4, 2013

नन्दा देवी-4 / अज्ञेय

वह दूर
शिखर
यह सम्मुख
सरसी
वहाँ दल के दल बादल
यहाँ सिहरते
कमल
वह तुम। मैं
यह मैं। तुम
यह एक मेघ की बढ़ती लेखा
आप्त सकल अनुराग, व्यक्त;
वह हटती धुँधलाती क्षिति-रेखा :
सन्धि-सन्धि में बसा
विकल निःसीम विरह।

बिनसर, सितम्बर, 1972

अज्ञेय

लिबास-ऐ-शजर / ”काज़िम” जरवली

लहु मे गर्क़ अधूरी कहानिया निकली,
दहन से टूटी हुई सुर्ख चूड़िया निकली ।

मै जिस ज़मीन पा सदियो फिरा किया तनहा,
उसी ज़मीन से कितनी ही बस्तिया निकली ।

जहा मुहाल था पानी का एक क़तरा भी,
वहा से टूटी हुयी चन्द कश्तिया निकली।

मसल दिया था सरे शाम एक जुग्नु को,
तमाम रात ख़यालों से बिजलिया निकली।

चुरा लिया था हवेली का एक छुपा मन्ज़र,
इसी गुनाह पर आँखों से पुतलियाँ निकली।

वो एक चराग़ जला, और वो रौशनी फैली,
वो राहज़नी के इरादे से आन्धिया निकली।

खुदा का शुक्र के इस अह्दे बे लिबासी मे,
ये कम नहीं के दरख्तो मे पत्तिया निकली।

वो बच सकी न कभी बुल्हवस परिन्दो से,
हिसारे आब से बाहर जो मछ्लिया निकली।

यही है क़स्रे मोहब्बत कि दास्ताँ ”काज़िम”,
गिरी फ़सील तो इंसा कि हड्डिया निकली ।। --”काज़िम” जरवली

काज़िम जरवली

शनासाई / अख्तर पयामी

रात के हाथ पे जलती हुई इक शम-ए-वफ़ा
अपना हक़ माँगती है
दूर ख़्वाबों के जज़ीरे में
किसी रोज़न से
सुब्ह की एक किरन झाँकती हैं
वो किरन दर पा-ए-आज़ार हुई जाती है
मेर ग़म-ख़्वार हुई जाती है

आओ किरनों को अँधेरों का कफ़न पहनाएँ
इक चमकता हुआ सूरज सर-ए-मक़्तल लाएँ
तुम मेरे पास रहो
और यही बात कहो

आज भी हर्फ़-ए-वफ़ा बाइस-ए-रूसवाई है
अपने क़ातिल से मेरी ख़ूब शनासाई है

अख्तर पयामी

ज़रूरत / अनिता भारती

मेरा मन कहता है
चलूँ
उन अंधेरी,
बदनाम गलियों में

जहाँ छटपटा रहा है
मेरी बहनों का जीवन
जिन्होंने ओढ़ा हुआ है
तार-तार इज्ज़त का पल्ला
जिन्हें रौंदा गया है
बार-बार

उन अंधेरी,
बदनाम गलियों में
खिली
मासूम कलियों को
बटोर लाऊँ मैं

खिलने के लिए उन्हें भी
साफ हवा खाद पानी की
ज़रूरत है
कि उन्हें भी एक
मुक्त आँगन की ज़रूरत है।

अनिता भारती

मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ू-मंदी / इक़बाल

मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ू-मंदी
मक़ाम-ए-बंदगी दे कर न लूँ शान-ए-ख़ुदावंदी

तेरे आज़ाद बंदों की न ये दुनिया न वो दुनिया
यहाँ मरने की पाबंदी वहाँ जीने की पाबंदी

हिजाब इक्सीर है आवारा-ए-कू-ए-मोहब्बत को
मेरी आतिश को भड़काती है तेरी देर-पैवंदी

गुज़र औक़ात कर लेता है ये कोह ओ बयाबाँ में
के शाहीं के लिए ज़िल्लत है कार-ए-आशियाँ-बंदी

ये फ़ैज़ान-ए-नज़र था या के मकतब की करामात थी
सिखाए किस ने इस्माईल को आदाब-ए-फ़रज़ंदी

ज़ियारत-गाह-ए-अहल-ए-अज़्म-ओ-हिम्मत है लहद मेरी
के ख़ाक-ए-राह को मैं ने बताया राज़-ए-अलवंदी

मेरी मश्शातगी की क्या ज़रूरत हुस्न-ए-मानी को
के फ़ितरत ख़ुद-ब-ख़ुद करती है लाले की हिना-बंदी

अल्लामा इक़बाल

रेस्तराँ में लड़की / कुमार सुरेश

रेस्तराँ में एक शाम
हम थे और
कोने की सीटों पर जमे वे!

वही, खुशी से दमकते
लड़का और लड़की
लड़की कुछ ज्यादा मुखर
बातों से और आँखों से

जिनसे झर-झर बह रही थी
जीवन की अजस्र सरिता
जिसकी बाढ़ में
आसपास की टेबिलों पर बैठे लोग
डूब उतरा रहे थे

छोड़ कर उन्हें
जो खडे़ थे
समस्याओं की किसी ठोस जमीन पर

कहीं पढ़ी अंग्रेज़ी की कहावत जीवंत थी
‘फीमेल आफ अ स्पसीज इज़ मोर डेडली देन मेल’

वे घिरे थे स्पष्ट-गोचर आभामंडल में
जो शाश्वत लगता था
यह विश्वास करना कठिन कि
कभी यह जोड़ा
दूसरे जोड़ों की तरह
उदासीन बैठ पाएगा
किसी रेस्तराँ में

पूरी शाम वह लड़की
बिखराती रही सपने उस रेस्तराँ में
और दो-एक बादल तो हमने भी
हौले से सहेज लिए
ताकि सनद रहे और
वक़्त ज़रूरत काम आए।

कुमार सुरेश

फ़न तलाशे है दहकते हुए जज़्बात का रंग / 'अना' क़ासमी

फ़न तलाशे है दहकते हुए जज़्बात का रंग
देख फीका न पड़े आज मुलाक़ात का रंग

हाथ मिलते ही उतर आया मेरे हाथों में
कितना कच्चा है मिरे दोस्त तिरे हाथ का रंग

है ये बस्ती तिरे भीगे हुए कपड़ों की तरह
तेरे इस्नान-सा लगता है ये बरसात का रंग

शायरी बोलूँ इसे या के मैं संगीत कहूँ
एक झरने-सा उतरता है तिरी बात का रंग

ये शहर शहरे-मुहब्बत की अलामत था कभी
इसपे चढ़ने लगा किस-किस के ख़्यालात[1] का रंग

है कोई रंग जो हो इश्क़े-ख़ुदा से बेहतर
अपने आपे में चढ़ा लो उसी इक ज़ात का रंग

'अना' क़ासमी

धूप-2 / अरविन्द चतुर्वेद

मैं देख रहा था
सड़क पर
ऊँची इमारत के बाजू से
किसी तरह छलक कर
बमुश्किल उतरा
धूप का एक तिकोना टुकड़ा ।

इतने में
सिपाही का भारी-भरकम बूट
जो उस पर पड़ा
तो मैं सिहर गया भीतर तक
मुझे ठंड-सी लगी
मेरा शरीर काँप-सा गया

अरविन्द चतुर्वेद

स्वेटर / अनुलता राज नायर

आँखें खाली
ज़हन उलझा
ठिठुरते रिश्ते
मन उदास...
सही वक्त है कि उम्मीद की सिलाइयों पर
नर्म गुलाबी ऊन से एक ख्वाब बुना जाय!!

माज़ी के किसी सर्द कोने में कोई न कोई बात,
कोई न कोई याद ज़रूर छिपी होगी
जिसमें ख़्वाबों की बुनाई की विधि होगी,
कितने फंदे, कब सीधे, कब उलटे...

बुने जाने पर पहनूँगी उस ख्वाब को
कभी तुम भी पहन लेना..
कि ख़्वाबों का माप तो हर मन के लिए
एक सा होता है|
कि उसकी गर्माहट पर हक़ तुम्हारा भी है...

अनुलता राज नायर

सरकै अंग अँग अथै गति सी मिसि की रिसकी सिसिकी भरती / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

सरकै अंग अँग अथै गति सी मिसि की रिसकी सिसिकी भरती ।
करि हूँ हूँ हहा हमसों हरिसों कै कका की सों मो करको धरती ।
मुख नाक सिकोरि सिकोरति भौँहनि तोष तबै चित को हरती ।
चुरिया पहिरावत पेखिये लाल तौ बाल निहाल हमै करती ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

अज्ञात कवि (रीतिकाल)

प्रधान की अभिलाषा / अरुण कमल

अपने प्रधान इतने जनतंत्री थे कि
जब भी फ़ोटो लिया जाता
वह अपना एक पैर आगे कर देते,
क्योंकि चेहरे के मुकाबले पैरों की निरन्तर
उपेक्षा रही है फ़ोटो की दुनिया में,
कहते--
मेरी अभिलाषा है कि प्रजा मुझे चेहरे से नहीं
चरणों से जाने।

अरुण कमल

पुरसिश-ए-ग़म का शुक्रिया, क्या तुझे आगही नहीं / अहसान बिन 'दानिश'

पुरसिश-ए-ग़म का शुक्रिया, क्या तुझे आगही नहीं
तेरे बग़ैर ज़िन्दगी दर्द है, ज़िन्दगी नहीं

दौर था एक गुज़र गया, नशा था एक उतर गया
अब वो मुक़ाम है, जहाँ शिकवा-ए-बेरुख़ी नहीं

तेरे सिवा करूँ पसंद क्या तेरी क़ायनात में
दोनों जहाँ की नेअमतें, क़ीमत-ए-बंदगी नहीं

लाख ज़माना ज़ुल्म ढाए, वक़्त न वो ख़ुदा दिखाए
जब मुझे हो यक़ीं कि तू हासिल-ए-ज़िन्दगी नहीं

दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मयकदा गई
फ़ुर्सत-ए-मयकशी तो है, हसरत-ए-मयकशी नहीं

ज़ख़्म पे ज़ख़्म खाके जी, अपने लहू के घूँट पी
आह न कर, लबों को सी, इश्क़ है दिल्लगी नहीं

देख के ख़ुश्क-ओ-ज़र्द फूल, दिल है कुछ इस तरह मलूल
जैसे तेरी ख़िज़ाँ के बाद, दौर-ए-बहार ही नहीं

अहसान बिन 'दानिश'

प्रतीक्षा / कीर्ति चौधरी

करूँगी प्रतीक्षा अभी ।
दृष्टि उस सुदूर भविष्य पर टिका कर
फिर करूँगी काम ।
प्रश्न नहीं पूछूँगी,
जिज्ञासा अन्तहीन होती है ।
मेरे लिए काम जैसे
जपने को एक नाम ।

मैं ही तो हूँ
जिसने उपवन में
बीजों को बोया है ।
अंकुर के उगने से बढ़ने तक
फलने तक
धैर्य नहीं खोया है
एक-एक कोंपल की चाव से
निहारी है बाट सदा ।

देखे हैं
शिशु की हथेली मसृण
हरित किसलय दल
कैसे बढ़ आते हैं।
दुर्बल कृश अंग लिए उपजे थे
वे ही परिपुष्ट बने
झूम लहराते हैं ।

मैं ही तो हूँ
जिसने प्यार से सँवारी है
डाल-डाल
आएँगी कलियाँ
फिर बड़े गझिन गुच्छों में
फूलेंगे फूल लाल
करूँगी प्रतीक्षा अभी
पौधा है वर्तमान
हर दिन हर क्षण ।

नव कोंपल पल्लव समान
हरियाए, लहराए,
यत्न से सँवारूँगी ।
आख़िर तो
बड़े गझिन गंध-युक्त गुच्छों-सा
आएगा भविष्य कभी ।

करूँगी प्रतीक्षा अभी ।

कीर्ति चौधरी

नमक / उद्‌भ्रान्त

ब्रह्माण्ड में
जितनी हैं आकाशगंगाएँ
आकाशगंगाओं में
जितनी हैं पृथ्वियाँ
पृथ्वियों में
जितने हैं महासमन्दर
महासमन्दरों में
जितना है नमक
हमारी देह के ब्रह्माण्ड में अवस्थित
रक्तवाहिनियों की आकाशगंगाओं में
तन्तु-कोशिकाओं की पृथ्वियों में
अनवरत लहरें लेते
रक्तकणों के समन्दरों में
घुला है उतना नमक
यह नमक सर्वव्यापी,
दृश्यमान,
अदृश्य भी ।

शक्तिशाली,
जैसे कि एक राजा
उसके अपमान की जुर्रत
कर सकता कोई ?
सहारा
विपन्न का
मायावी
करुणार्द्र
ईश्वर की तरह
क्षण में बदलता रूप
बनता
सुस्वादु व्यंजन
ग़रीब की रोटी का
धूर्त, चतुर, चालाक अधिनायकवादी सत्ता
जब उसे बनाए माध्यम
अपने विदेशी बाज़ार का
तो फिर वह
तोड़-फोड़ सारे कानून दे
रूप ले ले
अग्निकणों के जलते स्फुर्लिंग का
समाते हुए
किसी गाँधी की
बन्द मुट्ठी में
प्रकृति से मिला हमें जो यह उपहार
उसका प्रतिदान
कितना --
क्या किया हमने ?

प्रमाणित किया हमने
स्वयं को नमकहराम ?
हे महासमन्दर !
हे विराट पृथ्वी !
हे आकाशगंगा !
और हे ब्रह्माण्ड !
हम नमक के
एक कण की तरह हैं क्षुद्र
और अपराध हमारा
हिमालय-सा ;
अपनी प्रकृति की तरह
हमें भी कर प्रेरित --
किसी दीन, दुखी,
शापित, अभिशप्त
औ विपन्न व्यक्ति की सूखी रोटी के लिए
बनने को शाक-भाजी
शायद मिल सके हमें क्षमा
किए गए
जीवन में
अपने दुष्कर्म की ।

उद्‌भ्रान्त

विस्मय तरबूज की तरह / आलोक धन्वा


तब वह ज़्यादा बड़ा दिखाई देने लगा
जब मैं उसके किनारों से वापस आया

वे स्त्रियाँ अब अधिक दिखाई देती हैं
जिन्होंने बचपन में मुझे चूमा

वे जानवर
जो सुदूर धूप में मेरे साथ खेलते थे
और उन्हें इन्तज़ार करना नहीं आता था

और वे पहले छाते
बादल जिनसे बहुत क़रीब थे

समुद्र मुझे ले चला उस दोपहर में
जब पुकारना भी नहीं आता था
जब रोना ही पुकारना था

जहाँ विस्मय
तरबूज़ की तरह
जितना हरा उतना ही लाल।


(1990)

आलोक धन्वा

Tuesday, December 3, 2013

आवारा / अख्तर पयामी

ख़ूब हँस लो मेरी आवारा-मिज़ाजी पर तुम
मैं ने बरसों यूँ ही खाए हैं मोहब्बत के फ़रेब
अब न एहसास-ए-तक़द्दुस न रिवायत की फ़िक्र
अब उजालों में खाऊँगी मैं ज़ुल्मत के फ़रेब

ख़ूब हँस लो की मेरे हाल पे सब हँसते हैं
मेरी आँखों से किसी ने भी न आँसू पोंछे
मुझ को हमदर्द निगाहों की ज़रूरत भी नहीं
और शोलों को बढ़ाते हैं हवा के झोंके

ख़ूब हँस लो की तकल्लुफ़ से बहुत दूर हूँ मैं
मैं ने मस्नूई तबस्सुम का भी देखा अंजाम
मुझ से क्यूँ दूर रहो आओ मैं आवारा हूँ

अपने हाथों से पिलाओ तो मय-ए-तल्ख़ का जाम
ख़ूब हँस लो की यही वक़्त गुज़र जाएगा
कल न वारफ़्तगी-ए-शौक़ से देखेगा कोई
इतनी मासूम लताफ़त से ने खेलेगा कोई

ख़ूब हँस लो की यही लम्हे ग़नीमत हैं अभी
मेरी ही तरह तुम भी तो हो आवारा-मिज़ाज
कितनी बाँहों ने तुम्हें शौक़ से जकड़ा होगा
कितने जलते हुए होंटो ने लिया होगा ख़िराज

ख़ूब हँस लो तुम्हें बीते हुए लम्हों की क़सम
मेरी बहकी हुई बातों का बुरा मत मानो
मेरे एहसास को तहज़ीब कुचल देती है
तुम भी तहज़ीब के मलबूस उतारो फेंको

ख़ूब हँस लो की मेरे लम्हे गुरेज़ाँ हैं अब
मेरी रग रग में अभी मस्ती-ए-सहबा भर दो
मैं भी तहज़ीब से बेज़ार हूँ तुम भी बेज़ार
और इस जिस्म-ए-बरहना को बरहना कर लो

अख्तर पयामी

गुल तेरा रंग चुरा लाए हैं / अहमद नदीम क़ासमी

गुल तेरा रंग चुरा लाए हैं गुलज़ारों में
जल रहा हूँ भरी बरसात की बौछारों में

मुझसे कतरा के निकल जा, मगर ऐ जान-ए-हया
दिल की लौ देख रहा हूं तेरे रुख़सारों में

हुस्न-ए-बेगाना-ए-एहसास-जमाल अच्छा है
ग़ुन्चे खिलते हैं तो बिक जाते हैं बाज़ारों में

जि़क्र करते हैं तेरा मुझसे बाउनवान-ए-जफ़ा
चारागर फूल पिरो लाए हैं तलवारों में

ज़ख्म छुप सकते हैं लकिन मुझे फ़न ही सौगंध
ग़म की दौलत भी है शामिल मेरे शहकारों में

मुझको नफ़रत से नहीं प्यार से मसलूब करो
मैं तो शामिल हूं मोहब्बत के गुनाहवरों

अहमद नदीम क़ासमी

प्रतीक्षा-गीत / अज्ञेय

हर किसी के भीतर
एक गीत सोता है
जो इसी का प्रतीक्षमान होता है
कि कोई उसे छू कर जगा दे
जमी परतें पिघला दे
और एक धार बहा दे।

पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत
प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत
जिसे मैने बार बार जाग कर गाया है
जब-जब तुम ने मुझे जगाया है।

उसी को तो आज भी गाता हूँ
क्यों कि चौंक- चौंक कर रोज़
तुम्हें नया पहचानता हूँ-
यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ।

अज्ञेय

ये दिल, दीवाना, दीवाना है ये दिल / आनंद बख़्शी

 
ये दिल दीवाना दीवाना है ये दिल
दीवाने ने मुझको भी कर डाला दीवाना
मैने उसके शहर को छोड़ा उसकी गली ये दिल को तोड़ा
फिर भी सीने में धड़कता है ये दिल
मैने दिल से उसे निकाला जो ना करना था कर डाला
फिर भी याद उसे ही करता है ये दिल
ये दिल दीवाना ...

दिल की खता भी है क्या मुझको गिला भी है क्या
आशिक़ है ये चोर नहीं है मैं क्या करूं
दिल पे मेरा जोर नहीं है मैं क्या करूं
ये दिल दीवाना ...

दिल कैसा बेपीर है वो एक तस्वीर है
मैं कहता हूँ तोड़ दे कहता है ज़ंजीर है
कोई कच्ची डोर नहीं है मैं क्या करूं
दिल पे मेरा जोर नहीं है मैं क्या करूं
ये दिल दीवाना ...

आनंद बख़्शी

ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी / कलीम आजिज़

ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी
मजबूर थे हम उस से मुहब्बत भी बहुत थी

उस बुत के सितम सह के दिखा ही दिया हम ने
गो अपनी तबियत में बगावत भी बहुत थी

वाकिफ ही न था रंज-ए-मुहब्बत से वो वरना
दिल के लिए थोड़ी सी इनायत भी बहुत थी

यूं ही नहीं मशहूर-ए-ज़माना मेरा कातिल
उस शख्स को इस फन में महारत भी बहुत थी

क्या दौर-ए-ग़ज़ल था के लहू दिल में बहुत था
और दिल को लहू करने की फुर्सत भी बहुत थी

हर शाम सुनाते थे हसीनो को ग़ज़ल हम
जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी

बुलावा के हम "आजिज़" को पशेमान भी बहुत हैं
क्या कीजिये कमबख्त की शोहरत भी बहुत थी

कलीम आजिज़

वे और हम / कैलाश गौतम

स्वयं विचरते रहे सदा स्वच्छन्द दिशाओं में
हम सबको उलझाए रक्खा नीति-कथाओं में ।

हर पीढ़ी में छले गए हम
गुरुओं-प्रभुओं से
जीए भी तो इनके ही
खूँटे पर पशुओं से
घुट-घुट कर रह गई हमारी चीख़ गुफ़ाओं में ।

इन्हीं महंतों-संतों ने
कठघरा बनाया है
पाप-पुण्य औ स्वर्ग-नरक
इनकी ही माया है
अपने रहते प्रावधान से ये धाराओं में ।

हम होते हैं हवन
और ये होता होते हैं
कान फूँकते जहाँ
वहाँ हम श्रोता होते हैं
जनम-जनम यजमान सरीखे हम अध्यायों में ।

जैसे गोरे वैसे काले
कोई फ़र्क़ नहीं
सुनते जाओ करते जाओ
तर्क-वितर्क नहीं
कभी नहीं बर्दाश्त इन्हें अपनी सुविधाओं में ।

कैलाश गौतम

समय से अनुरोध / अशोक वाजपेयी

समय, मुझे सिखाओ
कैसे भर जाता है घाव?-पर
एक अदृश्य फाँस दुखती रहती है
जीवन-भर|

समय, मुझे बताओ
कैसे जब सब भूल चुके होंगे
रोज़मर्रा के जीवन-व्यापार में
मैं याद रख सकूँ
और दूसरों से बेहतर न महसूस करूँ|

समय, मुझे सुझाओ
कैसे मैं अपनी रोशनी बचाए रखूँ
तेल चुक जाने के बाद भी
ताकि वह लड़का
उधार लाई महँगी किताब एक रात में ही पूरी पढ़ सके|

समय, मुझे सुनाओ वह कहानी
जब व्यर्थ पड़ चुके हों शब्द,
अस्वीकार किया जा चुका हो सच,
और बाक़ि न बची हो जूझने की शक्ति
तब भी किसी ने छोड़ा न हो प्रेम,
तजी न हो आसक्ति,
झुठलाया न हो अपना मोह|

समय, सुनाओ उसकी गाथा
जो अन्त तक बिना झुके
बिना गिड़गिड़ाए या लड़खड़ाए,
बिना थके और हारे, बिना संगी-साथी,
बिना अपनी यातना को सबके लिए गाए,
अपने अन्त की ओर चला गया|

समय, अँधेरे में हाथ थामने,
सुनसान में गुनगुनाहट भरने,
सहारा देने, धीरज बँधाने
अडिग रहने, साथ चलने और लड़ने का
कोई भूला-बिसरा पुराना गीत तुम्हें याद हो
तो समय, गाओ
ताकि यह समय,
यह अँधेरा,
यह भारी असह्य समय कटे!

अशोक वाजपेयी

आग और पानी / अंजू शर्मा

कहा था किसी ने मुझे
कि आग और पानी का कभी मेल नहीं होता
सुनो मैंने इसे झूठ कर दिखाया है,
तुम्हारे साथ रहने की ये प्रबल उत्कंठा,
परे है सब समीकरणों से,
और अनभिज्ञ है, किसी भी रासायनिक या भौतिक
प्रक्रिया से,
हर बार तुम्हारे मिथ्या दंभ की आग में
बर्फ सी जली हूँ मैं
हर बार मेरी शीतलता ने
छूआ है तुम्हारे अहम् के
तपते अंगारों को
और देखो
भाप बनकर उडी नहीं मैं,
बहे जा रही हूँ युगों से नदी बनकर
और जब सुलग उठती हूँ
तुम्हारे क्रोध के दानावल से,
तो अक्सर फूट पड़ता है कोई
गर्म जल का सोता
हमारी भावनाओं के टकराव के
उद्गम से,
खोती हूँ खुद के कुछ कतरे,
देती हूँ आहुति में
थोडा सा स्वाभिमान,
थोड़ी सी सहनशीलता
बदलती हूँ अपनी सतह के कुछ अंश गर्म छींटों में,
पर मेरे अंतस में सदा बहती है
उल्लास की एक नदी,
जो मनाती है उत्सव हर मिलन का,
नाचती है छन्न छन्न की स्वर लहरी पर,
कभी सुलग उठते हो
अपने पौरुष के अभिमान में
 ज्वालामुखी से तुम
तो बदल देती हूँ लावे में अपना अस्तित्व
क्योंकि मेरा बदलाव ही शर्त है
हमारे सम्बन्ध की,
पर फिर से बहती हूँ दुगने वेग से,
भूलकर हर तपन,
मेरा अनुभव है
आग और पानी का मिलन
इतना भी दुष्कर नहीं होता.....

अंजू शर्मा

पालकी में हो के सवार चली रे / आनंद बख़्शी

 

ओ ओ ओ
कोई रोक सके तो रोक ले मैं नाचती छन छन छन छन छन
पालकी में हो के सवार चली रे
मैं तो अपने साजन के द्वार चली रे
कोई रोक सके तो ...

मुश्किल से मैने ये दिन निकाले
चलते से चल तू ओ गाड़ी वाले
मन में लगी है ऐसी लगन ऐसी लगन हाय ऐसी लगन
होके मैं बड़ी बेकरार चली रे
मैं तो अपने साजन के ...

हो जाऊंगी मैं जल जल के मिट्टी
मैने पिया को लिख दी है चिट्ठी
तू ना आ तू ना आ मैं आ रही हूँ सजन सजन सजन
कर कर के मैं इंतज़ार चली रे
मैं तो अपने साजन के ...

ये सोना ये चाँदी ये हीरे ये मोती
हो सैंया बिना सैंया बिना सब कुछ है नाम का नाम का नाम का नाम का नाम का
ये मेरा जोबन जोबन जोबन ये मेरा जोबन किस काम का किस काम का
घूंघट में जले कब तक बिरहन बिरहन बिरहन
मैं सर से चुनरी उतार चली रे
मैं तो अपने साजन के ...

आनंद बख़्शी

फिर क्यों मन में संशय तेरे / अमित

फिर क्यों मन में संशय तेरे
जब-जब दीप जलाये तूने
दूर हुये हैं घने अंधेरे
फिर क्यों मन में संशय तेरे

स्वयं शीघ्र धीरज खोता है
क्रोध कि ऐसा क्यों होता है
नियति नवाती शीश उसी को
जो सनिष्ठ इक टेक चले रे
फिर क्यों मन में संशय तेरे

वीर पराजित हो सकते हैं
जय की आस नहीं तजते हैं
निष्प्रभ होकर डूबा सूरज
तेजवन्त हो उगा सवेरे
फिर क्यों मन में संशय तेरे

जग में ऐसा कौन भला है
जिस पर समय न वक्र चला है
धवल-वर्ण हिमकर को भी तो
ग्रस लेते हैं तम के घेरे
फिर क्यों मन मे संशय तेरे

मान झूठ अपमान झूठ है
जीवन का अभिमान झूठ है
जग-असत्य की प्रत्यंचा पर
सायक हैं माया के प्रेरे
फिर क्यों मन में संशय तेरे

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

प्रथम परिणीता / गणेश पाण्डेय

जिस तलुए की कोमलता से
वंचित है
मेरी पृथ्वी का एक-एक कण
घास के एक-एक तिनके से
उठती है जिसके लिए पुकार
फिर से जिसे स्पर्श करने के लिए
मुझमें नहीं बचा है अब
चुटकीभर धैर्य
जिसके पैरों की झंकार
सुनने के लिए
बेचैन है
मेरे घर के आसपास
गुलमोहर के उदास वृक्षों की कतार
और तुलसी का चौरा
जिसकी
सुदीर्घ काली वेणी में लग कर
खिल जाने के लिए आतुर हैं
चाँदनी के सफ़ेद नन्हे फूल
और
असमय
जिसके चले जाने के शूल से
आहत है मेरे आकाश का वक्ष
और धरती का अंतस्तल

तुम हो
तुम्हीं हो
मेरी प्रथम परिणीता
मेरे विपन्न जीवन की शोभा
जिसके होने और न होने से
होता है मेरे जीवन में
दिन और रात का फेरा
धूप और छाँव
होता है नीचे-ऊपर
मेरे घर
और
मेरे दिल
और दिमाग का तापमान

अच्छा हुआ
जो तुम
जा कर भी जा नहीं सकी
इस निर्मम संसार में मुझे छोड़कर
अकेला
सोचा होगा कैसे पिएँगे प्रीतम
सुबह-शाम
गुड़
अदरक
और गोलमिर्च की चाय
भूख लगेगी तो कौन देगा
मीठी आँच में पकी हुई
रोटी
और मेथी का साग
दुखेगा सिर
तो दबाएगा कौन
आहिस्ता-आहिस्ता
सारी रात

रोएँगे जब मेरे प्रीतम
तो किसके आँचल में पोछेंगे
रेत की मछली जैसी
अपनी तड़पती आँखें
और जब मुझे देख नहीं पाएँगे
तो जी कैसे पाएँगे
कैसे समझाएँगे
ख़ुद को
कैसे पूरी करेंगे जीवन की कविता
कैसे करेंगे मुझे प्यार

अच्छा हुआ
मीता
मेरी प्रथम परिणीता
छोड़ गई मेरे पास
स्मृतियों की गीता
दे गई
एक और मीता
परिणीता

जिसके जीवन में शामिल है
तुम्हारा जीवन
जिसके सिंदूर में है तुम्हारा सिंदूर
जिसके प्यार में है
तुम्हारा प्यार
जिसके मुखड़े में है तुम्हारा मुखड़ा
जिसके आँचल में है तुम्हारा आँचल
जिसकी गोद में है तुम्हारी गोद

कितना अभागा हूँ
भर नहीं पाया तुम्हारी गोद
तुम्हारे कानों में पहना नहीं पाया
किलकारी के एक-दो कर्णफूल
तुम्हारी आँखों के कैमरे में
उतार नहीं पाया
तुम्हारी ही बाल-छवि

किससे पूछूँ कि जीवन के चित्र
इतने धुँधले क्यों होते हैं
समय की धूल
उड़ती है
तो आँधी की तरह क्यों उड़ती है
प्रेम का प्रतिफल
दुख क्यों होता है
और
अक्सर
तुम जैसी स्त्री का सखियारा
दुख से क्यों होता है

तुम नहीं हो
तुम्हारी सखी है
है दुख है तुम्हारी सखी है
कर लिया है उसी से ब्याह
हूँ जिसके संग
देखता हूँ उसी में
तुम्हें नित ।

गणेश पाण्डेय

जंगल उदास है / उत्‍तमराव क्षीरसागर

जंगल उदास है
. . . . . . . . .


आँगन में नीम के नीचे
अब नहीं बि‍छती खाट
कोई नहीं बैठता
घडी दो घडी के लि‍ए भी
उसकी शीतल छाँह में


चौराहे पर खडे पीपल के नीचे
अब नहीं बैठती पंचायत
होता नहीं कोई फ़ैसला,
छि‍पाकर नहीं रखता कि‍ताबों में
कोई भी उसके पत्‍तों को
जि‍न पर लि‍खकर
इक़रार - इज़हार कि‍या जाता था
दि‍ल में पलते हुए प्‍यार का


गाँव के बाहर
आखर पर तनी हुई
बूढे बरगद की बाँहों में
अब कोई नहीं झूलता


बीसि‍यों बरस पुरानी
इमली के नीचे से
बेख़ौफ़ गुज़र जाते हैं लोग,
अब नहीं रखता कोई भी
चुपके से वहाँ दीपक
अब नहीं रहती वहाँ कोई चुडैल


दूर अमराई में
कि‍सी का पडाव नहीं है
कोई भी वहाँ छि‍पकर
नहीं तकता राह
ना ही अब होता है वहाँ
जुआरि‍यों का जमघट


जंगल उदास है...
आदमी के भीतर
सतत्
पनप रहा है जंगल,
ये उदासी
कि‍सी दावानल से कम नहीं है

                        - 1997 ई0

उत्‍तमराव क्षीरसागर

ख़िरदमंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है / इक़बाल

ख़िरदमन्दों[1]से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा[2] क्या है
कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा[3] क्या है

ख़ुदी[4] को कर बुलन्द इतना कि हर तक़दीर[5] से पहले
ख़ुदा बन्दे से ख़ुदपूछे बता तेरी रज़ा[6] क्या है

मुक़ामे-गुफ़्तगू[7]क्या है अगर मैं कीमियागर[8] हूँ
यही सोज़े-नफ़स[9] है, और मेरी कीमिया[10] क्या है
 
नज़र आईं मुझे तक़दीर की गहराइयाँ इसमें
न पूछ ऐ हमनशीं मुझसे वो चश्मे-सुर्मा-सा [11] क्या है

नवा-ए-सुबह-गाही[12] ने जिगर ख़ूँ कर दिया मेरा
ख़ुदाया जिस ख़ता की यह सज़ा है वो ख़ता क्या है

अल्लामा इक़बाल

वही प्यास है वही दश्त है वही घराना है / इफ़्तिख़ार आरिफ़

वही प्यास है वही दश्त है वही घराना है
मशकीज़े से तीर का रिश्ता बहुत पुराना है

सुब्ह सवेरे रन पड़ना है और घमसान का रन
रातों रात चला जाए जिस को जाना है

एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा
उस के बाद तो जो कुछ है वो सब अफ़साना है

दरिया पर क़ब्ज़ा था जिस का उस की प्यास अज़ाब
जिस की ढालें चमक रही थीं वही निशाना है

कासा-ए-शाम में सूरज का सर और आवाज़-ए-अज़ाँ
और आवाज़-ए-अज़ाँ कहती है फ़र्ज़ निभाना है

सब कहते हैं और कोई दिन ये हँगामा-ए-दहर
दिल कहता है एक मुसाफ़िर और भी आना है

एक जज़ीरा उस के आगे पीछे सात समंदर
सात समंदर पार सुना है एक ख़ज़ाना है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

मौसम का मिजाज़ खरा नहीं लगता / अनुलता राज नायर

मौसम का मिजाज़ खरा नहीं लगता
सावन भी इन दिनों हरा नहीं लगता.

एक प्यास हलक को सुखाये हुए है
पीकर दरिया मन, भरा नहीं लगता.

चमकता है सब चाँद तारे के मानिंद
सोने का ये दिल खरा नहीं लगता.

अपने ही घर में अनजान से हम
अपना सा कोई ज़रा नहीं लगता

हैवानों से भरी ये दुनिया तेरी है
कि कोई भी इंसा बुरा नहीं लगता.

सुनता नहीं वो मेरी, इन दिनों
कहते है जिसको खुदा,बहरा नहीं लगता.

अनुलता राज नायर

कैसे- कैसे पल / अशोक लव

डगमगाते पग
नन्हें शिशु
तुतलाती ध्वनियाँ
स्नेह भरी कल-कल बहती नदी
अंतर्मन में समा-समा जाती
निश्छल मुस्कानें!

उफ़!
खो गए तुतलाते स्वर

सूख गई नदी
तार-तार अंतर्मन
न सहने
न कहने की स्थिति.

तुतलाते स्वरों ने सीख लिए
शब्द
बोलते हैं अनवरत धारा प्रवाह
सिखाया था उन्हें ठीक-ठीक बोलना
अब वे बात-बात पर
सिखाते हैं.

नदी आँगन छोड़
कहीं ओर बहने लगी है
किन्हीं अन्य गलियों को
सजाने लगी है.

मुस्कानें
अपनी परिभाषा भूल गई हैं
मुस्कराने के प्रयास में
सूखे अधरों पर जमी
पपड़ियाँ फट जाती हैं
अधरों तक आते-आते
मुस्कानें रुक जाती हैं.

पसरा एकांत
बांय-बांय करता
घर-आँगन को लीलता
पल-पल
पैर फैलाए बढ़ता जाता है
कोना-कोना
लीलता जाता है.

कैसे - कैसे दिन
कैसे- कैसे पल उतर आते हैं
कैसे-कैसे रंग छितर जाते हैं !

अशोक लव

Monday, December 2, 2013

अनुपस्थिति मेरी / अमरनाथ श्रीवास्तव

जहां-जहां मैं रहा उपस्थित अंकित है अनुपस्थिति मेरी।

क्रान्ति चली भी साथ हमारे
दोनों हाथ मशाल उठाये
मेरे कन्धों पर वादक ने
परिवर्तन के बिगुल बजाये
सपनों में चलने की आदत
वंशानुगत रही तो पहले
अब लोगों की भौ पर बल है मुझे मिली जब जागृति मेरी।

सिमट गया है सब कुछ ऐसे
टूटे तरु की छाया जैसे
भूल भुलैया लेकर आये
शुभ चिन्तक हैं कैसे-कैसे
मिथक, पुराण, कथा बनती है
आगे एक प्रथा बनती है
क्रास उठाये टंगी घरों में ईसा जैसी आकृति मेरी।

कूट उक्ति या सूक्ति,
सभी ने सिखलाये मुझको अनुशासन
मेरे आगे शकुनि खड़े हैं
ताल ठोंक हंसता दु:शासन
एक पराजय मोह जगाते
कुरुक्षेत्र मुझको झुठलाते
जिसके सधे वाण थे मुझको वही मनाता सद्गति मेरी।

अमरनाथ श्रीवास्तव

प्लास्टिक की कविता / अशोक पांडे

 
वक़्त के साथ-साथ भरता गया पापों का घड़ा
तो प्लास्टिक भी बना टनों के हिसाब से
यहाँ-वहाँ इतना जमा हो गया प्लास्टिक कि दही जैसी चीज़ का स्वाद भी
मिटटी के कुल्हडों से
बेस्वाद होता बंद हो गया घटिया प्लास्टिक की
रबर बैंड लगी थैलियों में

प्लास्टिक लेकर आया भावहीन चेहरे और शातिर दिमाग
और जलने की ऐसी दुर्गन्ध
जो बस समय बीतने पर ही जायेगी

प्लास्टिक आया तो आये अधनंगे आवारा बच्चे
बड़ी-बड़ी गठरियाँ लेकर
दुनिया के चालाक लोगों के लिए
गंद के ढेरों को उलट-पुलट करने

चालाक लोग भूख की मशीन में डाल कर
कूड़े को बदल देंगे
नए प्लास्टिक में !

अशोक पांडे

तेरे बैरी तुझी में, हैं ये तेरे फ़ैल / गंगादास

तेरे बैरी तुझी में, हैं ये तेरे फ़ैल ।
फ़ैल[1] नहीं तो सिद्ध है, निर्मल में क्या मैल ।।

निर्मल में क्या मैल, मैल बिन पाप कहाँ है ?
बिना पाप फ़िर आप, आपमें ताप कहाँ है ?

गंगादास परकास भय फ़िर कहाँ अंधेरे ?
और मित्र सब जगत फ़ैल दुश्मन हैं तेरे ।।

गंगादास

मोह / कुमार अंबुज

जैसे यह जलाशय सुनील
प्रतिबिंबित जिसमें जड़-चेतन सभी
जिसकी गहराई में शामिल आकाश की ऊँचाई भी
- यह एक छोटा-सा विवरण है मेरे मोह का
धूल पर ध्वनि यह
लार से सनी किलकारी की
यह प्रगल्भ प्रत्यंचा तनी हुई
करती मेरे अरण्य में मेरा ही आखेट
वरण करती हुई मेरी वासना का
बाँस के झुरमुट को देखने से
हर बार होती यह अभूतपूर्व सनसनी
उठती हुई यह हूक
यह हाहाकार
यह पुकार
यही मेरा मोह है दुर्निवार !
यह हर पल कल की आशा मुग्धकारी
डोर यही इस जीवन की
रहस्य का मोह, ज्ञात का सम्मोह
जान लेने के बाद का मोह तो और भी गहन
यह मोह और संसार में मेरा होना
संबंध है नाभि-नाल का
जर्जर, पुरातन, शक्तिमान, सनातन !
मनुष्य होने की पहली दशा ही है
मोहित हो जाना।

कुमार अंबुज

दुखों के बीज / अनुलता राज नायर

आस पास कुछ नया नहीं....
सब वही पुराना,
लोग पुराने
रोग पुराने
रिश्ते नाते और उनसे जन्में शोक पुराने |
नित नए सृजन करने वाली धरती को
जाने क्या हुआ?
कुछ नए दुखों के बीज डाले थे कभी
अब तक अन्खुआये नहीं
दुखों के कुछ वृक्ष होते तो
जड़ों से बांधे रहते मुझे/तुम्हें /हमारे प्रेम को....
सुखों की बाढ़ में बहकर
अलग अलग किनारे आ लगे हैं हम|

अनुलता राज नायर

ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो / अहमद महफूज़

ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो
फिर कोई फूल हो के पत्थर हो

मैं हूँ ख़्वाब-ए-गिराँ के नर्ग़े में
रात गुज़रे तो मारका सर हो

फिर ग़नीमों से बे-ख़बर है सिपाह
फिर अक़ब से नुमूद लश्कर हो

क्या अजब है के ख़ुद ही मारा जाऊँ
और इल्ज़ाम भी मेरे सर हो

हैं ज़मीं पर जो गर्द-बाद से हम
ये भी शायद फलक का चक्कर हो

उस को ताबीर हम करें किस से
वो जो हद-ए-बयाँ से बाहर हो

देखना ही जो शर्त ठहरी है
फिर तो आँखों में कोई मंज़र हो

अहमद महफूज़

कभी इतनी धनवान मत बनना / ऋतुराज

कभी इतनी धनवान मत बनना कि लूट ली जाओ

सस्ते स्कर्ट की प्रकट भव्यता के कारण
हांग्जो की गुड़िया के पीछे वह आया होगा
चुपचाप बाईं जेब से केवल दो अंगुलियों की कलाकारी से
बटुआ पार कर लिया होगा

सुंदरता के बारे में उसका ज्ञान मात्र वित्तीय था
एक लड़की का स्पर्श क्या होता है वह बिलकुल भूल चुका था

एक नितांत अपरिचित जेब में अगर उसे जूड़े का पिन
या बुंदे जैसी स्वप्निल-सी वस्तुएं मिलतीं तो वह निराश हो जाता
और तब हांग्जो की लड़कियों के गालों की लालिमा भी
उसे पुनर्जीवित नहीं कर सकती थी

उस वक्त वह मात्र एक औजार था बाज़ार व्यवस्था का
खुले द्वार जैसी जेब में जिसे उसकी तेज निगाहों ने झांककर देखा था
कि एक भोली रूपसी की अलमस्त इच्छाएं उस बटुए में भरी थीं
कि बिना किसी हिंसा के उसने साबित कर दिया
सुंदर होने का मतलब लापरवाह होना नहीं है
कि अगर लक्ष्य तय हो तो कोई दूसरा आकर्षण तुम्हें डिगा नहीं सकता ।

ऋतुराज

हाँ अकेला हूँ मगर इतना नहीं, / अशोक रावत

हाँ अकेला हूँ मगर इतना नहीं,
तूने शायद गौर से देखा नहीं.


तेरा मन बदला है कैसे मान लूँ,
तूने पत्थर हाथ का फैंका नहीं.


छू न पायें आदमी के हौसले,
आसमाँ इतना कहीं ऊँचा नहीं.


नाव तो तूफ़ान में मेरी भी थी,
पर मेरी हिम्मत कि में डूबा नहीं.


जानता था पत्थरों की ख़्वाहिशें,
पत्थरों को इस लिये पूजा नही.


मैं ज़माने से अलग होता गया,
मैंने अपने आपको बेचा नहीं.

अशोक रावत

रवाँ है मौज-ए-फ़ना जिस्म ओ जाँ उतार मुझे / ख़ालिद कर्रार

रवाँ है मौज-ए-फ़ना जिस्म ओ जाँ उतार मुझे
उतार अब के सर-ए-आसमाँ उतार मुझे

मेरा वजूद समंदर के इजि़्तराब में है
के खुल रहा है तेरा बाद-बाँ उतार मुझे

बहुत अज़ीज़ हूँ ख़ारान-ए-ताज़ा-कार को मैं
बहुत उदास है दश्त-ए-जवाँ उतार मुझे

कोई जज़ीरा जहाँ हस्त ओ बूद हो न फ़ना
वजूद हो न ज़माना वहाँ उतार मुझे

ख़ालिद कर्रार

राजधानी में बैल 5 / उदय प्रकाश

समयातीत पूर्ण-6 / कुमार सुरेश

हे विश्वरूप
अर्जुन ने देखा
दैदीप्यमान तुम्हें
तुमसे ही थीं दशों दिशायें
प्रकाशित इस तरह
जैसे उग आए हों हजारों सूर्य क्षितिज पर
तुम ही व्याप्त दिखे
सारे आकाश सारे लोक
और बीच के सारे अवकाश में
 
हे स्वप्रकाशित
हम पहचाने नहीं तुम्हें
जब तुम सशरीर थे
आज भी तुम अशरीरी को
नहीं पहचानते हम
 
हे परम चेतना !
दैदीप्यमान तुम
दसों दिशाओं को
करते प्रकाशित
और प्रकाश देखा मात्र अर्जुन ने
शेष अठारह अक्षौहिणी
कैद रहे अपने-अपने अन्धकार में
सूरज खड़ा इंतज़ार करता रहा
वही अठारह अक्षौहिणी
जो सूरज को प्रतीक्षा कराते हैं
फ़ैल गए हैं सारे संसार में
वही तो हम हैं
आज भी चक्षु नहीं हैं हमारे पास
हमें दृष्टि दान
क्यों नहीं देते
हे गोविन्द ?

कुमार सुरेश

एकलव्य से संवाद-2 / अनुज लुगुन

हवा के हल्के झोकों से
हिल पत्तों की दरार से
तुमने देख लिया था मदरा मुण्डा
झुरमुटों में छिपे बाघ को
और हवा के गुज़र जाने के बाद
पत्तों की पुन: स्थिति से पहले ही
उस दरार से गुज़रे
तुम्हारी सधे तीर ने
बाघ का शिकार किया था
और तुम हुर्रा उठे थे--
'जोवार सिकारी बोंगा जोवार !’[1]
तुम्हारे शिकार को देख
एदेल और उनकी सहेलियाँ
हँडिय़ा का रस तैयार करते हुए
आज भी गाती हैं तुम्हारे स्वागत में गीत
'सेन्देरा कोड़ा को कपि जिलिब-जिलिबा ।‘[2]
तब भी तुम्हारे हाथों धनुष
ऐसे ही तनी थी।

अनुज लुगुन

इंधन / इला प्रसाद

यादों के उपलों में
अब एक भी कच्चा उपला नहीं
जो जले देर तक
और धुआँ देता रहे
कि आकांक्षाओं की नाक में पानी
और आँखों में जलन हो
गले में ख़राश
और थोड़ी देर के लिए ही सही
वे खामोश हो जाएं
वक़्त की आग ने
सब जलाकर राख कर दिया

अब नया इंधन जुटाना ही पड़ेगा
ज़िंदगी के लिए

इला प्रसाद

सलवटें / आकांक्षा पारे

जो चुभती हैं तुम्हें
वो निगाहें नहीं हैं लोगों की
वो सलवटें हैं
मेरे बिस्तर की
जो बन जाती हैं
अकसर
रात भर करवटें
बदलते हुए।

आकांक्षा पारे

संवत / अरुण कमल

तप रहा ब्रह्मांड
ऎसा रौद्र
ऎसी धाह
रेत इतनी तप्त कि तलवे उठ रहे पड़ते,
रेंगनी काँटॊं के फूल पीले
और उनकी भाप भरी गंध
और गिरगिटों का रंग धूसर

मैं तो नदी की खोज में चला था
ज्वर से तपते बच्चों के वास्ते मैं तो
रेत में छिपे जल को टेरता चला था
और यहाँ मरघता पर बैठा हूँ
चिताओं की अग्नि तापता।

अरुण कमल

Sunday, December 1, 2013

और...दिन भर / कुमार रवींद्र

और...
वे बैठी रहीं दिन भर

आँसुओं के द्वीप ही पर


देह का इतिहास उनका
है अधूरा
स्वप्न उनकी कोख का
कोई न पूरा

कभी
वे भी थीं बनातीं

नदी-तट पर साँप के घर


भटकने को मिला उनको
एक जंगल
घर मिला जिसकी नहीं थीं
कोई साँकल

सोनचिड़िया
वे अनूठीं

कटे जिसके हैं सभी पर


आँच उनके बदन की
उनको जलाती
कोई लिखता नहीं उनको
नेह-पाती

रात आए
परी बनतीं

नाचती हैं ज़हर पीकर ।
कुमार रवींद्र

ऊँचे क़द वाले लोगों के लिए / अमृता भारती

ऊँचे कदवाले लोगों के लिए उसके बाहर एक सूचना है :

'यहाँ केवल मिट्टी ही आती है
सब अपने जूते बाहर ही उतार दो
अन्दर लेकर आना मना है।'

अमृता भारती

इमरजेंसी का गीत / कांतिमोहन 'सोज़'

इस नागवार सन्नाटे में आ कोई धुन गाएँ
ख़ामोश लबों की लाचारी गीतों में बुन जाएँ
आ कोई धुन गाएँ ।।

इस बार रंग दीवारों का काला और गहरा है
सपनों के पैरों में बेड़ी साँसों पर पहरा है
संशय का भूत भगाने को
अपनी ज्वाला चेताने को
आ कोई धुन गाएँ ।।

कोयल ख़ामोश रहेगी क्या संगीनों के डर से
जंगल में मोर थिरक उठ्ठेंगे बाँध कफ़न सर से
चन्दन में लपट उठाने को
लपटों में कमल खिलाने को
आ कोई धुन गाएँ ।।

आँखों से आँखें चार करो बाँहों को कसने दो
छिलने दो अन्तर के छाले घावों को रिसने दो
यूँ बिगड़ी बात बनाने को
संकेतों में समझाने को आ कोई धुन जाएँ ।
ख़ामोश लबों की लाचारी गीतों में बुन जाएँ ।।

कांतिमोहन 'सोज़'

सोना लादन पिय गए / गिरिधर

सोना लादन पिय गए, सूना करि गए देस।
सोना मिले न पिय मिले, रूपा ह्वै गए केस॥

रूपा ह्वै गए केस, रोर रंग रूप गंवावा।
सेजन को बिसराम, पिया बिन कबहुं न पावा॥

कह 'गिरिधर कविराय लोन बिन सबै अलोना।
बहुरि पिया घर आव, कहा करिहौ लै सोना॥

गिरिधर

कला का जन्म / अशोक भाटिया

कैसे फूटती है कला
चित्र बनाते तुम्हारे नन्हे हाथ
जानते तो नहीं
लेकिन लिए हैं अपने में
सृष्टि का मासूम सौंदर्य

सूर्य का आलोक उस दिन
तुम्हारे मन से होकर
फैल गया था
तुम्हारे बनाए चित्र में
सुबह के रूप में

पेंटिंग की
गीले ताज़े रंगों की चमक
और भागती–हॉंफती
पेंटिग थमाती
तुम्हारी आँखों की चमक में
कोई गहरा रिश्ता था

जीने की दहलीज पर
तुम्हारा प्रमाण है यह पेंटिंग
ईश्वर यदि है तो उसने
ऐसे ही सौंदर्य को रचा होगा
जैसे तुमने
एक निश्छल उमंग से
ब्रश को पकड़कर
अपनी उंगलियों में कसा होगा
और खड़ी की होंगी
पहाड़ और पेड़ों की पंक्तियाँ
झोपड़ी और पगडंडियाँ

तुम्हारी पेंटिंग
नहीं मानती बंधन
उसका पुरस्कार
तुम्हारी आँख की चमक है
तुम्हारी सात्त्विक दमक है

अशोक भाटिया

कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी / आदिल मंसूरी

कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी
परबत का सीना चीर के नदी उछल पड़ी

मुझ को अकेला छोड़ के तू तो चली गई
महसूस हो रही है मुझे अब मेरी कमी

कुर्सी, पलंग, मेज़, क़ल्म और चांदनी
तेरे बग़ैर रात हर एक शय उदास थी

सूरज के इन्तेक़ाम की ख़ूनी तरंग में
यह सुबह जाने कितने सितारों को खा गई

आती हैं उसको देखने मौजें कुशां कुशां
साहिल पे बाल खोले नहाती है चांदनी

दरया की तह में शीश नगर है बसा हुआ
रहती है इसमे एक धनक-रंग जल परी

आदिल मंसूरी

ज़ब्त कर ऐ हसरत-ए-दीद कुछ देर अभी है / अबू आरिफ़

ज़ब्त कर ऐ हसरत-ए-दीद कुछ देर अभी है
ग़ुज़रे थे वह जिस राह से वह राह यही है

एक जाम मोहब्बत का पिला के वह चल दिये
बाक़ी अभी भी तिश्नालबी तिश्नालबी है

एक हल्क-ए-ज़जीर है या गेसू-ए-जाना
दोश-ए-हया में कोई बदली सी उठी है
 
छेड़ो न इसे ऐ सबा जागा है कई रात
तक तक के उसी राह को अब आँख लगी है

अश्कों की पनहगाह आरिफ को ले सलाम
हर शाम तेरी ज़ात पे एक लाज बची है

अबू आरिफ़

माँ के आँसू / कृष्ण कुमार यादव

बचपन से ही
देखता आ रहा हूँ माँ के आँसू
सुख में भी, दुख में भी
जिनकी कोई कीमत नहीं
मैं अपना जीवन अर्पित करके भी
इनका कर्ज नहीं चुका सकता।

हमेशा माँ की आँखों में आँसू आये
ऐसा नहीं कि मैं नहीं रोया
लेकिन मैंने दिल पर पत्थर रख लिया
सोचा, कल को सफल आदमी बनूँगा
माँ को सभी सुख-सुविधायें दूँगा
शायद तब उनकी आँखों में आँसू नहीं हो
पर यह मेरी भूल थी।

आज मैं सफल व्यक्ति हूँ
सारी सुख-सुविधायें जुटा सकता हूँ
पर एक माँ के लिए उसके क्या मायने?
माँ को सिर्फ चाहिए अपना बेटा
जिसे वह छाती से लगा
जी भर कर प्यार कर सके।

पर जैसे-जैसे मैं ऊँचाईयों पर जाता हूँ
माँ का साथ दूर होता जाता है
शायद यही नियम है प्रकृति का।

कृष्ण कुमार यादव

परिसर / ऋतुराज

जंगली फूलों ने लॉन के फूलों से
पूछा, बताओ क्या दुःख है
क्यों सूखे जा रहे हो
दिन प्रतिदिन मरे जा रहे हो!!

पीले, लाल, जामुनी, सफेद, नीले
पचंरगे फूल बड़ी शान से
बिना पानी सड़क के किनारे
सूखे में खिल रहे थे
हर आते-जाते से बतिया रहे थे
डरते नहीं थे सर्र से निकलते
साँप से
ड्रोंगो के पतंगे को झपटने से
किंगफिशर की घोंसला बनाने की
तैयारी की चीख से

खुश थे कि शिरीष पर,
बुलबुलें एक दूसरे को खबरें सुना रही हैं
कि पीपल में ढेरों गोल लगे हैं
पूँछ-उठौनी पानी में डुबकी लगा रही है
मैनाएँ मुँह में तिनके दबाए
अकड़ कर चल रही हैं

जंगली फूल खुश थे
कि गुलदस्ते में नहीं लगाए जाएँगे
धूप के तमतमाने पर भी इतराएँगे
जबकि सुंदर से सुंदर भी
पिघलने कुम्हलाने से नहीं बचेगा
वे जीने का उत्सव मनाते रहेंगे

इसी तरह हँसेंगे
लॉन पर बैठे बौद्धिकों की बातों पर
बातों से अघाए फूलों पर
ताड़ के रुआँसे पत्तों पर
और उन गुलाबों पर जो इतनी जल्दी
खिलने से पहले बिखर गए

वे मोगरे जो रात में चुपचाप
धरती की सेज महका कर दिवंगत हो गए
वे फूल जो आजीवन प्यासे रहे
और मर गए
काश, जंगल में उगे होते
काश, वे आदिवास की जिजीविषा में
हर दुःख, कष्ट, विपन्नता में
प्रस्फुटित हुए होते

वे जान पाते निर्बंध जीवन का उल्लास
मना पाते कारावास की दीवारों से
बाहर रंगोत्सव
काश! काश!!

ऋतुराज

चैन हासिल कहीं नहीं होता / कविता किरण

चैन हासिल कहीं नहीं होता,
आपको क्यों यकीं नहीं होता।

नहीं होता ख़ुदा ख़ुदा जब तक,
आदमी आदमी नहीं होता।

आप हैं सामने हमारे और,
हमको फिर भी यकीं नहीं होता।

उम्र-भर साथ-साथ चलने से,
हमसफर हमनशीं नहीं होता।

नाप ले दूरियाँ भले आदम
आस्माँ ये ज़मीं नहीं होता।

जो न मिलती ‘किरण’ तेरी बाहें,
मौत का पल हसीं नहीं होता।

कविता "किरण"

मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर / ग़ालिब

मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर
रख ली मिरे ख़ुदा ने मिरी बेकसी की शर्म

वह हल्क़ा-हा-ए-ज़ुल्फ़ कमीं में हैं या ख़ुदा
रख लीजो मेरे दावा-ए-वारस्तगी की शर्म

ग़ालिब

गे बी / अली मोहम्मद फ़र्शी

ज़िंदगी मिथ नहीं
जो पुराने मआनी की
मय्या से लिपटी रहे

जैसे बेबी की तस्वीर के
कैप्शन में बताया गया है
उसे अपनी मा $ मा ने
इक और लड़की के एग से लिया
तीन मिलियन में सौदा हुआ

बाप उस का
बलडी बहुत लालची था
मगर ख़ूब-रू-नौजवाँ मशरिक़ी
काली आँखों के एजाज़ ने
दाम दुगना किया

मेज़बाँ
उस की माँ इक किराए की औरत
नय नोमा के नौ लाख माँगे
अदा कर दिए
ज़िंदगी मिथ नही हैं
पुराने मआनी की मय्या नहीं है
ये हव्वा नहीं है
ये लज़्बाई कल्चर की बेबी है
गेबी है
जिस में
ख़ुदा आदमी बाप और माँ
की मिथ के मआनी की मय्या नहीं है

अली मोहम्मद फ़र्शी

नई सदी में टहलते हुए / आत्मा राम रंजन

भागते समय से ताल बिठाना
बदलती सदी को कुशलता से फलांगना
वह है अनाम घुड़्दौड़ का
एक समर्थ घोड़ा
तीव्र में तीव्रतर गति
टहलने निकलने का उसका ख़्याल
अपने आप में सुखद है सांसों के लिए
और जीवन के लिए भी
नई सदी के पहले पड़ाव पर
टहलने निकला है वह
स्वत: ही दौड़ते से जा रहे
इसके क़दम उसकी अंगुली थामे है
एक बच्चा
बच्ची होने की संभावनाओ की
गर्म हत्याओं के बाद
लिया है जिसने जन्म

बोलता जा रहा लगातार
बड़बड़ाता सा खींचता हुआ उसकी कमीज़
नहीं विक्षिप्त नहीं है बच्चा
दरअसल सुनने वाले कानो में
चिपका हुआ है मोबाईल
और वे मग्न है अपनी दुनिया में
आँखें भी हैं आगे ही आगे
बच्चे से कहीं ऊँची खीजता हुआ
रूआँसा बच्चा चुप है अब गुमसुम
ढीली पड़ती जा रही
अंगुली पर उसकी पकड़
वह सोच रहा एक और विकल्प
पापा के साथ टहलने से तो अच्छा था
घर पर बी.डी.ओ. गेम खेलना
उसका इस तरह सोचना
इस सदी का एक ख़तरनाक हादसा है
बहुत ज़रूरी है कि कुछ ऐसा करें
कि बना रहे यह अँगुलियों का स्नेहिल स्पर्श
और जड़ होती सदी पर
यह नन्हीं स्निग्ध पकड़
कि बची रहे
पकड़ जितनी नर्म ऊष्मा
ताकि बची रहे यह पृथवी।

आत्मा राम रंजन

तीन कहानियाँ / क़तील

कल रात इक रईस की बाँहों में झूमकर,
लौटी तो घर किसान की बेटी ब-सद मलाल1
ग़ैज़ो-ग़जब से2 बाप का खूँ खौलने लगा,
दरपेश3 आज भी था मगर पेट का सवाल।

कल रात इक सड़क पे कोई नर्म-नर्म शै,
बेताब मेरे पाँव की ठोकर से हो गई,
मैं जा रहा था अपने खयालात में मगन,
हल्की-सी एक चीख़ फ़ज़ाओं में4 खो गई।

कल रात इक किसान के घर से धुआँ उठा,
बस्ती में ग़लग़ला5-सा हुआ-आग लग गई,
इस रंज से किसान का दिल पाश-पाश था,
रक्साँ6 थी चौधरी के लबों पर मगर हँसी।

क़तील शिफ़ाई

जिस्म में जाँ की तरह मैंने बसाया तुमको / अज़ीज़ आज़ाद

जिस्म में जाँ की तरह मैंने बसाया तुमको
अपने एहसास की परतों में समाया तुमको

ख़ुश्क मिट्टी हूँ मिले प्यार की हलकी-सी नमी
ये ही उम्मीद लिए अपना बनाया तुमको

तुम मिले जब भी ज़माने की हवा बन के मिले
मैंने हर बार ही बदला हुआ पाया तुमको

मुझ से यूँ बच के निकलते हो गुनाह हूँ जैसे
मेरा साया भी कभी रास न आया तुमको

तेरी ख़ुशबू को हवा बन के बिखेरा मैंने
जाने दिल रूहे-चमन मैंने बनाया तुमको

दौरे-गर्दिशे के ये झोंके न रुलादें ऐ ‘अज़ीज़’
मैंने हर मोड़ पे बाँहों में छुपाया तुमको

अज़ीज़ आज़ाद

रहना नहिं देस बिराना है / कबीर

रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥
यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।
कहत 'कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥

कबीर

ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब' / ग़ालिब

ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री
हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे

ग़ालिब

बज़ाहिर प्यार की दुनिया में जो नाकाम होता है / अदम गोंडवी

बज़ाहिर प्यार की दुनिया में जो नाकाम होता है
कोई रूसो कोई हिटलर कोई खय्याम होता है

ज़हर देते हैं उसको हम कि ले जाते हैं सूली पर
यही हर दौर के मंसूर का अंजाम होता है

जुनूने-शौक में बेशक लिपटने को लिपट जाएँ
हवाओं में कहीं महबूब का पैगाम होता है

सियासी बज़्म में अक्सर ज़ुलेखा के इशारों पर
हकीकत ये है युसुफ आज भी नीलाम होता है

अदम गोंडवी

अपना मन होता है / कमलेश भट्ट 'कमल'


उस पर जाने किस किसका तो बंधन होता है
अपना मन भी आखिर कब अपना मन होता है ।

तन से मन की सीमा का अनुमान नहीं लगता
तन के भीतर ही मीलों लम्बा मन होता है ।

वह भी क्या जानेगा सागर की गहराई को
जिसका उथले तट पर ही देशाटन होता है ।

अँधियारा क्या घात लगाएगा उस देहरी पर
जिस घर रोज उजालों का अभिनन्दन होता है ।

दुख की भाप उठा करती हैसुख के सागर से
ऐसा ही, ऐसा ही शायद जीवन होता है ।

हम-तुम सारे ही जिसमें किरदार निभाते हैं
पल-पल छिन-छिन उस नाटक का मंचन होता है ।

तन की आँखें तो मूरत में पत्थर देखेंगी
मन की आँखों से ईश्वर का दर्शन होता है ।

कमलेश भट्ट 'कमल'

हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए / 'क़ाबिल' अजमेरी

हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
हम नज़र तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए

ना-मुरादी अपनी किस्मत गुमरही अपना नसीब
कारवाँ की खैर हो हम कारवाँ तक आ गए

उन की पलकों पर सितारे अपने होंटों पे हँसी
किस्सा-ए-गम कहते कहते हम कहाँ तक आ गए

रफ्ता-रफ्ता रंग लाया जज्बा-ए-खामोश-ए-इश्क
वो तगाफुल करते करते इम्तिहाँ तक आ गए

खुद तुम्हें चाक-ए-गिरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
तुम वहाँ तक आ तो जाओ हम जहाँ तक आ गए

आज ‘काबिल’ मय-कदे में इंकिलाब आने को है
अहल-ए-दिल अंदेशा-ए-सूद-ओ-जियाँ तक आ गए

'क़ाबिल' अजमेरी

Saturday, November 30, 2013

हमेशा दिल में रहता है कभी गोया नहीं जाता / आलम खुर्शीद

हमेशा दिल में रहता है, कभी गोया नहीं जाता
जिसे पाया नहीं जाता, उसे खोया नहीं जाता
 
कुछ ऐसे ज़ख्म हैं जिनको सभी शादाब रखते हैं
कुछ ऐसे दाग़ हैं जिनको कभी धोया नहीं जाता
 
बहुत हँसने कि आदत का यही अंजाम होता है
कि हम रोना भी चाहें तो कभी रोया नहीं जाता
 
अजब सी गूँज उठती है दरो-दीवार से हरदम
ये उजड़े ख़्वाब का घर है यहाँ सोया नहीं जाता
 
ज़रा सोचो ये दुनिया किस क़दर बेरंग हो जाती
अगर आँखों में कोई ख़्वाब ही बोया नहीं जाता
 
न जाने अब मुहब्बत पर मुसीबत क्या पड़ी आलम
कि अहले दिल से दिल का बोझ भी ढोया नहीं जाता

आलम खुर्शीद

केन पर भिनसार / अग्निशेखर

बीच पुल पर खड़ा मैं अवाक‌
ओस भीगी नीरवता में
बांदा के आकाश का चन्द्रमा
हो रहा विदा
केन तट पर छोड़े जा रहा

पाँव के निशान

बड़ी-बड़ी पलकों वाली उसकी प्रेयसी
बेख़बर मेरी और मेरे कविमित्र की मौज़ूदगी से
निहारती एकटक वो मुक्तकेशी
जन्मों से बँधी
अभी मांग में उतरेगा केसर
और संसार बदल जाएगा

साँस रोके खड़ा मैं पुल पर
सुदूर बादल के घोंसलों में कहीं से
बोल पड़ता है कोई जलपाँखी
सचेत-सा करता केन को

मेरे बारे में

ओ, भोले जलपाँखी
मेरी भी केन थी एक
राग-भैरवी-सी
सात-सात पुलों के नीचे से हो बहती
मैं चलता तटों पर साथ उसके
खेलता
गाता
इठलाता
कभी उतरता तहों में
तैरता आर-पार...

बरसों बाद जलावतनी में
यह विस्मय...
निश्शब्दता...

और क्षितिज पर सरकती
वो श्यामल लिहाफ़
केन का अलसाया रूप
मुखर चाहना फिर से प्रिय की

मैं लौटता हूँ वापस
उदास और अभिभूत
चुप है जलपाँखी भी

अग्निशेखर

खाय गईँ खसम भसम को रमाय लाईँ / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

खाय गईँ खसम भसम को रमाय लाईँ ,
सँपति नसाय दुहूँ कुल मेँ बिघन की ।
छाई भई साधुन की पाँति को पवित्र कीन्होँ ,
माईजी कहायकै लुगाई बनी जन की ।
कासमीरी छोहरे दिखाय परैँ कहूँ तो ,
न पांय धरैँ भूमै न हवास रहैँ तनकी ।
पाय पाय पूतन बहाय दीन्हीँ सोतन मेँ ,
हाय गति कहाँ लौँ बखानौँ भगतिन की ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

अज्ञात कवि (रीतिकाल)

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं / फ़राज़

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं

सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं

वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं

जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं

रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं

तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं

ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं

यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं

न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं

यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं

अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं

बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं

अहमद फ़राज़

खुश्बू की तरह साथ लगा ले गई हमको / इरफ़ान सिद्दीकी

खुश्बू की तरह साथ लगा ले गई हमको
कूचे से तेरे बादे-सबा ले गई हमको

पत्थर थे कि गौहर थे अब इस बात का क्या ज़िक्र
इक मौज बहरहाल बहा ले गई हमको

फिर छोड़ दिया रेगे-सरे-राह समझ कर
कुछ दूर तो मौसम की हवा ले गई हमको

तुम कैसे गिरे आंधी में छतनार दरख्तो!
हम लोग तो पत्ते थे उड़ा ले गई हमको

हम कौन शनावर थे कि यूँ पार उतरते
सूखे हुए होंटों की दुआ ले गई हमको

इस शहर में ग़ारत-गरे-ईमाँ तो बहुत थे
कुछ घर की शराफ़त ही बचा ले गई हमको

इरफ़ान सिद्दीकी

गीत – 2 / उदय भान मिश्र

हंस लो कुछ क्षण और धरा पर, नभ के चांद सितारो!!
आग लिये हहराता पथ पर सूरज आता होगा।

कब तक ढांक सकेगी भू को, निशि तम की धारा में?
कब तक मौन रहेगा पंकज, कलियों की कारा में?
कब तक धरती की सुहाग पर, तम में छिपा रहेगा?
कब तक पत्तों के झुरमुट में-पंछी पड़ा रहेगा?
कब तक होगी मनचाही यह, कब तक धरा सहेगी?
कब तक भू पर अंधकार की-चादर तनी रहेगी?

कर लो अपने मन की कुछ क्षण और-गगन के तारो-
दीप लिये हहराता नभ में सूरज आता होगा।

अब तो जीवन और मरण का भीषण झगड़ा होगा।
और तुम्हारी मनचाही पर बल का पहरा होगा।
कुसुमों से खेलेगी हंस कर रोने वाली धरती।
हरी लताओं में झूमेगी, बन मतवाली धरती।
बंद रहेंगे गीत रात के-सरस प्रभाती होगी।
हारेगी जब रात, और जब जीत दिवस की होगी।

खोलो घर के द्वार, किरण आयेगी-भू के लोगों!!
थाल लिये कर में, कल सूरज तिलक लगाता होगा।

उदय भान मिश्र

अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे / अब्दुल हमीद 'अदम'

अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
दिल की आहट से तेरी आवाज़ आती है मुझे

या समात का भरम है या किसी नग़्में की गूँज
एक पहचानी हुई आवाज़ आती है मुझे

किसने खोला है हवा में गेसूओं को नाज़ से
नर्मरौ बरसात की आवाज़ आती है मुझे

उस की नाज़ुक उँगलियों को देख कर अक्सर 'अदम'
एक हल्की सी सदा-ए-साज़ आती है मुझे

अब्दुल हमीद 'अदम'

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े / कैफ़ी आज़मी

 
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े

साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े

कैफ़ी आज़मी

गर्दिश का इक लम्हा यूँ बेबाक हुआ / अम्बर बहराईची

गर्दिश का इक लम्हा यूँ बेबाक हुआ
सोने चाँदी का हर मंज़र ख़ाक हुआ

नहर किनारे एक समुंदर प्यासा है
ढलते हुए सूरज का सीना चाक हुआ

इक शफ़्फ़ाफ़ तबीअत वाला सहराई
शहर में रह कर किस दर्जा चालाक हुआ

शब उजली दस्तारें क्या सर-गर्म हुईं
भोर समय सारा मंज़र नमनाक हुआ

वो तो उजालों जैसा था उस की ख़ातिर
आने वाला हर लम्हा सफ़्फ़ाक हुआ

ख़ाल-ओ-ख़द मंज़र पैकर और गुल बूटे
ख़ूब हुए मेरे हाथों में चाक हुआ

इक तालाब की लहरों से लड़ते लड़ते
वो भी काले दरिया का पैराक हुआ

मौसम ने करवट ली क्या आँधी आई
अब के तो कोहसार ख़स-ओ-ख़ाशाक हुआ

बातिन की सारी लहरें थीं जोबन पर
उस के आरिज़ का तिल भी बेबाक हुआ

चंद सुहाने मंज़र कुछ कड़वी यादें
आख़िर ‘अम्बर’ का भी क़िस्सा पाक हुआ

अम्बर बहराईची

अकाल के बाद / उमाशंकर तिवारी

माँ, नहीं बादल बुलाती
खुली छत से
कुछ न सूरज से, न कुछ
माँगे शरत से

भूल बैठी लोरियाँ,
किस्से कहानी
बाढ़ की गंगा हुई
दो बूंद पानी
रूठकर बैठी हुई है
देवव्रत से

क्या न करवाचौथ के
मेले लेगेंगे?
चूड़ियों के हाट घाटों पर
सजेंगे?
क्या न अब मोती गिरेगा
टूट नथ से?

बैठते हल, कोख सूनी
होंठ नीले
किस तरह हों बेटियों के
हाथ पीले?
चलें हम भी
बात कर आएँ

उमाशंकर तिवारी

मिस्टर के की दुनिया: पेड़ और बम-७ / गिरिराज किराडू

घड़ियों से प्रेम मत करो
ट्रेनों से उससे भी कम
और भाषा से सबसे कम
जिस भाषा में तुम रोते हो वही किसी का अपमान करने की सबसे विकसित तकनीक है

तुम भाषा की शर्म में रहते हो
और वे चीख रहे हैं गर्व में
तुम्हारे पास अगर कुछ है तो अपने को बम में बदल देने का विकल्प
और तुम अभी भी सोचते हो बम धड़कता नहीं है
तुम अपने सौ एक सौ अस्सी के रक्तचाप को सम्भाल के रक्खो

एक हिंसक मौत की कामना हर अहिंसक की मजबूरी है
इसीलिये मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है

घड़ी देखो और अपने रक्तचाप में डूब मरो

गिरीराज किराडू

जस्त भरता हुआ दुनिया के दहाने की तरफ़ / अंजुम सलीमी

जस्त भरता हुआ दुनिया के दहाने की तरफ़
जा निकलता हूँ किसी और ज़माने की तरफ़

आँख बे-दार हुई कैसी ये पेशानी पर
कैसा दरवाज़ा खुला आईना-ख़ाने की तरफ़

ख़ुद ही अंजाम निकल आएगा इस वाक़िए से
एक किरदार रवाना है फ़साने की तरफ़

हल निकलता है यही रिश्तों की मिस्मारी का
लोग आ जाते हैं दीवार उठाने की तरफ़

दरमियाँ तेज़ हवा भी है ज़माना भी है
तीर तो छोड़ दिया मैं ने निशाने की तरफ़

एक बिछड़ी हुई आवाज़ बुलाती है मुझे
वक़्त के पार से गुम-गश्ता ठिकाने की तरफ़

अंजुम सलीमी

वास्तविकता / अमित

ड्राइंग रूम में अपना एक चित्र लगाया है
जो मुझे आकर्षक दिखाता है
पर मेरे जैसा नहीं दिखता
एक तख्ती दरवाजे पर
उपाधियां दर्शाती है, मेरी
जिन्हें मैं जानता हूँ कि कागजी हैं
और ओढे रहता हूँ एक गंभीरता
कि लोग बहुत नजदीक न आ जाँय
जान लें मेरी वास्तविकता
लेकिन कभी-कभी सोचता हूँ
कि देंखूं
इन सबके बिना
मैं कैसा लगता हूँ|

अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’

सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का / अतुल अजनबी

सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का
शजर मिज़ाज समझते हैं राहगीरों का

किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का
जो धूप - छाँव से रिश्ता बनाये रहता है

ये रहबर आज भी कितने पुराने लगते हैं
की पेड़ दूर से रस्ता दिखाने लगते हैं

अजब ख़ुलूस अजब सादगी से करता है
दरख़्त नेकी बड़ी ख़ामुशी से करता है

पत्तों को छोड़ देता है अक्सर खिज़ां के वक़्त
खुदगर्ज़ी ही कुछ ऐसी यहाँ हर शजर में है

अतुल अजनबी

क्यों / कीर्ति चौधरी

ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

उमर बीत जाती है करते खोज,
मीत मन का मिलता ही नहीं,
एक परस के बिना,
हृदय का कुसुम
पार कर आता कितनी ऋतुएँ, खिलता नहीं।
उलझा जीवन सुलझाने के लिए
अनेक गाँठें खुलतीं;
वह कसती ही जाती जिसमें छोर फँसे हैं।
ऊपर से हँसने वाला मन अन्दर-ही-अन्दर रोता है,
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

छोटी-सी आकांक्षा मन में ही रह जाती,
बड़े-बड़े सपने पूरे हो जाते, सहसा।
अन्दर तक का भेद सहज पा जाने वाली
दृष्टि,
देख न पाती
जीवन की संचित अभिलाषा,
साथ जोड़ता कितने मन
पर एकाकीपन बढ़ता जाता,
बाँट न पाता कोई
ऐसे सूनेपन को
हो कितना ही गहरा नाता,
भरी-पूरी दुनिया में भी मन ख़ुद अपना बोझा ढोता है।
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

कब तक यह अनहोनी घटती ही जाएगी?
कब हाथों को हाथ मिलेंगे
सुदृढ़ प्रेममय?
कब नयनों की भाषा
नयन समझ पाएंगे?
कब सच्चाई का पथ
काँटों भरा न होगा?
क्यों पाने की अभिलाषा में मन हरदम ही कुछ खोता है?
ऐसा क्यों होता है?
ऐसा क्यों होता है?

कीर्ति चौधरी

मैं घायल शिकारी हूँ / अनुज लुगुन


मैं घायल शिकारी हूँ
मेरे साथी मारे जा चुके हैं
हमने छापामारी की थी
जब हमारी फ़सलों पर जानवरों ने धावा बोला था

...हमने कार्रवाई की उनके ख़िलाफ़
जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि
फ़सल हमारी है और हमने ही उसे जोत–कोड कर उपजाया है
हमने उन्हें बताया कि
कैसे मुश्किल होता है बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाना
किसी बीज को अंकुरित करने मे कितना ख़ून जलता है
हमने हाथ जोड़े, गुहार की
लेकिन वे अपनी ज़िद पर अड़े रहे कि
फ़सल उनकी है,
फ़सल जिस ज़मीन पर खड़ी है वह उनकी है
और हमें उनकी दया पर रहना चाहिए

हमें गुरिल्ले और छापामार तरीके ख़ूब आते हैं
लेकिन हमने पहले गीत गाए
माँदर और नगाड़े बजाते हुए उन्हें बताया कि देखो
फ़सल की जड़ें हमारी रगों को पहचानती हैं ,
फिर हमने सिंगबोंगा से कहा कि
वह उनकी मति शुद्ध कर दे
उन्हें बताए कि फ़सलें ख़ून से सिंचित हैं ,

और जब हम उनकी सबसे बडी अदालत में पहुँचे
तब तक हमारी फ़सलें रौंदी जा चुकी थीं
मेरा बेटा जिसका ब्याह पिछली ही पूरणिमा को हुआ था
वह अपने साथियों के साथ सेंदेरा के लिए निकल पडा

यह टूट्ता हुआ समय है
पुरखों की आत्माएँ ,देवताओं की शक्ति छीन होती जा रही हैं
हमारी सिद्धियाँ समाप्त हो रही हैं
सेंदेरा से पहले हमने
शिकारी देवता का आह्वान किया था लेकिन
हम पर काली छायाएँ हावी रहीं
हमारे साथी शहीद होते गए

मैं यहाँ चट्टान के एक टीले पर बैठा
फ़सलों को देख रहा हूँ
फ़सलें रौन्दी जा चुकी हैं
मेरे बदन से लहू रिस रहा है
रात होने को है और
मेरे बच्चे, मेरी औरत
घर पर मेरा इंतज़ार कर रही है
मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूँ
अपने भूखे बच्चे और औरतों को देखता हूँ
पर मुझे अफ़सोस नहीं होता
मुझे विश्वास है कि
वे भी मेरी खोज में इस टीले तक एक दिन ज़रूर पहुँचेंगे

मैं उस फ़सल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ
जिसकी जड़ों में हमारी जड़ें हैं
उसकी टहनियों में लोटते पंछियों को घोंसला लौटाना चाहता हूँ
जिनके तिंनकों में हमारा घर है
उस धरती के लिये बलिदान चाहता हूँ
जिसने अपनी देह पर पेड़ों के उगने पर कभी आपत्ति नहीं की
नदियों को कभी दुखी नहीं किया
और जिसने हमें सिखाया कि
गीत चाहे पंछियों के हों या जंगल के
किसी के दुश्मन नहीं होते

मैं एक बूढ़ा शिकारी
घायल और आहत
लेकिन हौसला मेरी मुट्ठियों में है और
उम्मीद हर हमले में
मैं एक आख़िरी गीत अपनी धरती के लिए गाना चाहता हूँ ..


18/11/12

अनुज लुगुन

जनता का आदमी / आलोक धन्वा


बर्फ़ काटने वाली मशीन से आदमी काटने वाली मशीन तक
कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरूद्ध
जलतें हुए गाँवों के बीच से गुज़रती है मेरी कविता;
तेज़ आग और नुकीली चीख़ों के साथ
जली हुई औरत के पास
सबसे पहले पहुँचती है मेरी कविता;
जबकिं ऐसा करते हुए मेरी कविता जगह-जगह से जल जाती है
और वे आज भी कविता का इस्तेमाल मुर्दागाड़ी की तरह कर रहे हैं
शब्दों के फेफड़ों में नये मुहावरों का ऑक्सी जन भर रहे हैं,
लेकिन जो कर्फ़्यू के भीतर पैदा हुआ,
जिसकी साँस लू की तरह गर्म है
उस नौजवान खान मज़दूर के मन में
एक बिल्कुल नयी बंदूक़ की तरह याद आती है मेरी कविता।
जब कविता के वर्जित प्रदेश में
मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा
तो उन तमाम कवियों को
मेरा आना एक अश्लील उत्पात-सा लगा
जो केवल अपनी सुविधाके लिए
अफ़ीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,
भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में-
उस गर्भवती औरत के साथ
जिसकी नाभि में सिर्फ़ इसलिए गोली मार दी गयी
कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाय।

सड़े हुए चूहों को निगलते-निगलते
जिनके कंठ में अटक गया है समय
जिनकी आँखों में अकड़ गये हैं मरी हुई याद के चकत्ते
वे सदा के लिए जंगलों में बस गये हैं -
आदमी से बचकर
क्यों कि उनकी जाँघ की सबसे पतली नस में
शब्द शुरू होकर
जाँघ की सबसे मोटी नस में शब्द समाप्त हो जाते हैं
भाषा की ताज़गी से वे अपनी नीयत को ढँक रहे हैं
बस एक बहस के तौर पर
वे श्रीकाकुलम जैसी जगहों का भी नाम ले लेते हैं,
वे अजीब तरह से सफल हुए हैं इस देश में
मरे हुए आदमियों के नाम से
वे जीवित आदमियों को बुला रहे हैं।

वे लोग पेशेवर ख़ूनी हैं
जो नंगी ख़बरों का गला घोंट देते हैं
अख़बार की सनसनीख़ेज़ सुर्खियों की आड़ में
वे बार-बार उस एक चेहरे के पालतू हैं
जिसके पेशाबघर का नक़्शा मेरे गाँव के नक़्शे से बड़ा है।

बर्फीली दरारों में पायी जाने वाली
उजली जोंकों की तरह प्रकाशन संस्थाएँ इस देश कीः
हुगली के किनारे आत्महत्या करने के पहले
क्यों चीख़ा था वह युवा कवि - ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’
-उसकी लाश तक जाना भी मेरे लिए संभव नहीं हो सका
कि भाड़े पर लाया आदमी उसके लिए नहीं रो सका
क्योंकि इसे सबसे पहले
आज अपनी असली ताक़त के साथ हमलावर होना चाहिए।

हर बार कविता लिखते-लिखते
मैं एक विस्फोटक शोक के सामने खड़ा हो जाता हूँ
कि आखिर दुनिया के इस बेहूदे नक़्शे को
मुझे कब तक ढोना चाहिए,
कि टैंक के चेन में फँसे लाखों गाँवों के भीतर
एक समूचे आदमी को कितने घंटों तक सोना चाहिए?

कलकत्ते के ज़ू में एक गैंडे ने मुझसे कहा
कि अभी स्वतंत्रता कहीं नहीं हैं, सब कहीं सुरक्षा है;
राजधानी के सबसे सुर‍क्षित हिस्से में
पाला जाता है एक आदिम घाव
जो पैदा करता है जंगली बिल्लियों के सहारे पाशविक अलगाव
तब से मैंने तय कर लिया है
कि गैंडे की कठिन चमड़ी का उपयोग युद्ध के लिए नहीं
बल्कि एक अपार करूणा के लिए होना चाहिए।

मैं अभी मांस पर खुदे हुए अक्षरों को पढ़ रहा हूँ-
ज़हरीली गैसों और खूंखार गुप्तचरों से लैस
इस व्यवस्था का एक अदना सा आदमी
मेरे घर में किसी भी समय ज़बर्दस्ती घुस आता है
और बिजली के कोड़ों से
मेरी माँ की जाँघ
मेरी बहन की पीठ
और मेरी बेटी की छातियों को उधेड़ देता है,
मेरी खुली आँखों के सामने
मेरे वोट से लेकर मेरी प्रजनन शक्ति तक को नष्ट कर देता है,
मेरी कमर में रस्से बाँध कर
मुझे घसीटता हुआ चल देता है,
जबकि पूरा गाँव इस नृशंस दृश्य, को
तमाशबीन की तरह देखता रह जाता है।
क्योंकि अब तक सिर्फ़ जेल जाने की कविताएँ लिखी गयीं
किसी सही आदमी के लिए
जेल उड़ा देने की कविताएँ पैदा नहीं हुईं।
 
एक रात
जब मैं ताज़े और गर्म शब्दों की तलाश में था-
हज़ारों बिस्तरों में पिछले रविवार को पैदा हुए बच्चे निश्चिंत सो रहे थे,
उन बच्चों की लम्बाई
मेरी कविता लिखने वाली क़लम से थोड़ी-सी बड़ी थी।
तभी मुझे कोने में वे खड़े दिखाई दे गये, वे खड़े थे - कोने में
भरी हुई बंदूक़ो की तरह, सायरानो की तरह, सफ़ेद चीते की तरह,
पाठ्यक्रम की तरह, बदबू और संविधान की तरह।
वे अभिभावक थे,
मेरी पकड़ से बाहर- क्रूर परजीवी,
उनके लिए मैं बिलकुल निहत्था था
क्योंकि शब्दों से उनका कुछ नहीं बिगड़ता है
जब तक कि उनके पास सात सेंटीमीटर लम्बी गोलियाँ हैं
- रायफ़लों में तनी-पड़ी।
वे इन बच्चों को बिस्तरों से उठाकर
सीधे बारूदख़ाने तक ले जायेंगे।
वे हर तरह की कोशिश करेंगे
कि इन बच्चों से मेरी जान-पहचान न हो
क्योंकि मेरी मुलाक़ात उनके बारूदख़ाने में आग की तरह घुसेगी।
मैं गहरे जल की आवाज़-सा उतर गया।
बाहर हवा में, सड़क पर
जहाँ अचानक मुझे फ़ायर स्टेशन के ड्राइवरों ने पकड़ लिया और पूछा-
आखिर इस तरह अक्षरों का भविष्य क्या होगा ?
आखिर कब तक हम लोगों को दौड़ते हुए दमकलों के सहारे याद किया जाता रहेगा ?
उधर युवा डोमों ने इस बात पर हड़ताल की
कि अब हम श्मशान में अकाल-मृत्यु के मुर्दों को
सिर्फ़ जलायेंगे ही नहीं
बल्कि उन मुर्दों के घर तक जायेगें।
अक्सर कविता लिखते हुए मेरे घुटनों से
किसी अज्ञात समुद्र-यात्री की नाव टकरा जाती है
और फिर एक नये देश की खोज शुरू हो जाती है-
उस देश का नाम वियतनाम ही हो यह कोई ज़रूरी नहीं
उस देश का नाम बाढ़ मे बह गये मेरे पिता का नाम भी हो सकता है,
मेरे गाँव का नाम भी हो सकता है
मैं जिस खलिहान में अब तक
अपनी फ़सलों, अपनी पंक्तियों को नीलाम करता आया हूँ
उसके नाम पर भी यह नाम हो सकता है।
क्यों पूछा था एक सवाल मेरे पुराने पड़ोसी ने-
मैं एक भूमिहीन किसान हूँ,
क्या मैं कविता को छू सकता हूँ ?
अबरख़ की खान में लहू जलता है जिन युवा स्तनों और बलिष्ठ कंधों का
उन्हें अबरख़ ‘अबरख़’ की तरह
जीवन में एक बार भी याद नहीं आता है
क्यों हर बार आम ज़िंदगी के सवाल से
कविता का सवाल पीछे छूट जाता है ?

इतिहास के भीतर आदिम युग से ही
कविता के नाम पर जो जगहें ख़ाली कर ली जाती हैं-
वहाँ इन दिनों चर्बी से भरे हुए डिब्बे ही अधिक जमा हो रहे हैं,
एक गहरे नीले काँच के भीतर
सुकान्त की इक्कीस फ़ीट लंबी तड़पती हुई आँत
निकाल कर रख दी गयी है,
किसी चिर विद्रोह की रीढ़ पैदा करने के लिए नहीं;
बल्कि कविता के अज़ायबघर को
पहले से और अजूबा बनाने के लिए।
असफल, बूढ़ी प्रेमिकाओं की भीड़ इकट्ठी करने वाली
महीन तम्बाकू जैसी कविताओं के बीच
भेड़ों की गंध से भरा मेरा गड़रिये-जैसा चेहरा
आप लोगों को बेहद अप्रत्याशित लगा होगा,
उतना ही
जितना साहू जैन के ग्ला‍स-टैंक में
मछलियों की जगह तैरती हुई गजानन माधव मुक्तिबोध की लाश।

बम विस्फोट में घिरने के बाद का चेहरा मेरी ही कविताओं में क्यों है?
मैं क्यों नहीं लिख पाता हूँ वैसी कविता
जैसी बच्चों की नींद होती है,
खान होती है,
पके हुए जामुन का रंग होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसी माँ के शरीर में नये पुआल की महक होती है,
जैसी बाँस के जंगल में हिरन के पसीने की गंध होती है,
जैसे ख़रगोश के कान होते हैं,
जैसे ग्रीष्म के बीहड़ एकांत में
नीले जल-पक्षियों का मिथुन होता है,
जैसे समुद्री खोहों में लेटा हुआ खारा कत्थईपन होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसे हज़ारो फ़ीट की ऊँचाई से गिरनेवाले झरने की पीठ होती है ?
हाथी के पैरों के निशान जैसे गंभीर अक्षरों में
जो कविता दीवारों पर लिखी होती है
कई लाख हलों के ऊपर खुदी हुई है जो
कई लाख मज़दूरों के टिफ़िन कैरियर में
ठंढी, कमज़ोर रोटी की तरह लेटी हुई है जो कविता ?
 
एक मरे हुए भालू से लड़ती रहीं उनकी कविताएँ
कविता को घुड़दौड़ की जगह बनाने वाले उन सट्टेबाज़ों की
बाज़ी को तोड़ सकता है वही
जिसे आप मामूली आदमी कहते है;
क्योंकि वह किसी भी देश के झंडे से बड़ा है।
इस बात को वह महसूस करने लगा है,
महसूस करने लगा है वह
अपनी पीठ पर लिखे गये सैकड़ों उपन्यासों,
अपने हाथों से खोदी गयी नहरों और सड़कों को

कविता की एक महान सम्भावना है यह
कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को महसूस करने लगा है-
अपनी टाँग पर टिके महानगरों और
अपनी कमर पर टिकी हुई राजधानियों को
महसूस करने लगा है वह।
धीरे-धीरे उसका चेहरा बदल रहा है,
हल के चमचमाते हुए फाल की तरह पंजों को
बीज, पानी और ज़मीन के सही रिश्तों को
वह महसूस करने लगा है।
कविता का अर्थ विस्तार करते हुए
वह जासूसी कुत्तों की तरह शब्दों को खुला छोड़ देता है,
एक छिटकते हुए क्षण के भीतर देख लेता है वह
ज़ंजीर का अकेलापन,
वह जान चुका है -
क्यों एक आदिवासी बच्चा घूरता है अक्षर,
लिपि से डरते हुए,
इतिहास की सबसे घिनौनी किताब का राज़ खोलते हुए।

(1972)

आलोक धन्वा