अब तक सन्ना रहा है तप्त आसमान
भटक रहा है आँधियों में झुलसता गिद्ध
थकता है दिन
पत्ते होते हैं सुर्ख़
शान्त पड़ते हैं वृक्ष
फिर भी काफ़ी गति है हवा में
दर्द से सिहर उठती हैं फुनगियाँ
जब पोरों में सूखता है आख़िरी कतरा
खखोरता है खुरपे पर
कोई बचा-खुचा सीमेंट
कान्हे पर लिए बन्दूक
खोजता है पानी एक जवान
और उधर
फिसलता है सूरज / उतरती है ज़मीन पर /
जले हुए जंगलों की राख
आज की तारीख़ में
इतनी सी शिरकत
करता है इतिहास
Thursday, December 5, 2013
शिरकत / अजय कृष्ण
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