थोड़े बहुत बूथ पर लेकिन
नहीं सड़क पर दिखते,
सन्नाटों के बीच ’तन्त्र’ की
जन्म कुण्डली लिखते
कलम कहीं पर रूक-रूक जाती
मनचाहा जब दीखे,
तारकोल से लिपे चेहरे
देख ईंकं भी चीखे,
सूर्य चन्द्र-से ग्रह गायब है,
राहु केतु ही मिलते
कथनी-करनी बीच खुदी है
कितनी गहरी खाई,
जिसे लाँघते काँप रही है
अपनी ही परछाई,
अब तो लाल-किताब छोड़कर
नयी संहिता रचते
चूहा छोटा जाल काटता
शेर मुक्त हो जाता,
व्यक्ति बड़ा है ग्रह गोचर से
यह अतीत बतलाता,
लोक तंत्र में एक वोट से
तख्त ताज भी गिरते
’मत चूक्यो चैहान’ कहा था,
कभी किसी इक कवि ने,
अंधकार से तभी लड़ा था
दीपक जैसे रवि ने,
’साइत नही सुतार’ देखिए
लोक-कथन यह कहते।
Thursday, December 5, 2013
तन्त्र की जन्म कुण्डली लिखते / ओम धीरज
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