ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो
फिर कोई फूल हो के पत्थर हो
मैं हूँ ख़्वाब-ए-गिराँ के नर्ग़े में
रात गुज़रे तो मारका सर हो
फिर ग़नीमों से बे-ख़बर है सिपाह
फिर अक़ब से नुमूद लश्कर हो
क्या अजब है के ख़ुद ही मारा जाऊँ
और इल्ज़ाम भी मेरे सर हो
हैं ज़मीं पर जो गर्द-बाद से हम
ये भी शायद फलक का चक्कर हो
उस को ताबीर हम करें किस से
वो जो हद-ए-बयाँ से बाहर हो
देखना ही जो शर्त ठहरी है
फिर तो आँखों में कोई मंज़र हो
Monday, December 2, 2013
ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो / अहमद महफूज़
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