कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
जिस मुसलमाँ ने उसे देखा वो काफ़र हो गया
दिल-बरों के नक़्श-ए-पा में है सदफ़ का सा असर
जो मेरा आँसू गिरा उस में सो गौहर हो गया
क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
बर्ग-ए-गुल की तरह हर नाख़ुन मुअत्तर हो गया
आँख से निकले पे आँसू का ख़ुदा हाफ़िज़ ‘यक़ीं’
घर से जो बाहर गया लड़का सो अबतर हो गया
Saturday, December 7, 2013
कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया / इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
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