अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
आब ओ गिल के खेल को अपना जहाँ समझा था मैं
बे-हिजाबी से तेरी टूटा निगाहों का तिलिस्म
इक रिदा-ए-नील-गूँ को आसमाँ समझा था मैं
कारवाँ थक कर फ़ज़ा के पेच-ओ-ख़म में रह गया
मेहर ओ माह ओ मुश्तरी को हम-इनाँ समझा था मैं
इश्क़ की इक जस्त ने तय कर दिया क़िस्सा तमाम
इस ज़मीन ओ आसमाँ को बेकराँ समझा था मैं
कह गईं राज़-ए-मोहब्बत पर्दा-दारी-हा-ए-शौक़
थी फ़ुग़ाँ वो भी जिसे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ समझा था मैं
थी किसी दरमांदा रह-रौ की सदा-ए-दर्दनाक
जिस को आवाज़-ए-रहिल-ए-कारवाँ समझा था मैं
Friday, December 6, 2013
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा / इक़बाल
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