ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी
मजबूर थे हम उस से मुहब्बत भी बहुत थी
उस बुत के सितम सह के दिखा ही दिया हम ने
गो अपनी तबियत में बगावत भी बहुत थी
वाकिफ ही न था रंज-ए-मुहब्बत से वो वरना
दिल के लिए थोड़ी सी इनायत भी बहुत थी
यूं ही नहीं मशहूर-ए-ज़माना मेरा कातिल
उस शख्स को इस फन में महारत भी बहुत थी
क्या दौर-ए-ग़ज़ल था के लहू दिल में बहुत था
और दिल को लहू करने की फुर्सत भी बहुत थी
हर शाम सुनाते थे हसीनो को ग़ज़ल हम
जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी
बुलावा के हम "आजिज़" को पशेमान भी बहुत हैं
क्या कीजिये कमबख्त की शोहरत भी बहुत थी
Tuesday, December 3, 2013
ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी / कलीम आजिज़
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