कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी
परबत का सीना चीर के नदी उछल पड़ी
मुझ को अकेला छोड़ के तू तो चली गई
महसूस हो रही है मुझे अब मेरी कमी
कुर्सी, पलंग, मेज़, क़ल्म और चांदनी
तेरे बग़ैर रात हर एक शय उदास थी
सूरज के इन्तेक़ाम की ख़ूनी तरंग में
यह सुबह जाने कितने सितारों को खा गई
आती हैं उसको देखने मौजें कुशां कुशां
साहिल पे बाल खोले नहाती है चांदनी
दरया की तह में शीश नगर है बसा हुआ
रहती है इसमे एक धनक-रंग जल परी
Sunday, December 1, 2013
कल फूल के महकने की आवाज़ जब सुनी / आदिल मंसूरी
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