Pages

Monday, December 2, 2013

संवत / अरुण कमल

तप रहा ब्रह्मांड
ऎसा रौद्र
ऎसी धाह
रेत इतनी तप्त कि तलवे उठ रहे पड़ते,
रेंगनी काँटॊं के फूल पीले
और उनकी भाप भरी गंध
और गिरगिटों का रंग धूसर

मैं तो नदी की खोज में चला था
ज्वर से तपते बच्चों के वास्ते मैं तो
रेत में छिपे जल को टेरता चला था
और यहाँ मरघता पर बैठा हूँ
चिताओं की अग्नि तापता।

अरुण कमल

0 comments :

Post a Comment