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Thursday, October 31, 2013

सूर्यघड़ी / उमेश चौहान


बड़े जोश में आते हैं
तरह-तरह के लोग
देश के कोने-कोने से
भाँति-भाँति के बैनर व तख्तियाँ थामे,
विस्थापित कश्मीरी पंडित
अधिकारों से वंचित आदिवासी
घर से उजड़े नर्मदा घाटी के निवासी
भूखे-प्यासे मजदूर-किसान
जंतर-मंतर के इस मोड़ पर
अपनी-अपनी मांगें पूरी कराने के लिए धरना-प्रदर्शन करने।

लेकिन यहाँ से गूँजते नारों की आवाज़
नहीं पहुँचती प्रायः
पास में ही स्थित संसद-भवन के गलियारों तक
या फिर शायद सुन कर भी अनसुनी कर देने की ही ठाने रहते हैं
इन आवाजों को
भारत के भाग्य-विधाता,
ये बेचारे जन-गण
अपने मन को मसोस कर रह जाते हैं
'जय हे!' की ड्रम-बीट पर तने खड़े जवानों से डर कर
इस आशा में अपने आक्रोश को ज़ब्त करते हुए कि
उनके अधिनायकों का बहरापन कभी तो ख़त्म होगा ही।

जंतर-मंतर की सूर्यघड़ी
नित्य साक्षी बनती है
समय के उन पड़ावों की
जहाँ पर तख़्तियों और बैनरों पर लटकी होती हैं
उस समय के तमाम सताए हुए लोगों की उम्मीदें और विश्वास,
लेकिन भारत के भाग्य-विधाताओं की तरह ही
यह सूर्यघड़ी भी
दिन के किसी भी पहर नहीं थमती
समय के किसी भी ऐसे पड़ाव पर सहानुभूति से भर कर,
भले ही शहर में
कितनी भी दहला देने वाली वाली कोई दुर्घटना घटित हो
जिसमें सहम कर थम जाएं
बाकी की सब कलाई अथवा दीवार की घड़ियां।

अगर देश के कोने-कोने से आने वाले लोगों को
दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए
थाम लेना है जंतर-मंतर की सूर्यघड़ी को
समय के किसी भी महत्वपूर्ण पड़ाव पर
तो या तो उन्हें अपनी मुट्ठियों में जकड़ लेना होगा लपक कर सूर्य के रथ को
या फिर इंतज़ार करना होगा सूरज के डूब जाने का
क्योंकि अँधेरे में जरूर थम जाती है यह सूर्यघड़ी
और फिर चालू होती है नए सिरे से
पुनः सूर्योदय होने पर
एक नए दिन की शुरुआत होने के साथ ही।

उमेश चौहान

जानना ज़रूरी है / इन्दु जैन

जब वक्त कम रह जाए
तो जानना ज़रूरी है कि
क्या ज़रूरी है

सिर्फ़ चाहिए के बदले चाहना
पहचानना कि कहां हैं हाथ में हाथ दिए दोनों
मुखामुख मुस्करा रहे हैं कहां

फ़िर इन्हें यों सराहना
जैसे बला की गर्मी में घूंट भरते
मुंह में आई बर्फ़ की डली ।

इन्दु जैन

सपने / ओम पुरोहित ‘कागद’


तेरी आंखों मेँ
मेरे सपने
मेरे सपनोँ मेँ
तेरी आंखें !
...
कभी कभी
मेरे सपनोँ से
मगर हर पल
डरता हूं
तेरी आंखोँ से !

तेरी आंख के सपने पर
मेरा नियंत्रण
हरगिज नहीँ
सपनोँ पर
तेरा नियंत्रण
बहुत डराता है
फिर भी
न जाने क्योँ
खुली आंख भी
भयानक सपना आता है !

ओम पुरोहित ‘कागद’

कितना अच्छा था / इरशाद खान सिकंदर

कितना अच्छा था
जब मैं छोटा था

चोट भी लगती थी
दर्द भी होता था

शेर तो ताज़े थे
लहजा कच्चा था

इरशाद ख़ान सिकन्दर

यात्रा1 / कुमार अनुपम

हम चले
तो घास ने हट कर हमें रास्ता दिया

हमारे कदमों से छोटी पड़ जाती थीं पगडंडियाँ
हम घूमते रहे घूमती हुई पगडंडियों के साथ

हमारी लगभग थकान के आगे
हाजी नूरुल्ला का खेत मिलता था
जिसके गन्नों ने हमें
निराश नहीं किया कभी

यह उन दिनों की बात है जब
हमारी रह देखती रहती थी
एक नदी

हमने नदी से कुछ नहीं छुपाया
नदी पर चलाए हाथ पाँव
जरूरी एक लड़ाई-सी लड़ी

नदी ने
धारा के खिलाफ
हमें तैरना सिखाया.

कुमार अनुपम

चिड़िया की कहानी / अज्ञेय

उड़ गई चिड़िया
काँपी, फिर
थिर हो गई पत्ती।

नयी दिल्ली, 1958

अज्ञेय

अयोध्या–5 / उद्‌भ्रान्त

हनुमान वाटिका

कनकमहल के निकट
हनुमान वाटिका
जिसमें अजर-अमर
साधारणजन के देवता
एकादशवें रुद्र
महापराक्रमी, ज्ञानी,
कवियों में शिरोमणि
रामभक्त हनुमान
माता जानकी के
चरणों में लगाए हुए ध्यान
उनकी रक्षा-हित सन्नद्ध
विनम्रता का प्रतिमान
मूर्त करते हुए
उपस्थित ।

हनुमान वाटिका में
आज भी
बन्दरों की चहल-पहल,
उछल-कूद, खों-खों और
क्याँव-क्याँव
पूरे माहौल को
किए रहती राम और सीतामय ।

उन्हें देखते हैं
तो याद हमें आता है
आदि मानव से मनुष्य बनने के प्रसंग में
आख़िरकार
वे ही थे जिन्होंने हमें
प्रगति का,
विकास का दिखाया रास्ता ।

अलग बात है कि हम
भटक ही नहीं गए,
प्रगति-चक्र को
हमने घुमा दिया उलटा
और लगे चलने
उस ओर ही
जहाँ अंततः
मिलेगा हमको
वही आदिमानव
जो देख हमें उछलेगा-कूदेगा,
हर्ष मनाएगा ।
क्योंकि दूर होगा
उसका अकेलापन
फ़िलवक़्त
यह विडम्बना है हमारी
जिस बिन्दु पर
खड़े हैं हम आज
उसके दोनों ओर हनुमान
हमसे हैं
कोसों दूर !

मनुजता की यात्रा में
एक ओर हमें
देने को अभय
और दूसरी ओर
बढ़ते हुए
हमारे भीतर के
क्रूर पशुरूपी हिंस्र-दैत्य का
अपनी एक ही
मुष्ठिका के प्रहार से
अन्त कर देने को ।

उद्‌भ्रान्त

संग-ए-दर उस का हर इक दर पे / 'अर्श' सिद्दीक़ी

संग-ए-दर उस का हर इक दर पे लगा मिलता है
 दिल को आवारा-मिज़ाजी का मज़ा मिलता है

 जो भी गुल है वो किसी पैरहन-ए-गुल पर है
 जो भी काँटा है किसी दिल में चुभा मिलता है

 शौक़ वो दाम के जो रुख़्सत-ए-परवाज़ न दे
 दिल वो ताएर के उसे यूँ भी मज़ा मिलता है

 वो जो बैठे हैं बने नासेह-ए-मुश्फ़िक़ सर पर
 कोई पूछे तो भला आप को क्या मिलता है

 हम के मायूस नहीं हैं उन्हें पा ही लेंगे
 लोग कहते हैं के ढूँडे से ख़ुदा मिलता है

 दाम-ए-तज़वीर न हो शौक़ गुलू-गीर न हो
 मय-कदा 'अर्श' हमें आज खुला मिलता है

'अर्श' सिद्दीक़ी

सुनो हुआ वह शंख-निनाद / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

सुनो हुआ वह शंख-निनाद!
नभ में गहन दुरूह दुर्ग का
द्वार खुला कर भैरव घोष,
उठ मसान की भीषण ज्वाला
बढी शून्य की ओर सरोष
अतल सिंधु हो गया उस्थलित
काँप उठा विक्षुब्ध दिगंत
अट्टहास कर लगा नचाने
रक्त चरण में ध्वंसक अंत!
सुनो हुआ वह शंख-निनाद!
यह स्वतंत्रता का सेवक है
क्रांति मूर्ति है यह साकार
विश्वदेव का दिव्य दूत है
सर्वनाश का लघु अवतार
प्रलय अग्नि की चिनगारी है
सावधान जग ऑंखें खोल
देख रूप इसका तेजोमय
सुन इसका संदेश अमोल
सुनो हुआ वह शंख-निनाद!

केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

ख़ाक बसर ले आई है / अब्दुल हमीद

ख़ाक बसर ले आई है
राह किधर ले आई है

लिख के परों पर इक तितली
उस की ख़बर ले आई है

कितने सितारे ख़्वाबों के
गर्द-ए-सफ़र ले आई है

राज़ कोई इन आँखों का
शफ़क़-ए-सहर ले आई है

एक हवा कितनी यादें
मेरे घर ले आई है

अब्दुल हमीद

मैं जिस्म ओ जाँ के खेल में बे-बाक हो गया / कबीर अजमल

मैं जिस्म ओ जाँ के खेल में बे-बाक हो गया
किस ने ये छू दिया है के मैं चाक हो गया

किस ने कहा वजूद मेरा खाक हो गया
मेरा लहू तो आप की पोशाक हो गया

बे-सर के फिर रहे हैं जमाना-शनास लोग
ज़िंदा-नफस को अहद का इदराक हो गया

कब तक लहू की आग में जलते रहेंगे लोग
कब तक जियेगा वो ग़जब-नाक हो गया

ज़िंदा कोई कहाँ था के सदका उतारता
आखिर तमाम शहर ही खशाक हो गया

लहज़े की आँच रूप की शबनम भी पी गई
‘अजमल’ गुलों की छाओं में नक-नाक हो गया

कबीर अजमल

कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था / अतीक़ुल्लाह

कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था
यहाँ चराग़ वहाँ पर सितारा धरना था

वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई
अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था

अगर रसा में न था वो भरा भरा सा बदन
रंग-ए-ख़याल से उस को तुलू करना था

निगाह और चराग़ और ये असासा-ए-जाँ
तमाम होती हुई शब के नाम करना था

गुरेज़ होता चला जा रहा था मुझ से वो
और एक पल के सिरे पर मुझे ठहरना था

अतीक़ुल्लाह

Wednesday, October 30, 2013

आ साथी बढ़े चलें ! / कांतिमोहन 'सोज़'

आँखों में सुबह नई
पैरों से रौंदते हुए गई बोसीदा शामों को
आ साथी बढ़े चलें !
आ साथी आ
आ बढ़े चलें आ बढ़े चलें !!

मंज़िल दूर सही दिल तो मजबूर नहीं
राहों में दम लेना अपना दस्तूर नहीं
आवाज़ उठा अपनी कह दे उन बहरों से
नफ़रत से भरी दुनिया हमको मंज़ूर नहींI
साँसों में आग लिए
पैरों से रौंदते हुए गई बोसीदा शामों को
आ साथी बढ़े चलें !
आ साथी आ
आ बढ़े चलें आ बढ़े चलें !!

ये दिल तो करोड़ों हैं पर साथ धड़कते हैं
बाज़ू भी करोड़ों हैं पर साथ फड़कते हैं
आवाज़ उठा अपनी कह दे उन अन्धों से
हम लाखों अनलमुखी एक साथ भड़कते हैं I
गीतों में आग लिए
पैरों से रौंदते हुए गई बोसीदा शामों को
आ साथी बढ़े चलें !
आ साथी आ
आ बढ़े चलें आ बढ़े चलें !!

रचनाकाल : 1973

कांतिमोहन 'सोज़'

प्रेम पर कुछ बेतरतीब कविताएँ-3 / अनिल करमेले

शायद मेरी निगाह को करता है वह निहाल / अबू आरिफ़

शायद मेरी निगाह को करता है वह निहाल
आया किसी शहर से ऐसा परी जमाल

शायद उसे मालूम नहीं अपना ख़द्द-ओ-ख़ाल
शायद उसे मजबूरियों ने कर दिया निढाल

शायद उसे तलाश है प्यासों की भीड़ में
ज़ब्त-ओ-शऊर जिसमे हो वह रिंद बाकमाल

शायद भटक गया है वह राह-ए-जुनून से
उसका ही हो रहा हो उसे रंज-ओ-मलाल

शायद उसे तनहाइयों से रब्त बहुत है
समझे वह शब-ए-हिज्र को ही शब-ए-विसाल

शायद उसे जुगनू ही हमराज़ लगे है
तारीकी से बचने को बनाया हो उसे ढाल

शायद उसे फूलों की रंगत से इश्क़ हो
बुलबुल के साथ गीत को गाये वह ख़ुशख़याल

शायद उसे नज्जार-ए-फितरत से इश्क़ है
सो रोज़ सुबह करता है उससे वह कुछ सवाल

शायद उसे कुछ टूटे हुए दिल से लगाव है
सो पूछ रहा है वह ज़माने से मेरा हाल

शायद उसे दीवानगी लगती है अब फज़ूल
होता है उसे परवाने के जलने का भी मलाल

शायद उसे ज़माने से कुछ रस्म-ओ-राह है
दीवानगी में रहता है आदाब का ख़याल

शायद कभी होटों पे तबस्सुम भी रहा है
चेहरे पे रहा होगा कभी हुस्न पुरजमाल

शायद कभी शरमाती रही हो शरर उससे
चश्म-ए-हया में उसके रहा हो कोई कमाल

शायद इसी गेसू से उठती हो घटा भी
बादल सा बरस जायेगालगता है हर एक बाल

शायद इन्हीं होटों पे मचलती हो सबा भी
रुख़सार यही लगते हैं ज़माने में बेमिसाल

शायद उसे आरिफ़ से पहले थी शिकायत
पर आज हो गया है उसी का ही हमख़याल

अबू आरिफ़

जीवन / आरसी प्रसाद सिंह

चलता है, तो चल आँधी-सा ; बढता जा आगे तू!
जलना है, तो जल फूसों-सा ; जीवन में करता धू-धू!

क्षणभर ही आँधी रहती है ; आग फूस की भी क्षणभर!
किन्तु उसी क्षण में हो जाता जीवन-मय भू से अम्बर!

मलयानिल-सा मंद-मंद मृदु चलना भी क्या चलना है?
ओदी लकड़ी-सा तिल-तिल कर जलना भी क्या जलना है?

आरसी प्रसाद सिंह

हिंदू की हिंदुस्तानी / अनवर ईरज

हमसे सवाल करने वालो
कि हम पहले
मुसलमान है या हिंदुस्तानी
अब तुम्हारे
इम्तेहान की घड़ी आ गई है
कि तुम पहले
हिन्दू हो या हिन्दुस्तानी
एक तरफ़
तुम्हारी संसद है
और दूसरी तरफ़
धर्म संसद
तुम्हारा इन्तख़ाब ही
तुम्हारा
जवाब होगा
हमारा इन्तख़ाब
दुनिया जानती है

अनवर ईरज

तूने रात गँवायी / कबीर

तूने रात गँवायी सोय के, दिवस गँवाया खाय के।
हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय॥

सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे।
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे।
माला फेरत जुग हुआ, गया ना मन का फेर रे।
गया ना मन का फेर रे।
हाथ का मनका छाँड़ि दे, मन का मनका फेर॥

दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय रे।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे।
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे।
दुख में करता याद रे।
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद॥

कबीर

डाकिए दिन / उमाशंकर तिवारी

हमारे वास्ते तो गुलमोहर हैं
फूल चेरी के/हमें आशीषते,
सौगात घर-घर बाँट आते
डाकियों से दिन|


ऊँघते बालक सरीखा वो पहाडी़ गाँव
जिसको साधती डोरी चढ़ाये
धनुष जैसी नदी
कुहरों के बने तटबन्ध जिनकी खुली
छ्त पर खडी़ ठिठकी, मुसकराती
सदी
कि जैसे जादूई झीलें
कि जैसे सामने सौ पारदर्शी जाल
कि जैसे बादलों की सरहदें
छूते हुए
बनपाखियौं से दिन।
सीढियों पर फूल,
कौंध फूल, बाहों फूल,
गोदी फूल ज्यों बहते हुए
झरने
हमें देकर सरोपा,
फूल का जामा,अँगरखा,नारियल
आया कोई सब कुछ
सही करने
कि जैसे पद्मगंधी ताल
कि जैसे हर कहीं वशीं
कि आपाधपियों में ठुनकते
वैशाखियौं से दिन।

उमाशंकर तिवारी

रंग बिरंगे सपने रोज़ दिखा जाता है क्यों / आलम खुर्शीद

रंग बिरंगे सपने रोज़ दिखा जाता है क्यों
बैरी चाँद हमारी छत पर आ जाता है क्यों

क्या रिश्ता है आखिर मेरा एक सितारे से
रोज़ वो कोई राज़ मुझे बतला जाता है क्यों

पलकें बंद करूं तो सब कुछ अच्छा लगता है
आँखें खोलूँ तो कोहरा सा छा जाता है क्यों

हर पैकर का अपना अपना साया होता है
लेकिन साये को साया ही खा जाता है क्यों

मेरे हिस्से की किरणें जब कोई चुराता है
नील गगन पर सूरज वो शरमा जाता है क्यों

शायद उसके दिल में कोई चोर समाया है
देख के मुझको यार मेरा घबरा जाता है क्यों

आलम खुर्शीद

कहानी / अंजना भट्ट

वो आया
मेरा मन कुछ भरमाया
इससे पहले कि मै कुछ सोचती
अपने मन को टटोलती या कुछ सपने बुनती
अचानक पाया कि
वो तो था सिर्फ एक साया.
 
सालों बीते
जिन्दगी ने एक दिन फिर सामने ला खड़ा किया
मैने हैरानी से पलकें झपकाईं तो
उसे उसके जीवन साथी के संग पाया,
और वो?
कुछ नया नया सा...
हालांकि पुरुष था,
फिर भी कुछ शर्माता सा पेश आया.
 
मैं अचानक नींद से जागी
सब उमीदें जैसे पर लगा कर भागीं
और मैं जिन्दी के पथरीले धरातल पर आ खड़ी हुई.
तो अब? अब आगे बदना होगा
खुद ही खुद को संभाल कर
नई राहें तलाश करने को चलना होगा.
 
मैं चलती रही
कुछ राहें बनती रहीं, कुछ मैं बनाती रही
वो भी चलता रहा
पुरुष था ना,
उसके लिये राहें आसानी से खुलती रहीं
सालों पर सालों की परतें जमती रहीं.
 
एक दिन फिर मिले
वो ही पुरानी बातें.....पुराने शिकवे गिले
मेरे सपनों की रानी थीं तुम
क्यों तब कुछ नहीं बोलीं थीं तुम?
आज भी तुम्हें पूजता हूँ.
काश...तुम्हारा हाथ थाम कर चला होता
तो सफ़र कुछ अलग अंदाज में ढला होता.
 
मैं फिर हैरान परेशान......
वापिस मन की गहराईयों में उतरी
अपने वर्त्तमान की ऊचाईयों नीचाईयों में भटकी
शायद अभी भी कुछ था
जो कसमसाता था, सवाल करता था
कि ये ना होता तो क्या होता?
वैसा होता तो क्या अच्छा होता?
सवाल तो बहुत थे पर जवाब कुछ ना आया.
 
फिर एक दिन जाना
कि वो मौत से वाबस्ता था
मेरा मन ना रोता था ना हँसता था
फिर भी ना जाने क्यों यूँ ही पल पल तड़पता था.
 
आखिर आ खड़ी हुई परम पिता ईश्वर के द्वारे
माँगी दुआएं,
और बांधी हर ठिकाने मन्नती धागों की कतारें.
जाने मेरे धागे पक्के थे
या फिर मेरी दुआएं सच्चीं
या फिर था बस एक बहाना....
वो मौत के दरवाज़े से
खुदा के रहमों करम में लिपटा लौट आया.
 
जिन्दगी की रफ़्तार बहुत भारी है
वो ही दस्तूर अब फिर से ज़ारी है
अब ना कोई खबर आती है ना जाती है
मगर इतना जानती हूँ कि
आजकल वो फिर से हँसता बसता है
पर हाँ....अब फिर से उसका और मेरा अलग अलग रास्ता है.
 
क्या करें?
खुदा के बन्दे हर नए मोड़ पर एक नया रास्ता तलाशते हैं..
और फिर..
जिन्दगी के सफ़र तो बस अपने अपने ठिकानों पर ही जँचते हैं.

अंजना भट्ट

रंगों का अभिज्ञान / आशुतोष दुबे

रंगों के संगीत पर सिर हिलाते हुए
आपने उन्हें सहसा मौन होते हुए देखा है?

वे कभी-कभी सहम कर चुप भी हो जाते हैं
और सफेद पड़ जाते हैं डर से

या स्याह हो जाते हैं
आप जब उनका उत्सव मना रहे होते हैं

वे सुबक रहे होते हैं धीरे-धीरे
काँप रहे होते हैं आशंकाओं मे

वे अपने विसर्जन को जान रहे होते हैं

आशुतोष दुबे

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे / फ़राज़

क़ुर्बतों[1] में भी जुदाई के ज़माने माँगे
दिल वो बेमेह्र[2] कि रोने के बहाने माँगे

अपना ये हाल के जी हार चुके लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे

यही दिल था कि तरसता था मरासिम [3]के लिए
अब यही तर्के-तल्लुक़[4] के बहाने माँगे

हम न होते तो किसी और के चर्चे होते
खल्क़त-ए-शहर[5] तो कहने को फ़साने माँगे

ज़िन्दगी हम तेरे दाग़ों से रहे शर्मिन्दा
और तू है कि सदा आइनेख़ाने[6]माँगे

दिल किसी हाल पे क़ाने[7] ही नहीं जान-ए-"फ़राज़"
मिल गये तुम भी तो क्या और न जाने माँगे

शब्दार्थ:
  1. सामीप्य
  2. निर्दयी
  3. प्रेम-व्यवहार,सम्बन्ध
  4. संबंध-विच्छेद
  5. शहरी जनता
  6. वह भवन जिसके चारों ओर दर्पण लगे हों
  7. आत्मसंतोषी
अहमद फ़राज़

आज जब वह जा रही है / अजेय

(माँ की अंतिम यात्रा से लौटने पर)

वह जब थी
तो कुछ इस तरह थी
जैसे कोई भी बीमार बुढ़िया होती है
शहर के किसी भी घर में
अपने दिन गिनती।

वह जब थी
उस शहर और घर को
कोई ख़बर न थी
कि दर्द और संघर्ष की
अपनी दुनिया में
वह किस कदर अकेली थी ।

कहाँ शामिल था
ख़ुद मैं भी
उस तरह से
उसके होने में
जिस तरह से इस अंतिम यात्रा में हूं ?


आज जब वह जा रही है
तो रोता है घर
स्तब्ध ह्आ शहर
खड़ा हो गया है कोई दोनो हाथ जोड़े
दुकान में सरक गया है कोई मुँह फेर कर
भीड़ ने रास्ता दे दिया है उसे
ट्रैफिक थम गया है
गाड़ियाँ भारी-भरकम अपनी गर्वीली गुर्राहट बंद कर
एक तरफ हो गई हैं दो पल के लिए
चौराहे पर
वर्दीधारी उस सिपाही ने भी
अदब से ठोक दिया है सलाम।
आज जब जा रही है माँ
तो लगने लगा है सहसा
मुझे
इस घर को
और पूरे शहर को
कि वह थी... और अब नहीं रही।

अजेय

मारो ठोकर दया कर, नाव मेरी हो पार / गंगादास

मारो ठोकर दया कर, नाव मेरी हो पार ।
और कोई सुनता नहीं, कब का रहा पुकार ।।

कब का रहा पुकार नाव चक्कर ले रही है ।
बार-बार परचंड पवन झोंके दे रही है ।।

गंगादास कह दीन जानके पार उतारो ।
खेवटिया हैं आप दयाकर ठोकर मारो ।।

गंगादास

पंछियों को फिर कहाँ पर ठौर है / कुँअर बेचैन

नीड़ के तिनके
अगर चुभने लगें
पंछियों को फिर कहाँ पर ठौर है।

जो न होतीं पेट की मज़बूरियाँ
कौन सहता सहजनों से दूरियाँ
छोड़ते क्यों नैन के पागल हिरन
रेत पर जलती हुई कस्तूरियाँ

नैन में पलकें
अगर चुभने लगें
पुतलियों को फिर कहाँ पर ठौर है।


पंख घायल थे मगर उड़ना पड़ा
दूर के आकाश से जुड़ना पड़ा
एक मीठी बूँद पीने के लिए
जिस तरफ़ जाना न था मुड़ना पड़ा


फूल भी यदि
शूल-से चुभने लगें
तितलियों को फिर कहाँ पर ठौर है।

कुँअर बेचैन

तुम्हें ख़याल-ए-ज़ात है शुऊर-ए-ज़ात / ऐतबार साज़िद

तुम्हें ख़याल-ए-ज़ात है शुऊर-ए-ज़ात ही नहीं
ख़ता मुआफ़ ये तुम्हारे बस की बात ही नहीं

ग़ज़ल फ़ज़ा भी ढूँडती है अपने ख़ास रंग की
हमारा मसअला फ़क़त क़लम दवात ही नहीं

हमारी साअतों के हिस्सा-दार और लोग हैं
हमारे सामने फ़क़त हमारी ज़ात ही नहीं

वरक़ वरक़ पे डाएरी में आँसुओं का नाम भी है
ये सिर्फ़ बारिशों से भीगे काग़ज़ात ही नहीं

कहानियों का रूप दे के हम जिन्हें सुना सकें
हमारी ज़िंदगी में ऐसे वाक़िआत ही नहीं

किसी का नाम आ गया था यूँ ही दरमियान में
अब इस का ज़िक्र क्या करें जब ऐसी बात ही नहीं

ऐतबार साज़िद

ब्रह्मांड का माली / पैडी मार्टिन

आते हुए देखा है
आपको
आपने पुकारा मुझे
'कवि' कहकर
'सावधान!'
गंभीरता से आपने चेताया
'अभिमान' और 'नम्रता'
प्रतीत होते हैं
जुड़वां
किन्तु जनक
अलग हैं उनके
एक को जना
अहं ने
दूसरे को
सदाचार एवं पवित्रता ने

नश्वर प्राणी
नहीं है
शब्द-सृजक
कोई दरवाजा नहीं
आपके उद्यान का
ठहरना चाहे
वहाँ पर जो
उन सभी का
स्वागत है

शब्द
आपके उद्यान में
उगते हैं
कल्पना की
चाहरदीवारी से परे
समय की धुंध से होकर
होते हैं प्रकट

माली हैं आप
शब्दों के
वे बीज हैं
आत्मा के गीतों के
मैं आया हूँ
आपके शब्दों का
पान करने
उद्धार करने
अपने इस शरीर का
और करने अनुप्राणित
अपनी आत्मा को
इससे पहले कि
मैं प्रवेश करूँ
नये दिवस में
अगली यात्रा के लिये

अंग्रेजी भाषा से अनुवाद : अवनीश सिंह चौहान

अवनीश सिंह चौहान

कि अपना ख़ुदा होना / अरुणा राय

ग़ुलामों की
ज़ुबान नही होती
सपने नही होते
इश्क तो दूर
जीने की
बात नही होती
मैं कैसे भूल जाऊँ
अपनी ग़ुलामी
कि अपना ख़ुदा होना
कभी भूलता नहीं तू...

अरुणा राय

Tuesday, October 29, 2013

शहर कै सुबह बनाम गांव का भोरु / उमेश चौहान

शहर कै सुबह बड़ी संगीन,
गांव का भोरु बड़ा रंगीन।

सुरुज आँखी फैलाए ठाढ़,
लखै मनइन कै अदभुद बाढ़,
गली-कूंचा हैं येतने तंग,
हुवां रवि कै है पहुँच अपंग,
सबेरहे हार्न उठे चिल्लाय,
मील का धुवां सरग मंडराय,
जिन्दगी भाग-दौड़ मां लीन,

शहर कै सुबह बड़ी संगीन॥

सुरुज कै लाली परी देखाय,
बिरछ सब झूमि उठे इठलाय,
कोयलिया रागु सुनावै लागि,
बयरिया तपनि बुझावै लागि,
नदी-तट चहकैं पक्षी-वृन्द,
फिरैं सब लोग बड़े स्वच्छंद,
जिन्दगी प्रेम-सुधा मां लीन,

गांव का भोरु बड़ा रंगीन॥

सभ्यता उड़ै पंख फैलाय,
कृत्रिमता अंग-अंग दरसाय,
जहाँ पानी तक म्वाल बिकाय,
प्रदूषित वातावरण देखाय,
जहाँ छल-छंदु मचावै रंग,
प्रकृति ते होय नित हुड़दंग,
फिरै सारा समाजु गमगीन,

शहर कै सुबह बड़ी संगीन॥

किसनवा हर ते धरती फारि,
लाग अमिरुत कै करै फुहार,
हरेरी चूनरि धरती धारि,
किहिसि सब गांवन का सिंगारु,
सुंगन्धै भरिन जंगली लता,
हृदय हुलसायिसि कंचन-प्रभा,
प्रकृति निज सुंदरता मां लीन,

गांव का भोरु बड़ा रंगीन॥

उमेश चौहान

सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं / 'असअद' बदायुनी

सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
अजीब लोग हैं दीवाने होना चाहते हैं

न जाने किस लिए ख़ुशियों से भर चुके हैं दिल
मकान अब ये अज़ा-ख़ाने होना चाहते हैं

वो बस्तियाँ के जहाँ फूल हैं दरीचों में
इसी नवाह में वीराने होना चाहते हैं

तकल्लुफ़ात की नज़मों का सिलसिला है सिवा
तअल्लुक़ात अब अफ़साने होना चाहते हैं

जुनूँ का ज़ोम भी रखते हैं अपने ज़ेहन में हम
पड़े जो वक़्त तो फ़रज़ाने होना चाहते हैं

'असअद' बदायुनी

यही नहीं कि नज़र को झुकाना पड़ता है / अज़ीज़ अहमद खाँ शफ़क़

यही नहीं कि नज़र को झुकाना पड़ता है
पलक उठाऊँ तो इक ताज़ियाना पड़ता है

वो साथ में है मगर सब अमानतें दे कर
तमाम बोझ हमीं को उठाना पड़ता है

मैं उस दयार में भेजा गया हूँ सर दे कर
क़दम क़दम पे जहाँ आस्ताना पड़ता है

अंधेरा इतना है अब शहर के मुहाफ़िज़ को
हर एक रात कोई घर जलाना पड़ता है

तमाम बज़्म ख़फ़ा है मगर न जाने क्यूँ
मुशाइरे में ‘शफ़क़’ को बुलाना पड़ता है

अज़ीज़ अहमद खाँ शफ़क़

निरामिष्/ अजेय

(संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए)

बहुत कम रह गए हैं हम
बस गिनती के -
खरगोश, हिरनौटे, मेमने ..............
आओ,
हम इस गुफा मे मिल-जुलकर रहें ।

नाराज़ वक्त ने
छोड़ दिए हैं हमारे पीछे
बग्घे और बिलाव
इस अँधेरे में
हम धीरज से अपनी संवेदनाएं पोसें चुपचाप।

व्यर्थ है दहाड़ने की कोशिश
बेमानी है विरोध
बजाए नख-पंजों की मांग रखने के
आओ
अपने उपलब्ध खुरों से
संवारें मुलायम रोयें
मेहनत करें घास जुटाएं
ज़िन्दा रहने के लिए
और देखना एक दिन
खूब रोशनी होगी ...........
और हरियाली ही हरियाली
केवल हमारे लिए।

1987

अजेय

बीनती हूँ / क्रांति

बीनती हूँ गेहूँ,
बीनती हूँ चावल,
धनिया, जीरा,
मूंग, मसूर, अरहर_

पर असल में
बीनती हूँ केवल कँकर।

कहने को
अनाज बदला होता है
मेरी थाली मे हर दोपहर।

क्रांति

वीराने रास्ते की पैमाइश / ख़ुर्शीद अकरम

वीराने से काशाने तक
बस एक क़दम की दूरी है

एक क़दम हो सकता है एक साअत का
एक हैवानी उम्र का
या एक नूरी साल का

वीरान रास्ते की पैमाइश के लिए
ख़ुदा ने
फ़रिश्ता मुक़र्रर नहीं किया

ख़ुर्शीद अकरम

जब तक के तेरी गालियाँ खाने के नहीं हम / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

जब तक के तेरी गालियाँ खाने के नहीं हम
उठ कर तेरे दरवाज़े से जाने के नहीं हम

जितना के ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
इतने तो गुनह-गार ज़माने के नहीं हम

हो जावेंगे पामाल गुज़र जावेंगे जी से
पर सर तेरे क़दमों से उठाने के नहीं हम

आने दो उसे जिस के लिए चाक किया है
नासेह से गिरबाँ को सिलाने के नहीं हम

जब तक कि न छिड़केगा गुलाब आप वो आ कर
इस ग़श से कभी होश में आने के नहीं हम

जावेंगे सबा बाग़ में गुल-गश्त-ए-चमन को
पर तेरी तरह ख़ाक उड़ाने के नहीं हम

ऐ ‘मुसहफ़ी’ ख़ुश होने का नहीं हम से वो जब तक
सर काट के नज़र उस का भिजाने के नहीं हम

ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

गाय और बछड़ा / आलोक धन्वा

एक भूरी गाय
अपने बछड़े के साथ
बछड़ा क़रीब एक दिन का होगा
घास के मैदान में
जो धूप से भरा है

बछड़ा भी भूरा ही है
लेकिन उसका नन्हा
गीला मुख
ज़रा सफ़ेद

उसका पूरा शरीर ही गीला है
गाय उसे जीभ से चाट रही है

गाय थकी हुई है ज़रूर
प्रसव की पीड़ा से बाहर आई है
फिर भी
बछड़े को अपनी काली आँखों से
निहारती जाती है
और उसे चाटती जा रही है

बछड़े की आँखें उसकी माँ
से भी ज़्यादा काली हैं
अभी दुनिया की धूल से अछूती

बछड़ा खड़ा होने में लगा है
लेकिन
कमल के नाल जैसी कोमल
उसकी टाँगें
क्यों भला ले पाएँगी उसका भार !
वह आगे के पैरों से ज़ोर लगाता
है
उसके घुटने भी मुड़ रहे हैं
पहली पहली बार
ज़रा-सा उठने में गिरता
है कई बार घास पर
गाय और चरवाहा
दोनों उसे देखते हैं

सृष्टि के सबक हैं अपार
जिन्हें इस बछड़े को भी सीखना होगा
अभी तो वह आया ही है

मेरी शुभकामना
बछड़ा और उसकी माँ
दोनों की उम्र लम्बी हो

चरवाहा बछड़े को
अपनी गोद में लेकर
जा रहा है झोपड़ी में
गाय भी पीछे-पीछे दौड़ती
जा रही है ।

आलोक धन्वा

पाँच मुक्तक / गिरिराज शरण अग्रवाल

1.
बंजरों में जल मिलेगा, प्यास तो बाकी रहे
दिल के अंदर दर्द का एहसास तो बाकी रहे
किसलिए बे-आस होकर राह तकना छोड़ दूँ
कोई आए या न आए, आस तो बाकी रहे

2.
जिनको पानी है सफलता, जिनको करना है सफर
ठोकरें खाते हैं पर हटते नहीं हैं राह से
अंकुरित होता है पौधा दोस्त धरती चीरकर
कितना कोमल है, मगर भरपूर है उत्साह से

3.
शांत मुस्कानें अधर पर फैलती खिलती रहें
घर में बस धन ही नहीं हो, प्यार का सागर भी हो
मन के भीतर भी अँधेरे रास्तें है हर तरफ़
रोशनी बाहर नहीं इंसान के भीतर भी हो

4.
जिंदगी धरती से कटकर अर्थ से कट जाएगी
अपनी इस धरती के बदले आस्माँ मत लीजिए
सिर्फ़ रिश्ता ही नहीं, टूटेगा मन भी आपका
दोस्तों का भूलकर भी इम्तिहाँ मत लीजिए

5.
मोह को घर-बार के मत साथ में लेकर चलो
यात्रा से जब भी लौटोगे तो घर आ जाएगा
सिर्फ साहस ही नहीं, धीरज भी तो दरकार है
सीढ़ियाँ चढ़ते रहो, अंतिम शिखर आ जाएगा

गिरिराज शरण अग्रवाल

आँखों-आँखों में हम-तुम / आनंद बख़्शी

 
किशोर:
आँखों-आँखों में हम-तुम हो गए दीवाने

आशा:
बातों-बातों में देखा बन गए अफ़साने

किशोर:
आँखों-आँखों ...
हम अजनबी थे तुम थे पराए
इक दूसरे के दिल में समाए
हम और तुम में उफ़ ये मोहब्बत कैसे हो गई
हम तुम जाने नहीं जाने

आशा:
बातों-बातों ...

किशोर:
कितनी हसीन ये तनहाइयाँ हैं

आशा:
तन्हाइयों में रुस्वाइयाँ हैं

किशोर:
रुसवाइयों से डरते नहीं हम

आशा:
छेड़ो प्यार की बातें

किशोर:
छोड़ो ये बहाने

दोनों:
आँखों-आँखों ...

आनंद बख़्शी

समुद्र से लौटते हुए / अनुज लुगुन

समुद्र की देह पर
पिघल रहा है सूरज
उसकी लौ बुझने को है
और अब मैं लौट रहा हूँ
समुद्र से घर की ओर, इस वक़्त
मेरे घर की दिशा पूरब ही होनी चाहिए

मैं मुठभेड़ कर लौटता हूँ
समुद्र से घर की ओर
छोटी नाव के मछुवारे की तरह
कुछ छोटी मछलियां ही उपलब्धि होती हैं
मेरे जीवन की,
घर पहुँचने पर मेरी पत्नी कहती है कि
मुझे गहरे समुद्र में जाल फेंकना चाहिए
लेकिन मैं नेताओं, अधिकारियों, न्यायधीशों
और राज–कारिन्दों के सामने कम पड़ जाता हूँ,
अपनी छोटी सफलताओं पर ख़ुश होने का नाटक करते हुए
पत्नी से कहता हूँ कि आज सब्ज़ी कम दम पर मोल लाया हूँ

हर बार भिड़ता हूँ
रोजमर्रा की तू-तू-मैं से
भीड़-भाड़ की धक्का-मुक्की से
राजनीतिक जुलूसों में, प्रदर्शनों में
चिड़ी होकर चिड़ीमारों से
संविधान की धाराओं से, अनुच्छेदों से,

हर बार विशाल समुद्र से
लौटता हूँ घर की ओर
हर बार घर लौटते हुए
मेरे घर की दिशा पूरब ही होती है कि
अगले दिन सूरज की जगह मैं उदित होऊँगा

अनुज लुगुन

बिकाऊ / अज्ञेय

खोयी आँखें लौटीं:
धरी मिट्टी का लोंदा
रचने लगा कुम्हार खिलौने।
मूर्ति पहली यह

कितनी सुन्दर! और दूसरी-
अरे रूपदर्शी! यह क्या है-
यह विरूप विद्रूप डरौना?
“मूर्तियाँ ही हैं दोनों,

दोनों रूप: जगह दोनों की बनी हुई है।
मेले में दोनों जावेंगी।
यह भी बिकाऊ है,
वह भी बिकाऊ है।

“टिकाऊ-हाँ, टिकाऊ
यह नहीं है
वह भी नहीं है,
मगर टिकाऊ तो

मैं भी नहीं हूँ-
तुम भी नहीं हो।”
रुका वह एक क्षण
आँखें फिर खोयीं, फिर लौटीं,

फिर बोला वह:
“होती बड़े दुःख की कहानी यह
अन्त में अगर मैं
यह भी न कह सकता, कि

टिकाऊ तो जिस पैसे पर यह-वह दोनों बिकाऊ हैं
(और हम-तुम भी क्या नहीं हैं?)
वह भी नहीं है:
बल्कि वही तो
असली बिकाऊ है।”

अज्ञेय

सौ-सौ सूरज / किरण मल्होत्रा

रात के
गहन अंधेरे में
सूरज
अपना वादा
तोड़कर
चांद को
यूँ अकेला
छोड़कर
चल दिया

नज़र के
आसमान से दूर
देखता रहा
चांद
उसके मिटते
निशान को
हर पल
मद्धम हो रहे
उसके प्रकाश को

उसके हर
क़दम के साथ
उसने
एक उम्मीद बांधी
अपने प्रेम की
बेड़ी के साथ
उसके
क़दमों के नीचे
सपनों की नींव डाली

वो कदम
तो नहीं लौटे
जो उस रात
नहीं रूके थे
लेकिन
सपनों के बीजों से
एक घना पेड़
उग आया
जिस पर
एक नहीं
सौ-सौ सूरज उगे थे

किरण मल्होत्रा

मैं नज़र से पी रहा हूँ से सामाँ बदल न जाए / अनवर मिर्जापुरी

मैं नज़र से पी रहा हूँ से सामाँ बदल न जाए
नु झकाओ तुम निगाहों को कहीं रात ढल न जाए

मेरे अश्क भीं है इस में ये शराब उबल न जाए
मेरा जाम छूने वाले तेरा हाथ जल न जाए

अभी रात कुछ है बाक़ी न उठा नक़ाब साक़ी
तेरा रिंद गिरते गिरते कहीं फिर सँभल न जाए

मेरी ज़िंदगी के मालिक मेरे दिल पे हाथ रखना
तेरे आने की ख़ुशी में मेरा दम निकल न जाए

मुझे फूँकने से पहले मेरा दिल निकाल लेना
ये किसी की है अमानत मेरे साथ जल न जाए

अनवर मिर्जापुरी

चलते चलते यूँ ही रुक जाता हूँ मैं / आनंद बख़्शी

 
चलते चलते यूँ ही रुक जाता हूँ मैं
बैठे बैठे कहीं खो जाता हूँ मैं
कहते कहते ही चुप हो जाता हूँ मैं
क्या यही प्यार है, क्या यही प्यार है
हाँ यही प्यार है, हाँ यही प्यार है

तुम पे मरते हैं क्यों हम नहीं जानते
ऐसा करते हैं क्यों हम नहीं जानते
बन्द गलियों से छुप छुप के हम गुज़रने लगे
सारी दुनियाँ से रह रह के हम तो डरने लगे
हाय ये क्या करने लगे
क्या यही प्यार है, क्या यही प्यार है ...

तेरे बातों में ये इक शरारत सी है
मेरे होंठों पे ये, इक शिक़ायत सी है
तेरी आँखों को आँखों से चूमने हम लगे
तुझको बाहों में ले लेकर झूमने हम लगे
हाय ये क्या करने लगे
क्या यही प्यार है, क्या यही प्यार है ...

आनंद बख़्शी

दुनिया ने जब डराया तो डरने में / अब्दुल्लाह 'जावेद'

दुनिया ने जब डराया तो डरने में लग गया
दिल फिर भी प्यार आप से करने में लग गया

शायद कहीं से आप की ख़ुशबू पहुँच गई
माहौल जान ओ दिल का सँवरने में लग गया

इक नक़्श मौज-ए-आब से बरहम हुआ तो क्या
इक नक़्श ज़ेर-ए-आब उभरने में लग गया

‘जावेद’ निज़्द-ए-आब-ए-रवाँ कह गया फ़क़ीर
दरिया में जो गया वो गुज़रने में लग गया

अब्दुल्लाह 'जावेद'

वक़्त कर दे न पाएमाल मुझे / अखिलेश तिवारी

वक़्त कर दे न पाएमाल मुझे
अब किसी शक्ल में तो ढाल मुझे

अक़्लवालों में है गुज़र मेरा
मेरी दीवानगी संभाल मुझे

मैं ज़मीं भूलता नहीं हरगिज़
तू बड़े शौक से उछाल मुझे

तजर्बे थे जुदा-जुदा अपने
तुमको दाना दिखा था, जाल मुझे

और कब तक रहूँ मुअत्तल-सा
कर दे माज़ी मेरे बहाल मुझे

अखिलेश तिवारी

ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

 ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की पाबंदी भी है
 ग़ालिबन कुछ शैख़ को ज़ोम-ए-ख़िरद-मंदी भी है

 बिजलिओं से साज़िशें भी कर रहा है बाग़-बाँ
 हम चमन वालों को हुक्म-ए-आशियाँ-बंदी भी है

 हज़रत-ए-दिल को ख़ुदा रक्खे वही हैं शोरिशें
 दर्द-ए-महरूमी भी सोज़-ए-आरज़ू-मंदी भी है

 मय-कदे की इस्तिलाहों में बहुत कुछ कह गए
 वरना इस महफ़िल में दस्तूर-ए-ज़बाँ-बंदी भी है

 उस के जलवों की फ़ुसूँ-साज़ी मुसल्लम है मगर
 कुछ निगाह-ए-शौक़ की इस में हुनर-मंदी भी है

 उस ने 'ताबाँ' कर दिया आज़ाद ये कह कर के जा
 तेरी आज़ादी में इक शान-ए-नज़र-बंदी भी है

ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये / अदम गोंडवी

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

अदम गोंडवी

शोकगीत : एक लडकी की आत्मह्त्या पर / ऋषभ देव शर्मा


दहक रही यह चिता तुम्हारी, धधक रहे अंगारे .
तरुणि! तुम्हारे अल्हड यौवन को लपटें शृंगारें .
कौन सुन रहा है मरघट में, विकल ह्रदय का रोदन ?
केवल तीक्ष्ण हवाएं करतीं , 'सांय-सांय' अनुमोदन.
अरी कुमारी, सखी, वेदने, ओ दर्दों की बेटी !
असमय परिचित हुई मृत्यु से, और चिता में लेटी .

चिता ही है जीवन का सार.
देवि! नश्वर सारा संसार..[ १ ]


प्रसव क्षणों की महावेदना से जब मुक्ति जुटा कर.
जिस दिन पहले-पहल सखी! तुम रोईं जग में आकर .
सोच रहा था नन्हा मन, यह जीवन का वरदान मिला.
इसीलिए तो रोकर के भी, नादानी में फूल खिला.
किंतु तुम्हें क्या ज्ञात, उसी क्षण क्या जननी पर बीता.
रोया उन्मन निर्धन बापू, देख देख घर रीता.

ज्ञात था उन्हें विश्व का सार .
बिना धन जीवन है निस्सार. [२]


खेलीं छोटे से आँगन में ,जब तुम किलक किलक कर .
भरा अंक में जब जननी ने तुमको पुलक पुलक कर.
मुस्कानों से नन्हीं बाला ! तुमने फूल खिलाए .
औ' ललाट पर निज बापू के स्नेहिल चुम्बन पाए .
रहीं खेलती और किलकती , पुलक रहीं मन ही मन.
तुम क्या जानी गृह स्वामी का कैसे सुलगा जीवन ?

निरीहों पर फणि की फुंकार.
निर्धनों पर विधि की हुंकार..[३]


यदा कदा चलता ही रहता अन्न अभाव उपवास.
कई दिनों तक जीते रहते पीकर बस वातास.
किंतु तुम्हें तो सखी! सदा ही दूध खरीद पिलाया.
शुष्क छातियों से पिलवाती क्या निर्धन की जाया ?
रहीं अपरिचित कैसे घर में हर प्राणी जीता है.
केवल दर्द भरा है सबमें शेष सभी रीता है.

मिला उनको शून्य उपहार.
हँसा उनपर अपना संसार .. [४]


गली मुहल्ले में जाकर भी , सखी , बहुत तुम खेली.
निर्धनता किसको कहते हैं ? समझ न सकीं , सहेली!
बचपन में जितनी लीलाएं की होंगी सीता ने.
जितना स्नेह दिया गोपों को प्रिय बाला राधा ने.
रंकसुते ! तुमने भी उतनी लीला करनी चाहीं.
मन का सारा स्नेह उडेला ,सखियों की गलबाहीं .

साम्य का बचपन में विस्तार .
मुग्ध जिस पर कवि का संसार .. [५]


याद नहीं या वह दिन तुमको? मरघट की सुकुमारी !
जिस दिन नभ में रंग उड़ा था, गलियों में पिचकारी..
देख रही थीं तुम क्रीडा को, निज प्यासा मन मारे .
स्नेहमयी माता शैया पर पड़ी रोग तन धारे.
बदन तप्त था ,बस गृहस्वामी खड़ा हुआ सिरहाने .
मन ही मन था देव मनाता , बुरा किया विधना ने !

फागुन पर बिजली का प्रहार.
सूना फाग , निर्धन घर-बार ..[६]


फ़िर दीवाली भी तो आई , जगमग जगमग करती .
धनिकों के ऊंचे महलों में दीप शिखाएं धरती
अंधकार में रही उपेक्षित किंतु तुम्हारी कुटिया .
जला न चूल्हा तक पर वैभव जला रहा फुल झडियाँ .. ..
पहली बार बताया माँ ने बेटी , हम गरीब हैं.
रो मत मांग न खील खिलौने , बेटी , हम गरीब हैं.

गरीबी का पहला उपहार
भावना का निर्मम संहार .. [७]


अब तक तो सब ही मानव थे सखी तुम्हारे लेखे
किंतु वर्ग दो उस दिन तुमने अपनी आंखों देखे.
टुकडे कर डाले मानस के नर ने धन के पीछे
मानव स्वयं समाज मध्य ही सीमा रेखा खींचे
प्रश्न उठा था उस दिन मन में ,किसने करी व्यवस्था ?
समझ न सकी पहेली लेकिन , रही अबोध अवस्था

बने सपने झंझा अवतार
रुदन ही निर्धन का आधार [८]


धीरे धीरे सखी खो रहीं थीं तुम अपना बचपन
.इठलाना इतराना यों ही सीख रहा था जीवन.
तभी तुम्हारी एक सहेली , विदा हुई ससुराल
लाखों की संपत्ति गई थी यह धनिकों की चाल .
बिखर रहे थे जब डोली पर खन खन खोटे सिक्के .
लूट रही थीं तुम भी उनको, खाकर धक्के मुक्के

वधू ने किए सभी श्रृंगार
देख मचला मन का संसार . [९]


एक कल्पना मन में बैठी ,है मुझको भी सजना
हाथों में रचनी है मेहदी , चरण महावर रचना
स्वर्ण भूषणों से लद करके मुझको भी जाना है.
और स्वर्ण से कीर्तिमान निज साजन को पाना है.
पति-इच्छा ने तुमको क्रमश: यौवन दिया कुमारी
होठों पर मीठी मुस्कानें ,आँखें ज़हर कटारी
.
रूपरेखा मनसिज की मार
बिंधा फूलों से ही संसार .. [१०]


कठिन हैं कठिन,किशोरी , सत्य , पुष्प-धन्वा के तीर .
कठिन है कठिन कुंवारी आयु , कठिन रीता पण पीर ..
बांधता काम देव का पाश , स्वयं चंचल मन उन्को.
प्रकृति को सदा पुरूष के साथ ,यौवन से यौवन को ..
रहीं चूमती तुम अपना ही बिम्ब देख दर्पण में .
शर की नोक लिए हाथों में ,मदन लगा सर्जन में.

सीखने लगीं प्रेम व्यवहार
चुभाता सूनापन अब खार ..[११]


स्वप्न के कुशल चितेरे ने निशा के काले पट पर.
अनोखे चित्र खींच डाले नयन में दो क्षण रुक कर..
मिला पलकों की रेखा को अनोखा बांक पाना ,री !
देह - आकर्षण दुगुना हुआ, हुई कटि क्षीण तुम्हारी ..
मन ने देखे सपने घोडे वाले राज कुँवर के
अंग अंग में मन-रंजन के , चुम्बन -आलिंगन के...

तुम्हारा यौवन का संभार !
पिता पर चिंता ,दुर्वह भार !![१२]
 

बाप हो चला बूढा, तुम थीं युवा हो रही आतुर
मिला चाँद का रूप तुम्हें औ' मधुर कोकिला के सुर ..
जाने किस दिन हाथ सुता के हो पायेंगे पीले?
इस चिंता में स्वयं पिता के अंग हो चले ढीले
एक प्रश्न था बस दहेज़ का उस निर्धन के आगे
पुत्री उसे मिली अनमाँगे , कौन पाप थे जागे !
 
सबसे कम माँगे दस हज़ार.*
दिशाएं करतीं हाहाकार [१३]
[*यह घटना १९७४ में कोडरमा,बिहार में घटित हुई थी.]


निर्धन की एक मात्र पूंजी , हा ! बस तुम थीं, रूपसि !
जिसकेलिए जिया था अबतक वह तुम ही थीं , रूपसि !
कब तक घर में तुम्हें कुँवारी बैठाए रख पाता
आंखों आगे कामदेव के तीरों से मरवाता
पर पैसे के बिना विश्व में क्या कुछ हो पाता है?
सब रिश्ते झूठे हैं जग में ,धन सच्चा नाता है!

गरीबों पर बेटी का भार !
विश्व में कौन करे उद्धार?[१४]


विवश पिता ने जाना केवल, अपना एक सहारा .
भीख माँगने हर चौखट पर उसने हाथ पसारा..
यह कंगाली की सीमा थी , सौदा नव यौवन का.
मौन देखता रहा विश्व यह नुच-लुटना तन-मन का..
किंतु तुम्हारा मान किशोरी! आहत होकर जागा.
खा न सका वह जगती को तो तुमको डसने भागा..

हुई थी सचमुच गहरी मार .
प्रकम्पित था मन का संसार..[१५]


मान? मान के पीछे जग में हुआ नहीं है क्या-क्या?
अति विचित्र इतिहास मान का ,सुना नहीं है क्या-क्या?
अधरों तक आकर भी प्याला,लौट चले जब यों ही.
स्वप्निल पलकें अविचुम्बित ही उठ जाएँ जब यों ही..
उठी रहें अम्बर में बाहें, बिकें विकल आलिंगन.
आशाएं हिम से आहत हों, उपालंभ दे कण-कण.

क्षुब्ध करती मन का संसार.
टूटते तारों की झंकार.. [१६]


रोती रहीं रात भर तुम यों, अब क्या होने वाला?
भर-भर करके रहीं रीतती, तुम आंखों का प्याला..
आह! प्रेयसी! सूज गए वे आकर्षणमय लोचन.
तरुणाई अभिशाप बन गई , ज़हर बन गया यौवन..
सब सोए थे बेसुध होकर, तुम उठ चलीं अकेली.
सूने पनघट पर पहुँचीं तुम, बहुत वेदना झेली..

हुआ जलमग्न श्वास संसार
गईं तुम जगती के उस पार..[१७]


रोकर बापू तुम्हें ले चला पनघट से मरघट को .
पर घट से क्या तुम्हें प्रयोजन ,पार किया अवघट को..
घट बनकर तुम स्वयं पी चुकीं सारा ही पनघट तो.
केवल रस्म मात्र को फूटा मरघट में वह घट तो..
जली स्वर्ण सी देह चिता में अलकों का वह मधुवन.
जला और जल गया अचानक मौन अकेला यौवन..

चिता ही है जीवन का सार!
देवि! नश्वर सारा संसार !![१८]

ऋषभ देव शर्मा

यूँ ही तो नहीं / अरुणा राय

भावप्रवण आँखों वाले मेरे आत्ममुग्ध प्रिय !
तुम क्यों इस तरह बार-बार मुझसे विमुख हो जाते हो ?
 
वह कौन सी मृगतृष्णा है जो भगाए लिए जा रही है,
देखो मेरी आँखों में डूबकर,
तुम्हारी आत्मा को रससिक्त करने वाला जल यहाँ है,

तुम ऐसे जो आत्ममुग्ध फिरते रहते हो
क्या तुम्हारे आत्म में मैं शामिल नहीं ?

इतने प्रभंजनों में भी जो हमारे विश्वास की चमक बढ़ती रही है
वह यूँ ही तो नहीं थी ।
प्रिय ! यूँ ही तो नहीं....

अरुणा राय

अकाल-घन / अज्ञेय

घन अकाल में आये, आ कर रो गये।
अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर,
उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये।
घन अकाल में आये, आ कर रो गये।

जीवन की उलझन का जिस को मैं ने माना था अन्तिम हल
वह भी विधि ने छीना मुझ से मुझे मृत्यु भी हुई हलाहल!
विस्मृति के अँधियारे में भी स्मृति के दीप सँजो गये-
घन अकाल में आये, आ कर रो गये।

जीवन-पट के पार कहीं पर काँपीं क्या तेरी भी पलकें?
तेरे गत का भाल चूमने आयीं बढ़ पीड़ा की अलकें!
मैं ही डूबा, या हम दोनों घन-सम घुल-घुल खो गये?
घन अकाल में आये, आ कर रो गये।

यहाँ निदाघ जला करता है-भौतिक दूरी अभी बनी है;
किन्तु ग्रीष्म में उमस सरीखी हाय निकटता भी कितनी है!
उठे बवंडर, हहराये, फिर थकी साँस-से सो गये!
घन अकाल में आये, आ कर रो गये।

कसक रही है स्मृति कि अलग तू पर प्राणों की सूनी तारें,
आग्रह से कम्पित हो कर भी बेबस कैसे तुझे पुकारें?
'तू है दूर', यहीं तक आ कर वे हत-चेतन हो गये?
घन अकाल में आये, आ कर रो गये!

अज्ञेय

Monday, October 28, 2013

काएम है सुरूर-ए-मै-ए-गुलफाम हमारा / कलीम आजिज़

काएम है सुरूर-ए-मै-ए-गुलफाम हमारा
क्या गम है अगर टूट गया जाम हमारा

इतना भी किसी दोस्त का दुश्मन न हो कोई
तकलीफ है उन के लिए आराम हमारा

फूलों से मोहब्बत है तकाज़ा-ए-तबीअत
काँटों से उलझना तो नहीं काम हमारा

भूले से कोई नाम वफा का नहीं लेता
दुनिया को अभी याद है अंजाम हमारा

गैर आ के बने हैं सबब-ए-रौनक-ए-महफिल
अब आप की महफिल में है क्या काम हमारा

मौसम के बदलते ही बदल जाती हैं आँखें
यारान-ए-चमन भूल गए नाम हमारा

कलीम आजिज़

एक लड़का / इब्ने इंशा

एक छोटा-सा लड़का था मैं जिन दिनों
एक मेले में पंहुचा हुमकता हुआ
जी मचलता था एक-एक शै पर मगर
जेब खाली थी कुछ मोल ले न सका
लौट आया लिए हसरतें सैकड़ों
एक छोटा-सा लड़का था मै जिन दिनों

खै़र महरूमियों के वो दिन तो गए
आज मेला लगा है इसी शान से
आज चाहूँ तो इक-इक दुकां मोल लूँ
आज चाहूँ तो सारा जहां मोल लूँ
नारसाई का जी में धड़का कहां?
पर वो छोटा-सा अल्हड़-सा लड़का कहाँ?

इब्ने इंशा

हाथों में वरमाला / ऋषभ देव शर्मा



काँप रही है
दमयंती के
           हाथों में वरमाला,
देवों ने सम्मोहन डाला!


देवता
धुर के छली
हैं धूर्त,
आवास ऊँचे स्वर्ग में
नीच सब करतूत।


शक्ति इनकी,
संपदाएँ हाथ में हैं।
लोभ देते, भीति फैलाते;
भोग का साम्राज्य इनका,
दूसरों की पीर में आनंद पाते।


है यही अच्छा
कि दमयंती
पहचानती है वासना इनकी-
           लालसा
           लिप्सा कराला!


याद आया,
मनुज की पहचान है
पलकें झपकना!
आँख में पानी न हो
तो मनुज कैसा?


आदमी तो
भूमि का बेटा
भूमि पर वह लोटता,
धूलि में सनता
निखरता धूप में है।
देह से झरता पसीना
गंध बहती रोमकूपों से उमड़कर :
सूँ-साँ - मानुष गंध......
पसीने की खुशबू.........
मिट्टी की महक।


आदमी की पहचान है
           शरीर पर चिपकी मिट्टी,
           मिट्टी में घुलता पसीना,
           पसीने में गारे की गंध,
           भूमि पर टिके हुए पैर,
           आसमान में उठा हुआ माथा,
           आँखों में पानी
           और नसों में गर्म जीवित लहू
                 लेता उछाला!


हाँ, देवता निर्लज्ज हैं,
पलकें नहीं झँपतीं;
देवता अशरीर हैं
छूते नहीं धरती।
धूलि से ये दूर रहते,
स्वेदकण भी तो न बहते,
भ्रांति है अस्तित्व इनका,
           भ्रांति इनकी देह।


गंधमय ये हैं नहीं,
बस गंध पीते हैं,
परजीवियों की भाँति जीते हैं।


भूमि का जो पुत्र है
वह नल
         मनुज है,
है वही सत्पात्र।
         चुनने योग्य है वह।


माटी की महक ने
देवों का सम्मोहन
         आखिर काट डाला!
 

ऋषभ देव शर्मा

दो सिरे / अमिता प्रजापति

ज़िन्दगी की कमीज़ के
दोनों सिरों पर लगे

काज और बटन की तरह हैं हम

वक़्त को
जब झुरझुरी आती है
इस कमीज़ को ढूंढ़ कर
पहन लेता है

अमिता प्रजापति

लुटेरे मौज हाकिम हो गये हैं / अनीस अंसारी

लुटेरे मौज हाकिम हो गये हैं
समन्दर डर के ख़ादिम हो गये हैं

हिफ़ाज़त किस तरह हो फ़स्ल-ए-जां की
कि बाड़े ख़ुद ही मुजरिम हो गये हैं

बहा है गंदा पानी चोट्यों से
नशेबी नाले मुल्ज़िम हो गये हैं

इसी दुनिया में जन्नत की हवस मे
जनाब-ए-शेख़ मुनइम हो गये है

अजब दस्तूर है हर अस्तां पर
चढ़ावे ज़र के लाज़िम हो गये हैं

तिजारत में लगे हैं सब सिप हगर
मुहाफ़िज़ मीर क़ासिम हो गये हैं

हुज़ूर-ए-शाह जब से नज़्र दी है
बड़े अच्छे मरा सिम हो गये हैं

लहरों के मालिक जान की फ़स्ल अमीर
फ़ौज के आक़ा
मियां करते रहो बस अल्लाह अल्लाह
सनम हर दिल में क़ाइम हो गये हैं

बढ़े जाते हैं माया के पुजारी
मगर मोमिन मुलाइम हो गये हैं

‘अनीस’ अपनी मनाओ खैर अब कुछ
हुनरगर आला नाज़िम हो गये हैं

अनीस अंसारी

ज़मज़मा किस की ज़बाँ पर ब-दिल-ए-शाद / 'अमानत' लखनवी

ज़मज़मा किस की ज़बाँ पर ब-दिल-ए-शाद आया
मुँह न खोला था के पर बाँधने सय्याद आया

क़द जो बूटा सा तेरा सर्व-ए-रवाँ याद आया
ग़श पे ग़श मुझ को चमन में तह-ए-शमशाद आया

ले उड़ी दिल को सू-ए-दश्त हवा-ए-वहशत
फिर ये झोंका मुझे कर देने को बर्बाद आया

किस क़दर दिल से फ़रामोश किया आशिक़ को
न कभी आप को भूले से भी मैं याद आया

दिल हुआ सर्व-ए-गुलिस्ताँ के नज़ारे से निहाल
शजर-ए-क़ामत-ए-दिल-दार मुझे याद आया

हो गई क़ता असीरी में उमीद-ए-परवाज़
उड़ गए होश जो पर काटने सय्याद आया

हो गया हसरत-ए-परवाज़ में दिल सौ टुकड़े
हम ने देखा जो क़फ़स को तो फ़लक याद आया

'अमानत' लखनवी

दिल्ली में एक दिल्ली यह भी / केशव तिवारी

कंपनी के काम से छूटते ही
पहाडगंज के एक होटल से
दिल्ली के मित्रों
को मिलाया फोन
यह जानते ही कि दिल्ली से बोल रहा हूं
बदल गयी कुछ आवाजें
कुछ ने कहला दिया
दिल्ली से बाहर है
कुछ ने गिनाई दूरी
कुछ ने कल शाम को
बुलाया चाय पर
यह जानते हुये भी कि शाम की
ट्रेन से जाना है वापस
एक फोन डरते डरते मिला ही दिया
विष्णु चन्द्र शर्मा को भी
तुरंत पूछा कहां से रहे हो बोल
दिल्ली सुनते ही तो
वो फट पडे
बोले होटल में नही,
हमारे घर पर होना चाहिये तुम्हे
पूछते पूछते पहुच ही गया
शादत पुर
छः रोटी और सब्जी रखे
ग्यारह बजे रात एक बूढा़
बिल्कुल देवदूतों से ही चेहरे वाला
मिला मेरे इंतजार में
चार रोटी मेरे लिये
दो अपने लिये
अभी अभी पत्नी के बिछड़ने के
दुख से जो उबर
भी न पाया था
मै ताकता ही रह गया उसका मुँह
और वह भी मुझे पढ़ रहा था।
मित्रों मै दिल्ली में
एक बूढे कवि से मिल रहा था
वह राजधानी में एक और
ही दिल्ली को जी रहा था।

केशव तिवारी

आँचल में उसके सिमटा है संसार / अनुपमा पाठक

प्यार...
बूँद ओस की
स्निग्ध किरण सूरज की
चमके जिससे सारा संसार
धरा पर बोया बीज है प्यार!

प्यार...
मस्ती पवन की
गति जीवन की
जो है सबका आधार
साँसों का संगीत है प्यार!

प्यार...
बात मौन की
प्रभावी कथा रूह की
महिमा जिसकी अपार
खुली आखों का स्वप्न है प्यार!

प्यार...
मुस्कान खिलती कली की
धूल पूजा वाली गली की
जहां हमने जाना अपने होने का सार
रूहानी मासूमियत का नाम है प्यार!

प्यार...
सौम्यता चांदनी की
मधुरता वाणी की
और जीत से जहां कहीं ऊँची होती है हार
त्याग की पराकाष्ठा को कहते हैं प्यार!

प्यार...
नहीं मोहताज परिभाषाओं की
नहीं कोई आस पा जाने की
क्योंकि आँचल में उसके सिमटा है संसार
जोड़ रहा जो हमको तुमको वो सूत्र है प्यार!

अनुपमा पाठक

मेरी बातों में इक अदा तो है / कविता किरण

मुझमें जादू कोई जगा तो है
मेरी बातों में इक अदा तो है

नज़रें मिलते ही लडखडाया वो
मेरी आँखों में इक नशा तो है

आईने रास आ गये मुझको
कोई मुझ पे भी मर मिटा तो है

धूप की आंच कम हुई तो क्या
सर्दियों का बदन तपा तो है

नाम उसने मेरा शमां रक्खा
इस पिघलने में इक मज़ा तो है

देखकर मुझको कह रहा है वो
दर्दे-दिल की कोई दवा तो है

उसकी हर राह है मेरे घर तक
पास उसके मेरा पता तो है

वो 'किरण' मुझको मुझसे मांगे है
मेरे लब पे भी इक दुआ तो है

कविता "किरण"

बरगद में उलझ गया काँव / किशोर काबरा

बिखर गया पंखुरी-सा दिन,
फूल गई सेमल-सी रात

पूरब में अंकुराया चाँद,
जाग गई सपनों की माँद
आ धमका कमरे के बीच,
अंधियारा खिड़की को फांद,
ओठों पर आ बैठा मौन,
बंद हुई सूरज की बात

अभिलाषा ढूँढ़ रही ठाँव,
आँसू के फिसल गए पाँव
पलकों पर आ बैठी ऊँघ,
बरगद में उलझ गया काँव
निंदिया के घर आई आज,
तारों की झिलमिल बारात

फुनगी पर बैठ गया छंद,
कलियों के द्वार हुए बंद
पछुवा के हाथों को थाम,
डोल रहा पागल मकरंद
सिमट गई निमिया की देह,
सिहर गया पीपल का पात।

किशोर काबरा

भागु होआ गुरि संतु मिलाइिआ / अर्जुन देव

भागु होआ गुरि संतु मिलाइिआ।।
प्रभु अबिनासी घर महि पाइिआ।।
सेवा करी पलु चसा न विछुड़ा जन नानक दास तुमारे जीउ।।4।।
हउ घोली जीउ घोलि घुमाई जन नानक दास तुमारे जीउ।।1।।

अर्जुन देव

तर्क-ए-वफ़ा तुम क्यों करते हो? / ऐतबार साज़िद

तर्क-ए-वफ़ा तुम क्यों करते हो? इतनी क्या बेजारी है
हम ने कोई शिकायत की है? बेशक जान हमारी है
 
तुम ने खुद को बाँट दिया है कैसे इतनी खानों में
सच्चों से भी दुआ सलाम है, झूठों से भी यारी है
 
कैसा हिज्र क़यामत का है, लहू में शोले नाचते हैं
आंखें बंद नहीं हो पाती, नींद हवस पे तारी है
 
तुम ने हासिल कर ली होगी शायद अपनी मंजिल-ए-शौक़
हम तो हमेशा के राही हैं, अपना सफ़र तो जारी है
 
पत्थर दिल बे’हिस लोगों को यह नुक्ता कैसे समझाएं
इश्क में क्या बे’अंत नशा है, यह कैसी सरशारी है
 
तुम ने कब देखी है तन्हाई और सन्नाटे की आग
इन शोलों में इस दोज़ख में हम ने उम्र गुजारी है

ऐतबार साज़िद

एक रात का खंडित स्वप्न हैं या / कुमार अनिल

एक रात का खंडित स्वप्न हैं
              या दिन का टूटा विश्वास हैं हम ।
क्या पूछते हो क्या बतलाएँ,
              एक भूला हुआ इतिहास हैं हम ।
हमें दिल से ज़रा महसूस करो,
              एक दर्द भरा एहसास हैं हम ।
कभी एक समंदर थे लेकिन,
              अब रेगिस्तान की प्यास हैं हम ।

कुमार अनिल

कुछ फूल चमन में बाक़ी हैं / अर्श मलसियानी

गो फ़स्ले-ख़िज़ाँ है फिर भी तो कुछ फूल चमन में बाक़ी हैं,
ऐ नंगे-चमन तू इस पर भी काँटों का हार पिरोता है?

अंजामे-अमल की फ़िक्र न कर, है ज़िक्र भी इसका नंगे-अमल,
जो करना है तुझको कर ले, वोह होने दे जो होता है

तूफ़ाने-मुसीबत तेज़ सही, लेकिन यह परेशानी कैसी?
कश्ती को बीच समन्दर में क्यों अपने आप डुबोता है?

अर्श मलसियानी

शामतें-1 / अरुणा राय

अदृश्य परदे के पीछे से
दर्ज़ कराती जाती हूँ मै
अपनी शामतें
जो आती रहती हैं बारहा

अक्सर उन शामतों की शक़्लें होती हैं
अंतिरंजित मिठास से सनी

इन शक़्लों की शुरूआत
अक्सर कवित्वपूर्ण होती है
और अभिभूत हो जाती हूँ मै
कि अभी भी करूणा,स्नेह,वात्सल्य से
खाली नहीं हुई है दुनिया
खाली नहीं हुई है वह
सो हुलसकर गले मिलती हूँ मै

पर मिलते ही बोध होता है
कि गले पडना चाहती हैं वे शक़्लें
कि यही रिवाज़ है, परंपरा है
कि जिसने मेरे शौर्य और साहस को
सलाम भेजा था
वह कॉपीराइट चाहता है
अपनी सहृदयता का, न्यायप्रियता का
उस उल्लास का
जिससे मुझे हुलसाया था

और ठमक जाती हूँ मै
सोचती हुई

क्या चेहरे की चमक
मेरे निगाहों की निर्दोषिता
काफ़ी नहीं जीने के लिए
सोच ही रही होती हूँ कि
फ़ैसला आ जाता है परम-पिताओं का
और चीख़ उठती हूँ -
हे परम-पुरूषो ! बख़्शो.....,अब मुझे बख़्शो !

अरुणा राय

ऊसर जमीन भी बन सकती है फिर से उपजाऊ 9 / उमेश चौहान

कण-कण शोषित
प्रतिबन्धित और उपेक्षित
परित्यक्त, निराश, निरर्थक
हूँ पड़ी गले तक भरे आर्द्रता
होठों पर पपड़ी मोटी
उद्यत हूँ कोख सजाने को
सूखापन दूर भगाने को
अँगड़ाई लेने को आतुर
हैं रुँधी नसें सब मेरी
समझो अब मेरी पीड़ा
अब फाड़ो मेरी छाती
ठंडा जो रक्त जमा है
उसको पिघलाकर पी लो
कुछ गर्म लहू टपकाओ!
बरसों से भीतर सुप्त पड़ी
उर्वरता पुनः जगाओ!
आओ! अब बो दो अपने सपने
मेरे सपाट सीने में
सुस्थिर भविष्य का अपना
उपवन अब यहीं सजा दो!
ऊसरपन मेरा छीन पुनः
उपजाऊ मुझे बना दो!

उमेश चौहान

Sunday, October 27, 2013

विदेशिनी-5 / कुमार अनुपम

जहाँ रहती हो
क्या वहाँ भी उगते हैं प्रश्न
क्या वहाँ भी चिन्ताओं के गाँव हैं
क्या वहाँ भी मनुष्य मारे जाते हैं बेमौत
क्या वहाँ भी हत्यारे निर्धारित करते हैं कानून
क्या वहाँ भी राष्ट्राध्यक्ष घोटाले करते हैं

क्या वहाँ भी
एक भाषा दम तोड़ती हुई नाख़ून में भर जाती है अमीरों के
क्या वहाँ भी आसमान दो छतों की कॉर्निश का नाम है
और हवा उसाँस का अवक्षेप
क्या वहाँ भी एक नदी
बोतलों से मुक्ति की प्रार्थना करती है
एक खेत कंक्रीट का जंगल बन जाता है रातोरात
और किसान, पाग़ल, हिजड़े और आदिवासी
खो देते हैं किसी भी देश की नागरिकता
और व्यवस्था के लिए ख़तरा घोषित कर दिए जाते हैं

क्या वहाँ भी
एक प्रेमिका
अस्पताल में अनशन करती है इस एक प्रतीक्षा में
कि बदलेगी व्यवस्था और वह
रचा पाएगी ब्याह अस्पताल में देखे गए अपने प्रेमी से कभी न कभी
और जिए जाती है दसियों सालों से
जर्जर होती जाती अपनी जवान कामनाओं के साथ

जहाँ रहती हो
तुम्हारे वहाँ का संविधान
कहो
कैसा है विदेशिनी ?

कुमार अनुपम

बड़ा वीरान मौसम है कभी मिलने चले आओ / 'अदीम' हाशमी

बड़ा वीरान मौसम है कभी मिलने चले आओ
हर इक जानिब तेरा ग़म है कभी मिलने चले आओ

हमारा दिल किसी गहरी जुदाई के भँवर में है
हमारी आँख भी नम है कभी मिलने चले आओ

मेरे हम-राह अगरचे दूर तक लोगों की रौनक़ है
मगर जैसे कोई कम है कभी मिलने चले आओ

तुम्हें तो इल्म है मेरे दिल-ए-वहशी के ज़ख़्मों को
तुम्हारा वस्ल मरहम है कभी मिलने चले आओ

अँधेरी रात की गहरी ख़मोशी और तनहा दिल
दिए की लौ भी मद्धम है कभी मिलने चले आओ

तुम्हारे रूठ के जाने से हम को ऐसा लगता है
मुक़द्दर हम से बरहम है कभी मिलने चले आओ

हवाओं और फूलों की नई ख़ुश-बू बताती है
तेरे आने का मौसम है कभी मिलने चले आओ

'अदीम' हाशमी

मुतमइन अपने यक़ीन पर अगर इंसाँ हो जाए / 'अहसन' मारहरवी

मुतमइन अपने यक़ीन पर अगर इंसाँ हो जाए
सौ हिजाबों में जो पिंहाँ है नुमायाँ हो जाए

इस तरह क़ुर्ब तेरा और भी आसाँ हो जाए
मेरा एक एक नफ़स काश रग-ए-जाँ हो जाए

वो कभी सहन-ए-चमन में जो ख़िरामाँ हो जाए
ग़ुँचा बालीदा हो इतना के गुलिस्ताँ हो जाए

इश्क़ का कोई नतीजा तो हो अच्छा के बुरा
ज़ीस्त मुश्किल है तो मरना मेरा आसाँ हो जाए

जान ले नाज़ अगर मर्तबा-ए-इज्ज़-ओ-नियाज़
हुस्न सौ जान से ख़ुद इश्क़ का ख़्वाहाँ हो जाए

मेरी ही दम से है आबाद जुनूँ-ख़ाना-ए-इश्क़
मैं न हूँ क़ैद तो बर्बादी-ए-ज़िंदाँ हो जाए

है तेरे हुस्न का नज़्ज़ारा वो हैरत-अफ़ज़ा
देख ले चश्म-ए-तसव्वुर भी तो हैराँ हो जाए

दीद हो बात न हो आँख मिले दिल न मिले
एक दिन कोई तो पूरा मेरा अरमाँ हो जाए

मैं अगर अश्क-ए-नदामत के जवाहिर भर लूँ
तोश-ए-हश्र मेरा गोशा-ए-दामाँ हो जाए

ले के दिल तर्क-ए-जफ़ा पर नहीं राज़ी तो मुझे
है ये मंज़ूर के वो जान का ख़्वाहाँ हो जाए

अपनी महफ़िल में बिठा लो न सुनो कुछ न कहो
कम से कम एक दिन ‘अहसन’ पे ये अहसाँ हो जाए.

'अहसन' मारहरवी

तीस की उम्र में जीवन-प्रसंग / कुमार अनुपम

मेरे बाल गिर रहे हैं और ख़्वाहिशें भी
फिर भी कार के साँवले शीशों में देख
उन्हें सँवार ही लेता हूँ
आँखों तले उम्र और समय का झुटपुटा घिर आया है
लेकिन सफ़र का भरोसा
क़ायम है मेरे क़दमों और दृष्टि पर अभी
दूर से परख लेता हूँ ख़ूबसूरती
और कृतज्ञता से ज़रा-सा कलेजा
अर्पित कर देता हूँ गुपचुप
नैवेद्य की तरह उनके अतिकरीब
नींदें कम होने लगी हैं रातों के बनिस्बत
किन्तु आफ़िस जाने की कोशिशें सुबह
अकसर सफल हो ही जाती हैं
कोयल अब भी कहीं पुकारती है ...कुक्कू... तो
घरेलू नाम ...गुल्लू... के भ्रम से चौंक चौंक जाता हूँ बारम्बार
प्रथम प्रेम और बाँसुरी न साध पाने की एक हूक-सी
उठती है अब भी
जबकि जीवन की मारामारी के बावजूद
सरगम भर गुंजाइश तो बनायी ही जा सकती थी ख़ैर
धूप-पगी खानीबबूल का स्वाद मेरी जिह्वा पर
है सुरक्षित
और सड़क पर पड़े ब्लेड और केले-छिलके को
हटाने की तत्परता भी
किन्तु खटती हुई माँ है, बहन है सयानी, भाई छोटे और बेरोज़गार
सद्य:प्रसवा बीवी है और कठिन वक्तों के घर-संसार
की जल्दबाज उम्मीदें वैसे मोहलत तो कम देती हैं
ऐसी विसंगत ख़ुराफातों की जिन्हें करता हूँ अनिवार्यत:
हालाँकि आत्मीय दुखों और सुखों में से
कुछ में ही शरीक होने का विकल्प
बमुश्किल चुनना पड़ता है मन मार घर से रहकर इत्ती दूर
छटपटाता हूँ
अब भी कविता लिखने से पूर्व और बाद में भी
कई जानलेवा खूबसूरतियाँ एक साथ मुझे पसन्द करती हैं
मेरी होशियारी और पापों के बावजूद
अभी मर तो नहीं सकता सम्पूर्ण ।

कुमार अनुपम

दिन भले ही बीत जाएँ क्वार के / उमाकांत मालवीय

दिन भले ही
बीत जाएँ क्वार के
पर नहीं बीते अभी दिन ज्वार के

अभी मैं सागर
अभी तुम चंद्रमा हो
बिछ गई, मेरी लहर पर
चंदरिमा हो
अभी तो हैं सिलसिले त्यौहार के
रातरानी और हरसिंगार के

अभी तो घर बार
घर की सौ नियामत
अभी सीता की रसोई
है सलामत
अभी सारे दिन लगें इतवार के
फुर्सतों के, चुहल के तकरार के

अभी है सम्बन्ध में
ख़ासी हरारत
छेड़खानी, चुटकियाँ
मीठी शरारत
अभी पत्ते हरे वन्दनवार के
परिजनों के भेंट भर अकवार के

उमाकांत मालवीय

उषाकाल की भव्य शान्ति / अज्ञेय

निविडाऽन्धकार को मूर्त रूप दे देने वाली
एक अकिंचन, निष्प्रभ, अनाहूत, अज्ञात द्युति-किरण:
आसन्न-पतन, बिन जमी ओस की अन्तिम
ईषत्करण, स्निग्ध, कातर शीतलता

अस्पृष्ट किन्तु अनुभूत:
दूर किसी मीनार-क्रोड़ से मुल्ला का
एक रूप पर अनेक भावोद्दीपक गम्भीरऽर आऽह्वाऽन:
'अस्सला तु ख़ैरम्मिनिन्ना:'
निकट गली में
किसी निष्करुण जन से बिन कारण पदाक्रान्त पिल्ले की

करुण रिरियाहट
और गली के छप्पर-तल में
शिशु का तुमक-तुनक कर रोना, मातृ-वक्ष को आतुर।
ऊपर व्याप्त ओर-छोर मुक्त नीऽलाकाऽश:

दो अनथक अपलक-द्युति ग्रह,
रात-रात में नभ का आधा व्यास पार कर
फिर भी नियति-बद्ध, अग्रसर।
उषाकाल: अनायास उठ गया चेतना से निद्रा का आँचल

मिला न पर पार्थक्य: पड़ा मैं स्तब्ध, अचंचल,
मैं ही हूँ वह पदाक्रान्त रिरियाता कुत्ता-
मैं ही वह मीनार-शिखर का प्रार्थी मुल्ला
मैं वह छप्पर-तल का अहंलीन शिशु-भिक्षुक-

और, हाँ, निश्चय, मैं वह तारक-युग्म
अपलक-द्युति अनथक-गति, बद्ध-नियति
जो पार किये जा रहा नील मरु प्रांगण नभ का!
मैं हूँ ये सब, ये सब मुझ में जीवित-
मेरे कारण अवगत, मेरे चेतन में अस्तित्व-प्राप्त!

उषाकाल
उषाकाल की रहस्यमय भव्य शान्ति...

अज्ञेय

हिजड़े-2 / कृष्णमोहन झा

वासना की एक विराट गंगा बहती है इस धरती पर
जिसकी शीतलता से तिरस्कृत वे
अपने रेत में खड़े-खड़े
सूखे ताड़-वृक्ष की तरह अनवरत झरझराते रहते हैं

संतूर के स्वर जैसा ही
उनकी चारो ओर
अनुराग की एक अदृश्य वर्षा होती है निरंतर
जिसे पकड़ने की कोशिश में
वे और कातर और निरीह होते जाते हैं

अंतरंगता के सारे शब्द और सभी दृश्य
बार-बार उन्हें एक ही निष्कर्ष पर लाते हैं
कि जो कुछ उनकी समझ में नहीं आता
यह दुनिया शायद उसी को कहती है प्यार

लेकिन यह प्यार है क्या?

क्या वह बर्फ़ की तरह ठंडा होता है?
या होता है आग की तरह गरम?
क्या वह समंदर की तरह गहरा होता है?
या होता है आकाश की तरह अनंत?
क्या वह कोई विस्फोट है
जिसके धमाके में आदमी बेआवाज़ थरथराता है?
क्या प्यार कोई स्फोट है
जिसे कोई-कोई ही सुन पाता है?

इस तरह का हरेक प्रश्न
एक भारी पत्थर है उनकी गर्दन में बँधा हुआ
इस तरह का हरेक क्षण ऐसी भीषण दुर्घटना है
कि उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते हैं खून के छींटे

और यह जो गाते-बजाते ऊधम मचाते
हर चौक-चौराहे पर
वे उठा लेते हैं अपने कपड़े ऊपर
दरअसल वह उनकी अभद्रता नहीं
उस ईश्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका है
जिसने उन्हें बनाया है
या फिर नहीं बनाया

कृष्णमोहन झा

दोहे-1-10 / अर्जुन कवि

अर्जुन अनपढ़ आदमी, पढ्यौ न काहू ज्ञान ।
मैंने तो दुनिया पढ़ी, जन-मन लिखूँ निदान ।।1।।

ना कोऊ मानव बुरौ, ब्रासत लाख बलाय।
जो हिन्दू ईसा मियाँ, भेद अनेक दिखाय ।।2।।

बस्यौ आदमी में नहीं, ब्रासत में सैतान ।
अर्जुन सब मिल मारिये, बचै जगत इन्सान ।।3।।

कुदरत की कारीगरी, चलता सकल जहान ।
सब दुनिया वा की बनी, को का करै बखान ।।4।।

रोटी तू छोटी नहीं, तो से बड़ौ न कोय ।
राम नाम तो में बिकै, छोड़ैं सन्त न तोय ।।5।।

हिन्दू तौ हिन्दू जनै, मुस्लिम मुस्लिम जान ।
ना कोऊ मानव जनै, है गौ बाँझ जहान ।।6।।

राज मजब विद्या धनै, घिस गे चारों बाँट ।
मनख न पूरा तुल सका, एक-एक से आँट ।।7।।

राज मजब विद्या धनै, ऊँचे बेईमान ।
भोजन वस्त्र मकान दे, पद नीचौ ईमान ।।8।।

राजा सिंह समान है, चीता मजहब ज्ञान ।
धन बिल्ली-सा छल करै, विद्या बन्दर जान ।।9।।

प्राणदान शक्ती रखै, अर्जुन एक किसान ।
राज मजब विद्या धनै, हैं सब धूरि समान ।।10।।

अर्जुन कवि

ख़राबा अपना न गुलज़ार हम कहाँ जाएँ / कांतिमोहन 'सोज़'

1996 में पार्टी छोड़ते वक़्त

खराबा अपना न गुलज़ार हम कहां जाएँ I
कहाँ पे लाया हमें प्यार हम कहाँ जाएँ II

पता चला कि वो मीरास थी परायों की,
जिसे समझते थे घरबार हम कहाँ जाएँ I

हमारे जैसे करोड़ों हैं आपके हामी,
हमारी है किसे दरकार हम कहाँ जाएँ I

हमारी सारी वफ़ा का सिला जिलावतनी,
ज़रा तो सोचते सरकार हम कहाँ जाएँ I

न बालो-पर न तहम्मुल न आरज़ू कोई,
अब इस मुक़ाम पे नाचार हम कहाँ जाएँ I

तमाम उम्र इसी अंजुमन में काटी थी,
अब और खोजने दरबार हम कहाँ जाएँ I

न हमको आया कभी ख़ुद को बेचने का हुनर
न अपना कोई खरीदार हम कहाँ जाएँ II

कांतिमोहन 'सोज़'

ज़िलाधीश / आलोक धन्वा

तुम एक पिछड़े हुए वक्ता हो।

तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो
जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो !
एक ऐसे समय की भाषा
जब संसद का जन्म नहीं हुआ था !

तुम क्या सोचते हो
संसद ने विरोध की भाषा और सामग्री को
वैसा ही रहने दिया
जैसी वह राजाओं के ज़माने में थी ?

यह जो आदमी
मेज़ की दूसरी ओर सुन रहा है तुम्हें
कितने क़रीब से और ध्यान से
यह राजा नहीं है ज़िलाधीश है !

यह ज़िलाधीश है
जो राजाओं से आम तौर पर
बहुत ज्यादा शिक्षित है
राजाओं से ज्यादा तत्पर और संलग्न !

यह दूर किसी किले में - ऐश्वर्य की निर्जनता में नहीं
हमारी गलियों में पैदा हुआ एक लड़का है।
यह हमारी असफलताओं और ग़लतियों के
बीच पला है
यह जानता है हमारे साहस और लालच को
राजाओं से बहुत ज्यादा धैर्य और चिंता है इसके पास !
यह ज्यादा भ्रम पैदा कर सकता है
यह ज्यादा अच्छी तरह हमें आज़ादी से
दूर रख सकता है।
कड़ी
कड़ी निगरानी चाहिए
सरकार के इस बेहतरीन दिमाग़ पर !
कभी-कभी तो इसे सीखना भी पड़ सकता है !


(1989)

आलोक धन्वा

सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या / अकबर इलाहाबादी

सूप का शायक़[1] हूँ, यख़नी[2] होगी क्या
चाहिए कटलेट, यह कीमा क्या करूँ

लैथरिज[3] की चाहिए, रीडर मुझे
शेख़ सादी की करीमा,[4] क्या करूँ

खींचते हैं हर तरफ़, तानें हरीफ़[5]
फिर मैं अपने सुर को, धीमा क्यों करूँ

डाक्टर से दोस्ती, लड़ने से बैर
फिर मैं अपनी जान, बीमा क्या करूँ

चांद में आया नज़र, ग़ारे-मोहीब[6]
हाये अब ऐ, माहे-सीमा[7] क्या करूँ

अकबर इलाहाबादी

प्रशस्तियाँ / ऋषभ देव शर्मा


मैंने जब भी कुछ पाया
मर खप कर पाया
खट खट कर पाया
अग्नि की धार पर गुज़र कर पाया



पाने की खुशी
लेकिन कभी नहीं पाई

खुशी से पहले हर बार
सुनाई देती रहीं मेरी प्रशस्ति में
दुर्मुखों की फुसफुसाहटें
धोबियों की गालियाँ
और मन्थराओं की बोलियाँ



शिक्षा हो या व्यवसाय
प्रसिद्धि हो या पुरस्कार
हर बार उन्होंने यही कहा -
चर्म-मुद्रा चल गई!
[चर्म-चर्वण से परे वे कभी गए ही नहीं!]



मैंने हर दौड़ में उन्हें पीछे छोड़ा
हर मैदान में पछाड़ा,
उन्होंने मेरा पीछा नहीं छोड़ा



मैं कच्चे सूत पर चलकर भर लाई घड़ों पानी
वे किनारे पर ही ऊभ-चूभ हैं!! O

ऋषभ देव शर्मा

वह छुअन / कौशल्या गुप्ता

अनेकों ही छवि-चित्र
लय और गीत,
कथा-कहानी,
समायी हैं चहुँ ओर।

जतन जुटाते हैं लाखों
पकड़ने को
अपनी-अपनी विध से।
पकड़ में तो कुछ भी नहीं आता,
केवल छू भर गुज़र जाता है।

वह छुअन
रंगों में सजती है,
गीत बन बिखरती है,
रूप-कथा रचती है।

कौशल्या गुप्ता

अँबुज कँज से सोहत हैँ अरु / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

अँबुज कँज से सोहत हैँ अरु ,
अरु कँचन कुँभ बने छए हैँ ।
बारे खरे गदकोर महावर ,
पारे लसे अरु मैन छए हैँ ।
ऊँचे उजागर नागर हैँ अरु ,
पीय के चित्त के मित्त भए हैँ ।
हैँ तो नये कुच ये सजनी पर ,
जौँ लौँ नए नहीँ तौँ लौँ नए हैँ ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

अज्ञात कवि (रीतिकाल)

परछाईयाँ / ”काज़िम” जरवली

खून की मौजों से नम परछाईयाँ,
हैं नज़ारें मोहतरम परछाईयाँ ।

जिस्म कट सकता है खंजर से मगर,
हो नहीं सकती क़लम परछाईयाँ ।

बाल बिखराए हुए शाम आ गयी,
हो गयीं जिस्मों से कम परछाईयाँ ।

जिन्दगानी की हकीकत तेरा ग़म,
और सब रंजो आलम परछाईयाँ ।

ये ज़मीं देखेगी ऐसी दोपहर,
ख़ाक पर तोड़ेंगी दम परछाईयाँ ।

मोजिज़ा बन जा मेरी तशनालबी,
धूप पर करदे रक़म परछाईयाँ ।

ज़ुफिशा है ज़हन में सूरज कोई,
हैं मेरे ज़ेरे क़लम परछाईयाँ ।

सामने रौज़ा है, सूरज पुश्त पर,
हमसे आगे दस क़दम परछाईयाँ ।

हशर का सूरज सवा नैज़े पा है,
धूप है शाहे उमम परछाईयाँ ।

छुप गया काज़िम वो तशना आफताब,
ढूँढती हैं यम बा यम परछाईयाँ ।। -- काज़िम जरवली

काज़िम जरवली

पुस्तक मेले में / कौशल किशोर

ज्ञान के इस संसार में
बहुत बौना
पढ़ ले चाहे जितना भी
वह होता है थोड़ा ही

कैसा है यह समुद्र ?
पार करना तो दूर
एक अँजुरी पानी भी
नहीं पी पाया अब तक
रह गया प्यासा का प्यासा
कुछ-कुछ ऐसा ही अहसास था

कहीं गहरे अंतर्मन में
घूमती मेरी इंद्रियां थीं
शब्द संवेदनाओं के तन्तुओं को जोड़ती
इधर ज्ञान
उधर विज्ञान
बच्चों के लिए अलग
बड़े-बड़े हरफ़ों में
कुछ कार्टून पुस्तकें
कुछ सचित्र
ऐसी भी सामग्री
जो रोमांच से भर दे

मेरे साथ थी पत्नी
बेटा भी
किसी स्टॉल पर मैं अटकता
तो बेटा छिटक जाता
अपनी मनपसन्द की पुस्तकें खोजता
सी०डी० तलाशता
पत्नी खो जाती प्रेमचंद या शरतचंद में

तभी इस्मत चुगताई अपनेपन से झिंझोड़ती
दूर से देखती मन्नू और मैत्रेयी
बाट जोहती
दर्द बांटती तस्लीमा थी
कहती ज़ोर-ज़ोर से
औरतों के लिए कोई देश नहीं होता
कौन गहरा है
दर्द का सागर
या शब्दों का सागर ?

प्रश्न अनुत्तरित है आज भी ।

कौशल किशोर

गुडिय़ा (1) / उर्मिला शुक्ल


गुडिय़ा से खेलती बच्ची
पैठना चाहती है उसमें जानना चाहती है उसका
गुडिय़ापन
मगर
जाने कब और कैसे उसमें बैठ जाती है
गुडिय़ा।

उर्मिला शुक्ल

भूलना / अच्युतानंद मिश्र

एक डूबते हुए आदमी को
एक आदमी देख रहा है
एक आदमी यह दृश्‍य देख कर
रो पड़ता है
एक आदमी आँखें फेर लेता है
एक आदमी हड़बड़ी में देखना
भूल जाता है
याद रखो
वे तुम्‍हें भूलना सिखाते हैं ...

अच्युतानंद मिश्र

निवेदन / ऋषभ देव शर्मा


जीवन
बहुत-बहुत छोटा है,
लम्बी है तकरार!
और न खींचो रार!!

यूँ भी हम-तुम
मिले देर से
जन्मों के फेरे में,
मिलकर भी अनछुए रह गए
देहों के घेरे में।

जग के घेरे ही क्या कम थे
अपने भी घेरे
रच डाले,
लोक-लाज के पट क्या कम थे
डाल दिए
शंका के ताले?

कभी
काँपती पंखुडियों पर
तृण ने जो चुम्बन आँके,
सौ-सौ प्रलयों
झंझाओं में
जीवित है झंकार!
वह अनहद उपहार!!

केवल कुछ पल
मिले हमें यों
एक धार बहने के,
काल कोठरी
मरण प्रतीक्षा
साथ-साथ रहने के।

सूली ऊपर सेज सजाई
दीवानी मीराँ ने,
शीश काट धर दिया
पिया की
चौखट पर
कबिरा ने।

मिलन महोत्सव
दिव्य आरती
रोम-रोम ने गाई,
गगन-थाल में सूरज चन्दा
चौमुख दियना बार!
गूंजे मंगलचार!!

भोर हुए
हम शंख बन गए,
सांझ घिरे मुरली,
लहरों-लहरों बिखर बिखर कर
रेत-रेत हो सुध ली।

स्वाति-बूंद तुम बने
कभी, मैं
चातक-तृषा अधूरी,
सोनचम्पई गंध
बने तुम,
मैं हिरना कस्तूरी .

आज
प्राण जाने-जाने को,
अब तो मान तजो,
मानो,
नयन कोर से झरते टप-टप
तपते हरसिंगार!
मुखर मौन मनुहार!!

ऋषभ देव शर्मा

एकलव्य से संवाद-5 / अनुज लुगुन

एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
तुम्हारे हुनर के साथ ।

एकलव्य मुझे आगे की कथा मालूम नहीं
क्या तुम आए थे
केवल अपनी तीरंदाज़ी के प्रदर्शन के लिए
गुरू द्रोण और अर्जुन के बीच
या फिर तुम्हारे पदचिन्ह भी खो गए
मेरे पुरखों की तरह ही
जो जल जंगल ज़मीन के लिए
अनवरत लिखते रहे
ज़हर-बुझे तीर से रक्त-रंजित
शब्दहीन इतिहास ।

एकलव्य, काश ! तुम आए होते
महाभारत के युद्ध में अपने हुनर के साथ
तब मैं विश्वास के साथ कह सकता था
दादाजी ने तुमसे ही सीखा था तीरंदाज़ी का हुनर
दो अँगुलियों के बीच
कमान में तीर फँसाकर ।

एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर-धनुष के साथ ही आना
हाँ, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना
वह छल करता है

हमारे गुरु तो हैं
जंगल में बिचरते शेर, बाघ
हिरण, बरहा और वृक्षों के छाल
जिन पर निशाना साधते-साधते
हमारी सधी हुई कमान
किसी भी कुत्ते के मुँह में
सौ तीर भरकर
उसकी जुबान बन्द कर सकती है ।

अनुज लुगुन

कहें किस से हमारा / 'अख्तर' सईद खान

कहें किस से हमारा खो गया क्या
किसी को क्या के हम को हो गया क्या

खुली आँखों नज़र आता नहीं कुछ
हर इक से पूछता हूँ वो गया क्या

मुझे हर बात पर झुटला रही है
ये तुझ बिन ज़िंदगी को हो गया क्या

उदासी राह की कुछ कह रही है
मुसाफ़िर रास्ते में खो गया क्या

ये बस्ती इस क़दर सुनसान कब थी
दिल-ए-शोरीदा थक कर सो गया क्या

चमन-आराई थी जिस गुल का शेवा
मेरी राहों में काँटे बो गया क्या.

'अख्तर' सईद खान

Saturday, October 26, 2013

यादें और भूलना / अरुणा राय

कुछ बूंदें टपका...
हल्की हो गई...
कि
कुछ हुआ ही ना हो...
फिर कुछ सुना...
फिर याद किया किसी को...
पर नहीं आए आँसू
फिर
गुज़र गई रात भी
गहरी नींद थी
स्वप्नहीन
सुबह जगी
तरोताज़ा
क़िताबें पढ़ीं.............
नहीं
अब यादें शेष नहीं
वाह - जादू हो गया आज
मुक्त हो गई वह तो...........

फिर बैठ गई कुर्सी पर
तभी दूर आकाश में
यूकेलिप्टस हिले
कि जाने कहाँ से फिर
छाने लगी धुंध
और छाती चली गई...

अरुणा राय

तमाम फ़िक्र ज़माने की टाल देता है / इन्दिरा वर्मा

तमाम फ़िक्र ज़माने की टाल देता है
 ये कैसा कैफ़ तुम्हारा ख़याल देता है

 हमारे बंद किवाड़ों पे दस्तकें दे कर
 शब-ए-फ़िराक़ में वहम-ए-विसाल देता है

 उदास आँखों से दरिया का तज़्करा कर के
 ज़माना हम को हमारी मिसाल देता है

 ये कैसा रात में तारों का सिलसिला निकला
 जो गर्दिशों में मुक़द्दर भी ढाल देता है

 बिछड़ के तुम से यक़ीं हो चला है ये मुझ को
 के इश्क़ लुत्फ़-ए-सज़ा बे-मिसाल देता है

इन्दिरा वर्मा

ये भी किसकी समझ में आया है / कांतिमोहन 'सोज़'

ये भी किसकी समझ में आया है I
क्या कमाया है क्या गँवाया है II

क्या उदासी बदन का साया है,
दिन जो निकला तो साथ पाया है I

उम्र भर फ़ैसला न कर पाए,
कब वो अपना है कब पराया है I

ज़ीस्त ने कब किसी का साथ दिया,
किस निगोड़ी से दिल लगाया है I

सब हक़ीक़तशनास थे लेकिन,
सबने हरदम फ़रेब खाया है I

दर्द अब दिल के पास बैठेगा,
फिर वो बेदर्द याद आया है I

सोज़ तुम भी तो कुछ शरीफ़ न थे,
तुमने खुद को बहुत छुपाया है II

कांतिमोहन 'सोज़'

फूल आँगन में उगा देता है / अशोक आलोक

फूल ऑंगन में उगा देता है
आस जीने की जगा देता है

जब भी आता बहार का मौसम
आग दामन में लगा देता है

ग़ैर से उम्मीद भला क्या रखिए
जबकि अपना ही दगा देता है

ज़ख़्म देने का सिलसिला रखकर
जो भी देता है सगा देता है

साथ रखता है उम्रभर लेकिन
दिल की चौखट से भगा देता है

अशोक आलोक

फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ / अहमद नदीम क़ासमी

फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आँखों को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूँ

हक़ बात कहूंगा मगर है जुर्रत-ए-इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूँ

हर सोच पे ख़ंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैराँ हूँ कि सोचूँ तो किस अन्दाज़ में सोचूँ

आँखें तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूँ

चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़मोशाँ में खड़ा हूँ

सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाज़ के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ

मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपना सलीब आप उठा लूँ

हक़= सच; जुर्रते-इज़हार=स्वीकार करने का साहस; पैकर=चेहरे; लौहें=कब्र पर लगा पत्थर;
शहरे-ख़मोशाँ=कब्रिस्तान; दश्ते-मुसीबत=मुसीबतों का जंगल; इज़्न=इजाज़त

अहमद नदीम क़ासमी

दूर से शहरे-फ़िक्र सुहाना लगता है / अब्दुल अहद ‘साज़’

दूर से शहरे-फ़िक्र[1] सुहाना लगता है
दाख़िल होते ही हरजाना लगता है

साँस की हर आमद लौटानी पड़ती है
जीना भी महसूल[2] चुकाना लगता है

बीच नगर, दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है
शाम तलक हर सू वीराना लगता है

उम्र, ज़माना, शहर, समंदर, घर, आकाश
ज़हन[3] को इक झटका रोज़ाना लगता है

बे-मक़सद[4] चलते रहना भी सहल नहीं
क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है

क्या असलूब[5] चुनें, किस ढब इज़हार करें
टीस नई है, दर्द पुराना लगता है

होंट के ख़म[6] से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’
कहते कहते बात ज़माना लगता है



शब्दार्थ:
  1. ज्ञान का नगर
  2. टैक्स
  3. दिमाग़
  4. बिना लक्ष्य के
  5. अंदाज़
  6. मोड़
अब्दुल अहद ‘साज़’

कारगिल-2 (दुश्मन के चेहरे में) / अरुण आदित्य

वह आदमी जो उस तरफ़ बंकर में से ज़रा-सी मुंडी निकाल
बाइनोकुलर में आँखें गड़ा देख रहा है मेरी ओर
उसकी मूँछे बिलकुल मेरे पिता जी की मूँछों जैसी हैं
खूब घनी काली और झबरीली
किंतु पिता जी की मूँछें तो अब काली नहीं
सन जैसे सफ़ेद हो गए हैं उनके बाल
और पोपले हो गए हैं गाल दाँतों के टूटने से
पर जब पिता जी सामने नहीं होते
और मैं उनके बारे में सोचता हूँ
तो काली घनी मूँछों के साथ
उनका अठारह-बीस साल पुराना चेहरा ही नज़र आता है
जब मैं उनकी छाती पर बैठकर
उनकी मूँछों से खेलता था
खेलता कम था, मूँछों को नोचता और उखाड़ता ज़्यादा था
जिसे देख माँ हँसती थी
और हँसते हुए कहती थी-
बहुत चल चुका तुम्हारी मूँछों का रौब-दाब
अब इन्हें उखाड़ फेंकेगा मेरा बेटा
बरसों से नहीं सुनी माँ की वो हँसी
पिता की मिल में हुई जिस दिन तालाबंदी
उसी दिन से माँ के होठों पर भी लग गए ताले
जिनकी चाबी खोजता हुआ मैं
जैसे ही हुआ दसवीं पास
एक दिन बिना किसी को कुछ बताए भर्ती हो गया सेना में

पहली तनख़्वाह से लेकर आज तक
हर माह भेजता रहा हूँ पैसा
पर घर नहीं हो सका पहले जैसा

मेरे पालन-पोषण और पढ़ाई लिखाई के लिए
जो-जो चीज़ें बिकी या रेहन रखी गई थीं
एक-एक करके वे फिर आ गई हैं घर में
नहीं लौटी तो सिर्फ़ माँ की हँसी
और पिता जी के चेहरे का रौब
छोटे भाई के ओवरसियर बनने और
मेरे विवाह जैसे शुभ प्रसंग भी
नहीं लौटा सके ये दोनों चीज़ें
मैं जिन्हें घर से आए पत्रों में ढूंढ़ता हूँ हर बार

आज ही मिले पत्र में लिखा है पिता जी ने-
तीन साल बाद छोटा घर आया है दस दिन के लिए
तुम भी आ जाते तो मुलाक़ात हो जाती
बहू भी बहुत याद करती है
और अपनी माँ को तो तुम जानते ही हो
इस समय भी जब मैं लिख रहा हूँ यह पत्र
उसकी आँखों से हो रही है बरसात

बाइनोकुलर से आँख हटा
जेब से पत्र निकालता हूँ
इस पर लिखी है बीस दिन पहले की तारीख़
यानी पत्र में जो इस समय है
वह तो बीत चुका है बीस दिन पहले
फिर ठीक इस समय क्या कर रही होगी माँ
सोचता हूँ तो दिखने लगता है एक धुंधला-सा दृश्य
माँ बबलू को खिला रही है
और उसकी हरकतों में मेरे बचपन की छवियों को तलाशती हुई
अपनी आँखों की कोरों में उमड़ आई बूंदों को
टपकने के पहले ही सहेज रही है अपने आंचल में

पिता जी संध्या कर रहे हैं
और मेरी चिंता में बार-बार उचट रहा है उनका मन
पत्नी के बारे में सोचता हूं
तो सिर्फ़ दो डबडबाई आँखें नज़र आती हैं
बार-बार सोचता हूँ कि याद आए उसकी कोई रूमानी छवि
और हर बार नज़र आती हैं दो डबडबाई आंखें

बहुत हो गई भावुकता
बुदबुदाते हुए पत्र को रखता हूं जेब में
और बाइनोकुलर में आँखें गड़ाकर
देखता हूं दुश्मन के बंकर की ओर

बंकर से झाँक रहे चेहरे की मूँछें
बिलकुल पिताजी की मूँछों जैसी लग रही हैं
क्या उसे भी मेरे चेहरे में
दिख रही होगी ऐसी ही कोई आत्मीय पहचान?

अरुण आदित्य

आपने तारीफ की / अनन्त आलोक

आपने तारीफ की हम खूबसूरत हो गये,
आइना देखते हम खुद में ही खो गये,
जाने क्या जादू किया आपके इल्फजों ने,
निखर कर हम सोंदर्य की मूरत हो गये|

अनन्त आलोक

तीस की उम्र में जीवन / कुमार अनुपम

मेरे बाल गिर रहे हैं और ख्वाहिशें भी
फिर भी कार के साँवले शीशों में देख
उन्हें सँवार लेता हूँ
आँखों तले उम्र और समय का झुटपुटा घिर आया है
लेकिन सफर का भरोसा
कायम है मेरे कदमों और दृष्टि पर अभी
दूर से परख लेता हूँ खूबसूरती
और कृतज्ञता से जरा-सा कलेजा
अर्पित कर देता हूँ गुपचुप
नैवेद्य की तरह उनके अतिकरीब
नींदें कम होने लगी हैं रातों कr बनिस्बत
किंतु ऑफिस जाने की कोशिशें सुबह
अकसर सफल हो ही जाती हैं
कोयल अब भी कहीं पुकारती है...कुक्कू... तो
घरेलू नाम...‘गुल्लू’...के भ्रम से चौंक चौंक जाता हूँ बारबार
प्रथम प्रेम और बाँसुरी न साध पाने की एक हूक-सी
उठती है अब भी
जबकि जीवन की मारामारी के बावजूद
सरगम भर गुंजाइश तो बनाई ही जा सकती थी, खैर
धूप-पगी खानीबबूल का स्वाद मेरी जिह्वा पर
है सुरक्षित
और सड़क पर पड़े लेड और केले-छिलके को
हटाने की तत्परता भी
किंतु खटती हुई माँ है, बहन है सयानी, भाई छोटे और बेरोजगार
सद्यःप्रसवा बीवी है और कठिन वक्तों के घर-संसार
की जल्दबाज उम्मीदें वैसे मोहलत तो कम देती हैं
ऐसी विसंगत खुराफातों की जिन्हें करता हूँ अनिवार्यतः
हालाँकि आत्मीय दुखों और सुखों में से
कुछ में ही शरीक होने का विकल्प
बमुश्किल चुनना पड़ता है मन मार घर से रहकर इत्ती दूर
छटपटाता हूँ
कविता लिखने से पूर्व और बाद में भी
कई जानलेवा खूबसूरतियाँ
मुझे पसंद करती हैं
मेरी होशियारी और पापों के बावजूद
अभी मर तो नहीं सकता संपूर्ण

कुमार अनुपम

सारस अकेले / अज्ञेय

घिर रही है साँझ
हो रहा है समय
घर कर ले उदासी
तौल अपने पंख, सारस दूर के
इस देश में तू है प्रवासी!

रात! तारे हों न हों
रव हीनता को सघनतर कर दे अंधेरा
तू अदीन! लिये हिय में
चित्र ज्योति प्रदेश का
करना जहाँ तुझको सवेरा!

थिर गयी जो लहर, वह सो जाय
तीर-तरु का बिम्ब भी अव्यक्त में खो जाय
मेघ मरु मारुत मरण -
अब आय जो सो आय!

कर नमन बीते दिवस को, धीर!
दे उसी को सौंप
यह अवसाद का लघु पल
निकल चल! सारस अकेले!

अज्ञेय

विदेशिनी-3 / कुमार अनुपम

हम जहाँ खड़े थे साथ-साथ
एक किनारा था
नदी हमारे बिल्कुल समीप से
गुज़र गई थी कई छींटें उछालती
अब वहाँ कई योजन रेत थी

हमें चलना चाहिए—
हमने सुना और कहा एक-दूसरे से
और प्राक्-स्मृतियों में कहीं चल पड़े

बहुत मद्धिम फ़ाहों वाली ओस
दृश्यों पर कुतूहल की तरह गिरती थी

हमने अपरिचय का खटखटाया एक दरवाज़ा
जो कई सदियों से उढ़का था धूप और हवा की गुंजाइश भर

हमने वहीं तलाशी एक तितली जिसके पंखों पर
किसी फूल के पराग अभी रौशन थे
(वहीं अधखाया हुआ सेब एक
किसी कथा में सुरक्षित था)
उसका मौन छुआ
जो किसी नदी के कंठ में
जमा हुआ था बर्फ़ की तरह
पिघल गया धारासार
जैसे सहमी हुई सिसकी
चीख़ में तब्दील होती है

और इस तरह
साक्षात्कार का निवेदन हमने प्रस्तुत किया

फिर भी
इस तरह देखना
जैसे अभी-अभी सीखा हो देखना
पहचानना बिल्कुल अभी-अभी
किसी आविष्कार की सफलता-सा
था यह
किन्तु बार-बार
साधनी पड़ीं परिकल्पनाएँ
प्रयोग बार-बार हुए

दृश्य का पटाक्षेप
और कई डॉयलाग हम अक्सर भूले ही रहे
और शब्द इतने कमज़र्फ़
कि—
शब्द बस देखते रहे हमको
ऐसी थी दरम्यान की भाषा
—और कई बार तो यही
कि हम साथ हैं और बहुत पास
भूले ही रहे

किसी ऐसे सच का झूठ था यह बहुत सम्पूर्ण सरीखा
और जीवित साक्षात्
जैसे संसार
में दो जोड़ी आँख
और उनका स्वप्न

फिर हमने साथ-साथ कुछ चखा
शायद चाँदनी की सिवैयाँ
और स्वाद पर जमकर बहस की

यह वही समय था
जब बहुत सारा देशकाल स्थगित था
शुभ था हर ओर
तब तक अशुभ जैसा
न तो जन्मा था कोई शब्द न उसकी गूँज ही

हम पत्तियों में हरियाली की तरह दुबके रहे
पोसते हुए अंग-प्रत्यंग
हमसे फूटती रहीं नई कोंपलें
और देखते ही देखते
हम एक पेड़ थे भरपूर
किन्तु फिर भी
हमने फल को अगोरा उम्मीद भर
और हवा के तमाचे सहे साथ-साथ

हम टूटे
और अपनी धुन पर तैरते हुए
गिरे जहाँ
योजन भर रेत थी वहाँ
हमारे होने के निशान
अभी हैं
और उड़ाएगी हमें जहाँ जिधर हवा
ताज़ा कई निशान बनेंगे वहाँ उधर...

सम्प्रति हम जहाँ खड़े थे साथ-साथ
किन्हीं किनारों की तरह
एक नदी
हमारे बीचोबीच से गुज़र गई थी

अब वहाँ सन्देह की रेत उड़ती थी योजन भर
जिस पर
हमारी छायाएँ ही
आलिंगन करती थीं और साथ थीं इतना
कि घरेलू लगती थीं ।

कुमार अनुपम

ख़राब लोगों से भी रस्म व राह रखते थे / अनवर जलालपुरी

ख़राब लोगों से भी रस्म व राह रखते थे
पुराने लोग ग़ज़ब की निगाह रखते थे

ये और बात कि करते थे न गुनाह मगर
गुनाहगारों से मिलने की चाह रखते थे

वह बदशाह भी साँसों की जंग हार गये
जो अपने गिर्द हमेशा सिपाह रखते थे

हमारे शेरों पे होती थी वाह वाह बहुत
हम अपने सीने में जब दर्द-ओ-आह रखते थे

बरहना सर हैं मगर एक वक़्त वो भी था
हम अपने सर पे भी ज़र्रीं कुलाह रखते थे

अनवर जलालपुरी

ख़ुश हूँ के ज़िंदगी ने / अब्दुल हमीद 'अदम'

ख़ुश हूँ के ज़िंदगी ने कोई काम कर दिया
मुझ को सुपुर्द-ए-गर्दिश-ए-अय्याम कर दिया

साक़ी सियाह-ख़ाना-ए-हस्ती में देखना
रौशन चराग़ किस ने सर-ए-शाम कर दिया

पहले मेरे ख़ुलूस को देते रहे फ़रेब
आख़िर मेरे ख़ुलूस को बद-नाम कर दिया

कितनी दुआएँ दूँ तेरी ज़ुल्फ़-ए-दराज़ को
कितना वसी सिलसिला-ए-दाम कर दिया

वो चश्म-ए-मस्त कितनी ख़बर-दार थी 'अदम'
ख़ुद होश में रही हमें बद-नाम कर दिया.

अब्दुल हमीद 'अदम'

ये दुनिया वाले पूछेंगे / आनंद बख़्शी

 
ये दुनिया वाले पूछँगे
मुलाक़ात हुई क्या बात हुई
ये बात किसीसे ना कहना
ये दुनिया वाले पूछँगे

ये बात अगर कोई पूछे
क्यों नैन तेरे झुक जाते हैं
तुम कहना इनकी आदत है
ये नैन यूँही शरमाते हैं
तुम लोगों से ये ना कहना
साँवरिया से लागे नैना
साँवरिया से लागे नैना

मैं तो ये राज़ छुपा लूंगी
तुम कैसे दिल को सम्भालोगे
दिल क्या तुम तो दीवारों पे
मेरी तस्वीर बना लोगे
देखो ये काम नहीं करना
मुझको बदनाम नहीं करना
मुझको बदनाम नहीं करना
ये दुनिया वाले पूछँगे

ये पूछँगे वो कौन है जो
चुपके सपनों में आता है
ये पूछँगे वो कौन है जो
मेरे दिल को तड़पाता है
तुम मेरा नाम नहीं लेना
सर पे इल्ज़ाम नहीं लेना
सर पे इल्ज़ाम नहीं लेना
ये दुनिया वाले पूछँगे

आनंद बख़्शी

रोकेंगे हादिसे मगर चलना न छोड़ना / गिरिराज शरण अग्रवाल

रोकेंगे हादिसे मगर चलना न छोड़ना
हाथों से तुम उम्मीद का रिश्ता न छोड़ना

झेली बहुत है अब के बरस जेठ की तपन
बादल, किसी के खेत को प्यासा न छोड़ना

ले जाएगी उड़ा के हवा धुंध का पहाड़
शिकवे भी हों तो मिलना-मिलाना न छोड़ना

तुम फूल हो, सुगंध उड़ाते रहो यूँ ही
औरों की तरह अपना रवैया न छोड़ना

तुम ही नहीं हो, राह में कुछ दूसरे भी हैं
आगे बढ़ो तो दीप जलाना न छोड़ना

गिरिराज शरण अग्रवाल

देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे / ग़ालिब

देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
कर गई वाबस्ता-ए-तन मेरी उर्यानी मुझे
 
बन गया तेग़-ए-निगाह-ए-यार का संग-ए-फ़साँ
मरहबा मैं क्या मुबारक है गिराँ-जानी मुझे

क्यूँ न हो बे-इल्तिफ़ाती उस की ख़ातिर जम्अ है
जानता है महव-ए-पुर्सिश-हा-ए-पिन्हानी मुझे

मेरे ग़म-ख़ाने की क़िस्मत जब रक़म होने लगी
लिख दिया मिन-जुमला-ए-असबाब-ए-वीरानी मुझे

बद-गुमाँ होता है वो काफ़िर न होता काश के
इस क़दर ज़ौक़-ए-नवा-ए-मुर्ग़-ए-बुस्तानी मुझे

वाए वाँ भी शोर-ए-महशर ने न दम लेने दिया
ले गया था गोर में ज़ौक़-ए-तन-आसानी मुझे

वादा आने का वफ़ा कीजे ये क्या अंदाज़ है
तुम ने क्यूँ सौंपी है मेरे घर की दरबानी मुझे

हाँ नशात-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी वाह वाह
फिर हुआ है ताज़ा सौदा-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे

दी मिरे भाई को हक़ ने अज़-सर-ए-नौ ज़िंदगी
मीरज़ा यूसुफ़ है ग़ालिब यूसुफ़-ए-सानी मुझे

ग़ालिब

ख़याल कीजिये क्या काम आज मैं ने किया / इब्ने इंशा

ख़याल कीजिये क्या काम आज मैं ने किया|
जब उन्ने दी मुझे गाली सलाम मैं ने किया|

कहा ये सब्र ने दिल से के लो ख़ुदाहाफ़ीज़,
के हक़-ए-बंदगी अपना तमाम मैं ने किया|

झिड़क के कहने लगे लब चले बहुत अब तुम,
कभी जो भूल के उनसे कलाम मैं ने किया|

हवस ये रह गई साहिब ने पर कभी न कहा,
के आज से तुझे "इंशा" ग़ुलाम मैंने किया|

इब्ने इंशा

सबद-2 / ओम पुरोहित ‘कागद’

इयां इ नीं
बिरथा गमाओ
सबदां नै
राखणा पड़सी
कीं सबद
दूसर नेड़ा
आवण रै मिस
मून तोड़ण सारू ।

ओम पुरोहित ‘कागद’

Friday, October 25, 2013

पालने से निकल के देखो तो / कुमार अनिल

पालने से निकल के देखो तो
अब ज़मीं पर भी चल के देखो तो

कुछ तो दूरी फ़लक से कम होगी
तुम ज़रा-सो उछल के देखो तो

इस जहाँ को बदलने निकले हो
पहले ख़ुद को बदल के देखो तो

ढलता सूरज बहुत दुआ देगा
तुम चिराग़ों-सा जल के देखो तो

चाँद छत पर बुला रहा है तुम्हें
संग उसके टहल के देखो तो

गा रही है हवा 'अनिल' की ग़ज़ल
घर से बाहर निकल के देखो तो

कुमार अनिल

फूल झर गए / कीर्ति चौधरी

फूल झर गए।

क्षण-भर की ही तो देरी थी
अभी-अभी तो दृष्टि फेरी थी
इतने में सौरभ के प्राण हर गए ।
फूल झर गए ।

दिन-दो दिन जीने की बात थी,
आख़िर तो खानी ही मात थी;
फिर भी मुरझाए तो व्यथा हर गए
फूल झर गए ।

तुमको औ’ मुझको भी जाना है
सृष्टि का अटल विधान माना है
लौटे कब प्राण गेह बाहर गए ।
फूल झर गए ।

फूलों-सम आओ, हँस हम भी झरें
रंगों के बीच ही जिएँ औ’ मरें
पुष्प अरे गए, किंतु खिलकर गए ।
फूल झर गए ।

कीर्ति चौधरी

एक काठ का टुकड़ा / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

 
जलप्रवाह में एक काठ का टुकड़ा बहता जाता था।
उसे देख कर बार बार यह मेरे जी में आता था।
पाहन लौं किसलिए उसे भी नहीं डुबाती जल-धारा।
एक किसलिए प्रतिद्वन्दी है और दूसरा है प्यारा।
मैं विचार में डूबा ही था इतने में यह बात सुनी।
जो सुउक्ति कुसुमावलि में से गयी रही रुचि साथ चुनी।
अति कठोर पाहन होता है महा तरल होता है जल।
उसमें से चिनगी कढ़ती है इस में खिलता है शतदल।
युगल भिन्न मति गति रुचि वालों में होता है प्यार नहीं।
स्वच्छ प्रेम की धाराएँ कब अवनि विषमता बीच बहीं।
प्रकृति नियम प्रतिकूल कहो क्या चल सकता था सलिल कभी।
पाहन को वह यदि न डुबा देता विचित्रत रही तभी।
कभी काठ भी शीतल छाया पत्र पुष्प फल के द्वारा।
लोकहित निरत रहा सलिल लौं भूल आत्म गौरव सारा।
सम स्वभाव गुण शीलवान का रिक्त हुआ कब हित-प्याला।
फिर जल कैसे उसे डुबाता आजीवन जिसको पाला।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

आवो कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायें हम / अली सरदार जाफ़री

आवो कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम
आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िन्दा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क़ के
है शम-ए-अन्जुमन का नया हुस्न-ए-जाँ गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर
वो फ़ित्नासर गये जिन्हें काँटें अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलायेँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम
सोचा न था कि आयेगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना याद आये
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
सँभले हुए तो हैं पर ज़रा डगमगा तो लें

अली सरदार जाफ़री

मृत्यु / अनामिका

उसकी उमर ही क्या है !
मेरे ही सामने की
उसकी पैदाइश है !
पीछे लगी रहती है मेरे
कि टूअर-टापर वह
मुहल्ले के रिश्ते से मेरी बहन है !

चौके में रहती हूँ तो
सामने मार कर आलथी-पालथी
आटे की लोई से चिड़िया बनाती है !
आग की लपट जैसी उसकी जटाएँ
मुझ से सुलझती नहीं लेकिन
पेशानी पर उसकी
इधर-उधर बिखरी
दीखती हैं कितनी सुंदर !

एक बूंद चम-चम पसीने की
गुलियाती है धीरे-धीरे पर
टपके- इसके पहले
झट पोंछ लेती है उसको वह
आस्तीन से अपने ढोल-ढकर कुरते के !
कम से कम पच्चीस बार

इसी तरह
हमको बचाने की कोशिश करती है।
हमारे टपकने के पहले !
कभी कभी वह
लगा देती है झाड़ू घरों में!
जिनके कोई नहीं होता-
उन कातर वृद्धाओं की
कर देती है जम कर खूब तेल-मालिश।
दिन-दिन भर उनसे बतियाती है जो सो !

जब किसी को ओठ गोल किए
कुछ बोलते देखें गडमड-
समझ लें- वह खड़ी है वहीं
या ऊंघ रही है वहीं खटिया के नीचे-
छोटा-सा पिल्ला गोद में लिये !
बडे़ रोब से घूमती है वह
इस पूरे कायनात में।
लोग अनदेखा कर देते हैं उसको
पर उससे क्या?
वह तो है लोगों की परछाईं !
और इस बात से किसको होगा भला इनकार
आप लांघ सकते हैं सातों समुंदर
बस अपनी परछाईं नहीं लांघ सकते ।

अनामिका

आज फिर / अलीना इतरत

मैं आज फिर
बंद पल्कों के उस पार
चाँदनी को सुलगता देख रही हूँ
मेरा जिस्म बर्फ़ की मानिंद सर्द है
मगर साँस आग बरसा रही है
और शायद
बर्फ़ हुए जिस्म में
ज्वाला-मुखी सुलगता रहेगा
हमेशा

अलीना इतरत

ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा / ग़ालिब

ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
सुन लेते हैं गो ज़िक्र हमारा नहीं करते
 
ग़ालिब तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
वो सुन के बुला लें ये इजारा नहीं करते

ग़ालिब