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Tuesday, October 29, 2013

बिकाऊ / अज्ञेय

खोयी आँखें लौटीं:
धरी मिट्टी का लोंदा
रचने लगा कुम्हार खिलौने।
मूर्ति पहली यह

कितनी सुन्दर! और दूसरी-
अरे रूपदर्शी! यह क्या है-
यह विरूप विद्रूप डरौना?
“मूर्तियाँ ही हैं दोनों,

दोनों रूप: जगह दोनों की बनी हुई है।
मेले में दोनों जावेंगी।
यह भी बिकाऊ है,
वह भी बिकाऊ है।

“टिकाऊ-हाँ, टिकाऊ
यह नहीं है
वह भी नहीं है,
मगर टिकाऊ तो

मैं भी नहीं हूँ-
तुम भी नहीं हो।”
रुका वह एक क्षण
आँखें फिर खोयीं, फिर लौटीं,

फिर बोला वह:
“होती बड़े दुःख की कहानी यह
अन्त में अगर मैं
यह भी न कह सकता, कि

टिकाऊ तो जिस पैसे पर यह-वह दोनों बिकाऊ हैं
(और हम-तुम भी क्या नहीं हैं?)
वह भी नहीं है:
बल्कि वही तो
असली बिकाऊ है।”

अज्ञेय

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