ये भी किसकी समझ में आया है I
क्या कमाया है क्या गँवाया है II
क्या उदासी बदन का साया है,
दिन जो निकला तो साथ पाया है I
उम्र भर फ़ैसला न कर पाए,
कब वो अपना है कब पराया है I
ज़ीस्त ने कब किसी का साथ दिया,
किस निगोड़ी से दिल लगाया है I
सब हक़ीक़तशनास थे लेकिन,
सबने हरदम फ़रेब खाया है I
दर्द अब दिल के पास बैठेगा,
फिर वो बेदर्द याद आया है I
सोज़ तुम भी तो कुछ शरीफ़ न थे,
तुमने खुद को बहुत छुपाया है II
Saturday, October 26, 2013
ये भी किसकी समझ में आया है / कांतिमोहन 'सोज़'
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