दिन भले ही
बीत जाएँ क्वार के
पर नहीं बीते अभी दिन ज्वार के
अभी मैं सागर
अभी तुम चंद्रमा हो
बिछ गई, मेरी लहर पर
चंदरिमा हो
अभी तो हैं सिलसिले त्यौहार के
रातरानी और हरसिंगार के
अभी तो घर बार
घर की सौ नियामत
अभी सीता की रसोई
है सलामत
अभी सारे दिन लगें इतवार के
फुर्सतों के, चुहल के तकरार के
अभी है सम्बन्ध में
ख़ासी हरारत
छेड़खानी, चुटकियाँ
मीठी शरारत
अभी पत्ते हरे वन्दनवार के
परिजनों के भेंट भर अकवार के
Sunday, October 27, 2013
दिन भले ही बीत जाएँ क्वार के / उमाकांत मालवीय
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