ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की पाबंदी भी है
ग़ालिबन कुछ शैख़ को ज़ोम-ए-ख़िरद-मंदी भी है
बिजलिओं से साज़िशें भी कर रहा है बाग़-बाँ
हम चमन वालों को हुक्म-ए-आशियाँ-बंदी भी है
हज़रत-ए-दिल को ख़ुदा रक्खे वही हैं शोरिशें
दर्द-ए-महरूमी भी सोज़-ए-आरज़ू-मंदी भी है
मय-कदे की इस्तिलाहों में बहुत कुछ कह गए
वरना इस महफ़िल में दस्तूर-ए-ज़बाँ-बंदी भी है
उस के जलवों की फ़ुसूँ-साज़ी मुसल्लम है मगर
कुछ निगाह-ए-शौक़ की इस में हुनर-मंदी भी है
उस ने 'ताबाँ' कर दिया आज़ाद ये कह कर के जा
तेरी आज़ादी में इक शान-ए-नज़र-बंदी भी है
Tuesday, October 29, 2013
ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'
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