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Thursday, October 31, 2013

कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था / अतीक़ुल्लाह

कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था
यहाँ चराग़ वहाँ पर सितारा धरना था

वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई
अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था

अगर रसा में न था वो भरा भरा सा बदन
रंग-ए-ख़याल से उस को तुलू करना था

निगाह और चराग़ और ये असासा-ए-जाँ
तमाम होती हुई शब के नाम करना था

गुरेज़ होता चला जा रहा था मुझ से वो
और एक पल के सिरे पर मुझे ठहरना था

अतीक़ुल्लाह

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