दूर से शहरे-फ़िक्र[1] सुहाना लगता है
दाख़िल होते ही हरजाना लगता है
साँस की हर आमद लौटानी पड़ती है
जीना भी महसूल[2] चुकाना लगता है
बीच नगर, दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है
शाम तलक हर सू वीराना लगता है
उम्र, ज़माना, शहर, समंदर, घर, आकाश
ज़हन[3] को इक झटका रोज़ाना लगता है
बे-मक़सद[4] चलते रहना भी सहल नहीं
क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है
क्या असलूब[5] चुनें, किस ढब इज़हार करें
टीस नई है, दर्द पुराना लगता है
होंट के ख़म[6] से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’
कहते कहते बात ज़माना लगता है
Saturday, October 26, 2013
दूर से शहरे-फ़िक्र सुहाना लगता है / अब्दुल अहद ‘साज़’
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