कण-कण शोषित
प्रतिबन्धित और उपेक्षित
परित्यक्त, निराश, निरर्थक
हूँ पड़ी गले तक भरे आर्द्रता
होठों पर पपड़ी मोटी
उद्यत हूँ कोख सजाने को
सूखापन दूर भगाने को
अँगड़ाई लेने को आतुर
हैं रुँधी नसें सब मेरी
समझो अब मेरी पीड़ा
अब फाड़ो मेरी छाती
ठंडा जो रक्त जमा है
उसको पिघलाकर पी लो
कुछ गर्म लहू टपकाओ!
बरसों से भीतर सुप्त पड़ी
उर्वरता पुनः जगाओ!
आओ! अब बो दो अपने सपने
मेरे सपाट सीने में
सुस्थिर भविष्य का अपना
उपवन अब यहीं सजा दो!
ऊसरपन मेरा छीन पुनः
उपजाऊ मुझे बना दो!
Monday, October 28, 2013
ऊसर जमीन भी बन सकती है फिर से उपजाऊ 9 / उमेश चौहान
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