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Sunday, October 27, 2013

एकलव्य से संवाद-5 / अनुज लुगुन

एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
तुम्हारे हुनर के साथ ।

एकलव्य मुझे आगे की कथा मालूम नहीं
क्या तुम आए थे
केवल अपनी तीरंदाज़ी के प्रदर्शन के लिए
गुरू द्रोण और अर्जुन के बीच
या फिर तुम्हारे पदचिन्ह भी खो गए
मेरे पुरखों की तरह ही
जो जल जंगल ज़मीन के लिए
अनवरत लिखते रहे
ज़हर-बुझे तीर से रक्त-रंजित
शब्दहीन इतिहास ।

एकलव्य, काश ! तुम आए होते
महाभारत के युद्ध में अपने हुनर के साथ
तब मैं विश्वास के साथ कह सकता था
दादाजी ने तुमसे ही सीखा था तीरंदाज़ी का हुनर
दो अँगुलियों के बीच
कमान में तीर फँसाकर ।

एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर-धनुष के साथ ही आना
हाँ, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना
वह छल करता है

हमारे गुरु तो हैं
जंगल में बिचरते शेर, बाघ
हिरण, बरहा और वृक्षों के छाल
जिन पर निशाना साधते-साधते
हमारी सधी हुई कमान
किसी भी कुत्ते के मुँह में
सौ तीर भरकर
उसकी जुबान बन्द कर सकती है ।

अनुज लुगुन

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