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Sunday, October 27, 2013

निवेदन / ऋषभ देव शर्मा


जीवन
बहुत-बहुत छोटा है,
लम्बी है तकरार!
और न खींचो रार!!

यूँ भी हम-तुम
मिले देर से
जन्मों के फेरे में,
मिलकर भी अनछुए रह गए
देहों के घेरे में।

जग के घेरे ही क्या कम थे
अपने भी घेरे
रच डाले,
लोक-लाज के पट क्या कम थे
डाल दिए
शंका के ताले?

कभी
काँपती पंखुडियों पर
तृण ने जो चुम्बन आँके,
सौ-सौ प्रलयों
झंझाओं में
जीवित है झंकार!
वह अनहद उपहार!!

केवल कुछ पल
मिले हमें यों
एक धार बहने के,
काल कोठरी
मरण प्रतीक्षा
साथ-साथ रहने के।

सूली ऊपर सेज सजाई
दीवानी मीराँ ने,
शीश काट धर दिया
पिया की
चौखट पर
कबिरा ने।

मिलन महोत्सव
दिव्य आरती
रोम-रोम ने गाई,
गगन-थाल में सूरज चन्दा
चौमुख दियना बार!
गूंजे मंगलचार!!

भोर हुए
हम शंख बन गए,
सांझ घिरे मुरली,
लहरों-लहरों बिखर बिखर कर
रेत-रेत हो सुध ली।

स्वाति-बूंद तुम बने
कभी, मैं
चातक-तृषा अधूरी,
सोनचम्पई गंध
बने तुम,
मैं हिरना कस्तूरी .

आज
प्राण जाने-जाने को,
अब तो मान तजो,
मानो,
नयन कोर से झरते टप-टप
तपते हरसिंगार!
मुखर मौन मनुहार!!

ऋषभ देव शर्मा

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