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Saturday, October 26, 2013

विदेशिनी-3 / कुमार अनुपम

हम जहाँ खड़े थे साथ-साथ
एक किनारा था
नदी हमारे बिल्कुल समीप से
गुज़र गई थी कई छींटें उछालती
अब वहाँ कई योजन रेत थी

हमें चलना चाहिए—
हमने सुना और कहा एक-दूसरे से
और प्राक्-स्मृतियों में कहीं चल पड़े

बहुत मद्धिम फ़ाहों वाली ओस
दृश्यों पर कुतूहल की तरह गिरती थी

हमने अपरिचय का खटखटाया एक दरवाज़ा
जो कई सदियों से उढ़का था धूप और हवा की गुंजाइश भर

हमने वहीं तलाशी एक तितली जिसके पंखों पर
किसी फूल के पराग अभी रौशन थे
(वहीं अधखाया हुआ सेब एक
किसी कथा में सुरक्षित था)
उसका मौन छुआ
जो किसी नदी के कंठ में
जमा हुआ था बर्फ़ की तरह
पिघल गया धारासार
जैसे सहमी हुई सिसकी
चीख़ में तब्दील होती है

और इस तरह
साक्षात्कार का निवेदन हमने प्रस्तुत किया

फिर भी
इस तरह देखना
जैसे अभी-अभी सीखा हो देखना
पहचानना बिल्कुल अभी-अभी
किसी आविष्कार की सफलता-सा
था यह
किन्तु बार-बार
साधनी पड़ीं परिकल्पनाएँ
प्रयोग बार-बार हुए

दृश्य का पटाक्षेप
और कई डॉयलाग हम अक्सर भूले ही रहे
और शब्द इतने कमज़र्फ़
कि—
शब्द बस देखते रहे हमको
ऐसी थी दरम्यान की भाषा
—और कई बार तो यही
कि हम साथ हैं और बहुत पास
भूले ही रहे

किसी ऐसे सच का झूठ था यह बहुत सम्पूर्ण सरीखा
और जीवित साक्षात्
जैसे संसार
में दो जोड़ी आँख
और उनका स्वप्न

फिर हमने साथ-साथ कुछ चखा
शायद चाँदनी की सिवैयाँ
और स्वाद पर जमकर बहस की

यह वही समय था
जब बहुत सारा देशकाल स्थगित था
शुभ था हर ओर
तब तक अशुभ जैसा
न तो जन्मा था कोई शब्द न उसकी गूँज ही

हम पत्तियों में हरियाली की तरह दुबके रहे
पोसते हुए अंग-प्रत्यंग
हमसे फूटती रहीं नई कोंपलें
और देखते ही देखते
हम एक पेड़ थे भरपूर
किन्तु फिर भी
हमने फल को अगोरा उम्मीद भर
और हवा के तमाचे सहे साथ-साथ

हम टूटे
और अपनी धुन पर तैरते हुए
गिरे जहाँ
योजन भर रेत थी वहाँ
हमारे होने के निशान
अभी हैं
और उड़ाएगी हमें जहाँ जिधर हवा
ताज़ा कई निशान बनेंगे वहाँ उधर...

सम्प्रति हम जहाँ खड़े थे साथ-साथ
किन्हीं किनारों की तरह
एक नदी
हमारे बीचोबीच से गुज़र गई थी

अब वहाँ सन्देह की रेत उड़ती थी योजन भर
जिस पर
हमारी छायाएँ ही
आलिंगन करती थीं और साथ थीं इतना
कि घरेलू लगती थीं ।

कुमार अनुपम

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