आवो कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम
आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िन्दा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क़ के
है शम-ए-अन्जुमन का नया हुस्न-ए-जाँ गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर
वो फ़ित्नासर गये जिन्हें काँटें अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलायेँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायेँ हम
सोचा न था कि आयेगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना याद आये
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
सँभले हुए तो हैं पर ज़रा डगमगा तो लें
Friday, October 25, 2013
आवो कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनायें हम / अली सरदार जाफ़री
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