सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का
शजर मिज़ाज समझते हैं राहगीरों का
किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का
जो धूप - छाँव से रिश्ता बनाये रहता है
ये रहबर आज भी कितने पुराने लगते हैं
की पेड़ दूर से रस्ता दिखाने लगते हैं
अजब ख़ुलूस अजब सादगी से करता है
दरख़्त नेकी बड़ी ख़ामुशी से करता है
पत्तों को छोड़ देता है अक्सर खिज़ां के वक़्त
खुदगर्ज़ी ही कुछ ऐसी यहाँ हर शजर में है
Saturday, November 30, 2013
सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का / अतुल अजनबी
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