सदियों तवील रात के ज़ानूँ से सर उठा
सूरज उफुक से झाँक रहा है नज़र उठा
इतनी बुरी नहीं है खंडर की ज़मीन भी
इस ढेर को समेट नए बाम ओ दर उठा
मुमकिन है कोई हाथ समुंदर लपेट दे
कश्ती में सौ शिगाफ हों लंगर मगर उठा
शाख़-ए-चमन में आग लगा कर गया था क्यूँ
अब ये अज़ाब-ए-दर-बदरी उम्र भर उठा
मंज़िल पे आ के देख रहा हूँ मैं आइना
कितना गुबार था जो सर-ए-हर-गुज़र उठा
सहरा में थोड़ी देर ठहरना गलत न था
ले गर्द-बाद बैठ गया अब तो सर उठा
दस्तक में कोई दर्द की खुश-बू जरूर थी
दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा
‘कैसर’ मता-ए-दिल का खरीदार कौन है
बाज़ार उजड़ गया है दुकान-ए-हुनर उठा
Tuesday, November 26, 2013
सदियों तवील रात के ज़ानूँ से सर उठा / 'क़ैसर'-उल जाफ़री
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