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Wednesday, November 27, 2013

तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ / अशअर नजमी

तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
लेकिन ये इस्तिआरा भी मंजूम कब हुआ

वाक़िफ़ कहाँ थे रात की सरगोशियों से हम
बिस्तर की सिलवटों से भी मालूम कब हुआ

शाख़-बदन से सारे परिंदे तो उड़ गए
सज्दा तेरे ख़याल का मक़्सूम कब हुआ

सुनसान जंगलों में है मौजूदगी की लौ
लेकिन वो एक रास्ता मादूम कब हुआ

निस्बत मुझे कहाँ रही असर-ए-ज़वाल से
मेरा वजूद सल्तनत-ए-रूम से कब हुआ

अशअर नजमी

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