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Thursday, November 28, 2013

हाए लोगों की करम-फरमाइयाँ / 'कैफ़' भोपाली

हाए लोगों की करम-फरमाइयाँ
तोहमतें बदनामियाँ रूसवाइयाँ

ज़िंदगी शायद इसी का नाम है
दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ

क्या ज़माने में यूँ ही कटती है रात
करवटें बेताबियाँ अँगड़ाइयाँ

क्या यही होती है शाम-ए-इंतिज़ार
आहटें घबराहटें परछाइयाँ

एक रिंद-ए-मस्त की ठोकर में है
शाहियाँ सुल्तानियाँ दराइयाँ

एक पैकर में सिमट कर रह गई
खूबियाँ जे़बाइयाँ रानाइयाँ

रह गई एक तिफ्ल-ए-मकतब के हुजूर
हिकमतें आगाहियाँ दानाइयाँ


ज़ख्म दिल के फिर हरे करने लगी
बदलियाँ बरखा रूतें पुरवाइयाँ

दीदा ओ दानिस्ता उन के सामने
लग्ज़िशें नाकामियाँ पसपाइयाँ

मेरे दिल की धड़कनों में ढल गई
चूड़ियाँ, मौसीकियाँ, शहनाइयाँ

उनसे मिलकर और भी कुछ बढ़ गई
उलझनें फिक्रें कयास-आराइयाँ

‘कैफ’ पैदा कर समंदर की तरह
वुसअतें खामोशियाँ गहराइयाँ

'कैफ़' भोपाली

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