देख करके बौर वाली
आम की टहनी
तन गये घुटने कि जैसे
खुल गई कुहनी ।
धूप बतियाती हवा से
रंग बतियाते
फूल-पत्तों के ठहाके
दूर तक जाते
छू गई चुटकी
हँसी की हो गई बोहनी ।
पीठ पर बस्ता लिए
विद्या कसम खाते
जा रहे स्कूल बच्चे
शब्द खनकाते
इस तरह
सब रम गए हैं सुध नहीं अपनी ।
राग में डूबीं दिशाएँ
रंग में डूबीं
हाथ आई ज़िन्दगी के
संग में डूबीं
कल
उतरने जा रही है खेत में कटनी ।
Friday, November 29, 2013
आम की टहनी / कैलाश गौतम
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