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Tuesday, November 26, 2013

हाण्डी / उद्‌भ्रान्त

 चूल्हे पर चढ़ी है हाण्डी
हाण्डी में पक रहा है एक चावल
खदबद
खदबद
खेत हैं उजड़े
उनमें दरारें जहाँ बड़ी-बड़ी
कुदरत का काला रंग
करता सूखी मिट्टी का शॄंगार
कुछ ऐसे कि बनता है
एक विराट मानचित्र काली हाण्डी का
जिसमें से निकल-निकल भागती है भूख
अपने हाण्डीनुमा घरों को छोड़कर
और बिकने के लिए एक मुट्ठी चावल पर
उसे जनमने वाली माता योनि द्वारा
हाण्डी का चावल
पक रहा है
खदबद खदबद
और उस एक चावल की सुगन्ध
उस काले आदिवासी को
कर रही नियन्त्रित
खाने को पेड़ की छाल
और आम की सड़ी गुठली
और अपने ही जाए बच्चे को करने
खुले आम नीलाम !
उड़ीसा के चूल्हे पर
रक्खी काली हाँडी से
उड़ी साहबजादी
अपने रंगीन पंखों के साथ
काल को बदलते हुए
चौबीसों घण्टे और
बारहों महीने के
अन्यायी काल
याकि अकाल में;
और आसमान में उड़ते
हेलिकॉप्टर और हवाई जहाज़
लेते हैं शक़्ल
चीलों और गिद्धों की जबकि --
मज़े से पक रहा है
एक किनकी चावल का
इस विराट हाण्डी में
भूख के सुलगते चूल्हे पर
खदबद
खदबद

उद्‌भ्रान्त

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