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Thursday, November 28, 2013

क़ुसूर इश्क़ में ज़ाहिर है सब हमारा था / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

क़ुसूर इश्क़ में ज़ाहिर है सब हमारा था
 तेरी निगाह ने दिल को मगर पुकारा था

 वो दिन भी क्या थे के हर बात में इशारा था
 दिलों का राज़ निगाहों से आश्कारा था

 हवा-ए-शौक़ ने रंग-ए-हया निखारा था
 चमन चमन लब ओ रुख़्सार का नज़ारा था

 फ़रेब खा के तेरी शोख़ियों से क्या पूछें
 हयात ओ मर्ग में किस की तरफ़ इशारा था

 सुजूद-ए-हुस्न की तमकीं पे बार था वरना
 जबीन-ए-शौक़ को ये नंग भी गवारा था

 चमन में आग न लगती तो और क्या होता
 के फूल फूल के दामन में इक शरारा था

 तबाहियों का तो दिल की गिला नहीं लेकिन
 किसी ग़रीब का ये आख़िरी सहारा था

 बहुत लतीफ़ थे नज़्ज़ारे हुस्न-ए-बरहम के
 मगर निगाह उठाने का किस को यारा था

 ये कहिए ज़ौक़-ए-जुनूँ काम आ गया 'ताबाँ'
 नहीं तो रस्म-ओ-रह-ए-आगही ने मारा था

ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

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