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Thursday, November 28, 2013

फूल की स्मरण-प्रतिमा / अज्ञेय

यह देने का अहंकार
छोड़ो ।
कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो :
'मधुर ये देखो
फूल । इसे तोड़ो;
घुमा-फिरा कर देखो,
फिर हाथ से गिर जाने दो :
हवा पर तिर जाने दो-
(हुआ करे सुनहली) धूल ।'

फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है ।
तुम नहीं, न तुम्हारा दान ।

अज्ञेय

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