एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही ख़यालों में
मान कर अपने !
सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आँख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतज़ार
सपनों वाली रात का
इसलिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया ज़ोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !
अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आँख
और
सपनों की उधेड़बुन से !
Wednesday, November 27, 2013
सपनों की उधेड़बुन / ओम पुरोहित ‘कागद’
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