इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
ख़ुद-ब-ख़ुद[1], दिल में है इक शख़्स समाया जाता
शब को ज़ाहिद से न मुठभेड़ हुई ख़ूब हुआ
नश्अ ज़ोरों पे था शायद न छुपाया जाता
लोग क्यों शेख़ को कहते हैं कि अय्यार है वो
उसकी सूरत से तो ऐसा नहीं पाया जाता
अब तो तफ़क़ीर[2], से वाइज़[3], ! नहीं हटता ‘हाली’
कहते पहले तो दे-ले के हटाया जाता
Friday, November 29, 2013
इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद/ अल्ताफ़ हुसैन हाली
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