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Thursday, November 28, 2013

रोटी / अपर्णा भटनागर

धूप तो कनक-कनक कर बरसती रही
तब भी जब तुम छाल की गर्माहट
और गुफाओं की सीलन सूंघ बसर करते थे ..
यही तो था -
तुम्हारे आदिम होने का पहला अहसास!...
तब अनजाने ये धूप बो आये थे तुम
और .. और... और
अचानक न जाने कितनी महक
खलिहान बन
तुम्हारी जन्म लेती सभ्यता से
फूट पड़ी
कलकल कर ...
और तब
बस तब बीहड़ में जन्म लेकर
हँसा था पहला गाँव .
तुमने अपने चकमक पर दागी थी
अपनी भूख!
तब भूखी थी सामूहिक भूख!
सो मिल-बाँट सो लिए थे
जी लिए थे ...
बस! तभी हाँ,
तभी ..
इस नींद में स्वप्नों का अंतर
एक फासला ...तय कर गयी भूख!
अजब स्पर्धा दे गयी भूख!
अब रोटी की गोलाई कहीं चाँद है
तो कहीं ठन्डे तवे की गोल जलन!
पेट के छाले बन
दुखती है रोटी ..
रिसती है रोटी ..
और फिर यूँ ही करवट बदल सो जाती है .
कल की बाट है?
या तेरे रंध्रों में पक रही कोई जिजीविषा?

अपर्णा भटनागर

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